शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

बीत गया पहला दशक..झोंक कर आँखों में मिर्च





पूरा हो गया 
इक्कीसवीं सदी का पहला दशक 
जूझते हुए ....
देशी-विदेशी आतंकों से, 
करते हुए सामना ....
तबाही और बेगुनाहों के खून का, 
सहते हुए उत्पीडन......
हर बार की तरह , 
देखते हुए ...
सैनिकों की लाशों पर बनते महलों को,
हड़पते हुए .......
शहीदों के हिस्से को,....... 
और करते हुए इंतज़ार ......
किसी सैनिक की विधवा को 
कि मिल जाय 
शहादत की कीमत 
तो करवा सके ...
बूढ़े सास-ससुर का इलाज़.
करा सके 
स्कूल में बच्चे का दाखिला, 
खरीद सके 
मुनिया के लिए किताब, 
और ले सके 
अपने लिए दमे की दवा .......
अब तो सरकारी वादे के पूरे होने पर टिकी है 
आगे की ज़िंदगी .
नया साल तो 
और भी खतरनाक है उसके लिए 
कल ही 
नक्सलियों नें लाल स्याही से लिखी 
चस्पा की है एक चिट्ठी 
फरमान है 
कि भेजना होगा ......
बड़े बेटे को 
उनके कबीले में 
..........मुनिया को नहीं खोना है अगर 
...............और छोटे का बनाना है भविष्य उज्जवल .
पति नें जान दे दी देश के लिए 
अब उसी का खून जाएगा .....
देश से बगावत करने.....
उसे भेजना ही होगा ....... 
कोई सरकार ......
नहीं रोक सकती ऐसा होने से
रोक पाती 
तो क्या खून करता 
कोई खून 
अपने ही खून का 
और पसार पाता ड्रैगन 
अपने खूनी पंजे 
यहाँ 
बस्तर की खामोश वादियों में ?  
हमारे लिए 
आज़ादी का क्या अर्थ है ? 
आप ही बताइये ....
साल नया हो या पुराना 
क्या फर्क पड़ता है !     

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

उस मां ने कहा , हां मुझ जैसी ही कोई मेरी कोख में है…..

उस मां ने कहा , हां मुझ जैसी ही कोई मेरी कोख में है…..

