सोमवार, 31 जनवरी 2011

क्या इन्हें नाम दें ...

.
जा रहे थे यूँ ही 
कुछ न तय था कहीं .
फिर मिली एक डगर 
पर न मंजिल कहीं . 

रात में रौशनी यूँ 
अचानक हुई .
कोई रिश्ता नया
एक उगता दिखा .

मीठे-मीठे उठे 
आज फिर दर्द हैं .
कोई बताये हमें 
क्या इन्हें नाम दें .

ख़ुश्बुएँ कैद हैं 
काँटों के साए में .
कैसे हम उनको ये 
उनका इनाम दें . 

रविवार, 30 जनवरी 2011

जंगल का फूल


भगवान् ने पूछा -
इस बार क्या बना कर भेजूँ   , होमोसीपियेंस ?
मैने कहा - 
ना बाबा ना ..मैं इतना खतरनाक बन कर 
नहीं जाऊँगा  इस बार .....कुछ और नहीं....बना देते सर !
......तो एवीज ?
 ...नहीं ..वहाँ  भी ताकतवर का खेल चलता है
 तो नान-कॉर्डेटा में कुछ ...? 
............मैं सोचने लगा ......
तो भगवान् बोले -
अच्छा चलो ..इस बार कोई वायरस या बैक्टीरिया ...?
मैं डर गया, ज़ल्दी से कहा- 
नहीं ,  डॉक्टर   पीछे पड़ जायेंगे 
.......तो प्लांट किंगडम में कुछ .....?
मैं खुश हो गया, 
भगवान् मुस्कराए, बोले- 
 चलो, मंत्री जी के बंगले का फूल बना देता हूँ
अच्छी मिट्टी, पर्याप्त खाद-पानी 
सेवा के लिए माली 
सुरक्षा के लिए चौकीदार ...
मैं उदास हो गया 
भगवान् ने पूछा - अब क्या हुआ ?
मैंने कहा -  तब हर कोई मेरी नहीं 
मंत्री जी की तारीफ़ करेगा 
कि इतना सुंदर फूल मंत्री जी के बंगले में ही खिल सकता है 
हर सुविधा का ठेका ज़ो दे रखा है 
..........तो तुम्हीं बताओ न! 
भगवान् जी कुछ खीझ से उठे
मैंने कहा -
मुझे जंगल का फूल बना दो इस बार 
अपनी दम पर जी कर दिखाऊँगा  
तब लोग सिर्फ मेरा ही नाम लेंगे, 
कहेंगे- देखो तो ....
जंगल में बिना पानी ..बिना खाद 
कैसा खिलखिला रहा है ......और सुविधाभोगी 
होमोसीपियेंस को चिढा रहा है  
और सचमुच भगवान् ने 
बस्तर के जंगल में भेज दिया मुझे 
तब से यहीं हूँ 
आइये न कभी मिलने. 

शनिवार, 29 जनवरी 2011

....सोचता हूँ



पिछले कई सालों से सो रहा है 
यह ज्वालामुखी, 
.....सोचता हूँ 
कभी पूरी धरती ही थी खुद एक ज्वालामुखी 
पर आज तो शस्य-श्यामला है  
चलो, इस सोये ज्वालामुखी पर बोते हैं 
कुछ बीज ........
उगाते हैं कुछ लताएँ.
कुछ दिनों बाद 
जब अंगड़ाती हुई मुस्कराएंगी लताएँ
और चहकते हुए खिलेंगे फूल 
मैं कहूँगा पूरी दुनिया से 
देखो, ज्वालामुखी की राख भी है 
कितनी उपजाऊ ....
और खामोशी भी खिलखिला सकती है 
.....वक्त आने पर 
बस, ज़रूरत है कि ज़ारी रहें हमारी कोशिशें 
और थामे रहें उम्मीद का दामन    
कोई ज़रूरी नहीं कि होती रहे पुनरावृत्ति 
असफलताओं की 
हम तो 
म्यूटेशन के उस छोटे से प्रतिशत पर भी करते हैं यकीं 
ज़ो हो सकता है ....थोड़ा सा फायदेमंद भी 
और फिर ......
राख को कुछ तो अवसर दें 
अपनी सुगंध फैलाने का . 
    

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

कब निकलेंगे हम आत्म मुग्धता के गह्वर से..?


२६ जनवरी ,२०११ .....विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का गणतंत्र दिवस. रायपुर से जगदलपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित एक कस्बा है   ..फरसगांव....जहाँ देखने को मिला लापरवाही ...प्रशासनिक अक्षमता ....और विचार शून्य नागरिकों की हिंसा का एक और शर्मनाक नज़ारा. 
सुबह-सुबह गणतंत्र दिवस मनाने निकले छात्रों की एक टोली .....
जगदलपुर से रायपुर की ओर जा रही एक ट्रक से कुचल कर अकाल काल-कलवित हुए एक छात्र के शोक में उफनी क्रोध की एक लहर नें पुलिस थाने को जला दिया.....एस.डी.एम. कार्यालय को क्षति पहुंचाई......राष्ट्रीय संपत्ति को नष्ट किया, दो पुलिस वालों को बुरी तरह पीटा ...और ५-६ घंटे तक राजमार्ग पर आवागमन रोक दिया. वहां से लगभग १०० किलो.मी. दूर पर ही माननीय मुख्यमंत्री जी जगदलपुर में गणतंत्र दिवस मना रहे थे ......फरसगांव में "गण" असंयमित और हिंसक हो उठा था ...."तंत्र" को पैरालिसिस हो गया था इसलिए    पराजित हो कुछ समय के लिए कस्बे से नदारद  हो गया. अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी. मार्ग में जगह-जगह रुकी बसों में परेशान यात्री.....बेबस हो 'गण" के सामान्य होने की प्रतीक्षा कर रहे थे.
यह तो एक दुर्घटना थी. पर इसी बस्तर में कई जगह १५ अगस्त और २६ जनवरी को तिरंगे के स्थान पर काला ध्वज फहराया जाता है...हर साल नक्सली विरोध दिवस मनाते हैं ....उधर कश्मीर में भी तिरंगा फहराने के लिए कुछ लोग बेताब हैं .....उन्हें वहां पहुँचने ही नहीं दिया गया .....गणतंत्र दिवस के कुछ ही दिन पहले महाराष्ट्र में एक एडीशनल कलेक्टर को माफिया गिरोह नें ज़िंदा जला दिया .......क्योंकि उस अधिकारी नें अपने कर्त्तव्य को ईमानदारी से निभाने का प्रयास किया था .....गण और तंत्र दोनों को पक्षाघात हो गया है .............और पूरा देश आत्म मुग्धता के गह्वर में डूबा हुआ है.......हम ऐसी विषम स्थितियों में राष्ट्रीय पर्व को उत्साहपूर्वक मना पाये हैं या केवल औपचारिकता भर निभा कर रह गए हैं ?.....यह एक व्यग्र करने वाला सच्चा प्रश्न है .....एक सच्चे  ज़वाब की तलाश में.             

