गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

मंथन जो अपरिहार्य हो गया है

                इच्छा द्वेषात्मिका तृष्णा सुखदुःखात्  प्रवर्तते . तृष्णा च सुखदुःखानाम् कारणं पुनवर्तते . 

     यही तो चक्र है .....जगत् का चक्र .......आवागमन का चक्र . प्राणवान शरीर का धर्म है - सुख दुःख की अनुभूति. इन अनुभूतियों में मानव मस्तिष्क की चेतना की क्रियाशीलता का अवक्षेप है. इनका श्रेष्ठतम भोक्ता है मनुष्य. जीवन को गति मिलती है इन्हीं अनुभूतियों से. इनका विराम जीवन का विराम है या फिर मोक्ष की प्राप्ति.
     हम जगत की ओर चलते हैं , नितांत सांसारिकता की ओर ....यहाँ विविधताएं हैं ...अनुभूतियों की विविधताएं. किन्तु क्या शुद्ध भी ? 
    नहीं ....यहाँ तो व्यापार हो रहा है अनुभूतियों का. सभ्य संसार का सुविधाभोगी मनुष्य वंचित है शुद्ध अनुभूतियों से . शुद्ध का यहाँ आशय है - नात्यल्प. 
    अनुभूतियों को इमानदारी की आवश्यकता होती है अन्यथा वे शुद्ध नहीं रह पातीं और आवृत्त हो जाती हैं पाखण्ड से. 
     नाना देवस्थलों ......शक्तिपीठों में भटक रहा है पूरा विश्व ......किन्तु पाखण्ड से मुक्त नहीं हो पा रहा. सभ्य मनुष्य की कैसी विवशता है यह ?  
    चाहे अनचाहे हम सभी की भागीदारी है इस पाखण्ड के पालन-पोषण में. कौन मुक्त रख सका है अपने को इससे ? 
        .......जन्म की प्रसन्नता और मृत्यु की पीड़ा में पाखण्ड.........जीत और हार में पाखण्ड.......पूजा और श्रृद्धा में पाखण्ड.......शिक्षा और संस्कार में पाखण्ड.....सम्मान और उपकार में पाखण्ड.....एक प्रतियोगिता सी व्याप्त हो गयी है. पाखण्ड से पूर्णतः आवृत्त हो चुके हैं हम. निंदा भी करते हैं इसकी ...तथापि मोह प्रबल है इसके प्रति . क्या है यह पाखण्ड ? अतिरंजना ही तो ! मिथ्या प्रदर्शन का आडम्बर . करणीय को अकरणीय घोषित करना और अकरणीय को करणीय प्रतिष्ठित करना. अमेरिका आक्रमण करे तो करणीय और भारत प्रत्याक्रमण करे तो निन्द्य. परिभाषाएं भी कितनी निर्लज्ज  हो गयी हैं.
     धर्म और जाति के बंधन में जकडे हैं जो, मनुष्य गौण हो गया है उनके लिए. बँट गया है समाज,  बँट गया है मनुष्य, बँट गयी हैं भावनाएं ....रह गया है मात्र पाखण्ड. "सबै भूमि गोपाल की " और..... "वसुधैव कुटुम्बकम्" के आदर्शों वाला भारत खंडित होता जा रहा है निरंतर .....और निरंतर........ कहाँ गयीं अनुभूतियाँ ? कहाँ गयीं संवेदनाएं ? 
     बाँट दिया है हमने अपने आप को, छिन्न-भिन्न हो गयी है हमारी आदर्श व्यवस्था.  समाज और शासन की व्यवस्थाएं पाखण्ड से भरी पडी हैं. पहले यूरोपियों ने विज्ञान को धर्म से पृथक किया और अब उन्हीं के द्वारा लोगों का बलात् धर्मांतरण किया जा रहा है........अधर्मपूर्वक धर्मांतरण. पहले उन्होंने कहा था - विज्ञान ही सब कुछ है और धर्म कोरी बकवास. अब कह  रहे हैं - अपने  सनातन धर्म का परित्याग कर हमारे धर्म की शरण में आओ, हम तुम्हें सुख समृद्धि, शिक्षा, स्वास्थ्य, शान्ति और प्रेम ...सब कुछ देंगे. 
    आज इक्कीसवीं शताब्दी का सभ्य भारतीय, जो अपने सनातन धर्म का परित्याग कर विदेशी धर्म को अपना चुका है और पश्चिमी ऐश्वर्य से प्रभावित है, कहता है - यदि तुम हमारे धर्म को नहीं स्वीकारोगे तो नरक में जाओगे, तुम्हारे ऊपर विपत्तियों के पहाड़ टूट पड़ेंगे. ....तुम्हारे देवी-देवता पापी हैं ....तुम्हारा ईश्वर भी पापी है......  
   धर्म 'उनका' हो गया है. वे 'धर्म' के नहीं हैं . उन्होंने ईश्वर को भी बाँट दिया है .....हमारा ईश्वर ....तुम्हारा ईश्वर, अच्छा ईश्वर .....पापी ईश्वर .
    योगी इन सबका समर्थन या विरोध नहीं करता क्योंकि वह निर्लिप्त है इन सब से. जो निर्लिप्त होता है वह योगी होता है ..जो योगी होता है वह स्वामी होता है अपनी इच्छाओं का ...अपनी इन्द्रियों का. वह बश में कर लेता है उन्हें.
   योगी राष्ट्र का संचालन नहीं कर सकता.  इसलिए सभी योगी नहीं होते . किसी की इच्छाएं प्रबल होती हैं......प्रबल और दुर्दांत ....वह भी वशीकरण जानता है. वह वश में कर सकता है समाज को ....शक्ति को ....धन को ...सत्ता को ....क्योंकि वह वस्तुतः योगी नहीं "जोगी" होता है (छत्तीसगढ़ के विशेष सन्दर्भ में लिया जाय )......और जोगी पाखंडी होता है, केवल पाखंडी. क्योंकि वह उदारता और सहिष्णुता, करुणा और उपकार , न्यायप्रियता और कर्मठता आदि का अभिनय करने में कुशल होता है. 


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     एक निर्धन था ......इसीलिये लोगों की दृष्टि में असभ्य भी था. किसी सभ्य नगर के दंडधारी राजसेवक किसी को खोजते हुए उसके पास पहुंचे. निर्धन ने पूछा - किसे खोज रहे हो ? उत्तर मिला - अपराधी को. निर्धन ने कहा- वह यहाँ कहाँ मिलेगा ? सभ्यों की बस्ती में चले जाइए, बहुत मिलेंगे. 
    सभ्य कृत अपराधों की न्यायिक जाँचों का पाखण्ड हमारी पारदर्शी अपसंस्कृति का एक अंग बन चुका है. और न्याय ..... ...एक दुर्लभ विषय जिसे देने और पाने का मंचन अब पूरी तरह व्यवस्थित हो चुका है. 
   आज का तथाकथित सभ्य यदि सुविधाभोगी है तो वह न्याय की अवधारणा को समझ ही नहीं सकता. क्या है यह न्याय ? ....विवेकी मनुष्य की अकिंचन एवं निर्लिप्त संवेदनाओं का प्रतिफल ....जो व्यवस्था के लिए निष्पक्षता और सत्यनिष्ठा के साथ समर्पित हो सके...............हो पाता है यह सब ? 
      पाखण्ड ! ........एक वर्जना........और यह वर्जना ही हमारे जीवन व्यापार का एक अंग बन चुकी है. आधुनिक सभ्यता की पराकाष्ठा है - पाखण्ड को समाप्त करने के उपदेशों और अभियानों का एक और पाखण्ड. ऐसे लोग ऐश्वर्य के साथ जीते हैं क्योंकि पाखण्ड के सबसे बड़े पोषक तो वे ही हैं. सच्चा मनुष्य तो मर जाता है अल्पायु में ही .....संघर्ष करते-करते. 
    एक तंत्र है जो जीने नहीं देता सच्चे मनुष्य को. विषपान करना पड़ता है उसे ......या सूली पर चढ़ना पड़ता है .....या और कोई ऐसी ही पीड़ादायी असमय मृत्यु का वरण करना पड़ता है. उसकी मृत्यु के पश्चात वही तंत्र मंच पर पुनः प्रकट होता है और मृतक को महिमा मंडित कर एक और नया व्यापार प्रारम्भ कर देता है. 
   हे ईश्वर ! इस अखिल ब्रह्माण्ड में इतने प्राणियों के होते हुए भी इस मनुष्य नामक सर्वाधिक भयानक एवं क्रूर प्राणी की रचना क्या इन्हीं सब व्यापारों के लिए की है तूने ? 
   अनंताकाश में टिमटिमाते खगोलीय पिंडों का अभिभूत कर देने वाला दृश्य, पृथिवी पर  फैले विशाल समुद्रों 
का आश्चर्यकारी सौन्दर्य, हिमाच्छादित उत्तुंग पर्वत शिखरों की दिव्यता, हरे-भरे पेड़-पौधे, रंग-बिरंगे पुष्प, उड़ती हुयी रंगीन तितलियाँ, उछल-कूद करता गाय का छौना और वर्षा ऋतु की रातों में झींगुरों के संगीत में होने वाले ईश्वर के दिव्य गुणगान के पश्चात्  अब और क्या है जिसके लिए मनुष्य विकल हो गिरता-पड़ता...लहू-लुहान होता भागा चला जा रहा है ?       
      
     


    

रविवार, 24 अप्रैल 2011

आस्था का संकट


     वाणी ईश्वर का अनमोल वरदान है. इसकी वैज्ञानिकता जटिल और अद्भुत है, इसीलिये इसके रचयिता के प्रति नत मस्तक होना पडा था महाकवि कालिदास को -

वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये. 
जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ .  