सैनिक

पिछली शताब्दी के अंतिम वर्ष में, जबकि हम पाकिस्तान के पास अमन के पैगाम भेजने में व्यस्त थे, उसने हमारी शराफ़त का मज़ाक उड़ाते हुए हमारे सैनिकों के साथ अमानवीय व्यवहार कर अपनी नीयत साफ कर दी थी ..हमारी योजनायें  कई मोर्चों पर बुरी तरह असफल हो रही थीं  .....वहीं देश के अंदरूनी हालात भी देश को शर्मशार करने में पीछे नहीं थे. उसी समय की एक रचना प्रस्तुत है आज आपके लिए -
१-
किसकी खुशी के लिए 
अपने बुढ़ापे की लाठी को 
जवान बहू के सपनों को 
गर्भस्थ भ्रूण के पिता को 
किसकी खुशी के लिए भेज दिया उन्होंनें 
सीमा पर शहीद होने के लिए 
किसकी खुशी के लिए !
और.... क्या कीमत दे सकती हैं किसी की शहादत की 
तुम्हारी वेदनाहीन संवेदनाएं ?
हो सके
तो देश को चबाना बंद कर दो 
वीर की आत्मा को श्रद्धांजलि मिल जायेगी.
बूढा बाप 
अपना दूसरा और तीसरा बेटा भी भेज देगा 
मौत के मुह में 
ताकि तुम 
चैन से जी सको.
२-
 बीसवीं शताब्दी में बोये 
न्यूक्लियर रिएक्टर्स  में पल रहे रक्तबीज 
पल्लवित-पुष्पित होने के लिए 
बेताब हैं इक्कीसवीं सदी में .
रक्तबीजों के रथ पर बैठे सारथी 
शकुनी हो गये हैं ...और 
विकसित मनुष्य की प्रगतिशील विचारधारा से 
भयभीत हो उठी है धरती 
क्योंकि यह धारा
बड़ी तीव्रता से खतरनाक होती जा रही है.
और व्यवस्था ऐसी  
कि जीवन भर पीसते हैं अंधे 
फिर भी कम पड़ जाती है कुत्तों की खुराक .
कोई क्या देगा श्रद्धांजलि   
शहीदों की आत्माओं को ....
कोई क्या देगा सम्मान 
उनकी विधवाओं को ...
उन्हें तो फुर्सत नहीं है 
भौंकने .....और एक-दूसरे को 
काट खाने के काम से ही .
३ -
संवेदनाएं 
उत्तरदायित्व 
बार-बार किये गये संकल्प  
आँखों का पानी
मौसम ...और ...
और भी बहुत कुछ
ठिठुरता रहा ...जमता रहा 
सिवाय ...रूठने और मनाने की व्यस्तता के.
दिन व्यस्त होते चले गये रूठने -मनाने के खेल में 
पश्चिमोत्तर सीमान्त पर कब डूब गया सूरज 
और बर्फीली बौछारों में 
उन्होंनें कब बना डालीं छतें 
हमारी खामोश दीवारों पर ...
हमें पता ही नहीं चल सका.
सीता की रक्षा नहीं कर सकी 
लक्ष्मण रेखा
और.....
जासूसी उपग्रहों की अति संवेदनशील व्यवस्था.
फिर एक दिन ..
दीवारों से होते रहे बलात्कार से नहीं ....
सैनिकों के शरीर पर बह आये 
रक्त की उष्णता से समाप्त हुई हमारी ठिठुरन.
सर्दियों में 
खुशियाँ और फूल लेकर गयी थी ज़ो बस
गर्मियों में 
सैन्य अधिकारियों के क्षत-विक्षत शवों के साथ 
अमानवीय यातनाओं का पुरस्कार लेकर 
वापस आ गयी है.
शीघ्र ही हम 
एक और बस
पूरब में भी भेजेंगे
और ........इससे पहले कि हम उन्हें बुलाकर 
गजलें सुनें 
मैं 
इस ठिठुरती व्यवस्था की पुनरावृत्ति को 
विराम देने के लिए बाध्य हो गया हूँ 
आओ .....कुछ आग जलाएं ....अपने भीतर भी .....
ताकि कुछ तो गर्मी आए हमारे खून में 
सीमा पर इतनी गर्मी में भी ठण्ड बहुत रहती है.    

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

जीवन

दौड़ लगाते देखा सबको
लगे दौड़ने संग में हम भी.
चढ़ते देखा  हमने सबको 
लगे चढ़ाई करने हम भी.
तभी फिसलते देखा सबको 
लगने लगी सहज पीड़ा तब 
हमें फिसलने की ....अपने भी.

व्यस्त हो गये हैं हम सब ही 
दौड़ लगाने .....चढ़ने...... ,
गिरने और गिराने के निष्ठुर समरों में.
बिना ये सोचे, बिना ये समझे 
लक्ष्य दौड़ का क्या है हमारी 
कौन दिशा है हमारे पथ की 
क्या होगी परिणति इस गति की.
लक्ष्यहीन हो भाग रहे सब
कहाँ और किस लिए न जाने 
किसके लिए...... किस लिए जी रहे 
हम में से ये कोई न जाने 


और अंत में इस जीवन के ......
मिला शून्य जब इस मुट्ठी से 
प्रश्न एक तब उठा विराट ये 
क्यों आए थे यह जीवन ले ?
उपलब्धि रही जीवन भर की क्या ?


हुआ निरंतर प्रश्न विराट ये 
मौन हुए सारे प्रतियोगी
छिपा शून्य में उत्तर है ज़ो  
नहीं सुनायी देता सबको
जन्म और भी लेने होंगे. 
हर जन्म साधना करते -करते  
जब सत्य शून्य का मिल पाएगा  
तब ज्ञान अचम्भित यह कर देगा-
पाना है सब कुछ यदि हमको  
है उपाय सब कुछ खोना ही 
सोने को माटी मानो तो  
सारी माटी है सोना ही 
है लक्ष्य यही ...सुख चरम यही.



