मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

यूरोपवासियों की दृष्टि में १८ वीं शताब्दी के भारत में ज्ञान, विज्ञान और कला.......२

     अंग्रेजों ने भारत आकर तत्कालीन भारतीयों से कपास से रुई साफ़ करने की विधि, आयुर्वेदिक रस-औषधियों के निर्माण की विधि, शल्य चिकित्सा और पत्थर जोड़ने के मसाले का निर्माण करना सीखा. 
           हे सुप्त भारतीयो ! अब तो पहचानो अपने को ......तोड़ो अपनी निद्रा .....उठो ...जागो .......और लक्ष्य को पहचान कर आगे बढ़ो ...
  
       यहाँ प्रस्तुत हैं डॉक्टर हेलमेट स्कॉट ( 1760 -1821) के कुछ पत्रों के संक्षिप्तांश जो उन्होंने भारत में रहते हुए अपने ब्रिटिश स्वजनों-परिजनों को प्रेषित किये थे. डॉक्टर स्कॉट ईस्ट इंडिया कंपनी में सेना की चिकित्साइकाई में कार्यरत थे. उन्होंने मुख्यरूप से मुम्बई मुख्यालय में रहकर सेवा की थी. वे भारत में तीस वर्षों तक रहे, इसके बाद लौटकर इंग्लैण्ड चले गए थे जहाँ उन्होंने अपना  चिकित्सा व्यवसाय प्रारम्भ किया.  कुछ अन्य यूरोपियों की तरह उन्होंने भी भारत में प्राप्त विभिन्न प्रकार के ज्ञान और अनुभवों को अपने मित्रों और अधिकारियों से बाटने का लोभ संवरण नहीं किया और यहाँ से प्राप्त हर जानकारी यूरोप भेजते रहे. मैं सोचता हूँ कि यह, निश्चित ही अनजाने में ही सही, भारत पर उनका बड़ा उपकार हो गया. उन दस्तावेजों और धर्मपाल जैसे देश प्रेमियों के कारण ही आज हम अपने प्राचीन गौरव से परिचित हो पाने का सौभाग्य पा सके हैं अन्यथा स्वतन्त्र भारत की किसी भी राष्ट्रवादी सत्ता ने इसकी कभी कोई आवश्यकता ही नहीं समझी. यहाँ आप स्पष्ट तौर पर देख सकेंगे कि भारतीय ज्ञान-विज्ञान और तकनीकों के प्रति ब्रिटिशर्स की वृत्ति पूर्णतः व्यावसायिक, लालच से भरी किन्तु उत्सुकतापूर्ण रही है. पत्रों के अंश देखिये -

      मुम्बई ०७ जनवरी १७९० .........आपकी इच्छानुसार मैंने इस देश के लोगों द्वारा कपास की सफाई की प्रचलित पद्यतियों को जानने के प्रयास किये. इस पद्यति में प्रयुक्त होने वाले एक मात्र यंत्र को कैप्टन डंडास आपके पास लेकर पहुँचेंगे. ( प्रमाणित है कि उस समय तक अंग्रेजों को कपास से रुई निकालने की यांत्रिक पद्यति के बारे में पता नहीं था ) 
   कई वर्षों से मैं यहाँ के निवासियों द्वारा सूती वस्त्रों की रंगाई की पद्यतियों पर ध्यान दे रहा हूँ. 
 .................मैं उनके रंगने की इस एकल पद्यति के विषय में पता लगा चुका हूँ, जिससे कपड़े अमिट और गाढ़े रंगों में रंगे जाते हैं और जिसके कारण कपड़े चमकीले तथा सुन्दर दिखते हैं. जिस मुख्य पदार्थ को वे उस पद्यति में उपयोग करते हैं और जिसके बिना वे इस दिशा में कुछ भी नहीं कर सकते, उस मुख्य पदार्थ के विषय में कुछ भी जानने में मैं असमर्थ रहा. सामान्य रूप से देखने में आया है कि वे जब इस पदार्थ के घोल में वस्त्र रंगते हैं और उसी समय वस्त्रों को किसी वानस्पतिक रंग में रंगते हैं तब चमकीला रंग दीखता है. मेरी यह बात आप इंग्लैण्ड के निर्माताओं को किसी भी उपयोग की लगती है तो मैं आगे इससे अधिक महत्वपूर्ण पद्यति विषयक जानकारी कराऊँगा. ( अर्थात कपड़े रंगने की कला से भी उन्हें हमारे पूर्वजों ने ही परिचित कराया. )
 ........भारत में इस प्रकार की कलाएं परम्परा के तरीके से आगे बढ़ती हैं ...उन्हें कोई भी प्रलोभन देकर उस कला को सीखना संभव नहीं है. ( चुल्लू भर पानी में डूब मरें आज के घोटालेवाज और देश की गोपनीय जानकारी बेचने वाले सैनिक अधिकारी ) ............उनकी कला का ज्ञान कभी मुद्रित नहीं होता, इसके साथ उनका यह अनुभव सामान्य सिद्धांतों के रूप में भी नहीं होता, अतः सीखने की कठिनाई में वृद्धि होती है. ( आज अपने पराभव को देख सोचना पड़ता है कि कहीं इसी दूरदर्शिता के कारण तो नहीं अपने ज्ञान को संरक्षित रखने के उद्देश्य से अलिखित और गुप्त रखने का प्रचलन हमारे तकालीन समाज में था ? )