बुधवार, 26 जनवरी 2011

प्रतीक्षा है तो बस उस छब्बीस जनवरी की ....

हर दिन ......
मिथ्या संकल्पों, 
प्रतिज्ञाओं 
और योजनाओं से छला गया 
"अभाव" 
बढ़ता ही गया ......
-सुरसा की तरह . 
बढ़ती रहीं वंचनाएँ   
आँखों में धूल झोंकते हुए .
सदुपदेशों से भी नहीं रुका अधर्म
होता गया .....और भी अनियंत्रित 
अब तो ....
प्रतीक्षा है तो सिर्फ 
उस छब्बीस जनवरी की 
जब कोई उत्तर देगा .....इस प्रश्न का 
कि स्वतन्त्र भारत का "तंत्र"
क्या सचमुच 
कभी था ही नहीं अपना ?
बूढ़े की चाहत है 
कि सुबह ज़ल्दी हो
और गुनगुनी धूप
पसर जाए ओसारे में
क्योंकि रात 
बहुत ठंडी और अंधेरी है 


सोमवार, 24 जनवरी 2011

१. 
"सर्वेक्षण"


"सामने सड़क पर
सुन्दर लड़की के साथ जा रहे लड़के से 
उसका क्या रिश्ता है" ....... 
- चाय की दूकान पर बहस जारी थी. 
सर्वाधिक मत 
प्रेमी के पक्ष में गए 
मात्र एक मत विरोध में गया,
यह मतदाता
 और कोई नहीं 
उन दोनों की माँ थी 
ज़ो चाय की दूकान पर 
कप-प्लेटें धोती थी. 


२. 
"प्रगतिशील संस्कृति"

मात्र सात दिन 
एक्सचेंज की मर्यादा
यह है 
सात फेरों की 
नयी प्रगतिशील परिभाषा 
ताकि मिल सके सभी दोस्तों को 
हर हफ्ते 
एक टेस्ट ज्य़ादा.


३. 
"मंत्री"


वे 
इतने ओछे हैं
सूखे तृण से भी हल्के हैं 
यह सोच-सोच 
हर आँख 
आज फिर नम है 
चुल्लू भर पानी की बात करें क्या 
डूब मरें वे 
इस खातिर
पानी 
सात सागरों का भी कम है. .


 ४. 
  "प्रमाण"



यह तो रावण भी जानता था 
कि मैं अयोध्या का हूँ 
और अयोध्या  मेरी.
किन्तु रावण बन पाना भी कोई हंसी-खेल नहीं.
तुम तो 
न मित्र हो ...न शत्रु....
न जाने कौन हो 
कि जन्म-भूमि को बंदी कर पूछ रहे हो 
मेरे जन्म का प्रमाण .
निश्चित ही 
तुम  न तो मेरे वंशज  हो....न आर्यावर्त के वासी 
कोई  घुसपैठिये हो 
अरे, मेरा वंशज तो वह था 
जिसे गोलियों से छलनी कर दिया तूने 
उसी के पास था मेरे जन्म स्थान का प्रमाण
परन्तु तू क्या करेगा जानकर इसे 
तू तो रावण भी नहीं कि मर सके मेरे हाथों 
जा .....
पहले रावण तो बन ले 
फिर मैं स्वयं चला आऊँगा तेरा वध करने.  


.

