बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

प्रेम

तुम्हें  शिकायत  है  
मेरे  आँसुओं से 
किन्तु 
इन आँसुओं के खारेपन का राज 
उस सागर से पूछो  
जिसने समेट रखा है अपने सीने में 
एक समूची धरती का दर्द / 
दर्द का यह अहसास ..............
 जिस दिन छू लेगा तुम्हें 
मेरा दावा है 
तुम्हारे भी सीने में जन्म लेगी 
एक तड़प 
लोग 
उसे ही प्रेम कहते हैं /

2 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.