सोमवार, 27 दिसंबर 2010

कुपथ-गामिनी

वर्ष २००१० की तीन सबसे विवादित महिलाओं के नाम समाचार-पत्रों की सुर्खियाँ बने रहे ....दुख हुआ यह सब जानकर  ....सरकार महिलाओं को आरक्षण देने की बात करती है  .....हम भी कहते हैं कि उनका विकास होना चाहिए ..पर क्या इसी बानगी के साथ ? ...ये तीनो सामान्य महिलाएं नहीं हैं .....उच्च-शिक्षिता और प्रभावशालिनी. इनमें नीरा राडिया शासन  के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं ......वे अपराध करें तो इतना गम्भीर नहीं है जितना गम्भीर अन्य दोनों महिलाओं का है ..क्यों कि उनमें से एक माधुरी गुप्ता भारतीय विदेश सेवा की अधिकारी हैं जिन पर देश की गोपनीय जानकारी पाकिस्तान को देने का आरोप है ...और दूसरी महिला है जस्टिस निर्मल यादव ज़ो न्याय करने के लिए उत्तरदायी हैं और जिन पर पाञ्च लाख रूपये की रिश्वत लेने का आरोप है.. हमारी संस्कृति में नारी शक्ति को पूज्य माना गया है ..उसी पूज्य नारी नें कितने अविवेकपूर्ण तरीकों से कुपथ गामिनी होकर न केवल सभी नारियों का अपितु पूरे देश का सिर लज्जा से झुका दिया है . हम तो इनका    इतना सम्मान करते हैं कि इनकी निंदा भी करने में संकोच कर रहे हैं ...पर इन्होंने ज़ो किया उसके लिए उन्हें स्वयं अपनी निंदा करनी चाहिए और अपने अपराध स्वीकार कर प्रायश्चित के लिए स्वयं को प्रस्तुत करना चाहिए 

रविवार, 26 दिसंबर 2010

आस्था

वह 
इतराती, इठलाती, बल खाती 
पत्थरों से केलि करती
पहाड़ी नदी थी
ज़ो पावस में और भी शरारती हो उठती थी 
और बदल देती थी अपना मार्ग.
बहती थी ...नये-नये रास्तों से 
करती थी चुहुल...मौन खड़े वृक्षों से.
चलती थी .......निर्भीक यौवना सी.
लुटाती थी सदर्प -
पूंजी अपने सौन्दर्य की ......और बिखेरती थी हास
अपने आसपास.

पहाड़ी नदी नें
इस बार भी बदल दिया अपना मार्ग .....और ......
छूकर खिलखिला पड़ी ......अपने रास्ते में खड़े गौरवशाली बरगद को. 
अपनी आस्थाओं में रचा-बसा वर्षों पुराना बरगद ...
देखता रहा चुपचाप.
नदी   
बहती रही ....पूरी बरसात भर
....बरगद की जड़ों से मिट्टी बहाती हुई,
.....गहरी और पुष्ट जड़ों से परिहास करती हुई,
........बरगद को अपने साथ बहा ले जाने की जिद करती हुई
नदी बहती रही .......पूरी बरसात भर.
बूढा बरगद 
खड़ा रहा चुपचाप .....
उसकी जड़ें गहराई तक धसी हुईं थीं ........आस्था की धरती में.
वह केवल उन्हीं को सहलाता रहा ...बड़े प्यार से
आसमान में सिर उठाये
और सहता रहा  ......अपने चिकने-चमकीले पत्तों पर 
प्रवासियों की बीट.
सहता रहा.....झुकी हुई शाखाओं के टूटने की पीड़ा....
बिना किसी परिवाद के.
किसी नें साथ नहीं दिया उसका .
किन्तु नदी 
न तो ले जा सकी बरगद को अपने साथ
न ठहर सकी उसके पास  
बल्कि छोड़ गयी .....
सूखी और आँखों में चुभने वाली ...तपती रेत 
अपने आसपास.
अंततः ........संस्कृति जीत गयी      
और हार गईं मेरे शहर की
सारी विज्ञापन बालाएं.
बेचारी  .........
पहाड़ी नदी !    