शनिवार, 22 जनवरी 2011

वनवासियों की अद्भुत नृत्य यात्राएँ

भूख और प्राण रक्षा के बाद आदिम युग के मानव की तीसरी समस्या थी संघर्ष विहीन यौन सम्बंधों की स्थापना. उन्होंने देखा था मानवेतर प्राणियों में यौन सम्बंधों के लिए खूनी संघर्ष. प्रारम्भ में तो उन्होंने भी वैसा ही किया पर शीघ्र ही उसके दुष्परिणामों से उनका विवेक जागा और आपसी समझ से एक समझौता किया गया - संघर्ष विहीन यौन सम्बंधों का समझौता. तब के आकार लेते मानव समाज में सामाजिक मूल्यों की एक और सशक्त कड़ी जुड़ गयी. आदिम युग का मानव समाज और भी सशक्त हुआ. सामाजिक ढांचा सुदृढ़ होता गया और संघर्ष-मुक्त यौन सम्बंधों की आवश्यकता के समाधान नें एक परम्परा को जन्म दिया. धीरे-धीरे उसे संस्कारित किया गया ....रंजित किया गया. पर यह सब कुछ स्वाभाविक रूप में ही विकसित होता रहा  ....जैसे कि जंगल में फूल खिल रहे हों. 
    तब तक वर्जनाएं नहीं थीं, समाज के विकास के साथ-साथ ही जन्म हुआ वर्जनाओं का. और फिर तो विकास के न जाने कितने नकारात्मक पक्ष बनते चले गए. संघर्ष-मुक्त यौन सम्बंधों की आदिम युग की यह संस्कारित परम्परा धीरे-धीरे नृत्य और गीत से रंजित होती हुई निरंतर समृद्ध होती रही. .....इसकी जड़ें वनवासी समाज में गहरी ...और गहरी होती चली गयीं. इसीका वर्त्तमान स्वरूप है "नृत्य-यात्रा".  वर्जनाओं से भरे-पूरे आधुनिक समाज में यौन-विकृतियों व अपराधों की कमी नहीं है .....वहीं वनवासी समाज में न कोई वर्जना है न कोई विकृति. इनकी नृत्य यात्रा तो एक उत्सव है...अनुशासन का पर्व है ...संस्कारों का प्रशिक्षण है ...जीवन साथी की खोज है ....यौन शिक्षा का माध्यम है ......और है .....सामाजिक संबंधों को सशक्त बनाने वाली एक मौलिक सीमेंट.
  नृत्य सभी प्राणियों की सहज-स्वाभाविक एवं उल्लासमयी अभिव्यक्ति है. न केवल जीव-जगत अपितु स्थूल पिंडों से भरे इस ब्रह्माण्ड की रचना और अस्तित्व भी नृत्य के बिना अकल्पनीय है. ग्रहों की गति, सूक्ष्म अणुओं में ब्राउनियन मूवमेंट, परमाणुओं में इलेक्ट्राँस का कत्थक, जड़ पदार्थों का यौगिक बनना या अपघटित होना, ऋतुओं की निर्धारित समयांतराल पर आवृतियाँ, नन्हें बीजों का अंकुरण, कलियों का प्रस्फुटन .........कहाँ नहीं है नृत्य ! सच पूछो तो यह सृष्टि भी आपने आप में एक नृत्य ही तो है. प्रकृति-पुत्रों नें नृत्य की सार्थकता और अस्तित्व को समझा और इसे आपने जीवन में अपनाकर इसकी महत्ता को स्वीकार कर लिया. छत्तीसगढ़ के वनवासियों की नृत्य-यात्राएं अद्भुत हैं ....आनंद और उल्लास से भर देने वाली हैं. वे प्रकृति के साथ ताल मिलाते हुए नृत्य करते हैं ...उनकी हर थिरकन में जीवन का उत्सव है ...आनंद है और सन्देश है तथाकथित "सभ्य और विकसित " लोगों के लिए ...कि आगे आओ और हमारे निश्छल-निर्मल गीत-संगीत-नृत्य को एक बार अपनाकर तो देखो और खोज लो उस आनंद को जिसके लिए तरस रहे हो तुम सब.
    नृत्य यात्रा की चर्चा से पूर्व "घोटुल" के बारे में थोड़ी सी चर्चा कर लेना आवश्यक है. आदिवासी संस्कृति में घोटुल का एक प्रमुख स्थान है. बहुत समय तक तो घोटुल शेष दुनिया के लिए रहस्य ही बने रहे . लोग अटकलें लगाते रहे और वनवासी इन सबसे बेखबर अपने घोटुल में मस्त अपनी सांस्कृतिक व सामाजिक शुचिता को समृद्ध करते रहे. घोटुल एक ऐसी सामाजिक संस्था है जहाँ स्त्री-पुरुष के मिथकों, समस्यायों, संबंधों और गूढ़ यौन रहस्यों का सर्वस्वीकृत समाधान होता है. यह संस्कार शाला है वनवासियों की. इसके बिना इनका जीवन अधूरा है. संस्कार, शिक्षा, कला, नृत्य-गीत-संगीत, सामाजिक सम्बन्ध, आत्म निर्भरता ...सभी कुछ तो सीखते हैं ये प्रकृति पुत्र इसी घोटुल में. ये घोटुल ही हैं ज़ो नृत्य यात्राओं के अनंतर उन्हें रात्रि विश्राम के लिए आश्रय उपलब्ध कराते हैं. 'घोटुल' की स्थापना वनवासियों के उत्कृष्ट सामाजिक चिंतन का परिणाम है .....एक बेहतरीन सामाजिक व्यवस्था है जहाँ नियम हैं .....परम्पराएं हैं .....सम्मान है ...और हैं तमाम मौलिक जिज्ञासाओं के समाधान.  