      पुस्तक वाचन की प्रक्रिया में अक्षर (लिपि) से वाणी और वाणी से अर्थ तक की यात्रा मस्तिष्क की जटिल प्रक्रियाओं में से एक है और अद्भुत भी. 
     अक्षर को 'ब्रह्म' कहा है ज्ञानियों ने, यह ऊर्जा का स्थितिज (potential ) रूप है .....वाणी इसका गत्यात्मक (kinetic) रूप है, मन्त्र की शक्ति का यही रहस्य है. मन्त्र सिद्धि की प्रक्रिया स्थितिज ऊर्जा को गतिज ऊर्जा में रूपांतरित करने की प्रक्रिया है ....किन्तु इस विषय पर फिर कभी. अभी तो वाणी पर ही चर्चा अभीष्ट है.
      कभी ध्यान दिया है आपने, भाषण देते या वार्ता करते समय जब शब्द या विचार कहीं खो से जाते हैं तो 'अs' या 'ऊँ s s s ' के सम पर अटक कर कुछ खोजते हुए आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं हम सब ......यह एक सहज मानवीय अभ्यास है . किन्तु प्रश्न यह है कि 'अ' या 'ऊँ' ही क्यों ? कोई अन्य अक्षर क्यों नहीं ? 
     मानवीय वाणी की शरीरक्रिया (physiology of the speech), मानव की सर्व प्राणियों में श्रेष्ठता, स्वर और भाषा की वैज्ञानिकता तथा ईश्वर की रचना-क्रिया के मध्य एक निश्चित सम्बन्ध है. इस सम्बन्ध के चिंतन......विश्लेषण में जब डूबते हैं तो आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहा जाता. 
     जो संस्कृत एवं आर्य भाषाओं में 'अ' है वही रोमन भाषाओं में 'A ' के रूप में है. मध्य एशिया की भाषाओं में वही 'अलिफ़' है तो ग्रीक भाषा में वही 'अल्फा' बन कर प्रकट होता है. 
     'अ' आदि है - भाषा का ....स्वर का ....सृष्टि का. 'अ' के अतिरिक्त शेष सभी अक्षर अपूर्ण हैं. 'अ' के मिलने से ही पूर्ण होते हैं सब. 
    'अ' आदि है और अंत भी; 'अ' जीवन है और मोक्ष भी; 'अ' स्वीकार है और निषेध भी; 'अ' पूर्ण है और पूरक भी. 'अ' अन्धकार में प्रकाश है. अटकने-भटकने पर यही 'अ' मार्ग देता है ....आगे बढ़ने का सेतु बनकर.
    'अ' से प्रारम्भ होकर 'अ' में ही विलीन हो जाती है सृष्टि. ब्रह्म है यह, ॐ भी, अल्लाह और आमीन भी. कभी यह आश्चर्यचकित करता है हमें ...और कभी रहस्य प्रकट करके समाधान भी करता है.
    देश, जाति, धर्म, रीति......नीति सबसे अप्रभावित 'अ' अखंड है ...अनंत है. चाहकर भी कोई त्याग नहीं सकता इसे.       
      सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को गति देने वाला 'अ' सभी को एक सूत्र में पिरोकर बाँधता है. आश्चर्य है,   फिर क्यों बँट गए लोग ...देश के नाम पर ...भाषा के नाम पर ....जाति के नाम पर .....?  
      'अ' की ऊर्जा के अभाव में किस पूर्णता को पाया जा सकेगा ? 
....नहीं ...ब्रह्म के टुकड़े नहीं हो सकते, अखंड को खंडित नहीं कर सकते आप ....जन्म से मृत्यु के मध्य ....कभी नहीं. तब .......? क्यों झगड़ते हैं लोग ..........? क्यों होता है रक्तपात .........? क्यों होते हैं युद्ध ..........? क्यों होती है अनास्था ..........? क्यों उगते हैं वाणी में कंटक .........? प्रेम क्यों नहीं झरता वाणी से ...? वह भी तो हमारे ही हाथ में है न ! 
    हाँ ! यह अहम् है ...निज का अहम्............खंड का अहम् ........अखंड की सत्ता को स्वीकार न करने का अहम्. इसी अहम् की रक्षा के लिए बनते और टूटते हैं देश, बँटते हैं लोग ...और बिगड़ते हैं सम्प्रदाय. आज,  भूमंडलीकरण के इस युग में यदि 'अ' की आस्था से डिग गए हम .....तो हमारा अंत अधिक दूर नहीं रह जाएगा. ............और इस बार जब प्रलय होगी तो व्यापक होगी वह. 
    आस्था के संकट से उबर कर बाहर आना होगा सबको-  जीवन की रक्षा के लिए .....जीवन की सुन्दरता के लिए .......ईश्वर की सृष्टि के लिए. और इसके लिए सहज-सरल उपाय है वाणी की मधुरता.      
     

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

पतझड़ के बाद



उन्हें 
अच्छी तरह पता है 
कि झूठी तारीफ़ की है उन्होंने 
एक दूसरे की..............
फिर भी 
दोनों खुश हैं 
अपनी-अपनी तारीफों से.
दर असल .............
तारीफ़ के लायक 
कुछ है ही नहीं उनके पास 
अगर कुछ है भी 
तो वह है एक भूख ....
प्यार की सनातन भूख 
जिसके बिना ज़िंदगी 
कितनी मुश्किल होती है
यह समझना 
कतई मुश्किल नहीं है .
..................................
.................................
औरों की तरह 
उनकी भी चाहत थी ..........
आकाश में उड़ने की 
वे जिस पेड़ पर रहते थे 
उस पर ...असमय ही 
पिछले पतझड़ के बाद 
फिर कभी नहीं उगे 
नए पत्ते. 
जो पुराने थे 
टूट कर गिर चुके हैं 
गिर कर बिखर चुके हैं 
उन्हें समेट कर 
कोई कैसे चिपका ले 
अपनी शाखों से ?
अब तो 
वसंत की कल्पना ही करनी होगी 
प्रति वर्ष  
वसंत का उत्सव भी मनाना होगा 
बिना ..............
वसंत के आगमन के ही. 
जीने के लिए 
हर्ज़ नहीं है
झूठे उत्सव मनाने में  
इतने असत्य से 
पाप नहीं लगेगा,
आपको 
मेरा इतना विश्वास करना ही होगा
क्योंकि पतझड़ के बाद भी 
ख़त्म नहीं हो जाता जीवन.  

सोमवार, 18 अप्रैल 2011


पढ़ा लिखा 

वह 
ढोल पीटकर 
सबको सचेत करता रहा 
शेर को बदनाम करता रहा 
फिर एक दिन 
मौक़ा देख
पहले शिकार को 
फिर शेर को 
मार कर खा गया
ढोल वाला 
सभ्य सा दिखने वाला 
एक पढ़ा लिखा आदमी था     

 २- कुतर्क 

मैं ही नहीं 
दुनिया का हर प्राणी है 
अवसरवादी
चिड़ियों को ही देख लो
सुबह पूरब को 
तो शाम पश्चिम को   
भरती हैं उड़ान 
अपने स्वार्थ की
उन्हें भी है पहचान 
फिर लोग क्यों करते हैं
सिर्फ मुझे ही बदनाम 

३- तर्क 

वह 
तमसोमा ज्योतिर्गमय 
जपता रहा
तमस को ओढ़ता रहा
चिड़ियाँ 
प्रेम के गीत गाती रहीं
सुबह पूरब 
और शाम पश्चिम की 
उड़ान भरती रहीं
उन्हें 
दिशा का ज्ञान नहीं 
मंत्र की पहचान नहीं
वे तो सिर्फ 
सूरज के साथ जागतीं 
सूरज के साथ सोतीं
दिन भर उसी का अनुगमन करतीं 
तमसोमा ज्योतिर्गमय को जीती हैं
सुना है 
उन्हें रात को गहरी नींद आती है
बिना मन्त्र का जप किये
मनुष्य 
तरसता है
ज़रा सी नींद के लिए 
इतने जप करने के बाद भी

४- वैज्ञानिक 

वह 
दिन भर सपने देखता है 
रात भर नींद को तरसता है
फिर नींद पर शोध करता है 
नींद की गोलियाँ बनाता है
और इस उपलब्धि पर 
अपनी पीठ ठोंकता है 
इस बीच 
नींद 
और भी दूर भाग गयी है



बुधवार, 13 अप्रैल 2011

मेरी हिमालय यात्रा

     जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी.........पर मैं प्रभु की मूरत नहीं देख सका अभी तक. क्या करूँ ...चाहता तो हूँ देखना .....पर न जाने क्यों मैं सदा ही काँटों में उलझ जाता रहा हूँ ....कदाचित भावना ही उस स्तर की नहीं बना सका कभी. कई वर्ष पहले गंगोत्री यात्रा पर गया था. आज उसी के संस्मरण प्रस्तुत हैं आप सबके लिए.  आज से दो-चार दिन के लिए घने जंगल में जा रहा हूँ लौटकर भेंट होगी तब तक आप लोग देखिये हिमालय के ये कुछ दृश्य   