   
  
  

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

फुनगी पर टांग दिया ......

 नीम की एक ऊंची फुनगी पर
टांग दिया है मैंने 
अपना मोबाइल फोन.
पहले दिन तो बजते ही घंटी 
फुर्र से उड़ गयीं सारी चिड़ियाँ 
पर ज़ल्दी ही वे देखने लगीं उसे बड़े गौर से 
और अब तो चोंच से प्रहार भी करने लगी हैं 
उस बेजुबान बड़बड़िया पर
जैसे कि वे भी आ गईं हों आजिज़ ...मेरी तरह. 
आख़िरकार वह भी चुप हो गया 
दम निकल गयी होगी.....
मैं खुश हूँ 
आजाद ज़ो हो गया हूँ.
पहले उस नाचीज़ सी चीज़ नें 
जीना हराम कर रखा था मेरा.
अकेले में भी नहीं था अकेला ...करता रहता था बातें 
जैसे कि भीड़ में हूँ.
बिना किसी भीड़ के फंसा रहता था भीड़ में 
सोते-जागते, उठते बैठते, खाते-पीते
कभी तो अकेला हो पाता भला मैं  ! 
यहाँ तक कि जब मैं प्राकृतिक शंकाओं के समाधान में लगा होता 
वह दुश्मन सा ललकारता रहता मुझे 
मेरे समाधान की ऐसी-तैसी हो जाती....
....फिर दिन भर का तनाव 
.....पेट साफ नहीं हुआ न !
गुस्सा अलग से ....
पर अब मैं खुश हूँ ....ख़ूब खुश हूँ ...
आराम से शौच के लिए तो जा सकूंगा .
क्या हुआ ज़ो अब मैं 
अपने अजीजों से बहुत जरूरी बातें भी नहीं कर सकूंगा 
कुछ व्यवधान तो आएंगे ...पर 
दस साल पहले की ज़िन्दगी जीने का मज़ा तो आयेगा !
पत्नी की चिट्ठी के इंतजार में डाकिये का इंतजार 
किसी फरिश्ते से कम नहीं लगता था 
फिर मिलने पर चिट्ठी .......एक-एक हर्फ़ को पढना 
उंगली से छू कर महसूसना ....जैसे कि छू रहे हों उसके रेशमी बाल
हर्फ़-हर्फ़ बोलता था चिट्ठी का ......ठीक उसी की आवाज़ में
फिर  खोये  रहना कई-कई दिनों तक उस आवाज़ में 
जैसे कि भाँग का नशा हो ....
आज के लोग क्या जानें ...
ये तो कबूतर की पाती की तरह भूल जायेंगे 
डाकिये की पाती को भी 
और  
नहीं जान सकेंगे ...पत्र लिखने और पढने का
अवर्णनीय मज़ा.
तो आप कब टांग रहे हैं अपना मोबाईल ?   
   

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

राजीव जी की भोली सी किन्तु खरी-खरी कविता पर कठोर सी किन्तु खरी-खरी टिप्पणी .....

सच कहा तुमने........
देखना तुम्हें ......सजा-धजा 
अच्छा लगता है मुझे, 
पर वह दृष्टि 
ज़ो मेरे पास है तुम्हारे लिए 
कहाँ रखी औरों के पास ?
यकीन करो 
बहुत फ़र्क  है 
घर की  
और घर से बाहर की दुनिया में.
सब कुछ नहीं है वैसा 
जैसा देता है दिखाई. 
और फिर ........
ज़ो वचन दिया था मैनें 
तुम्हें .......
भरे समाज में 
लेते समय सात फेरे ..... 
उन्हें पूरा करना है मुझे ही 
...........और सिर्फ मुझे ही 
इसलिए पति  को बनना पड़ता है 
एक पुरुष भी.
मैं नहीं चाहता
जब भी निकलो तुम घर से बाहर 
भेदती रहें तुम्हें 
लोगों की घूरती आँखों से निकलीं एक्स-रे 
और शर्म से तुम्हें छिपना पड़े मेरे पीछे  
और सच कहूं .......
कोई पति देख नहीं सकता 
अपनी पत्नी को 
बनते हुए
एक नुमाइश की चीज़ 
न जाने क्यों ....न जानें क्यों ! 