   वर्ष में दो बार - कार्तिक और पूस में आयोजित होने वाली नृत्य यात्राओं का सम्बन्ध फसलों से भी है. खेतों की फसल पक कर जब घर आ जाती है और वनवासी समुदाय कृषि-कर्म से निवृत्त हो चुके होते हैं तो नयी उपज का उल्लास उनके नृत्य में और भी कई रंग भर देने में सहायक होता है. प्रथम नृत्य यात्रा कार्तिक माह में दीपपर्व को समर्पित होने के कारण "देवाड़-एंदाना" नाम से जानी जाती है. इस यात्रा में केवल अविवाहित नव-युवतियां, जिन्हें "मोटियारिन" कहा जाता है, ही शामिल हो सकती हैं.      
     रंग-बिरंगे किन्तु सादे परिधानों में सजी-धजी, फूलों और छोटी-छोटी कंघियों को बालों में खोंसे अविवाहित प्रकृति-बालाओं के नृत्य समूह की प्रमुखनेत्री "बेलोसा" के नेतृत्व में मोटियारिनों का दल तैयार होकर गाँव के गायता से अनुमति प्राप्त करने के पश्चात ही यात्रा हेतु प्रस्थान करता है. पंद्रह से बीस दिन तक चलने वाली इस यात्रा के बाद गाँव वापस आने पर पुनः  इन्हें गायता को अपनी उपस्थिति देनी पड़ती है. समाज की सुव्यवस्था हेतु आवश्यक है यह. 
   ग्राम-गायता से अनुमति प्राप्त मोटियारिनों का सजा-धजा नृत्य दल एक गाँव से दूसरे गाँव की यात्रा करता है. मध्याह्न में किसी प्राकृतिक जल स्रोत के समीप ठहरकर भोजन एवं विश्रामादि से निवृत्त हो यह दल आगे की यात्रा हेतु प्रस्थान करता है. रात्रि-विश्राम किसी गाँव के घोटुल में होता है जहाँ के अविवाहित युवकों, जिन्हें "चेलिक" कहते हैं, द्वारा मोटियारिनों का स्वागत किया जाता है. घोटुल में सारी रात मांदर की थाप पर नृत्य होता रहता है जिसमें मोटियारिनें दीवाली की खुशी में हुल्की पाटा और मंजीरे के साथ चिट्कुल पाटा गाकर नृत्य करती हैं. गोंडी भाषा में पाटा का अर्थ गीत होता है. इन गीतों के माध्यम से उल्लास के साथ सामाजिक सन्देश और शुभकामनाएं दी जाती हैं. वाद्ययंत्रों में मांदर के अतिरिक्त काष्ठ निर्मित प्राचीन शैली के टोहे, कुडुरका, किकिड़ एवं तुड़मुड़ी का उपयोग किया जाता है. प्रकृति-पुत्र इन सरल से दिखने वाले यंत्रों से गज़ब की ध्वनियाँ उत्पन्न कर लेने में माहिर होते हैं. अद्भुत बात यह है कि साधारण कोदो, कुटकी, मड़िया, चावल आदि खाकर तृप्त होने और लांदा के नशे के बाद भी ये लोग असंयमित नहीं होते. रात भर संस्कारशाला में मौज-मस्ती, आपसी चुहुल, हास-परिहास और मस्ती भरे गीतों के बीच बहुत कुछ सीखते हुए यह नृत्य दल भोर होने पर हर घर से अन्नदान प्राप्त कर बांस की बनी डलियों में रख अगले गाँव की ओर प्रस्थान करता है. घुटनों तक लाल-पीली साड़ी पहने, बालों में गेंदा के फूल खोंसे मोटियारिनों का दल पंक्तिबद्ध हो जब यात्रा पर निकलता है तो जंगल में एक अलग ही रौनक छा जाती है.
    मोटियारिनों के देवाड़ एंदाना नृत्य के पश्चात बारी आती है चेलिकों की कोलांग नृत्य यात्रा की . पूस माह में फसल कटने के पश्चात परम्परानुसार ग्राम के गायता से अनुमति प्राप्त कर अविवाहित नवयुवकों का नृत्य दल निकलता है मोटियारिनों के गाँवों की ओर. दो डंडों के साथ नृत्य करने के कारण इस नृत्य यात्रा को "कोलांग" एवं पूस माह में होने के कारण "पूस-कोलांग" भी कहते हैं. नृत्य यात्रा हेतु चेलिकों का चयन किया जाता है. चयनित लोग गाँव के  "घोटुल गायता" और "मांझी" के साथ ग्राम-देवता को लेकर ग्राम-देवी के स्थान -"जिमीदारिन" में एकत्र होते हैं जहाँ विधि-विधान से ग्राम-देवी का आह्वान किया जाता है एवं देवी से अनुमति लेकर नृत्य यात्रा प्रारम्भ की जाती है. ग्राम के गायता किसी कुशल पाटा गुरु के नेतृत्व में चेलिकों की टोली  को गाँव की सरहद तक छोड़ने जाते हैं. गाँव-गाँव में भ्रमण करते हुए सभी चेलिक ....."