रविवार, 13 मार्च 2011

गुलमोहर


मेरे खेत की मेड़ पर 
एकाकी ही खड़ा है 
गुलमोहर.
दूर से
बरबस ही खींचता हुआ सा...
आमंत्रण का 
सम्मोहन लिए.
मैंने सोचा
वहाँ होगी 
फूलों की लालिमा में बसी 
प्रीति
और.......... 
शीतल छाँव .
पर ....
अरे यह क्या ..?
गुलमोहर तो दहक रहा है
पत्तों का तो लेश भी नहीं
(शायद झुलस गए होंगे)
छाँव हो भी तो कहाँ से !
उसके नीचे तो बिछी हैं 
झड़े हुए अंगारों की चिंगारियाँ.
पर क्या करूँ अब ?
खिंचता हुआ 
आ तो गया हूँ 
यहाँ.......छलिया  के पास .
............................
प्रेम के छद्म आवरण में 
दहक रहा है गुलमोहर
और मैं 
झुलस रहा हूँ उसकी आँच में .
वापस जाऊँ भी तो कैसे ?
काश !
थोड़ी सी छाँव भी देते तुम 
ताकि तुम्हारे साए में बैठ 
निः शेष कर देता 
अपना सारा जीवन.  


7 टिप्‍पणियां:

  1. थोड़ी सी छाँव भी देते तुम
    ताकि तुम्हारे साए में बैठ
    निः शेष कर देता
    अपना सारा जीवन.

    बहुत सुन्दर ....गुलमोहर का पूरा दृश्य अंकित हो गया

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  2. छलिया .....?
    ):

    बड़े बेरहम होते हैं ये गुलमोहर .....
    डॉक्टर साहब! आज तो सुर बदले बदले से हैं.....
    ):):

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  3. डॉक्टर साहब! आप तो दिल के डॉक्टर होते जा रहे हैं.. आपकी हर कविता दिल को छूती है और स्तब्ध कर देती हैं.. शब्दहीन!

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  4. गुल्मोहर विषय को पकड़ कर कई सारी बातें बतियाती सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार करने भाई कौशलेंद्र जी|

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  5. मेरे खेत की मेड़ पर
    एकाकी ही खड़ा है
    गुलमोहर.
    दूर से
    बरबस ही खींचता हुआ सा...
    आमंत्रण का
    सम्मोहन लिए.....

    सुन्दर प्रतीक ...भावनाओं का बहुत सुंदर चित्रण . ...
    बधाई....

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  6. हमारे लगे कौनो शब्द नइखे लगा ता ही हमरे मन के भावना तू लिख देले बाड़ा ..

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.