बुधवार, 22 दिसंबर 2010

दुनिया की सबसे अच्छी माँ

सदी के महानायक की अम्मा की बरसी थी आज ....उनकय हमार विनम्र श्रद्धांजलि !
महानायक आज अपने चहकू पर चहके ..........चहके कि उनकी स्वर्गीया अम्मा ......दुनिया की सबसे अच्छी अम्मा थीं.
तो भैया महानायक जी ! भावावेश में आप ई काहे भुला जाते हैं के आप ज़ो कह रहे हैं उसका का-का अर्थ निकल सकता है ? कभी गौर किये हैं कि इसका मतलब का हुआ ? सिरीमान जी आप पूरे दुनिया के बाकी लोगन की अम्मा लोगन के घोर अपमान कर दिए हैं. हर बिटवा की नज़र मं ओहकर अम्मा अच्छी है ...बाकी ई ज़ो आप कह दिए न ! कि "सबसे अच्छी ".....कुल ममलवय इहाँ गड़बडाय  गया ....त का बाकी लोगन की अम्मा खराब हैं ......या थोड़ा उनकर दर्ज़वा आपकी अम्मा से कम हय ....आयं ? अरे बड़का बड़का लोग कहे हैं के "तोल-मोल के बोल".....इ बतिया आपके ऊपर लागू नहीं होता है का ? अभी हम दुलार मं अपनी बिटिया के चिट्ठी लिखे रहे  "......प्यारी अन्वेषिका ! तुम दुनिया की अच्छी बेटियों में से एक हो " जवाब मं हमार बिटिया कही  "...बाबा ! आप कितने अच्छे हैं ....आप दुनिया की और बेटियों का भी मान रखते हैं.        

रविवार, 19 दिसंबर 2010

सर्दी की एक सुबह

सुबह-सुबह सैर को निकले
लोग-बाग़ कपड़ों में लिपटे
आते-जाते रोज देखते .............
सुबह देर तक सोये रहते, मरियल से दो प्राणी
एक कुत्ता......और एक भिखारी.
ठिठुर-ठिठुर कर रात बिताते  
एक-दूजे की देह तापते, सर्दी की रातों के साथी
दिन चढ़ते ही सड़क नापते,  इधर ताकते ... उधर ताकते  
जो न समाया कुछ पेटों में .......उस जूठन से पेट पालते 
मरियल से दो प्राणी ....एक कुत्ता और भिखारी .
ऐसे दृश्य न जाने कितने लोगों नें देखे होंगे 
देख-देख कर सभी लोग तो अनदेखी करते होंगे 
पर यह मामूली सी बात ......अचानक नामामूली बन जाती 
जब कभी रात में कोई ठिठुरकर
भगवान को होता प्यारा
बस, एक सुबह भर सुर्खी बनता 
समाचार-पत्रों में छपकर
क्षण भर सबका ध्यान बटाता 
प्रश्न, और फिर यह दोहराता.......
समाधान की बात छोड़....सब करते रहे प्रतीक्षा ?
जब तक रही वेदना, किये उपेक्षित सभी निवेदन
जब हुयी वेदनाहीन देह ......तब ही जागा संवेदन ?