पूसा कोला-कोला दादा पूसा कोला रोय" के साथ नृत्य का प्रारम्भ करते हैं. चेलिक सिर पर सफ़ेद साफा बांधते हैं जिसमें फूलों के साथ कंघी और किसी चिड़िया के सफ़ेद पंख खोंसे हुए रहते हैं, कानों में बाली, हाथों में चमकते हुए कड़े और गले में रंग-बिरंगे पत्थरों की माला धारण किये इन युवकों का सादगी भरा श्रृंगार मनमोह लेने वाला होता है. नृत्य के समय ये लोग शेर, हिरन, घोड़े, जंगली सुअर आदि के मुखौटों का प्रयोग करते हैं. नृत्य-दल जिस गाँव में पहुंचता है वहां की मोटियारिनें इनका स्वागत करती हैं. रात्रि-विश्राम हेतु घोटुल का आश्रय लिया जाता है. जहाँ पहले की तरह चेलिक और मोटियारिनें मिल कर समूह नृत्य के साथ हारपाटा गीत गाते हैं. अगली सुबह चेलिकों द्वारा गाँव के मुख्य चौराहे पर कोलांग नृत्य किया जाता है. नृत्य के अनन्तर मंडली के बीच नायक द्वारा एक सिक्का या मुंदरी रखी जाती है जिसे नृत्य करते घेरे को तोड़कर किसी मोटियारिन को उठाकर लाना होता है. यह एक रोचक खेल होता है, जिसमें चेलिक मोटियारिन को मंडल तोड़ने से रोकने का भरपूर प्रयास करते हैं ...यहाँ तक कि बेचारी को चेलकों के मुक्के भी खाने पड़ते हैं, तथापि जीत तो अंततः मोटियारिन की ही होती है किन्तु ख़ूब छक चुकने के बाद ही. नृत्य के बाद इस दल को अन्नदान देकर विदा किया जाता है. लगभग एक माह तक चलने वाली इस यात्रा में प्राप्त अन्न का उपयोग "हेसा" पर्व में सामूहिक भोज हेतु किया जाता है.
    नृत्य के अनन्तर "अदु-वदु यायाल गो" कहकर मातृ-शक्ति का आह्वान और प्राकृतिक शक्तियों से साक्षात्कार इन्हें प्रकृति और आध्यात्म से जोड़ने का काम करते हैं. वनवासियों की इन नृत्य-यात्राओं के कुछ और भी विशेष पहलू हैं.  -एक गाँव से दूसरे गाँव की यात्रा के अनन्तर इन्हें विभिन्न  अनुभव प्राप्त होते हैं, जिससे नयी पीढी के लोग आत्म निर्भरता और सामाजिक भाईचारा का पाठ सीखते हैं. इस बीच इन्हें बहुत अनुशासित रहना होता है. ये किसी गृहस्थ की देहरी भी नहीं लांघ सकते. कच्चे अन्न के अतिरिक्त उनसे कुछ ले भी नहीं सकते. यानी अपने भोजनादि एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था स्वयं इन्हें ही करनी होती है. कई दिन-रात एक साथ रहने से इनमें आपसी प्रेम भी प्रगाढ़ होता है और गाँव की एकता को एक सुदृढ़ आधार प्राप्त होता है. घोटुल में विपरीत लिंगी के सान्निद्य में रहकर यौन-शिक्षा के साथ-साथ यौन-अनुशासन का पाठ सीखने का भी दुर्लभ अवसर प्राप्त होता है. इसके विपरीत हमारा सभ्य समाज अपनी वर्जनाओं के साथ न जाने कितनी कुंठाओं- विकृतियों को लिए आत्म मुग्धता का जीवन जी रहा है.
      घोटुल संस्कृति सभ्य समाज को बहुत कुछ मंथन करने के लिए प्रेरित करती है. हमें पुनर्विचार करना होगा कि यौन-विषयों को वर्ज्य घोषित कर कहीं हम भटक तो नहीं गए ? वर्जनाओं के समय विकल्प की व्यवस्था करना हम भूल गए, परिणाम हम सबके सामने है. नए-नए स्वरूपों में फैलती जा रही वैश्या-वृत्ति, यौन शोषण, बलात्कार की बढ़ती घटनाएँ, रक्त-संबंधों एवं रिश्तेदारों द्वारा यौन मर्यादाओं का उल्लंघन, छोटे से लेकर उच्च स्तर तक बढ़ती जा रही यौन उत्पीडन की घटनाएँ ..... बहु आयामी होती यौन समस्याएं ....और इन सबके बीच रक्षा का समाधान तलाशती आज की सक्षम होकर भी अबला बनी नारी समाज से किसी बेहतरीन व्यवस्था की आशा में है. क्या मर्यादा के साथ इसे सहज-स्वाभाविक रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता ? आज हम यौन-शिक्षा के अधकचरे ज्ञान के साथ अनेकों विकृतियाँ लिए घूम रहे हैं. उच्च-शिक्षित ...यहाँ तक कि चिकित्सा-विज्ञान के स्नातक भी यौन-शिक्षा के किसी स्वीकृत व मान्य स्रोत के अभाव में अपना प्रारम्भिक यौन ज्ञान अन्य लोगों की तरह ही विकृत और अधकचरे रूप में प्राप्त करने के लिए बाध्य हैं. क्या हमारे सभ्य समाज में भी घोटुल संस्कृति स्थापित करने की आवश्यकता है ? 
    आज की अंतिम बात, बड़े दर्द के साथ .........आधुनिक शिक्षा का जहाँ-जहाँ प्रचार-प्रसार हुआ उसका पहला प्रभाव तो लोगों में अपनी पुरातन संस्कृति के प्रति हीन भावना को विकसित करने के रूप में पड़ा है. जनजातियाँ भी इसकी अपवाद नहीं हैं. आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ नक्सली आतंक नें भी इस जनजातीय परम्परा पर कुठाराघात ही किया है. आज घोटुल मृतप्राय पड़े हैं ....और नृत्य यात्रा अपने अवसान की ओर है. यदि  इन परम्पराओं को पुनर्जीवित कर संरक्षित न किया गया तो एक संस्कृति सदा के लिए समाप्त हो जायेगी.  