प्रस्थान .......दक्षिण से उत्तर की ओर 
        
        हिमालय ने मुझे सदा ही अपनी ओर आकर्षित किया है तथापि कई कारणों से कभी हरिद्वार से आगे नहीं जा सका. पर इस बार बस्तर के कुछ लोगों के आग्रह पर कार्यक्रम बनाना ही पडा. जाने वाले लोगों के दल में कई लोग ऐसे भी थे जिन्होंने कभी रेलयात्रा नहीं की थी. यह उनके जीवन का प्रथम अवसर था जब वे रेलयात्रा करने वाले थे. निश्चित ही इसकी कल्पना भी उनके लिए किसी रोमांच से कम नहीं थी. 
   मई की तपती धूप में छत्तीसगढ़ के दक्षिणी छोर से उत्तरांचल की यात्रा कोई सहज न थी किन्तु हिमालय के दिव्य आकर्षण ने हम सभी को मार्ग की भीषण ग्रीष्म की उपेक्षा करने को बाध्य कर दिया था. छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस जब सहारनपुर पहुँची तब रात के दो बज रहे थे. स्टेशन पर हवा अपेक्षाकृत शीतल थी और सभी लोगों की आँखें नींद से बोझिल थीं. साथ के कुछ लोग तो स्टेशन पर ही सो गए, कुछ इधर-उधर चहल कदमी करने लगे. तभी मेरी दृष्टि उस दिन के ताजे-ताजे आये समाचार पत्र पर पडी. मुखपृष्ठ पर ही एक अशुभ समाचार पढ़ने को मिला. रात में सहारनपुर के एक धार्मिक स्थल में कुछ अराजक तत्वों ने बम विस्फोट कर दिया था. पढ़कर मुझे लगा कहीं गोधरा की लपटें यहाँ भी तो नहीं पहुँच गयीं ? क्लांत मन को हिमालय की सुरम्य गोद में कुछ देर के लिए सौंप देने घर से निकला था पर मन अनायास ही और भी क्लांत हो गया. मैं चिंतित हो उठा, सुबह होते-होते कहीं पूरा शहर ही साम्प्रदायिक हिंसा की आग में न जलने लगे. मुझे जयपुर की उस साम्प्रदायिक घटना का स्मरण हो आया जिसके कारण मात्र तीसरे दिन ही अपने सारे भ्रमण कार्यक्रम स्थगित कर मुझे शहर छोड़ना पडा था. होटल की गाड़ी ने रात में ही पुलिस के संरक्षण में हमें रेलवे स्टेशन तक पहुँचा कर अपने हाल पर जीने मरने के लिए छोड़ दिया था. 
   मैंने साथ के लोगों से चर्चा की पर कदाचित ऐसी किसी स्थिति का पहले कभी सामना न होने के कारण वे सब निस्पृह से लगे. यात्रा का सच्चा आनंद तो वे ही ले रहे थे और मुझे उनके साथ के बच्चों की चिंता खाए जा रही थी. यह वह समय था जब गोधराकाण्ड की लपटें अभी पूरी तरह ठंडी भी नहीं पड़ी थीं. खैर, भोर होते ही सब को नींद से जगा कर हमने हरिद्वार की ओर प्रस्थान किया.      


 धर्म क्षेत्रे ...तीर्थ क्षेत्रे  -


    आज हम ऋषिकेश में थे. सूर्यदेव अस्ताचल को जा चुके थे. गंगा के घाट पर श्रद्धालुगण पुष्प-दीप लेकर संध्या की आरती की प्रतीक्षा कर रहे थे. ऐसा ही एक दृश्य कल हरि की पौड़ी पर भी देखा था. पत्तों की लघु नौकाओं पर प्रज्ज्वलित दीपों की गंगायात्रा का मनोहारी दृश्य ......एक साथ अनेकों दीपनौकाओं की गंगायात्रा .....प्रज्ज्वलित दीपों का जल में पड़ती अपनी-अपनी छायाओं के साथ यात्रा का अनोखा दृश्य.......
मैं देख रहा था - परस्पर होड़ सी लगा रही दीपनौकाओं का परस्पर टकराना, टकराकर किसी का आगे निकल जाना...किसी का जल-समाधि ले लेना. जीवन की प्रतियोगिता, कामनाओं की सफलता की प्रतियोगिता .............दृश्य मुझे जाने-पहचाने से  ...प्रतिबिम्ब से लग रहे थे .
      थोड़ी ही देर में आरती का कार्य संपन्न हो गया. हम वापस लौटने लगे तभी कान में वाकयुद्ध की कर्कश ध्वनियाँ टकरायीं. घाट पर कुछ ऊपर चढ़कर देखा, एक घने वृक्ष के नीचे साधुओं का जमघट था जहाँ से ये कर्कश ध्वनियाँ आ रही थीं. एक सत्रह-अठारह वर्ष की लड़की के साथ एक पैंतीस की आयु का गेरुआ वस्त्रधारी साधु वाक् युद्ध कर रहा था. मैंने ध्यान से देखा, इकहरे बदन की वह विवाहिता लड़की युद्धक्षेत्र में मोर्चे पर अकेली ही थी. जबकि प्रतिपक्षी के साथ था पूरा अखाड़ा. साधु उसे बारबार धमका कर भगाने की चेष्टा कर रहा था जबकि लड़की उसे बराबर कोसे जा रही थी. अचानक साधु उठकर खडा हो गया और लड़की की ओर बाहें फटकारते हुए , नारी गुप्तांगों के वर्णन के साथ उसे अश्लील गालियाँ देने लगा. उस तीर्थ क्षेत्र में बाहर से आये श्रृद्धालुओं के लिए ऐसा दृश्य अपूर्व था ...सब चकित होकर देख रहे थे. स्थानीय लोगों के लिए यह मनोरंजन का   कार्यक्रम था. हरि का द्वार मुझे साक्षात असुर द्वार लगने लगा था ......कुछ समय पूर्व आयी दिव्यत्व की अनुभूति पूरी तरह तिरोहित हो गयी.
      तीर्थयात्रियों की भीड़ चारो ओर से मधुमखियों की तरह खिंचकर वहाँ जमा होने लगी. साधु अब तक हिंसक हो उठा था ...लोग किसी मनोरंजक दृश्य की प्रतीक्षा में थे. मैं पशोपेश में था ........लोगों की तमाशाई वृत्ति से मेरा क्रोध भड़क रहा था. मैं कुछ समझ पाता इससे पूर्व ही नपुंसक युद्ध-दर्शकों के बीच से एक वयोवृद्ध ने आगे बढ़कर लड़की को वहां से चले जाने की समझाइश दी. लड़की भी जैसे किसी बहाने की तलाश में थी ......युद्ध भीषण हो पाता इससे पूर्व ही छंटने के आसार दिखाई देने लगे.  उस धर्म-क्षेत्र में इतनी भीड़ के बीच एक मनुष्य को पाकर मैंने किंचित राहत की साँस ली. तभी साधु का प्रायः दस-बारह वर्ष का पुत्र जो किसी आनंददायी दृश्य की कल्पना में खोया था ...उत्तेजित होकर अपने "पापा" को संबोधित कर बोला - " अब साली बाहर जहाँ कहीं मुझे दिखेगी ...साली को डंडे मार-मार के अधमरा कर दूँगा........"
        साधु ने बड़े संतोष के साथ अपने वीर पुत्र की ओर देखा ..जैसे कह रहा हो ....."जियो मेरे लाल ! तुमसे यही आशा थी " 
        मेरा मन वितृष्णा से भर उठा. आगे बढ़कर वयोवृद्ध, जो कि उस भीड़ में एक मात्र मनुष्य था, का साथ देते हुए मैंने भी लड़की को वहाँ से चले जाने में ही उसकी भलाई की समझाइश दी. किसी अनजान से मिली तनिक सी सहानुभूति से लड़की का गला भर आया, मुझसे साधु की शिकायत करने लगी कि कैसे उसने उस अनाथ लड़की की भूमि जबरन हड़प कर वहाँ अपना अच्छा सा पक्का मकान बनवा लिया है.
       हम लोग साथ-साथ चलने लगे . ऊपर की सीढ़ियाँ समाप्त होते ही सड़क के किनारे हाल ही में बना एक अच्छा सा मकान था. लड़की ने उसी की ओर अंगुली से संकेत कर बताया कि यह उसकी पैतृक भूमि थी जिस पर साधु ने अपना भव्य निवास बनवा लिया था. साधु का भव्य आवास देख कर मैं उसकी आय का अनुमान लगाने लगा . तभी एक सिंधी महिला उधर से निकली और लड़की को हम लोगों के साथ बात करते देख प्रसंग को समझ कर लड़की के समर्थन में उसकी बात की पुष्टि करने लगी . उसने जो बताया उसका आशय यह था कि साधु  अपराधी वृत्ति का व्यक्ति है , मोहल्ले में आतंक फैलाता है और कई बार जेल की यात्रा कर चुका है . 
       कई वर्ष पूर्व ऋषिकेश में एक स्थान पर गंदे ट्रकों का गंगा-स्नान देखा था. समीप ही थोड़ा आगे बढकर झोपड़-पट्टियों से निकलने वाले अपवर्ज्य पदार्थ का भी गंगा में सतत विसर्जन होते देखा था . तब भी गंगा के प्रति लोगों की दुष्टतापूर्ण निष्ठुरता एवं स्थानीय प्रशासन की लोकघाती उदासीनता से मन खिन्न हो गया था ...और आज इतने वर्षों के पश्चात गंगा के पावन तट पर, वह भी ऋषिकेश में ...इतनी भीड़ के सामने निर्लज्ज साधु द्वारा अनाथ लड़की पर अश्लील गालियों की बौछार एवं भीड़ की तमाशाई मनोवृत्ति तथा आधुनिक समाज में सहज संवेदना-करुणा के अभाव ने  मन को एक बार फिर दुखी कर दिया. मैं सोचने पर विवश हो गया ......पंचायती राज का सपना क्या ऐसी ही भीड़ के हाथों में सौंपकर पूरा हो सकेगा ?  जन साधारण को राज का अधिकार सौंपकर किस न्याय और व्यवस्था की आशा की जा रही है ? जनता यदि इतनी ही आत्मानुशासित होती तो शासनमुक्त समाज न बन गया होता !


