रविवार, 27 मार्च 2011

बह रही है आज भी वह धार ...




लौट जाओ 
बस यहीं होकर...... .
पर्वतों ने कर दिया उद्घोष


वे इस तरह अकड़े खड़े थे
गर्व से यूँ कह रहे थे 
रोक लूंगा मैं 
हवाओं की बहार
जाने न दूँगा
मैं किसी को पार.

मुस्कराई धरती 
धर दिया फिर चीर कर सीना 
अकड़ते पर्वतों का. 
झर-झरा कर झर पड़ी प्रेयसी ब्रह्माण्ड की 
और फिर झरने लगी एक 
प्रेम की सरिता..... 
चूर करती पर्वतों के गर्व को 
धकेलती..........बुहारती ..... 
प्रेम से वह पत्थरों को
बढ़ गयी ....बढ़ती गयी होकर 
वह पर्वतों से ...और भी आगे.
घमंडी पर्वतों के पार ..
बह रही है आज भी वह धार ...


सीख कर निर्बंध सरिता से सबक 
चूम कर उसके मुहाने को 
पवन ने भी राह पकड़ी 
चोटियों की 
हो गया फिर पार 
उठकर और भी ऊंचा 
प्रेम उसके संग ज़ो था ... 
रह गया पर्वत अकड़ता 
हो गया नीचा...और भी नीचा . 


6 टिप्‍पणियां:

  1. झर-झरा कर झर पड़ी प्रेयसी ब्रह्माण्ड की
    और फिर झरने लगी एक
    प्रेम की सरिता.....
    चूर करती पर्वतों के गर्व को

    बहुत सुन्दर कविता कौशलेन्द्र जी,...... बेहतरीन शब्द संयोजन.......प्रकृति हमें कितन कुछ सिखाती है........जहाँ पर्वतों को झुकना पड़ता हो वहाँ हम मनुष्यों की तो क्या बिसात .......तो भी हम पता नहीं किन-किन व्यर्थ बातों में उलझते और अकड़ते रहतें हैं ...........बधाई स्वीकारें...........

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  2. और फिर झरने लगी एक

    प्रेम की सरिता

    चूर करती पर्वतों के गर्व को....

    **********************

    भावपूर्ण सुन्दर रचना

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  3. प्रेम की सरिता.....
    चूर करती पर्वतों के गर्व को
    धकेलती..........बुहारती .....
    प्रेम से वह पत्थरों को
    बढ़ गयी ....बढ़ती गयी होकर
    वह पर्वतों से ...और भी आगे.
    घमंडी पर्वतों के पार ..
    बह रही है आज भी वह धार ...

    बहुत ही कोमल भावनाओं में रची-बसी खूबसूरत रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई।

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  4. प्रकृति में अपने रंग भरती दृष्टि.

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  5. सीख कर निर्बंध सरिता से सबक
    चूम कर उसके मुहाने को
    पवन ने भी राह पकड़ी
    चोटियों की
    हो गया फिर पार
    उठकर और भी ऊंचा
    प्रेम उसके संग ज़ो था ...
    रह गया पर्वत अकड़ता
    हो गया नीचा...और भी नीचा .


    waah sunder rachna ke liye badhai sweekar karein

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  6. रह गया पर्वत अकड़ता
    हो गया नीचा...और भी नीचा .

    ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
    सुन्दर रचना है...प्रकृति अकड़ने वाले को खुद ही सबक सिखा देती है..

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.