       आइये, आज हम भी इस गीत को गुगुनाते हुए यहाँ से प्रस्थान करें -
           ...........पहलीर पाटा बोना लयोर, 
                          पहलीर डांका बोना रोय
                                ........................
                       रिलो रिलो .....री री .....रिलो रिलो 

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

अर्थ

सूरज तो 
अभी भी उगता है रोज 
प्रतीक ही खँडहर होते जा रहे हैं. 
एक-एक कर 
धराशायी होते जा रहे हैं अर्थ .
खंडित मूर्तियों के साथ तुकबंदी
और अस्पष्ट सी, शिलालेखों में उकेरी 
किसी अबूझ लिपि को पढ़ना 
बुद्धिविलास का हिस्सा बनकर रह गया है .
भग्न मुंडेरों पर बैठ
काँव-काँव करने से क्या लाभ ?
आइये , इसी बरसात में बोते हैं कुछ बीज 
नयी फसल में जब फूल खिलेंगे 
तो ख़ुश्बू के झोंकों से 
सजीव हो उठेंगीं मूर्तियाँ 
और सार्थक हो उठेंगें 
शून्य होते जा रहे अर्थ. 


गुरुवार, 20 जनवरी 2011

कोलांग महोत्सव

छत्तीसगढ़ की जनजातियों में से एक -गोंड जनजाति की सांस्कृतिक समृद्धता नें बार-बार आकर्षित किया है मुझे. उनका सांस्कृतिक विकास प्रकृति के सान्निद्य में हुआ है ....कृत्रिमता से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं ......कोई छल नहीं ...कोई आडम्बर नहीं ....और समाज विज्ञान की दृष्टि से पूर्ण वैज्ञानिक.  दुर्भाग्य से ...विकास के नाम पर आई नयी रोशनी नें अपनी काली छाया इस पर भी डालनी शुरू कर दी है.....अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए उत्तर-बस्तर जिले के अंतागढ़ विकास खंड के हिमोड़ा गाँव में अभी  १८ व १९ जनवरी को प्रथम कोलांग महोत्सव संपन्न हुआ. वस्तुतः , कोलांग एक नृत्य विधा है ...एक नृत्य-यात्रा ज़ो मोटियारिनों  और चेलकों के समूह द्वारा एक गाँव से दूसरे गाँव की यात्रा करते हुए संपन्न की जाती है. यह एक संस्कार यात्रा भी है जिसमें नवयुवक-नवयुवतियाँ जीवन के विविध संस्कार सीखते हैं. इस परम्परा का प्रारम्भ इनके गुरू ''लिंगोपेन  देव'' द्वारा किया गया था. लिंगोपेन  इनके गायन व नृत्य गुरु के साथ-साथ आध्यात्मिक गुरु अर्थात "पाटागुरु" एवं "डाकागुरु" माने जाते हैं. रंग-बिरंगे परिधानों में सजे चेलक एवं मोटियारिनें  कोलापारा कोलांग गीत गाते हुए सारी-सारी रात समूह नृत्य करते हैं. पहले यह नृत्य यात्रा लगभग एक माह की हुआ करती थी..अब तो इसके अस्तित्व पर ही संकट मंडरा रहा है .....इस नृत्य यात्रा के अनंतर ही गोंड जनजाति के प्रमुख अनुष्ठान संपन्न होते हैं ..इसलिए इस सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण की आवश्यकता का अनुभव करते हुए एक महोत्सव के रूप में मनाने का निर्णय लेकर इसका प्रथम आयोजन हिमोड़ा ग्राम में संपन्न हुआ. निश्चित ही यह एक शुभ संकेत है एक संस्कृति को बचाने का ....    मेरी कोटि-कोटि शुभकामनायें .           

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

इबादत से भी ....

कैसे कहूं, 
कि अपनी ही चौखट से टकराया है हर दफे 
सर मेरा.
डाक्टरों को क्या पता .....
उन्होंने तो कह दिया कि बढ़ गया है ब्लड-प्रेशर,
दिल को काबू में रखो मियाँ .
उन्हें भी कैसे कहूं 
कि बगावत तो अपने ही खूं नें की है 
और चोटें ........पत्थरों से ज्य़ादा फूलों नें दी हैं
ज़ो  इतनी पडी हैं बेशुमार 
कि दिल के भीतर तक हो गए हैं  कंट्यूज़न
मगर ये दिल भी कोई कम है क्या ......
कमबख्त तो इतना कि अपने खून के अलावा 
गैरों का लेने को तैयार ही नहीं होता.
इसे दर्द की परवाह कहाँ  ?
और मैं बेचैन हूँ ...... 
दर्द की भारी ये गठरी अब कहाँ खोलूँ 
हर गली में शातिर बैठे हैं ज़नाब !
चल पड़ेंगे फिर किसी बाज़ार में 
बेचकर ये दर्द मेरे 
भर लेंगे खुशियों से ये दामन अपने
हद है सौदागरी की भी ...... 
यकीनन  .....धोखे इतने खाए हैं मैंने
कि यकीं भी बेचारा चल बसा
अब  तो डर लगता है इबादत से भी 
क्या जानें खुदा क्या सोचे ?

अपसंस्कृति ...कौन है ज़िम्मेदार ?

दिव्या जी ! आप अपसंस्कृति के लिए चिंतित हो रही थीं .....कल फिर एक खबर छपी है -हॉस्टल डे पर १५ जनवरी की रात हमारे शहर कांकेर में छात्र-छात्राओं नें एकल और सामूहिक नृत्य किये .अखबार के अनुसार "लोकप्रिय गीत मुन्नी .....और शीला.....कार्यक्रम में छाये रहे ..... बीच-बीच में हौसला अफजाई के लिए प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में उच्च पदों पर आसीन अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों ने भी छात्र-छात्राओं के साथ ठुमके लगाए" .इसके बाद महिला मंत्री, महिला विधायक , एक और युवा विधायक, अ.ज.जा. आयोग के अध्यक्ष ....कई अधिकारियों, प्रोफेसर्स व अधिवक्ता आदि के नाम उपस्थित लोगों की सूची में दिए हुए हैं. इसमें तीन बातें हैं, १- इन गीतों को लोकप्रिय गीतों के खिताब से नवाज़ा गया, २- नृत्य में छात्रों के साथ छात्राओं नें भी नृत्य किया, ३- कार्यक्रम में ज़िम्मेदार नेता और अधिकारी भी थे.......निश्चित ही अभिवावक भी रहे होंगे.४- हफ्तों पहले से इसकी तैयारी की गयी होगी.
अब विचारणीय यह है कि जिस अपसंस्कृति के लिए ज़िम्मेदार लोगों को चिंतित होना चाहिए था ...वे तो हौसला अफजाई में लगे हुए हैं ......किसी एक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. इसमें अभिवावकों से लेकर हमारी संस्कारहीन शिक्षा का भी पूरा-पूरा योगदान है. अब सवाल यह है कि किया क्या जाय ? कोई इसे रोकना नहीं चाहता ...बढ़ावा देना चाहते हैं लोग. हमारे आपके जैसे कुछ लोग यदि चिंतित होते भी हैं तो उनकी सुनने वाला है कौन ?  