झरने सी झरती निर्मल हंसी -  


        ऋषिकेश से आगे की पूरी यात्रा में हिमालय की उच्च पर्वत-श्रेणियों, हरी-भरी घाटियों, पार्श्व में बहती पवित्र जलधारा और चीड़ के वृक्षों ने मुझे बराबर लुभाए रखा. हिमालय का दिव्यत्व प्रकट होने लगा था . मन से ऋषिकेश का विषाद धीरे-धीरे छटने लगा. 
      हिमालय ने भारत को बहुत कुछ दिया है ....हम ऋणी हैं देव स्थान हिमालय के . मुझे तो वहाँ के कण-कण में जीवन-दर्शन दिखाई दे रहा था . ......चाहे वह हिमालय का सर्पीला मार्ग हो .......हिमाच्छादित उच्च शिखर हों ....... लम्बे-लम्बे वृक्ष हों ......कठोर शिलाएं हों ........दुर्गमता हो ........वहाँ के लोगों के जीवन की कठिनाइयाँ हों ........वहाँ का सूर्योदय हो ....सूर्यास्त हो ....वहाँ का सब कुछ दर्शन की दिव्यता से ओतप्रोत था.
      मैं प्रकृति के रहस्यमय सौंदर्य में डूबा हुआ था कि तभी एक झटके के साथ यथार्थ के रूक्ष पटल पर आ गया. हिमालय के घुमावदार सर्पीले मार्ग पर गाडी में ही कुछ सहयात्रियों को वमन होने लगा था. उनके पास बैठी  इज़्राइली लड़की ने चिल्लाकर गाड़ी रुकवाई. 
     वमन पीड़ितों की सामान्य सेवा सुश्रुषा के पश्चात साथ के लोग निकट के ढाबे में विश्राम करने लगे. कुछ लोग इधर-उधर चहल कदमी करने लगे. सड़क पर टहलते-टहलते इज़्राइली  लडकी से मेरी चर्चा होने लगी. अचानक मैंने पूछ दिया -" यासर अराफात को एक शांतिप्रिय नेता के रूप में प्रचारित किया गया है ...आपके क्या विचार हैं ?"
      लड़की ने अजीब  सा मुंह बनाकर कोई भी टिप्पणी करने से मना कर दिया. फिर किंचित दुखी हो कर बोली -"हालात बहुत खराब हैं ......क्या आप एरियेल शेरोन को नहीं जानते ? ........यासर ....अरा.....फ़ात ......."
      उसने फिर कडुआ सा मुंह बनाया. वह रुक-रुक कर बोल रही थी. मैं उसके प्रश्न से अचकचा गया, बोला -"हाँ, क्यों नहीं...किन्तु मैं वर्त्तमान सन्दर्भ में यासर अराफात के बारे में आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहता हूँ" . लड़की एक बार फिर बुदबुदाई -"या.....स.....र .......अ...रा....फा...त... केवल खुराफात ......." और फिर चुप हो गयी.वह शून्य में कहीं देखती हुयी कुछ सोचने लगी थी. 
     मुझे लगा, मेरा प्रश्न उसे दुखी कर गया. मुझे ऐसा नहीं पूछना चाहिए था, किन्तु हम भारतीयों की इच्छा सदैव दूसरों के बारे में बहुत कुछ जानने की बनी रहती है. मैंने ध्यान दिया, यासर अराफात के स्थान पर यदि एरियल शेरोन की चर्चा की होती तो वातावरण कदाचित इतना बोझिल न हुआ होता. यह हमारी मानसिकता है, हम लोग अपने विरोधियों के विषय में अधिक रूचि लेते हैं. हम मुशर्रफ़ पर घंटों चर्चा कर सकते हैं जबकि हमें अपनी स्थिति का वास्तविक आकलन करना चाहिए. 
     मैंने उसे प्रसन्न करने की दृष्टि से लटकती हुयी चट्टानें दिखाईं, सीढ़ियों वाले खेत दिखाए और कुछ जडी-बूटियाँ भी. अंततः मुझे सफलता मिल ही गयी, उसके चेहरे पर प्रसन्नता वापस आयी, वह हँस दी.....सामने झरते झरने सी निर्मल हँसी. हम लोगों ने झरने के पास जा कर उसके निर्मल जल से मुँह धोया तो अच्छा लगा. झरने को वहीं हँसता छोड़ हम फिर आगे बढे. 


दानी भिक्षु    


      गंगोत्री पहुँच कर मौनी बाबा के आश्रम में स्थान मिल सका. वहाँ पहले से ऑस्ट्रिया, जर्मनी एवं कनाडा के बहुत से विदेशी डेरा जमाये हुए थे.  अगले दिन गंगोत्री के आकाश पर गर्वीले मेघ दिन भर सूर्य से आँख-मिचौली खेलते और हिमालय की उत्तुंग चोटियों को सहलाते-सहलाते अपराह्न तक थक कर अंततः बरस ही पड़े. गंगोत्री मंदिर के निकट ऊपर सूर्य कुंड के मार्ग में एक रोचक दृश्य देखने को मिला. मार्ग के किनारे पंक्तिबद्ध बैठे भिखारियों को काले कुर्ते वाला एक साधु पैसे बाँट रहा था. मैं कौतुहल से उसे देखने लगा. सबको पैसे बाँट चुकाने के पश्चात जब वह स्वयं भी पंक्ति के अंतिम छोर पर जाकर बैठ गया और आने-जाने वाले तीर्थ-यात्रियों के सामने हाथ फैलाने लगा तो मैं आश्चर्य चकित रह गया. मेरी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी. मैं बहुत देर तक देखता रहा, कुछ समय पश्चात वह उठा और भिक्षा में मिले पैसों को फिर अपने साथी भिखारियों में बाटने लगा. 
   मुझे डेनियस बेर्विक की याद आ गयी, यार्कशायर में जन्मा युवा पत्रकार जिसने १९८३-८४ में गंगासागर से गोमुख तक आठ माह लम्बी अपनी ऐतिहासिक पदयात्रा में न जाने कितनी बार धार्मिक स्थलों में गंदे भिखारियों और गाँजा पीते साधुओं को बड़ी वितृष्णा से देखा था. मैं सोचने लगा भला आज का यह दृश्य देख कर उसके मन में कैसी धारणा बनती ! 
    आश्रम वापस आकर मैंने काले कुर्ते वाले साधु की घटना अपने साथ की सहयात्री महिला को बतायी. उन्होंने हँसते हुए बड़े ही सहज ढंग से मेरे कौतुहल पर टिप्पणी की -"इसमें आश्चर्य क्या ...उसने कुछ मनौती मान रखी होगी ...."
  उनकी सहज व्यावहारिक बुद्धि ने मुझे अवाक कर दिया. जो घटना मेरे लिए कौतुकपूर्ण थी वह उनके लिए कितनी सामान्य थी. मुझे अपनी बुद्धि पर तरस आया. 


...........कितना छोटा हूँ - 


     सुबह जब सो कर उठा तो देखा, धूप अच्छी तरह बिखरी हुयी है और आश्रम के एक और एक विशाल प्रस्तर खंड पर कोई विदेशी अपनी छोटी सी बच्ची के साथ बैठा धूप खा रहा था और सामने से हमारे साथ की भगतिन जी गंगा में डुबकी लगाकर भीगे कपड़ों में काँपती चली आ रही हैं.गंगामैया के प्रति सम्पूर्ण भारत की अद्भुत भक्तिभाव का प्रतिनिधि स्वरूप देख-देख कर पुलकित होता रहा. फिर तो प्रतिदिन ही यह दृश्य देखने को मिलता रहा. हमारे दल में वे ही प्रातः सर्व प्रथम उठकर गंगा के हिम से शीतल जल में डुबकी लगा आतीं फिर आश्रम में आकर नल के स्वच्छ जल से पुनः स्नान करतीं. चालीस वर्षीया भगतिन जी धार्मिक महिला हैं स्नानोपरांत वे नियम से गंगोत्री मंदिर जातीं और मैं जैसे-तैसे नल के तरल हिम से स्नान कर धूप में बैठ जाता. इतने दिनों में एक दिन भी गंगोत्री मंदिर में दर्शनार्थ नहीं जा सका. 
     मेरा गंतव्य गोमुख था. उन्नीस किलोमीटर की कष्ट साध्य पद-यात्रा के पश्चात गोमुख के दिव्य दर्शन की कल्पना मात्र से ही मैं अभिभूत था. गोमुख में कोई मंदिर न होने के कारण भगतिन जी के लिए वहाँ कोई आकर्षण नहीं था अतः उन्होंने शेष लोगों के साथ बद्रीनाथधाम की यात्रा के लिए प्रस्थान किया और मैंने गिने-चुने कुछ लोगों के साथ दो दिन तक और मार्ग की थकावट उतारने के पश्चात गोमुख के लिए. 
    मात्र तीन किलोमीटर ही ऊपर चढ़ने के पश्चात सहयात्रियों की हिम्मत जवाब दे गयी. नौ वर्ष के नन्हें अचिन्त्य ने सस्वर अपनी व्यथा सुनायी -" आगे चला तो बेहोश हो जाऊंगा, नींद आ गयी तो वहीं सो जाऊंगा". 
 मैंने रुक कर पीछे देखा, वह एक शिला पर चढ़कर बैठा था. फिर सामने एक बड़े से हिमनद को देखकर उसने और जोड़ा -"नीचे नदी ऊपर आसमाँ, बीच में है बर्फ मैं हूँ कहाँ"  मैं मुस्कराकर उसके पास लौटा और कहा- यह तो कविता हो गयी. 
उसकी बातें सुनकर मुझे किंचित आश्चर्य हुआ. देवभूमि हिमालय में नन्हाँ अचिन्त्य दार्शनिक हो उठा था. उसकी बड़ी-बड़ी आँखें हिमालय के शुभ्र शिखरों पर जमी थीं. उसने बिना मेरी और देखे ही कहा - "...........इन सबके सामने मैं कितना छोटा हूँ ......मैं और भी आगे जाना चाहता हूँ किन्तु अब थक गया हूँ" 
     मेरे सामने धर्म-संकट आ खडा हुआ. सहयात्रियों के साथ वापस नीचे उतर जाऊँ या उन्हें वहीं छोड़कर आगे बढ़ जाऊँ ? अन्ततः तय हुआ कि मुझे भी अपने सह यात्रियों के साथ ही नीचे उतरना है. तभी मैंने ऊपर से पगडंडी जैसे संकीर्ण पहाडी मार्ग पर कुछ टट्टुओं को नीचे उतरते देखा. ...टट्टुओं पर बैठे हट्टे-कट्टे संपन्न घर के से प्रतीत होने वाले तीर्थयात्री .....कुछ युवक ...कुछ युवतियाँ .  
     पगडंडी पर टट्टू पर्वत की ओर थे और उनकी लगाम हाथ में थामे पैदल दौड़ते पहाड़ी साईस गंगा की ओर वाले पूर्णतः असुरक्षित किनारे की ओर. पीठ पर स्वस्थ्य और युवा तीर्थ यात्रियों (? ) का बोझ लादे टट्टू जब ढलान पर दौड़ते हुए उतरते तो साथ दौड़ते साईसों को देख मुझे उनके अब-तब फिसलने का डर लगने लगता. ज़रा सा पग डगमगाए या असंतुलित हो कि सैकड़ों फिट नीचे गंगा की गोद में समाने में कोई बाधा न होगी. कितने जीवट के होते हैं ये पहाड़ी !... या कि उदर की आग ने बना दिया है उन्हें ऐसा. तीर्थ यात्रा करके पुण्य कमाने का यह उपाय, मैदान के संपन्न लोगों का पहाड़ के निर्धन लोगों के साथ क्रूर परिहास सा लगा मुझे. कल एक युवती टोकरी में बैठकर गोमुख जाने के लिए कुली खोज रही थी. ...सस्ते कुली. उसकी खोज और कुलियों से मोलभाव को लेकर मेरा मन दुःख और विद्रोह से भर गया था. मुझे लगा, नाना आचार-विचार वाले इन तीर्थ यात्रियों को देख कर मूक हिमालय को दिन भर में न जाने कितनी बार लजाना पड़ता होगा. ...और गंगा ! संभवतः यह सब सह न पाने के कारण ही क्रोध में दिन-रात गरजती-उफनती रहती है यहाँ. 
       मैं कल्पना करने लगा - एक अधेड़ कृशकाय पहाड़ी की पीठ पर बंधी टोकरी में बैठी स्वस्थ्य तरुणी. अधेड़ ऊबड़-खाबड़ पथरीली पगडंडी पर हांफता हुआ चढ़ाई पर आगे बढ़ता जा रहा है ....और तरुणी  टोकरी में बैठी आराम से ऊँघ रही है ......तीर्थयात्रा का पुण्य लाभ तरुणी के खाते में जमा होता जा रहा है. 
     मेरा विद्रोही मन हिमालय की दिव्यभूमि में भी सहज नहीं हो पा रहा था. ये तथाकथित शिक्षित सभ्य लोग क्या सचमुच मनुष्य ही हैं ? ...शायद मनुष्य ही हैं ....पशु तो किसी की विवशता पर इतना क्रूर आचरण नहीं कर सकते न ! इसी पाखण्ड को सभ्य समाज में "धर्म" का स्थान प्राप्त है ....और मैं बचपन से ऐसी धार्मिकता देख-देख कर ही अधार्मिक और विद्रोही हो गया हूँ. यह कैसी धार्मिकता है जहाँ पुण्य कमाने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता, कोई तप नहीं करना पड़ता ...मात्र कुछ मूल्य देकर इसे बड़ी आसानी और गर्व के साथ क्रय किया जा सकता है. 