किन्तु हुआ कुछ उलट-पुलट यूँ
की नहीं प्रतीक्षा मरने की यूँ 
जब एक वृद्ध नें शाल उतारी........ 
ठिठुर रहे उन दोनों को, अपनी महंगी शाल ओढ़ा दी
फिर कहा नहीं ........., पर मन में सोचा ..................
शपथ ग्रहण में व्यर्थ प्रदर्शन......!
वही अपव्यय यदि रुक जाता
तो बच जाता ........कितना सारा धन
बच जाता कितनों का जीवन।
पर कौन बताये उनको यह सब ...धृतराष्ट्र हो गया है ये शासन   
ऐ ! राष्ट्र चलाने वालो तुमको 
राष्ट्र-धर्म की समझ न आयी
किस हाल में जीते बन्धु तुम्हारे ....नेक दया या शर्म न आयी  
सब के हक पर मार कुण्डली 
बैठे......तुमको लाज न आयी. 
लोक-तंत्र का किया तमाशा
टूट रही जन-जन की आशा. 
अब तो जागो हुआ सबेरा 
बंद करो या झूठा खेला. 
कितना कुछ तुम खा पाओगे ?
साथ में कितना ले जाओगे ?
कुछ इनकी भी समझो लाचारी  
एक कुत्ता ...और एक  भिखारी ......


शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

पड़ोसियों नें मेरे ....

पता होता भी तो कैसे !
तुम .............
इतने आहिस्ते से ज़ो गुज़रे.
वह तो ग़नीमत है......
कि ग़ुबार अभी तक हैं छाये. 
मैं  क्या जानूं 
कौन गुज़रा था........
मेरी खिड़की के सामने से,
मुझे तो बतायी है बात 
पड़ोसियों  नें मेरे.

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

पढ़ सको तो ......

मैं 
नदी नहीं........ 
कि काट कर घायल कर दूं 
अपने ही किनारों को, 
और ......न बेबस तालाब हूँ .......
कि कीचड में तब्दील कर दूं 
अपनी सारी सीमाएं / 
मैं 
हमेशा के लिए 
न तो बह कर जा सकता हूँ .......
नदी की तरह, 
न ठहर सकता हूँ ....... 
तालाब की तरह 
............किन्तु 
तुम मुझे इल्ज़ाम न देना,
मैं तो बारबार आऊँगा............
ज्वार की तरह 
.................तुम्हें स्पर्श करने ...........
लौट जाऊंगा फिर
उछाल कर सीपियाँ ............ 
तुम्हारे सुनहले....रूपहले तट पर 
और लिख कर .......
बालू पर एक इबारत .............
पढ़ सको तो पढ़ लेना
खारे पानी की 
अनंत व्यथा-कथा.  

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

आत्महत्या क्यों करली ?

कैसे समझ लिया तुमने .......
कि पतझड़ के पश्चात 
थम जाती है ऋतुओं की गति 
और नहीं है यह ....वसंत के आगमन की पूर्व तैयारी !
कैसे समझ लिया तुमने .....
कि गिरने के बाद .......फिर उठ नहीं सकता कोई 
और नहीं उगेगा सूरज....डूबने के बाद फिर कभी.
कुछ टूटने के साथ ....ख़त्म नहीं हो जाता सब कुछ
जुड़ता रहता है .....कहीं और भी कुछ .
इसमें भी छिपा है जीवन का मधुर संगीत ....
ज़रा ठहर कर .....सुनो तो सही. 
प्रकृति का सन्देश ......गुनो तो सही.

इधर देखो....ध्यान से सुनो......कितनी खूबसूरत है दुनिया  ...
नदियों की कल-कल, 
फूलों की मुस्कान पर .......पत्तों की हलचल 
हरे-भरे पर्वतों का गौरव,
चिड़ियों का कलरव,
वर्षा की सरगम,
सूरज का तीखापन ....
..................................
सोचो तो सजा है ....जी लो तो मज़ा है.
और ज़रा ...................इनको तो देखो....
पैबंद लगे कपडे हैं ....दूर सभी झगड़े हैं 
मेहनत की रोटी है....चोरी की खोटी है .
पेड़ की छाँव में भर नींद सोना 
अरे ! होकर अकिंचन
तुम भी बटोर लेते ......पूरी धरती का सोना........
आत्महत्या क्यों कर ली ?  