सोलह सिंगार

हम तो बैठे थे ..सोलह सिंगार करके
बेसब्री से इंतज़ार में.
वो आये.....
और ताबड़तोड़ करके क़त्ल हमें 
चल दिए अगले शिकार की तलाश में. 
मर गए हम....रह गयी हमारी कविता 
हमारी  लाश पर भिनभिनाती हुई.
ये शहर भी कितना बेशर्म है 
कितना खेलता रहा है मुझसे,  सारी ज़िंदगी.....
मगर दे नहीं सका एक छोटा सा कफ़न भी.
आज आख़िरी वक़्त में.


मंगलवार, 11 जनवरी 2011

1- 
मुझे पता चल गया है

क्यों थम जाती हैं...... 
सिर्फ नदी की ही साँसें .........
जब भी सख्त होता है मौसम, 
और .........कोई समंदर क्यों नहीं बनता 
खुद एक ग्लेशियर ? .
सूरज का अहम्
क्यों टकराता है बार-बार
चांदनी से ?  
मुझे पता चल गया है ........
"रात" उस दिन भी आयी थी .....
आते ही ...फूट-फूट कर रोई थी 
मैंने देखा ......
उसके ज़िस्म पर
चोटों के गहरे निशान थे.  
२- 
कमाल है .....
बस 
ज़रा सी तो पिघली थी बर्फ़ ......
हिम नदी की 
और इस कदर शोर मचाने लगा समंदर ........!
कमाल है .........
इतने भी आँसू 
समेट नहीं पाता किसी के.......
बड़ा मर्द बना फिरता है . 
३- 
ग़ज़ल

रात दिन .........
ये ज़ो कतरा-कतरा खून 
जलता रहता है न ! मेरे जेहन में  
उसी  के धुंएँ से बनी हैं  .......
ये ढेरों आकृतियाँ ..........
ज़ो इतनी खूबसूरत लगती हैं तुम्हें ......... 
और लोग .......कितने दीवाने हैं 
कि इन्हें ही समझ बैठते हैं 
मेरी ग़ज़ल.
  

सोमवार, 10 जनवरी 2011

......तुम अब भी खामोश हो !

मैंने तो माँगी थी
धूप  की गुनगुनाहट भर 
आग तो नहीं !
फिर क्यों आ गए बहुत से आतिशी शीशे
मेरे 
और सूरज के बीच ?
और क्यों बेताब है 
हर शीशे से निकला 
एक-एक झूठा सूरज 
.......सब कुछ ख़ाक कर देने के लिए ?
अब तो 
झुण्ड के झुण्ड फैल गए हैं ये सूरज...... 
पूरी धरती पर
और संभावनाओं के वृक्ष 
अपने गर्भ में धारण किये एक बीज, 
ज़ो फेंक दिया गया है 
रेत में उगने के लिए
जल कर ख़ाक हो रहा है....आहिस्ता....आहिस्ता....
उधर 
अपने अस्तित्व की रक्षा में 
छटपटा रही है
संभावनाओं   के अंकुरित होने की संभावना.
पुष्प पल्लव अभी कल्पना में हैं 
और प्रतीक्षा 
पश्चिमी क्षितिज पर ...
कहीं खो गयी है 
सूरज ! 
तुम अब भी खामोश हो ???

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

नहीं लौटाना चाहता कुछ चीजें

तुम्हारी भेजी टोकरी में रखे फूलों नें 
हंस-हंस कर.....गा-गा कर  
सारा हाल सुना दिया है तुम्हारा .
इन पीले और गुलाबी फूलों नें 
न जाने कितनी बातें की हैं मुझसे .
और ....अपनी खुशबू के साथ-साथ 
तुम्हारी भेजी वह खुशबू भी चुपके से सौंप दी मुझे    
ज़ो तुम्हारे हृदय से अनजाने ही उपजी होगी.
पल भर में कब घुल गयी वह मेरे रक्त में 
मुझे तो पता ही नहीं चला
..............................
पर मैं 
धन्यवाद नहीं दूंगा तुम्हें 
पता है क्यों .........?
मुझे लगता है 
यह औपचारिकता तो उनके लिए है 
ज़ो बढ़ जाना चाहते हैं आगे ..... 
हिसाब चुकता करके
महज़ किसी व्यापार का दस्तूर सा निभाकर.  
तुम्हारी भावनाओं को तौला नहीं जा सकता किसी तराजू  से 
इसलिए  ........
मैं तो ठहरना चाहता हूँ वहीं  ...
और नहीं लौटाना चाहता कुछ चीजें  
.................................वे चीजें  
ज़ो रहनी चाहिए  हमारे ही पास. 
बस ..., धन्यवाद की जगह 
हृदय से कुछ तरंगें सी निकलती हैं विद्युत् की
निकलती ही रहती हैं ..........
और चलती चली जाती हैं अनंत में 
.......................नृत्य करती हुई
दिव्य है वह नृत्य.   
................................और 
जिसकी चीजें रख ली हैं न ! मैंने आपने पास  
मैं अपनी बंद आँखों से 
मुस्कुराते हुए देखता रहता हूँ उसे  
बस ....देखता ही रहता हूँ निरंतर ...
अब तो पलक झपकाने का व्यवधान भी समाप्त हो गया न ! 
  