हिमालय की हिमाच्छादित शुभ्र चोटियाँ मुझे अपनी ओर निरंतर आकृष्ट किये जा रही थीं. मैं उठा, सहयात्रियों से कहा कि वे वहीं विश्राम करें मैं थोड़ी दूर और आगे जाकर फिर वापस आ जाऊंगा. मैं आगे बढ़ चला......गोमुख की ओर. मार्ग में कई बार सोचा बस अब और आगे नहीं सहयात्री प्रतीक्षारत होंगे....वापस चलना चाहिए. किन्तु हर बार कोई अज्ञात शक्ति मुझे अपनी ओर पूरी शक्ति से खींचने लगती. सम्मोहित सा मैं सोचता, अच्छा थोड़ी दूर और.......और यह क्रम न जाने कितनी बार चला. 
      भोजवासा अब थोड़ी ही दूर और रह गया था. आकाश में सूर्य पश्चिम की ओर झुकता जा रहा था. सहयात्रियों की चिंता ने एक बार पुनः मुझे उद्विग्न कर दिया. अंततः गोमुख को दूर से ही प्रणाम कर प्रकृति के अनुपम सौंदर्य और विधाता की अनुपम रचना के आगे श्रद्धानत हो मुझे वापस लौटना पडा. इस समय मेरी आँखों में हाई स्कूल की उस जर्मन छात्रा का हँसमुख चेहरा था जिसने कल ही हँसते-हँसते बताया था कि उसके सहयात्रियों के साथ न देने पर भी कैसे वह अकेली ही गोमुख तक चली गयी थी. गोमुख पहुंचकर उसने हिमाच्छादित शुभ्र शिखरों को वचन दिया था - " मैं फिर आऊँगी ....अगले वर्ष ........और उसके अगले वर्ष भी. "
     वापसी में नीचे उतरते समय देवगंगा के पास नीचे छूटे हुए सहयात्रियों को ऊपर आते देख आश्चर्यमिश्रित सुखानुभूति हुयी मुझे. नन्हाँ अचिन्त्य उत्साहित था - "मैं तो और आगे जाऊंगा" .
      कदाचित मेरी तरह उसे भी हिमालय की दैवीशक्ति अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी, यद्यपि वह  थका हुआ था ...किन्तु अन्य लोग अब और आगे जाने को तैयार न थे . निराशा में अचिन्त्य रो उठा. 

जब हिमालय भी बौना सा लगा - 


         हम लोग वापस आ गए. नीचे आते-आते रात हो चुकी थी. आश्रम में पहुंचकर देखा, मेरे प्रकोष्ठ के आगे चार-पांच विदेशी युवतियाँ एक कनाडाई साधु को घेर कर लकड़ी के फर्श पर बैठी थीं. साधु के सिर के बाल भारतीय साधुओं की तरह जटाओं वाले थे और उसकी काली घनी दाढी खूब लम्बी थी. उसने खादी का पायजामा और कुर्ता पहन रखा था. गिटार बजाते-बजाते वह झूम-झूम कर गा रहा था   ".........जय अमर नाथ गंगे ............. जय विश्वनाथ शम्भो.........." साथ की युवतियाँ भी तन्मय हो उसका साथ दे रही थीं. आश्रम के ठीक सामने शोर मचाती गंगा भी  एक स्वर से गाये जा रहे थी "..........हर-हर ....हर-हर ....हर-हर ........". मुझे अच्छा लगा और उनके पास ही एक ओर बैठ गया. थोड़ी देर बाद उन्होंने ॐ नमः शिवाय का समवेत स्वर में जाप शुरू कर दिया. इस बार मैं भी उनके साथ था. वे लोग प्रसन्न हो गए. और जब ॐ नमः शिवाय का जाप समाप्त हुआ तो ऑस्ट्रियाई युवती ने एक अधूरा श्लोक सुनाकर मुझसे आग्रह किया कि मैं उसे सस्वर पूरा सुनाऊँ (उसे पूरा श्लोक मालुम नहीं था.) कदाचित वह कोई वैदिक ऋचा रही होगी या फिर किसी उपनिषद् का कोई श्लोक. मेरा चेहरा मुरझा गया. यहाँ तो बचपन में रटवाए गए दो-चार श्लोकों के अतिरिक्त और कुछ आता ही नहीं था. मैंने लजाते हुए क्षमा याचना की. साधु नेत्र बंद किये अभी भी गिटार पर ॐ जय जगदीश हरे ....की धुन बजाये जा रहा था. ऑस्ट्रियाई युवती ने मेरी ओर मुस्करा कर जैसे आँखों ही आँखों में कहा - कोई बात नहीं. और फिर अपने नेत्र बंद कर गाना प्रारम्भ किया - " ईशा वास्यमिदं सर्वं यद्किन्चित जगत्याम् जगत् ........." 
   अब मैं पानी-पानी हो उठा . मुझे अपने जीवन में  इतनी लज्जा संभवतः पहले कभी नहीं आयी थी. अपनी ही भूमि में उन अहिंदीभाषी विदेशियों के समक्ष मैं बौना हो गया था. मेरी आँखों के कोने नम थे. सामने अन्धेरा और भी गहरा हो गया था .......और उस अँधेरे में हिमालय के उत्तुंग शिखर भी  अदृश्य हो चुके थे.  मोमबत्ती अंतिम साँसे ले रही थी. अनायास मुझे लगा, मैं ही नहीं मेरी आस्था भी उनके समक्ष बौनी हो गयी थी. 
             कनाडायी साधु अँधेरे में गिटार पर गा रहा था - "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः  ................."                                           

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

यूरोपवासियों की दृष्टि में १८ वीं शताब्दी के भारत में ज्ञान, विज्ञान और कला.......२

     अंग्रेजों ने भारत आकर तत्कालीन भारतीयों से कपास से रुई साफ़ करने की विधि, आयुर्वेदिक रस-औषधियों के निर्माण की विधि, शल्य चिकित्सा और पत्थर जोड़ने के मसाले का निर्माण करना सीखा. 
           हे सुप्त भारतीयो ! अब तो पहचानो अपने को ......तोड़ो अपनी निद्रा .....उठो ...जागो .......और लक्ष्य को पहचान कर आगे बढ़ो ...
  
       यहाँ प्रस्तुत हैं डॉक्टर हेलमेट स्कॉट ( 1760 -1821) के कुछ पत्रों के संक्षिप्तांश जो उन्होंने भारत में रहते हुए अपने ब्रिटिश स्वजनों-परिजनों को प्रेषित किये थे. डॉक्टर स्कॉट ईस्ट इंडिया कंपनी में सेना की चिकित्साइकाई में कार्यरत थे. उन्होंने मुख्यरूप से मुम्बई मुख्यालय में रहकर सेवा की थी. वे भारत में तीस वर्षों तक रहे, इसके बाद लौटकर इंग्लैण्ड चले गए थे जहाँ उन्होंने अपना  चिकित्सा व्यवसाय प्रारम्भ किया.  कुछ अन्य यूरोपियों की तरह उन्होंने भी भारत में प्राप्त विभिन्न प्रकार के ज्ञान और अनुभवों को अपने मित्रों और अधिकारियों से बाटने का लोभ संवरण नहीं किया और यहाँ से प्राप्त हर जानकारी यूरोप भेजते रहे. मैं सोचता हूँ कि यह, निश्चित ही अनजाने में ही सही, भारत पर उनका बड़ा उपकार हो गया. उन दस्तावेजों और धर्मपाल जैसे देश प्रेमियों के कारण ही आज हम अपने प्राचीन गौरव से परिचित हो पाने का सौभाग्य पा सके हैं अन्यथा स्वतन्त्र भारत की किसी भी राष्ट्रवादी सत्ता ने इसकी कभी कोई आवश्यकता ही नहीं समझी. यहाँ आप स्पष्ट तौर पर देख सकेंगे कि भारतीय ज्ञान-विज्ञान और तकनीकों के प्रति ब्रिटिशर्स की वृत्ति पूर्णतः व्यावसायिक, लालच से भरी किन्तु उत्सुकतापूर्ण रही है. पत्रों के अंश देखिये -