अमृत की अभिलाषा का अंत ...है उसे पा लेना 
विष कैसे हाथ लगा ?
वह तो तुम्हारे लक्ष्य में कहीं था ही नहीं 
लक्ष्य में कहीं कोई भूल तो हुयी नहीं. 
विष ही पीना था तो शिव बन जाते 
अमृत की अभिलाषा थी तो देव बन जाते.... 
राहु क्यों बने ?
उसे तो जीवन नहीं मिला .......अमृत पीकर भी 
और मृत्यु नहीं मिली ........सुदर्शन से कट कर भी.
सब कुछ तो उपलब्ध है यहाँ ...
विष भी ...............और अमृत भी 
तुम्हें तो बस ...........तय भर कर लेना है अपना प्राप्य 
ज़ो निश्चित ही अमृत है ....और केवल अमृत ही  
विष तो कदापि नहीं .....विष तो कदापि नहीं. 

रविवार, 5 दिसंबर 2010

क्या है ..जिस पर गर्व करें हम...?

नेताओं के भाषणों में सुनता आया हूँ ...."हमें अपने देश पर गर्व है....."  भावातिरेक में हम भी यही कहते हैं ...आपकी तरह ....सबकी तरह ..........पर मन सदा ही सशंकित बना रहा, टटोल कर देखा ..तो प्रश्नों की झड़ी लग गयी ...उत्तर नहीं दे पा रहा हूँ ...कैसे समझाऊँ अपने मन को ....कैसे सुलझाऊं बुद्धि में बनते जा रहे मकड़ जाल को,.....कुछ समझ में नहीं आ रहा. और ज़ो समझ में आ रहा है वह मैं औरों को समझा नहीं पा रहा हूँ. अब मैं आपके सामने हूँ ...अपनी सारी बातों के साथ ......सारे तर्कों के साथ. आज नहीं तो कल .... उत्तर तो सबको देना ही होगा. आने वाला समय भी हमसे ..... आपसे.....सबसे...... यही प्रश्न पूछेगा-

क्या है ?........जिस पर गर्व करें हम !
उस देश पर ?.......जहाँ कोई भी सुरक्षित नहीं है ...न घर में ..न सडकों पर !
या उस नीति पर ?......ज़ो अपने उत्तरी और पश्चिमी भूभाग की रक्षा नहीं कर सकी और जिसकी पूर्वी सीमा विवादास्पद है आज़ादी के इतने सालों बाद भी !
या जाति पर ?........ज़ो सामाजिक असंतुलन और विषमता का हथियार बना दी गयी है !
या धर्म पर ?....ज़ो विधर्मियों के हाथों पड़कर एक व्यापार बन गया है !
या भाषा पर ?.......जिसे बोलने में हमें शर्म आती है ..और न बोलने में शान बिखरती है !
या संस्कृति पर ?.............ज़ो पश्चिमी चोला ओढ़कर अपनी मौलिकता ही खो चुकी है !
या आध्यात्मिक विरासत पर ?.........जिसके इतने समृद्ध होने पर भी पाखंड रुकने का नाम नहीं ले रहा !
या राष्ट्रीय चेतना पर ?..........ज़ो थोड़ी भी होती यदि हममें .......तो क्या हड़ताल....तोड़-फोड़ और आगजनी से राष्ट्र के विकास में यूँ बाधा बनते हम सब .....और हमारी ही गाढी कमाई की संपत्ति यूँ नष्ट होती रहती !
या प्रशासनिक व्यवस्था पर ?.....ज़ो आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी हुयी है !
या सामाजिक व्यवस्था पर ?.....जहां सब एक-दूसरे के शत्रु बने हुए हैं !
या उस तंत्र पर ?.....जिसकी छात्र-छाया में उग्रवाद निर्भय हो पनप रहा है !
या आधुनिक उद्योगों पर ?....ज़ो पारंपरिक कुटीर उद्योगों को बड़ी बेरहमी से निगल चुके हैं !
या उस हरित क्रान्ति पर ?.....ज़ो प्राकृतिक बीजों के स्थान पर संकर बीजों से उपजे खाद्यों से नयी पीढी को नपुंसक बना देने की कसम खाये बैठी है !
या उस श्वेत क्रान्ति पर ?.....ज़ो दुधमुहे शिशुओं को शुद्ध दूध और युवकों को शुद्ध घी उपलब्ध करा सकने में असफल रही है !
या न्यूक्लियर एनर्जी पर ?......ज़ो पूरी तरह अप्राकृतिक विज्ञान पर आधारित है और रेडिओएक्टिव कचरे से पूरी धरती को विषाक्त किये दे रही है !
सावधान!!!
आपकी उदासीनता कहीं पूरे देश को फिर से गुलाम न बना दे !
राष्ट्र के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को पहचान कर अपनी राष्ट्र भक्ति का परिचय देने का और कौन सा अवसर तलाश रहे हैं आप ?

