मंगलवार, 31 अगस्त 2010

एक पाती नक्सलिओं के नाम



मुस्कराने राह भर, अब दाहिने चलना ही होगा.
स्वप्न को साकार करने, उग्रता तजना ही होगा.
दुश्मनी है क्या तुम्हारी, पाठशाला के भवन से.
कर  धराशाई रहे, ये प्यार कैसा है वतन से?
अवसर चुरा, कंगूरों पे छाये हुए कुछ लोग हैं.
जो हैं प्रतीक्षा में खड़े, बस कर रहे सब ढोंग हैं.
दूरियां बढती रहीं, यह तथ्य तो हमने भी माना.
पर टूट कर बिखरे हुए, रूस को तुमने भी जाना.
हो गईं नेपाल में चुप, खून पीती गोलियां.
अंत में मुखरित हुईं, संसद में उनकी टोलियाँ.
नक्सली बन कर छिपे, क्यों जंगलों की आड़ में.
शेष है अब भी जगह, कुछ मेरे घर की बाड़ में.
तुम चरम पंथी बने,  किस गर्व में फुले हुए हो.
विस्फोट कर यूँ जान लेते, तुम अब तलक  भूले हुए हो.
क्या बना, किसका बना, है आज तक बम डाल कर  ?
क्षति-पूर्ति कर लेते हैं वे, मजदूर का हक मार कर.
आदमी अंतिम है जो, गलता रहा उसका ही तन-मन.
जो गए तोडे भवन, था उसका ही श्रम उसका ही धन.
मोगरे की गंध लेने,  नेक तो खुकना पडेगा.
फूल खिलने तक तुम्हें भी, कुछ समय रुकना पडेगा.
गोलियों से कब हुईं, आसान राहें जिन्दगी की !
कर सके कितना भला तुम, जान ले कर आदमी की?
फुनगियों पर हो चढे, बस ताकते हो आसमान.
नीचे उतर हमसे मिलो, बन कर दिखाओ बागवान.

6 टिप्‍पणियां:

  1. बस्‍तर के दर्द को गहरे से शव्‍दों में उकेरा है डाक्‍टर साहब आपने. बहुत गहरी अभिव्‍यक्ति.

    धन्‍यवाद.

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  2. श्रीकृष्णजन्माष्टमी की बधाई .
    जय श्री कृष्ण !!!

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.