      मुम्बई ०७ जनवरी १७९० .........आपकी इच्छानुसार मैंने इस देश के लोगों द्वारा कपास की सफाई की प्रचलित पद्यतियों को जानने के प्रयास किये. इस पद्यति में प्रयुक्त होने वाले एक मात्र यंत्र को कैप्टन डंडास आपके पास लेकर पहुँचेंगे. ( प्रमाणित है कि उस समय तक अंग्रेजों को कपास से रुई निकालने की यांत्रिक पद्यति के बारे में पता नहीं था ) 
   कई वर्षों से मैं यहाँ के निवासियों द्वारा सूती वस्त्रों की रंगाई की पद्यतियों पर ध्यान दे रहा हूँ. 
 .................मैं उनके रंगने की इस एकल पद्यति के विषय में पता लगा चुका हूँ, जिससे कपड़े अमिट और गाढ़े रंगों में रंगे जाते हैं और जिसके कारण कपड़े चमकीले तथा सुन्दर दिखते हैं. जिस मुख्य पदार्थ को वे उस पद्यति में उपयोग करते हैं और जिसके बिना वे इस दिशा में कुछ भी नहीं कर सकते, उस मुख्य पदार्थ के विषय में कुछ भी जानने में मैं असमर्थ रहा. सामान्य रूप से देखने में आया है कि वे जब इस पदार्थ के घोल में वस्त्र रंगते हैं और उसी समय वस्त्रों को किसी वानस्पतिक रंग में रंगते हैं तब चमकीला रंग दीखता है. मेरी यह बात आप इंग्लैण्ड के निर्माताओं को किसी भी उपयोग की लगती है तो मैं आगे इससे अधिक महत्वपूर्ण पद्यति विषयक जानकारी कराऊँगा. ( अर्थात कपड़े रंगने की कला से भी उन्हें हमारे पूर्वजों ने ही परिचित कराया. )
 ........भारत में इस प्रकार की कलाएं परम्परा के तरीके से आगे बढ़ती हैं ...उन्हें कोई भी प्रलोभन देकर उस कला को सीखना संभव नहीं है. ( चुल्लू भर पानी में डूब मरें आज के घोटालेवाज और देश की गोपनीय जानकारी बेचने वाले सैनिक अधिकारी ) ............उनकी कला का ज्ञान कभी मुद्रित नहीं होता, इसके साथ उनका यह अनुभव सामान्य सिद्धांतों के रूप में भी नहीं होता, अतः सीखने की कठिनाई में वृद्धि होती है. ( आज अपने पराभव को देख सोचना पड़ता है कि कहीं इसी दूरदर्शिता के कारण तो नहीं अपने ज्ञान को संरक्षित रखने के उद्देश्य से अलिखित और गुप्त रखने का प्रचलन हमारे तकालीन समाज में था ? )

..............इस देश के लोग बड़ी विलक्षण बुद्धि के हैं ( इसमें क्या दो राय है ? तब भी थे आज भी हैं ...भले ही आज हम महाभ्रष्ट हो गए हैं तो क्या हुआ, विलक्षण तो हैं )  जलवायु के और विशेष रूप से अपने धर्म के कारण अपने विजेताओं के क्रोध की ज्वाला को शांत करते रहे हैं. जिनके द्वारा वे पराजित हुए और दबाये जाते रहे उनकी सरकारों के साथ भी वे समस्त क्रांतियों के होते हुए भी शताब्दियों से अपनी परम्पराओं की रक्षा करते रहे हैं 
( शर्म करो धर्म परिवर्तन करने वालो, अवसरवादियों और बुद्धि से दिवालिये लोगो ). मैं प्रायः सोचा करता हूँ कि उनकी यह कला धर्मिता ही उनके विकास और स्वस्थ्य जीवन का कारण रही होगी.  वर्षों के अनुभवों से परिपक्वता को प्राप्त उनकी कलाओं से विद्वान और दार्शनिकों को बहुत ज्ञान और आनंद मिल सकता है, परन्तु किसीने भी उनका अध्ययन करके लाभ पाने का विचार नहीं किया. 
.....कपास को स्वच्छ करने के यंत्रों की पेटी में मैंने इस देश में निर्मित सिन्दूर का एक टुकड़ा भी भेजा है. (और भी पता नहीं क्या-क्या चुरा कर ले गए होंगे ) ..........मैंने इसे यूरोपीय पद्यति से बनाने के प्रयास किये लेकिन मैं आज तक सफल नहीं हो सका. इसे भारतीय पहली बार में ही बना देते हैं. इस देश में वे रसपुष्प भी बनाते हैं (यहाँ मैं अपने सुधी ब्लोग पाठकों को बताना चाहूंगा कि रससिन्दूर और रसपुष्प पारा और गंधक के योग से बनने वाली आयुर्वेदिक औषधियों के नाम हैं जिन्हें उस समय अँगरेज़ चिकित्सक भी एंटीबायोटिक  के रूप में स्तेमाल किया करते थे, संक्रामक रोगों के लिए इनका भूरिशः प्रयोग सुविख्यात था )
 .....आगे मैं आपको इस देश के लोगों द्वारा चूना बनाने के विषय में जानकारी कराऊंगा जिसे यहाँ के लोग चूर्ण कहते हैं. इसका उपयोग भवनों, छतों, नहरों, पानी के नीचे के तल को, एवं जहाज़ों के नीचे की तली को बनाने में करते हैं . कुछ ही घंटों में इससे अत्यंत दृढ़ता आ जाती है. यह भारी पत्थरों को आपस में जोड़ देता है. ........मेरी जानकारी में इस देश में प्रयुक्त यह पद्यति और कहीं भी प्रयुक्त नहीं होती. 


मुम्बई, १९ जनवरी १७९२  ....... पहले तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि औषधि (medicine ) के क्षेत्र में उनके विज्ञान की बहुत सराहना नहीं कर सकूंगा किन्तु उनका शल्य चिकित्सा कर्म (SURGERY) अत्यधिक सुस्पष्ट और सुबोध है. यहाँ इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार से उनका शल्य कर्म भुलाया नहीं जा सकता, अपितु मुझे उसकी बहुत प्रशंसा करनी चाहिए. 
...पारदर्शी काँच जब अवनत हो जाता है तब वे उसे फिर से पारदर्शी बनाने में सदैव सफल होते हैं. 
..............चिरकाल से वे पथरी ( renal / gaal stones  )के लिए वहीं काटते ( incesion देते ) हैं जहां यूरोप में अब काटते हैं. यह अत्यंत आश्चर्य जनक है कि इससे पूर्व मुझे इसकी कोई भी जानकारी नहीं थी. दूसरे, उनकी रंगने की कला के विषय में मुझे अभी हाल ही में जानकारी हुयी है मैं रंगने की कला के लिए अत्यंत उच्च कोटि की सामग्री की अनुशंसा आप लोगों के लिए कर रहा हूँ जिसका उपयोग हमारे यूरोप के कलाकार लोग कर सकते हैं और जिसका व्यापार भी हो सकता ही. तीसरे, उनके द्वारा भवनों में चूने के उपयोग की पद्यति की मैं आप लोगों से अनुसंशा करता हूँ. चौथे, उनकी साबुन, बारूद, नील, स्याही, सिन्दूर ( रस सिन्दूर), तूतिया, तांबा, फिटकरी आदि वस्तुओं के निर्माण की पद्यति. 
.........मैंने हाल ही में पाया कि यहाँ के लोग चीजों को प्रचुर मात्रा में और अत्यंत कम मूल्य पर बनाने में निपुण हैं. वे समुद्री वनस्पतियों  को जलाकर उनसे उच्चकोटि का अश्मीभूत क्षार बनाते हैं. मुझे यह अत्यंत मूल्यवान लवण मालुम पड़ता है. मैं इसका नमूना आपके पास भेजूंगा. वहां इसका मूल्य २.१० और ३ पौंड प्रति टन से अधिक नहीं होगा. ( इसे कहते हैं अपने विज्ञान और मौलिक संसाधनों से देश का वास्तविक विकास जो तत्कालीन भारतीयों ने किया था ......वहीं चतुर अंग्रेज  यहाँ से जो भी ले गए उसका ब्रिटिशीकरण कर विश्व बाज़ार में उतार दिया उसे . हम अपनी परम्पराओं को भूल चुके हैं ...पर चीन नहीं भूला ...इसीलिये तो हमसे आगे है और हमें जब तब आँख दिखाने से बाज़ नहीं आता. )         