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

कोई क्या जाने ....

ये उदासी ......
ये  बेरुखी ........
ये तनहाई  ..........
ये खामोशी ............
और 
वो सब .......
ज़ो सवाल बन गए हैं,
पैदाइश हैं उन समझौतों की 
ज़ो मेरे घावों नें 
समय- समय पर किये हैं .

कोई क्या जाने ! 
कितनी  बेदर्दी से दफ़न होती रही है 
हर समझौते के साथ 
मेरी सरलता ...... मेरी सहजता ......
और ....
जिनकी कब्रों पर उग आये हैं 
न जाने कितने मुखौटे
जिनके बोझ से तड़पती है 
मेरी संवेदना..... मेरी आत्मा.....

कोई क्या जाने !
बे-अदबी का मुखौटा पहनते वक़्त 
मेरा रोम-रोम 
अदब और दर्द से सराबोर हो 
माँग रहा होता है ........माफियाँ .

कोई क्या जाने !
मेरी बेरुखी और लापरवाही के भीतर 
कितनी छिपी   है 
तड़प  और फिकर  
और मेरे गुस्से  के भीतर 
कितनी तेज़  बह  रही है 
अक्षय प्रेम  की सरिता.

कोई क्या जाने !
कब्र  का पत्थर  हटा  कर  
नेक झांको तो सही 
वहां 
वह सब कुछ है 
जिसकी 
तुम्हें मुद्ददत  से तलाश है . 
नेक झांको तो सही.........

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

आज़ादी बचाओ आन्दोलन ...

आजादी बचाओ आन्दोलन के सूत्रधार भाई राजीव दीक्षित नहीं रहे .......
वे एक अकिंचन ....हृदय में देश के प्रति दीवानगी लिए ..........कुछ कर गुजरने की ऊर्जा लिए ......एक चलते-फिरते ग्रंथालय थे..... खुद एक जलती हुयी मशाल थे.
कई साल पहले छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में पहली बार उनको देखा था .....उसी छत्तीसगढ़ से उन्होंनें एक बार फिर बिदाई ली ...पर इस बार अंतिम बिदाई ......वे अल्पायु में चले गए ......एक मशाल जला कर चले गए ......एक बड़ी ज़िम्मेदारी चुपके से हमें सौंप कर चले गए ......अपनी चिर-परिचित शैली में मुस्कराते हुए ......जैसे कह रहे हों ...."लो भाई ! मैं तो चला अब .....मुझे और भी काम हैं ....अब  ये मशाल रही आपके जिम्मे .....जलाते रहना ....आजादी को बचाते रहना ......"
...लगता है वे जा रहे हैं ....मुस्कराते हुए .....अपनी अंतिम यात्रा पर.
अक्सर ऐसा ही होता है, जिन्हें हम चाहते हैं .....जिनकी हमें ज़रुरत होती है .......जिन्हें लम्बे समय तक हमारे बीच रहने की दरकार होती है ....वे ही हमें छोड़कर चले जाते हैं .......जैसी ईश्वर की मर्जी ! 
भाई राजीव  ! आप बहुत याद आओगे . 
जगह-जगह श्रद्धांजलि समारोह आयोजित किये जा रहे हैं ......एक औपचारिकता.......शायद .....कुछ आँसू...कुछ भाषण ....फिर ...फिर सब-कुछ यथावत......सदा की तरह .....यही हमारी आदत है ......हम नेक भी उनके आदर्शों का पालन कर सके अपने जीवन में ......तो ही श्रद्धांजलि की पात्रता के अधिकारी हो सकेंगे .
ॐ शान्तिः. ! शान्तिः !! शान्तिः !!!