बुधवार, 5 जनवरी 2011

.......न जाने कब से

सुलग-सुलग कर ख़ाक होती रही है 
आहिस्ता-आहिस्ता ........मेरे शहर की शराफ़त
.............न   जाने  कबसे  ! 
सरेआम ....
धुंआ बनकर उड़ती रही है ....
ज़हरीली तम्बाकू पर लिपटी सफ़ेदपोश चेतावनी 
.............न जाने कबसे !

ज़िस्म का भूगोल बन गए हैं सारे "तथ्य "
सर्व विदित होकर भी 
रहस्य ही बना रहता है "सब कुछ".
विस्तृत होते-होते 
शून्य हो गया है 'पाप'
जिसे ओढ़कर 
बड़ी सहजता से भागा जा रहा है ये शहर ..न जाने कबसे !!.

हर खूबसूरत चीज़ 
आते-आते इस शहर की सीमा में 
बन जाती है बुत,
इन्हीं बेजान बुतों से 
धनी होता जा रहा ये 'शहर' 
अब 
अपनी सीमाओं को लांघता.......फैलता जा रहा है 
जहाँ काबिलियत की मोहर खरीदने 
बोलियाँ लगाते हैं कुबेर
और पैमाने 
रद्दी से भी सस्ते में बिकते हैं गली-गली.
इसी भावशून्य शहर में 
बिना किसी भाव के 
बड़ी बेदर्दी से घिसटती रही है 
ये ...अपनी भी ज़िंदगी ....आहिस्ता-आहिस्ता ....न जाने कब से !!

टुकड़े ज़िस्म के .......बड़े महंगे हैं 
मगर ज़िंदगी ? 
पेट भर भोज़न में 
ख़रीद लो जितनी चाहो उतनी.
यहाँ बरसती हैं संवेदनाएं ....बिना वेदना के 
और कचरे के ढेर में पडी रहती हैं 
अभावग्रस्त भावनाएं.

पता चला है .......
मंदिर में बैठी मूर्तियों की 
भंग  हो गयी है आस्था...
अपने ही पुजारी के प्रति
और बेतहाशा दौड़ते यथार्थ सहम कर अचानक .....
कहने लगे हैं आदमी से- 
'रुकने का ठौर
कोई  हो तो बता दो 
किनारे तो क्षितिज में समाये हुए हैं न जाने कब से' .

ख़ासियत यही है इस शहर की
कि सरेआम होती रही है बे-आबरू 
शहर के  इक्के-दुक्के शरीफ़ों की शराफ़त.
टुच्चे 
नसीहतें देने निकले हैं 
और क़ातिल 
फ़ैसले करने लगे हैं सड़क पर.
तुमने तो देखा है मेरे भाई 
न्याय की आँखों पर 
पट्टी बंधी है न जाने कबसे !!

शनिवार, 1 जनवरी 2011

अंतरजाल की आचार-संहिता



विचित्र है अंतरजाल की रहस्यमयी माया 
स्वतंत्रता और सम्प्रेषण के इस मार्ग नें सभी को लुभाया 
किसी को हर्षाया ..किसी को भरमाया 
किसी को निखारा ...किसी को मंच तक पहुंचाया  
कहीं विवाद करवाया .... कहीं तनाव करवाया  
कहीं किसी बिछुड़े को मिलवाया ... 
तो किसी को मधुर प्रेम के बंधन में बांधा  
 ...हर क्षण ...हर पल सबको कुछ न कुछ सिखाया /  

हमें भी आपकी तरह कुछ नए रिश्ते मिले हैं  
दूर-दूर अनजाने देशों में नए-नए फूल खिले हैं 
और उनकी खुशबू नें सराबोर कर दिया है मेरी आत्मा को 
मैं ऋणी हूँ ...उन सबका  
जिन्होंनें अति सूक्ष्म संवेदनाओं का परिचय दिया 
मन की आँखों से मुझे देखा 
..अपनी संवेदनाओं से मुझे स्पर्श किया  
ज़ो कल तक ....."होगा कोई मुझे क्या ?" से पहचाने जाते थे 
आज ..."तुम सा कोई नहीं ".....या "मेरे अज़ीज़" की तरह पहचाने जाते हैं 
सब नें दिलों में उनकी तस्वीरें बना रखी हैं 
..अपने-अपने क्षितिजों को और विस्तृत कर लिया है / 
टूट चुकी हैं धर्म और जाति की दीवारें 
यहाँ केवल प्रेम के झरने बह रहे हैं 
और तुम अभी भी अपने अँधेरे ...बदबूदार कुएं में से बाहर नहीं आना चाहते !!!!!!!
आश्चर्य है ..........धर्म के नाम पर 
अपने को श्रेष्ठ और दूसरों को हेय सिद्ध करना चाहते हो 
हम तो खड़े हैं तुम्हारे दरवाज़े पर कब से 
तुम्हीं नें इतने कांटे बो रखे हैं 
कि भीतर घुसने में डर लगता है 
आइये नव वर्ष में हम प्रतिज्ञा करें कि 
अंतरजाल की दुनिया में किसी का दिल नहीं दुखायेंगे 
और इंसानियत ...सिर्फ इंसानियत की बात करेंगे 
नफ़रत की जगह प्रेम और सिर्फ प्रेम ही बाटेंगे 
....और इस तरह हर सुबह नव-वर्ष मनाएंगे 
पर इससे पहले 
अंतरजाल की एक आचार-संहिता बनायेंगे 
और उसका ईमानदारी से पालन करेंगे /