रविवार, 10 अप्रैल 2011

यूरोपवासियों की दृष्टि में १८ वीं शताब्दी के भारत में ज्ञान, विज्ञान और कला

 भारतीय कृषि ने दिया विश्व को हल का उपहार
   
       विश्व को हल का उपहार देने वाले भारत को किसी समय अमेरिका से गेहूं का आयात करना पड़ा था, दालों के लिए हम अभी भी आत्मनिर्भर नहीं  हो सके हैं...किन्तु यह स्थिति सदा से ऐसे नहीं थी. भारत में उन्नत कृषि के प्रमाणों का संकलन अंग्रेजों द्वारा किया गया है. आज यह सब लिखने का अभिप्राय यह है कि हम यह जानें कि भारत में कृषि प्रणालियों की मौलिकता रही है और शेष विश्व ने भारत से इस ज्ञान को सीखा है. इस गौरव को जानकार कदाचित हमारा स्वाभिमान जागृत हो और हमारा आत्म विश्वास लौट आये. पश्चिमी देशों के पिछलग्गू बने रहने से हमारा काम नहीं चलने वाला. हमें अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ....अपने संसाधनों से अपनी तकनीकें विकसित करनी होंगी.    
        अलेक्ज़ेंडर वाकर(1734-1839) भारत में आंग्ल सेना में ब्रिगेडियर जनरल थे, उन्होंने टीपू सुलतान के विरुद्ध हुए अंतिम युद्ध में भाग लिया था. अपने भारत प्रवास के अनन्तर वाकर महोदय ने अरबी, फारसी और संस्कृत की बहुमूल्य पांडुलिपियों का संकलन किया था जिन्हें उनके पुत्र सर विलियम द्वारा १८४५ में वोडलेन (ऑक्सफोर्ड) को  भेंट कर दिया गया जहाँ ये विशिष्ट संग्रह के रूप में उपलब्ध हैं. 
        मालाबार में रहते हुए, १८२० में वाकर महोदय ने लिखा -" सामान्यतः हिन्दुओं द्वारा की जाने वाली कृषि को यूरोपीय लोगों द्वारा दोषपूर्ण बताया गया है. उनका यह दृष्टिकोण कितना औचित्यपूर्ण है ? मालाबार का कृषि व्यवसाय उनके अपने इतिहास से अधिक प्राचीन है. उनका पवित्र पशु गाय और बैल के प्रति सम्मान तथा श्रद्धा भाव भी कृषि कर्म के प्रति उनकी सेवा व श्रद्धा के द्योतक हैं. हमें इस तथ्य पर भी अच्छी तरह विचार करना है  कि धान भारत का महत्वपूर्ण शस्य है परन्तु उनके लिए हमारी यूरोपीय पद्यति कितनी अनुकूल है ? जबकि धान की कृषि करने का यूरोपियों को कोई अनुभव नहीं रहा है. ....यहाँ केला एक ऐसा फल है जो कि आहार में अत्यंत पौष्टिक होता है. भारत के कई भागों में आलू पैदा किया जाता है. मैंने देखा है कि ब्राह्मण उसका उपयोग भोजन के रूप में करते हैं. घुइयाँ (अरबी, कुचई) भी उतनी ही सुस्वादु और पौष्टिक होती है. मुझे यह समझ में नहीं आता कि भारत को हम इस तरह की क्या भेंट दे सकते हैं ? उनके पास वे सभी अनाज हैं जो हमारे पास हैं, प्रत्युत उससे भी अधिक हैं ..........हमारे अधिकाँश फल अत्यधिक खट्टे होते हैं , तथा वे इस मौसम में अंकुरित ही नहीं होंगे."
      " हिन्दुओं ने एक बड़े लम्बे समय से वपित्र (फालयुक्त हल) का आविष्कार किया हुआ है. मालाबार के लोग कृषि कार्यों के उद्देश्यों के अनुरूप विभिन्न यंत्रों-उपकरणों का प्रयोग करते आये हैं जो हमारे आधुनिक सुधारों के कारण अब इंग्लैण्ड में भी प्रयुक्त होने लगे हैं. भारतीय कृषकों के कुछ कृषि उपकरणों को अपूर्ण सिद्ध करने की बात की जा सकती है पर यथार्थ यह है कि वे अपनी कला में पूर्णता प्राप्त हैं. ................हिन्दू कृषकों के हलों की तरह ग्रीक व मिस्रवासियों के हलों में फाल नहीं होती. दक्षिण फ्राँस तथा उष्ण देशों में इसी प्रकार के हल प्रयुक्त होते हैं. इसी अनुमान के आधार पर कहा जा सकता है कि खेत जोतने का आरम्भ भी उन्हीं देशों ने किया होगा जिनकी भूमि हलकी तथा गीली मिट्टी युक्त रही होगी. ग्रीकवासी कृषि के आविष्कर्ता के रूप में 'बच्छू' नामक पुरुष को मानते हैं. उनकी मान्यता के अनुसार 'बच्छू' ही पहला व्यक्ति था जो भारत से यूरोप में सर्वप्रथम  बैलों को लेकर आया." 
        'बच्छू' शब्द वत्स या बछड़े का अपभ्रंश सा प्रतीत होता है. संभव है कि भारत से गायों के बछड़ों को यूरोप ले जाने वाले व्यक्ति को उन्होंने 'बच्छू ' नामसे संबोधित किया हो .
     " पूरे यूरोप में हल का पहली बार प्रयोग ऑस्ट्रिया देश के केरेंथिया नामक स्थान पर जोसेफ लोकाटेली नामक व्यक्ति द्वारा सन १६६२ में किया गया था. इंग्लैण्ड में इसका प्रयोग सन १७३० में प्रारम्भ तो हुआ पर इसके व्यापक रूप में प्रचलन में आने में लगभग ५० वर्ष और लग गए." 
        आज इक्कीसवीं शताब्दी के सन्दर्भ में देखें तो यूरोपियों का झुकाव जैविक कृषि की ओर होता जा रहा है. रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर गोबर, नीम की खली एवं केचुओं से निर्मित उर्वरकों के प्रयोग को महत्त्व दिया जाने लगा है. जैव तकनीक से बीजभाग में रूपांतरित (जेनेटिकली मोडीफाइड) शस्यों के दुष्प्रभावों से पश्चिमी जगत ने तो सबक सीख लिया,पर दुर्भाग्य से भारत यह सबक अभी तक नहीं सीख सका. विश्व को कृषिकार्य सिखाने वाला भारत कृषि के लिए इज़रायल एवं पश्चिमी देशों की ओर देख रहा है. कोई आश्चर्य नहीं कि इस शताब्दी के उत्तरार्ध तक यूरोप में ट्रेक्टर के स्थान पर बैलों का प्रचलन बढ़ जाय, क्योंकि यह अधिक प्राकृतिक एवं कल्याणकारी है. और अब वे लोग इसे समझने लगे हैं बस जिस दिन वे इसे स्वीकार भी कर लेंगे कृषि का  पूरा परिदृश्य ही बदल जाएगा
      यूरोप में 1662 से पूर्व हल के अभाव में कृषि कैसे की जाती रही होगी इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है. तब अमेरिका में तो हल और भी बाद में गया होगा. और आज स्थिति यह है कि खाद्यान के मामले में हम पूरी तरह आत्म निर्भर नहीं हो सके हैं. यह लज्जास्पद स्थिति है. हमारे देश की आवश्यकताओं के अनुरूप अपना विकास करने में हम सक्षम हैं ...यह आत्मगौरव जगाना होगा.         

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

.............ताकि जान न पाए कोई


रात
गहरी ......
और गहरी होती जा रही है 
पर घड़ी के काँटे       
चूकते नहीं टोकने से 
कहते हैं ......... 
रात .....?
वह तो कब की गुज़र गयी 
अब तो शुरू हो चुका है ......
नया दिन .
रात बारह बजे के बाद से
बदल गयी है तारीख. 
रात में ही शुरू हो चुका है .......
नया दिन .
कमाल है ....
तारीख बदल गयी
बिना सूरज की इजाज़त के ही ?
तो क्या मैं समझूं ............
कि अँधेरे में ही 
शुरुआत हो जाती है
नए दिन की !  
मैं 
इस गणित को 
कभी समझ नहीं पाया 
कभी नहीं .....
क्या तारीखों के साथ  
बदल जाते हैं
दिन भी.......... 
आधी रात को ही ?
....ताकि जान न पाए कोई 
तारीखों ने क्या गुल खिला दिए हैं
रात के अँधेरे में, 
क्योंकि 
बेखबर रहती है दुनिया
उस समय 
बदलते हुए इतिहास से.  







बुधवार, 6 अप्रैल 2011

छत्तीसगढ़ी भाषा के उन्नयन हेतु हमारे उत्तरदायित्व

        विक्रम संवत २०६८ के नव प्रभात से ठीक एक दिन पूर्व रायपुर में छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति के तत्वावधान में १५ वाँ प्रान्त स्तरीय साहित्य सम्मलेन संपन्न हुआ. छत्तीसगढ़ी साहित्यकारों की एक चिंता यह थी कि छत्तीसगढ़ी को आगे कैसे बढाया जाय ? उन्हें आशा थी कि नए राज्य के अस्तित्व में आने के बाद छत्तीसगढ़ी भी अपने अस्तित्व के साथ प्रकट हो जायेगी, पर ऐसा नहीं हो सका ...तो मंथन प्रारम्भ हुआ कि किया क्या जाय ?  भाषा / बोली के अस्तित्व के लिए चिंतित लोगों द्वारा किये गए इस मंथन (छत्तीसगढ़ी भाषा बढ़ाय बर हमर जवाबदारी) पर पुनर्मंथन की आशा से सम्मलेन में विद्वान वक्ताओं के वक्तव्यों के सारांश आपके समक्ष प्रस्तुत करना आवश्यक समझ रहा हूँ.

