गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

किताबों में खोया बचपन

रात  के दस बज चुके हैं, 
बुजुर्गों के हिसाब से 
यह बच्चों के सोने का वक़्त है /
वह पढ़ने में मशगूल है 
और माँ है 
कि दस्तरखान पर बेटी का कबसे  इंतज़ार कर रही है / 
बुला-बुलाकर 
जब थक कर चुप हो गयी माँ
तो अचानक वह चुपके से आई  
और पीछे से गले में बाहें डालकर झूल गयी....... 
'उठो  माँ खाना खायेंगे '
.................................
दो रोटी खाकर ही उठ बैठी वह....... 
'बस माँ अब और नहीं 
..........नींद आयेगी 
तो फिर पढ़ेगा कौन,
अभी तो थीसिस भी सबमिट नहीं हुयी है  '
माँ के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच आयीं------ 
इतनी फिक्रमंद हो गयी है मेरी बच्ची !
और किताबों  ने तो जैसे बचपन ही छीन लिया है इसका /
बच्ची की उम्र  
कब  फ्रॉक से सलवार-कुर्ते में बदल  गयी 
पता  ही नहीं चला ./  
पुरानी यादों में डूब गयी माँ
फिर  आँखों की कोर पर छलक आयी बूंदों को पोंछ 
मन ही मन 
न  जाने कितनी दुआएं दे डालीं बेटी को 

...................
रात के दो बज रहे हैं 
माँ ने फिर प्यारी सी झिड़की दी
अब सो भी जाओ
सुबह पढ़ लेना /
'बस .....थोड़ी देर और माँ '
बेटी नें आवाज़ दी 
तभी बूढ़े चाँद नें खिड़की से झाँक कर कहा
'तू खुद को मेरी सहेली कहती है ना! 
तो चल, 
अब माँ का कहना मान ले'
बेटी ने मुस्कराकर बंद कर दी किताब 
और लेट कर पलकों से ढँक लीं अपनी आखें 
जैसे   सो गयी  हो /
...............
अब कमरे में सिर्फ वह थी 
और था बूढा चाँद /
बूढ़े की आँखों में नींद कहाँ !
थोड़ी देर और ठहरा चांद
फिर इत्मीनान करने के लिए
उसके बालों को हौले से छुआ
गाल को थपथपाया 
और  नींद  की चादर ओढाकर 
आगे बढ़ गया........
अगली 
किसी और खिड़की से झाँकने,
शायद और भी कोई जाग रहा हो अभी /
कितनी  फिक्र रहती है बच्चों की 
माँ को 
और इस बूढ़े चन्दा मामा को / 
बच्चे 
कितने   बे -फिक्र  हैं 
इनकी  चिंताओं से !





2 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.