..............इस देश के लोग बड़ी विलक्षण बुद्धि के हैं ( इसमें क्या दो राय है ? तब भी थे आज भी हैं ...भले ही आज हम महाभ्रष्ट हो गए हैं तो क्या हुआ, विलक्षण तो हैं )  जलवायु के और विशेष रूप से अपने धर्म के कारण अपने विजेताओं के क्रोध की ज्वाला को शांत करते रहे हैं. जिनके द्वारा वे पराजित हुए और दबाये जाते रहे उनकी सरकारों के साथ भी वे समस्त क्रांतियों के होते हुए भी शताब्दियों से अपनी परम्पराओं की रक्षा करते रहे हैं 
( शर्म करो धर्म परिवर्तन करने वालो, अवसरवादियों और बुद्धि से दिवालिये लोगो ). मैं प्रायः सोचा करता हूँ कि उनकी यह कला धर्मिता ही उनके विकास और स्वस्थ्य जीवन का कारण रही होगी.  वर्षों के अनुभवों से परिपक्वता को प्राप्त उनकी कलाओं से विद्वान और दार्शनिकों को बहुत ज्ञान और आनंद मिल सकता है, परन्तु किसीने भी उनका अध्ययन करके लाभ पाने का विचार नहीं किया. 
.....कपास को स्वच्छ करने के यंत्रों की पेटी में मैंने इस देश में निर्मित सिन्दूर का एक टुकड़ा भी भेजा है. (और भी पता नहीं क्या-क्या चुरा कर ले गए होंगे ) ..........मैंने इसे यूरोपीय पद्यति से बनाने के प्रयास किये लेकिन मैं आज तक सफल नहीं हो सका. इसे भारतीय पहली बार में ही बना देते हैं. इस देश में वे रसपुष्प भी बनाते हैं (यहाँ मैं अपने सुधी ब्लोग पाठकों को बताना चाहूंगा कि रससिन्दूर और रसपुष्प पारा और गंधक के योग से बनने वाली आयुर्वेदिक औषधियों के नाम हैं जिन्हें उस समय अँगरेज़ चिकित्सक भी एंटीबायोटिक  के रूप में स्तेमाल किया करते थे, संक्रामक रोगों के लिए इनका भूरिशः प्रयोग सुविख्यात था )
 .....आगे मैं आपको इस देश के लोगों द्वारा चूना बनाने के विषय में जानकारी कराऊंगा जिसे यहाँ के लोग चूर्ण कहते हैं. इसका उपयोग भवनों, छतों, नहरों, पानी के नीचे के तल को, एवं जहाज़ों के नीचे की तली को बनाने में करते हैं . कुछ ही घंटों में इससे अत्यंत दृढ़ता आ जाती है. यह भारी पत्थरों को आपस में जोड़ देता है. ........मेरी जानकारी में इस देश में प्रयुक्त यह पद्यति और कहीं भी प्रयुक्त नहीं होती. 