१- बुधराम यादव, बिलासपुर-  छत्तीसगढ़ी भाषा को व्याकरणनिष्ठ बनाया जाय. भाषा का मानकीकरण किया जाय. साहित्य की विभिन्न विधाओं में सशक्त सृजन की आवश्यकता पर बल दिया जाय. समयानुकूल साहित्य का सृजन हो.  छत्तीसगढ़ी बोली के व्यावहारिक स्वरूप को अपनाए जाने की आवश्यकता है. 
२- दादूलाल जोशी, फरहद-  छत्तीसगढ़ी भाषा में स्तरीय व मानक साहित्य के सृजन के अभाव को दूर किया जाना चाहिए. भाषा की शुद्धता बनाए रखने के लिए विदेशी भाषा के शब्दों का अपमिश्रण रोका जाना चाहिए. छत्तीसगढ़ी भाषा का एक पाठक मंच बनाने के लिए शासन के समक्ष प्रस्ताव रखा जाना चाहिए.  
३- डॉक्टर पी.सी.लाल यादव, गंडई-दुर्ग- संस्कारित भाषा के लिए घर-परिवार के परिवेश को सुधारा जाना चाहिए. 
४- श्रीमती शकुन्तला तरार, रायपुर- छत्तीसगढ़ी भाषाओं / बोलियों में नक्सलियों द्वारा विप्लवकारी गीत लिखे जा रहे हैं उसके प्रत्युत्तर में उन्हीं क्षेत्रीय बोलियों में रचनात्मक गीत लिखने और प्रचारित किये जाने की आवश्यकता है.
५- डॉक्टर चेतन भारती, रायपुर-  छत्तीसगढ़ी साहित्य के प्रकाशन के लिए शासन स्तर पर वित्त पोषण की एक योजना प्रारम्भ की जानी चाहिए. चिट्ठी लेखन की कला को लुप्त होने से बचाने के प्रयास किये जाने चाहिए. छत्तीसगढ़ी साहित्य की अलग पहचान के लिए मौलिक लेखन आवश्यक है.
६- रेणुधर राऊतिया, रायपुर- विधान सभा के क्रिया कलापों, न्यायालयीन कार्यों एवं विधायकों द्वारा आपसी वार्तालाप में भी छत्तीसगढ़ी बोलियों का ही व्यवहार किया जाय. प्रशासनिक एवं वैधानिक कार्यवाहियों में भी छत्तीसगढ़ी  का ही प्रयोग किया जाय.
७- डॉक्टर विजय सोनी, रायपुर- वैधानिक शब्दावली का निर्माण व प्रकाशन किया जाय. 
८- डॉक्टर मन्नूलाल यदु, रायपुर-  छत्तीसगढ़ी भारत की सबसे प्राचीन बोली है इसलिए इस प्रांत के सभी निवासियों को अपनी बोली में ही अपना अभिव्यक्तिकरण करना चाहिए.
९- पंडित दानेश्वर शर्मा जी, रायपुर-  छत्तीसगढ़ के सभी शासकीय अधिकारियों / कर्मचारियों को छत्तीसगढ़ी  में बोलना एवं कार्य करना अनिवार्य किया जाय और इसके लिए एक न्यूनतम अर्हता परीक्षा पास करना अनिवार्य किया जाय अन्यथा इसकी उपेक्षा करने पर उनकी एक-एक वेतन-वृद्धियां रोककर उन्हें दण्डित किया जाय. छत्तीसगढ़ी को राज-काज की भाषा बनाया जाय.
१०- लक्ष्मण मस्तूरिया, रायपुर-  छत्तीसगढ़ी बोली व साहित्य के प्रचार के साथ-साथ छत्तीसगढ़ में  बाहरी लोगों द्वारा आकर लगाए गए उद्योगों के लायसेंस रद्द किये जाने चाहिए और अन्य प्रान्तों से आकर बसने वालों द्वारा भूमिक्रय करने  पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए. 


         और अंत में  छत्तीसगढ़ीसाहित्य समिति के प्रांतीय अध्यक्ष सुशील यदु द्वारा एक त्रिसूत्री प्रस्ताव रखा गया जिसे  सर्व सम्मति से पारित किया गया. प्रस्ताव के बिंदु हैं -


१- राज्य में छत्तीसगढ़ी भाषा को एक विषय के रूप में प्राथमिक से लेकर १२     वीं तक के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए.
२- विधायकों को छत्तीसगढ़ी में बोलने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए.
३- विधानसभा की कार्यवाही छत्तीसगढ़ी में करना अनिवार्य किया जाय.  


इस विमर्श में किसी वक्ता द्वारा यह कहे जाने पर कि भाषा के मामले में हमारे नेताओं को राजठाकरे जैसा आचरण अपनाना चाहिए,विधान सभा सचिव देवेन्द्र वर्मा ने उनके वक्तव्य की स्पष्ट शब्दों में निंदा की. एक बात और भी देखने में आयी कि सम्मलेन के अनंतर मेरी आँखें राहुल जी, हबीब जी, पावला जी आदि को खोजती रहीं पर कोई भी ब्लॉग साहित्यकार वहाँ दिखाई नहीं दिया. "साहित्यिक कबीलाई सम्प्रदाय" की भरपूर झलक यहाँ भी दिखाई दी. फिर भी, उपस्थित विद्वान वक्ताओं के वक्तव्यों से कुछ बातें उभर कर सामने आयी हैं जिन पर पुनः मंथन किये जाने की आवश्यकता है 


१-  छत्तीसगढ़ के शिक्षित लोगों में छत्तीसगढ़ी बोली के प्रति जागरूकता नहीं है ( तो इसका कारण खोजा जाना चाहिए था जिसकी ओर किसी का भी ध्यान नहीं गया ).
२-  छत्तीसगढ़ी का मानकीकरण अभी तक नहीं किया गया और इस बोली में व्याकरणीय निष्ठता का भी अभाव है.
३-  छत्तीसगढ़ी साहित्य कई दृष्टियों से स्तरीय नहीं बन पाया है (इसका उत्तरदायित्व किस पर है ?)
४- मौलिक लेखन की कमी, लोकव्यापी शब्दों का अभाव एवं शासन की उपेक्षा.
५- कुछ लोगों को लगता है कि मराठी की तरह छत्तीसगढ़ी को भी पूरे प्रान्त वासियों पर लाद देने से भाषा का विकास अवश्यम्भावी है. 
६- एक खतरनाक विचार यह भी है कि छत्तीसगढ़ के दरवाजे अन्य प्रान्त के लोगों के लिए बंद कर दिए जाने चाहिए...कदाचित भाषा के विकास में इसका भी कोई योगदान होता होगा.   


भाषा है केवल अभिव्यक्ति का माध्यम .....क्षुद्र राजनीति का हथियार नहीं. किसी भाषा के विकास एवं लोकव्यापीकरण के लिए आवश्यक तत्वों पर जो भाषा वैज्ञानिक विमर्श अपेक्षित था कदाचित छत्तीसगढ़के लोगों को अभी उसके लिए और प्रतीक्षा करनी होगी. तथापि सुधीजनों से मैं उनका अभिमत व्यक्त करने का सादर अनुरोध करता हूँ. 


  

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

चोर भी खुद पुलिस भी खुद

          आप यकीन मानिए मेरी बात से कोई प्रलय नहीं आने वाली इसलिए मेरी आज की बातों को बहुत हलके-फुल्के से लेने की ज़रुरत है. यूँ कुछ लोगों ने भविष्य वाणी की है कि बहुत ज़ल्दी प्रलय आने वाली है. हाँ ! यह एक गंभीर बात हो सकती है ....तो भैया !  सन २०१२ में प्रलय आने के पहले मैं आपको दो बातें बता देना चाहता हूँ. पहली यह कि यदि किसी नक्काल को अपना नकली माल बेचना हो तो उसे करेंसी किंग से गुरुमंत्र ले लेना चाहिये. यह शख्स आपको वही नुस्खा बताएगा जिसे वह खुद भी स्तेमाल करता है. यानी धंधे का मूल मन्त्र यह कि ग्राहक को भरोसा दिलाने के लिए एक असली-नकली की पहचान वाली मशीन भी बना कर दे दो ...और फिर बेफिक्र होकर बेचो अपना नकली माल पूरी दुनिया में . चोर भी खुद पुलिस भी खुद. और दूसरी बात यह है कि मुझे दुनिया के दो देश सबसे प्यारे लगते हैं एक है इटली दूसरा है स्विट्ज़रलैंड. अब आप शोले की वसंती से पूछेंगे ऐसा क्यों ...तो वह जवाब देगी -" यूँ के आपको पता नहीं इटली से हमारे शादी-ब्याह के नाते हैं, भारत में इटली की बहुएं बहुत प्रतिभाशाली मानी जाती हैं ...और जहां तक स्विट्ज़रलैंड का सवाल है तो यूँ के आपको पता होना चाहिए के वहाँ की बैंकों में भारत का कितना काले-पीले-हरे-गुलाबी रंग का पैसा हर साल दफ़न होता रहता है. तो मतलब यह हुआ के हमारे देश में काला पैसा अब है ही नहीं जो हाय तोबा की जाय.....जो है सिर्फ सफ़ेद पैसा है ...एकदम सफ़ेद भक्क ...जैसे के किसी नेता का कुर्ता. 
    सोने में सोहागा यह कि एक आदमी को बहुत गुणा-भाग लगाने के बाद इटली और स्विट्ज़रलैंड जैसे दो-दो महान देशों की नागरिकता लेना ज्यादा फायदेमंद लगा. यह आदमी है रोबेर्टो ग्योरी. ...नहीं समझे !  अरे वही तो अपना समधी ....जिसे करेंसी किंग के नाम से जाना जाता है.  लगभग दुनिया भर की सरकारें अपनी करेंसी इसी नक्काल की कंपनी "डे-ला-रू"  में छपवाती हैं. मुझे कंपनी का नाम भी बहुत अच्छा लगा. क्या है कि हमारे बस्तर में भी एक ऐसा ही मिलता जुलता शब्द बहुत प्रचलित है "दे दा रू" जिसे पिए बिना ही भारत की सरकार टुन्न है.   
        तो भैया ! अब बात यह है कि भारत में नकली नोटों की समस्या बहुत पुरानी हो गयी है. लेकिन एक दिन यह पता चलने पर कि नकली नोट ATM से भी निकल रहे हैं और बैंक काउंटर से भी, सी. बी.आई. ने नेपाल की  सीमावर्ती बैंकों और अंत में रिज़र्व बैंक पर भी छापा मारा ..तो सारा रहस्य सामने आया. वस्तुतः , ये नकली नोट पाकिस्तान से नहीं बल्कि भारत की ही रिज़र्व बैंक से जारी किये जा रहे हैं. और रिज़र्व बैंक असली के साथ नकली नोट भी "डे ला रू" से ही मंगवाती है जो ५०० और १००० के नकली नोट का कारोबार करती है. इस नक्काल किंग ने असली-नकली नोटों की पहचान करने वाली मशीन भी बना कर रिज़र्व बैंक को देदी कि जाओ दुनिया को बेवकूफ बनाओ और ऐश  करो . आप कहेंगे कि मामला गंभीर है....मुझे लगता है कि बिलकुल नहीं है  ...क्योंकि आप जानते है मैं कोई भी बात सप्रमाण ही कहता हूँ ...और प्रमाण यह है कि जब अगस्त 2010 में इस  मामले का खुलासा हो गया तो विपक्ष को भी यह मामला कतई गंभीर नहीं लगा. लगा होता तो क्या विपक्ष इस तरह हाथ पर हाथ धरे बैठे  रहता ? प्रहार का  कोई मौक़ा नहीं छोड़ने वाला विपक्ष अपनी ज़िम्मेदारी और मज़बूरियाँ अच्छी तरह समझता है कि कहाँ  उसे बोलना है और कहाँ नहीं. तो इस देश के लोगों को भी चिंतित होने की आवश्यकता नहीं...जाइए सो जाइए जाकर . मुझे भी नींद आ रही है.