शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

गंगा सी बहती जाऊंगी


कुछ न कहूँगी, सब सह कर भी  
चुपके से आँसू पी लूँगी.
जाने कितनी चोटें खाकर 
चलना सीखा आज संभलकर 
साथ ज़ो दोगे, तो भी  न लूँगी 
कांटे निर्भय हो चूमूँगी.

इश्क से मैंने इश्क किया है 
जहर मिले तो वो भी अमृत है 
मैं दीवानी भेद न जानूँ  
पी के ज़हर मैं शहर घूमूँगी.


मैं धरती हूँ रंग-बिरंगी 
तुम तो छूँछे नीलगगन हो 
मैं कजरी गैया सी दुधारू 
तुम तो दुहने में ही मगन हो 
लेकर मैं निर्मल शीतल जल
पल भर को भी बिन ठहरे ही 
गंगा सी बहती जाऊँगी.


मैं वर्षा की बूँद नहीं हूँ 
बदली से आँसू बन ढरकूँ   
तुम पर्वत केवल पथरीले 
क्यों मैं जब-तब टप-टप टपकूँ   
घाव लगे हों कितने भी मुझको
दिखने मैं कोई घाव न दूँगी.


आज भी धधके धरती ये भीतर
कोई क्या जाने कितनी है कातर. 
हर हलचल में भी हँसती हूँ 
पीड़ा के सागर ढोती हूँ.
जब कोई सीता ठौर न पाती 
आकर मुझमें ही वो समाती. 
अपना सीना चीर मैं लूँगी 
मैं धरती हूँ सब सह लूँगी. 



11 टिप्‍पणियां:

  1. अंकल आप गीत भी लिखते हैं ? ......ठीक ही है .....पर ये आख़िरी वाला कुछ जम नहीं रहा है ....वैसे आपने लिखा है तो ठीक ही होगा.

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  2. बहुत सुन्दर अभिब्यक्ति| धन्यवाद|

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  3. rachana sarahneey hai.
    भीतर आज भी धधके ये धरती
    हर हलचल में भी हँसती हूँ
    ढोये कितने सागर पीड़ा के
    सारे सागर मुझमें समाये
    सीता के लिए तो चीर लूँ सीना
    मैं धरती हूँ सब सह लूँगी.
    kya baat hai

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  4. भीतर आज भी धधके ये धरती
    हर हलचल में भी हँसती हूँ
    ढोये कितने सागर पीड़ा के
    सारे सागर मुझमें समाये
    सीता के लिए तो चीर लूँ सीना
    मैं धरती हूँ सब सह लूँगी.
    lajawab panktiyan
    KYA BAAT HAI!!!!!!!!
    KYA BAAT HAI!!!!!!!!
    KYA BAAT HAI!!!!!!!!

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  5. धरती की वेदना की वास्तविकता, धरती माता की वेदना आपके शब्दों में मूर्त्त होती प्रतित होती है!! कौशलेंद्र जी, यह चिंगारी जो आपकी कविता में दिखती है, बड़े विरले ही पाई जाती है!

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  6. बड़ी सुन्दर ,गीत की लय में निबद्ध रचना ,
    मोड़ के कोने से टकराकर एक क्षण को अपनी लय
    से हटती किन्तु आगे जाकर फिर से अपनी लय प्राप्त करती हुई ,
    नदी की तरह प्रवहमान ! बधाई !

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  7. आप सभी महानुभावों का ह्रदय से आभार !!! योगेन्द्र पाण्डेय जी ! मिसिर जी ! आपकी नई रचनाओं की प्रतीक्षा है.

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  8. मैं ही 'शिव' हूँ, परमात्मा, या आत्मा, जो पानी में नहीं घुलती, अग्नि से नहीं जलती, हवा से नहीं सूखती,,, केवल वो जीव जो सागर-मंथन से उत्पन्न विष को धारण करने में सदैव सक्षम है; नटराज, अनादिकाल से एकपदा अपनी धुरी पर नाचते,,,लता और वृक्ष मेरे जटा-जूट, धूलिकण मेरी अंग-भस्म,,,मैं ही 'गंगाधर' और 'चंद्रशेखर' (सौरमंडल के रूप में 'महाशिव'!)...
    वो भी रहस्यवाद के कवि ही थे जिन्होंने तथाकथित जनक-पुत्री, सीता, को धरती का सीना चीर उसके बीच समाते दिखाया था, और उस नन्ही बालिका को राजा जनक को हल चलाते समय 'घड़े के भीतर' मिलते भी दिखाया,,,जबकि वर्तमान वैज्ञानिक सत्य यह है कि चन्द्रमा कि उत्पत्ति पृथ्वी से ही हुई (जिसके कारण सौरमंडल के सदस्य अमृत हो गए और ४ अरब वर्षों से अधिक लीला कर रहे हैं!)...

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  9. ....................
    ...................
    ............

    फिर से आँखें नम हो गईं .....!!

    जवाब देंहटाएं

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.