मुम्बई, १९ जनवरी १७९२  ....... पहले तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि औषधि (medicine ) के क्षेत्र में उनके विज्ञान की बहुत सराहना नहीं कर सकूंगा किन्तु उनका शल्य चिकित्सा कर्म (SURGERY) अत्यधिक सुस्पष्ट और सुबोध है. यहाँ इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार से उनका शल्य कर्म भुलाया नहीं जा सकता, अपितु मुझे उसकी बहुत प्रशंसा करनी चाहिए. 
...पारदर्शी काँच जब अवनत हो जाता है तब वे उसे फिर से पारदर्शी बनाने में सदैव सफल होते हैं. 
..............चिरकाल से वे पथरी ( renal / gaal stones  )के लिए वहीं काटते ( incesion देते ) हैं जहां यूरोप में अब काटते हैं. यह अत्यंत आश्चर्य जनक है कि इससे पूर्व मुझे इसकी कोई भी जानकारी नहीं थी. दूसरे, उनकी रंगने की कला के विषय में मुझे अभी हाल ही में जानकारी हुयी है मैं रंगने की कला के लिए अत्यंत उच्च कोटि की सामग्री की अनुशंसा आप लोगों के लिए कर रहा हूँ जिसका उपयोग हमारे यूरोप के कलाकार लोग कर सकते हैं और जिसका व्यापार भी हो सकता ही. तीसरे, उनके द्वारा भवनों में चूने के उपयोग की पद्यति की मैं आप लोगों से अनुसंशा करता हूँ. चौथे, उनकी साबुन, बारूद, नील, स्याही, सिन्दूर ( रस सिन्दूर), तूतिया, तांबा, फिटकरी आदि वस्तुओं के निर्माण की पद्यति. 
.........मैंने हाल ही में पाया कि यहाँ के लोग चीजों को प्रचुर मात्रा में और अत्यंत कम मूल्य पर बनाने में निपुण हैं. वे समुद्री वनस्पतियों  को जलाकर उनसे उच्चकोटि का अश्मीभूत क्षार बनाते हैं. मुझे यह अत्यंत मूल्यवान लवण मालुम पड़ता है. मैं इसका नमूना आपके पास भेजूंगा. वहां इसका मूल्य २.१० और ३ पौंड प्रति टन से अधिक नहीं होगा. ( इसे कहते हैं अपने विज्ञान और मौलिक संसाधनों से देश का वास्तविक विकास जो तत्कालीन भारतीयों ने किया था ......वहीं चतुर अंग्रेज  यहाँ से जो भी ले गए उसका ब्रिटिशीकरण कर विश्व बाज़ार में उतार दिया उसे . हम अपनी परम्पराओं को भूल चुके हैं ...पर चीन नहीं भूला ...इसीलिये तो हमसे आगे है और हमें जब तब आँख दिखाने से बाज़ नहीं आता. )         

5 टिप्‍पणियां:

  1. कौशलेन्द्र जी ,
    बहुत सुन्दर जानकारी दी इस आलेख में आपने। भारतवासी वास्तव में निज पर गर्व करना भूल से गए हैं । विकसित देश इसीलिए तो इतना आगे हैं और हम साधन संपन्न होते हुए भी विकासशील ही हैं अभी।

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  2. हमे कभी सही इतिहास पढ़ाया ही नहीं गया। हर स्वाभिमानी कौम अपना खुद का इतिहास पढ़ती/पढ़ाती है। भारत मैकाले का लिखा इतिहास पढ़ता/पढ़ाता है।

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  3. इतिहास बताता है कि कैसे भारत कभी 'सोने की चिड़िया कहलाता था' , जिस कारण कुछ सदियों से पश्चिम से पहले जमीनी मार्ग से, खैबर दर्रे से, ग़ुलाम, खिलजी, तुगलक, सैय्यद, लोधी और मुग़ल वंश के योद्धा यहाँ आये और बस गए,,,और वे भी 'हिन्दुस्तानी' बन अवश्य अपना योगदान दिए होंगे भौतिक भारत निर्माण में... जबकि अधिकतर अँगरेज़ (और यूरोपियन व्यापारी भी) यहाँ समुद्र मार्ग से आ यहीं बसने के स्थान पर यहाँ रह यहाँ का माल आदि अपने देश ले जाना उचित समझे...
    और अधिकतर आम युवा भारतीय भी स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात आज स्वदेशी राज से विदेशी राज को अच्छा मान अथवा जान वहाँ पश्चिमी देशों में बसना अधिक पसंद करते हैं... इस पृष्ठभूमि में, आप कैसे युवा, जो कि भारत का 'भविष्य' हैं, उनसे अपेक्षा कर सकते हैं समय को तुरंत पीछे ले जाने में (वैदिक काल में?)...
    जैसी प्राचीन मान्यता है, समय ही स्वयं पीछे चला जाए शायद (?)...

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  4. अनुनाद सिंह जी ! प्रथम बार बस्तर के जंगलमें पधारने पर आपका हार्दिक स्वागत है. आपने लेख को पढ़ा ..उस पर विचार किया ...और अपना इतिहास छिपाए जाने पर अफसोस किया ......हम यही तो चाहते थे कि लोगों के दिलोदिमाग में हलचल हो ...यह हलचल निरंतर बनी रहेगी तो हम कुछ अच्छा होने की ...और फिर किसी अच्छी क्रान्ति की उम्मीद कर सकेंगे. आपका आभार.

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.