गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

मंथन जो अपरिहार्य हो गया है

                इच्छा द्वेषात्मिका तृष्णा सुखदुःखात्  प्रवर्तते . तृष्णा च सुखदुःखानाम् कारणं पुनवर्तते . 

     यही तो चक्र है .....जगत् का चक्र .......आवागमन का चक्र . प्राणवान शरीर का धर्म है - सुख दुःख की अनुभूति. इन अनुभूतियों में मानव मस्तिष्क की चेतना की क्रियाशीलता का अवक्षेप है. इनका श्रेष्ठतम भोक्ता है मनुष्य. जीवन को गति मिलती है इन्हीं अनुभूतियों से. इनका विराम जीवन का विराम है या फिर मोक्ष की प्राप्ति.
     हम जगत की ओर चलते हैं , नितांत सांसारिकता की ओर ....यहाँ विविधताएं हैं ...अनुभूतियों की विविधताएं. किन्तु क्या शुद्ध भी ? 
    नहीं ....यहाँ तो व्यापार हो रहा है अनुभूतियों का. सभ्य संसार का सुविधाभोगी मनुष्य वंचित है शुद्ध अनुभूतियों से . शुद्ध का यहाँ आशय है - नात्यल्प. 
    अनुभूतियों को इमानदारी की आवश्यकता होती है अन्यथा वे शुद्ध नहीं रह पातीं और आवृत्त हो जाती हैं पाखण्ड से. 
     नाना देवस्थलों ......शक्तिपीठों में भटक रहा है पूरा विश्व ......किन्तु पाखण्ड से मुक्त नहीं हो पा रहा. सभ्य मनुष्य की कैसी विवशता है यह ?  
    चाहे अनचाहे हम सभी की भागीदारी है इस पाखण्ड के पालन-पोषण में. कौन मुक्त रख सका है अपने को इससे ? 
        .......जन्म की प्रसन्नता और मृत्यु की पीड़ा में पाखण्ड.........जीत और हार में पाखण्ड.......पूजा और श्रृद्धा में पाखण्ड.......शिक्षा और संस्कार में पाखण्ड.....सम्मान और उपकार में पाखण्ड.....एक प्रतियोगिता सी व्याप्त हो गयी है. पाखण्ड से पूर्णतः आवृत्त हो चुके हैं हम. निंदा भी करते हैं इसकी ...तथापि मोह प्रबल है इसके प्रति . क्या है यह पाखण्ड ? अतिरंजना ही तो ! मिथ्या प्रदर्शन का आडम्बर . करणीय को अकरणीय घोषित करना और अकरणीय को करणीय प्रतिष्ठित करना. अमेरिका आक्रमण करे तो करणीय और भारत प्रत्याक्रमण करे तो निन्द्य. परिभाषाएं भी कितनी निर्लज्ज  हो गयी हैं.
     धर्म और जाति के बंधन में जकडे हैं जो, मनुष्य गौण हो गया है उनके लिए. बँट गया है समाज,  बँट गया है मनुष्य, बँट गयी हैं भावनाएं ....रह गया है मात्र पाखण्ड. "सबै भूमि गोपाल की " और..... "वसुधैव कुटुम्बकम्" के आदर्शों वाला भारत खंडित होता जा रहा है निरंतर .....और निरंतर........ कहाँ गयीं अनुभूतियाँ ? कहाँ गयीं संवेदनाएं ? 
     बाँट दिया है हमने अपने आप को, छिन्न-भिन्न हो गयी है हमारी आदर्श व्यवस्था.  समाज और शासन की व्यवस्थाएं पाखण्ड से भरी पडी हैं. पहले यूरोपियों ने विज्ञान को धर्म से पृथक किया और अब उन्हीं के द्वारा लोगों का बलात् धर्मांतरण किया जा रहा है........अधर्मपूर्वक धर्मांतरण. पहले उन्होंने कहा था - विज्ञान ही सब कुछ है और धर्म कोरी बकवास. अब कह  रहे हैं - अपने  सनातन धर्म का परित्याग कर हमारे धर्म की शरण में आओ, हम तुम्हें सुख समृद्धि, शिक्षा, स्वास्थ्य, शान्ति और प्रेम ...सब कुछ देंगे. 
    आज इक्कीसवीं शताब्दी का सभ्य भारतीय, जो अपने सनातन धर्म का परित्याग कर विदेशी धर्म को अपना चुका है और पश्चिमी ऐश्वर्य से प्रभावित है, कहता है - यदि तुम हमारे धर्म को नहीं स्वीकारोगे तो नरक में जाओगे, तुम्हारे ऊपर विपत्तियों के पहाड़ टूट पड़ेंगे. ....तुम्हारे देवी-देवता पापी हैं ....तुम्हारा ईश्वर भी पापी है......  
   धर्म 'उनका' हो गया है. वे 'धर्म' के नहीं हैं . उन्होंने ईश्वर को भी बाँट दिया है .....हमारा ईश्वर ....तुम्हारा ईश्वर, अच्छा ईश्वर .....पापी ईश्वर .
    योगी इन सबका समर्थन या विरोध नहीं करता क्योंकि वह निर्लिप्त है इन सब से. जो निर्लिप्त होता है वह योगी होता है ..जो योगी होता है वह स्वामी होता है अपनी इच्छाओं का ...अपनी इन्द्रियों का. वह बश में कर लेता है उन्हें.
   योगी राष्ट्र का संचालन नहीं कर सकता.  इसलिए सभी योगी नहीं होते . किसी की इच्छाएं प्रबल होती हैं......प्रबल और दुर्दांत ....वह भी वशीकरण जानता है. वह वश में कर सकता है समाज को ....शक्ति को ....धन को ...सत्ता को ....क्योंकि वह वस्तुतः योगी नहीं "जोगी" होता है (छत्तीसगढ़ के विशेष सन्दर्भ में लिया जाय )......और जोगी पाखंडी होता है, केवल पाखंडी. क्योंकि वह उदारता और सहिष्णुता, करुणा और उपकार , न्यायप्रियता और कर्मठता आदि का अभिनय करने में कुशल होता है. 


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     एक निर्धन था ......इसीलिये लोगों की दृष्टि में असभ्य भी था. किसी सभ्य नगर के दंडधारी राजसेवक किसी को खोजते हुए उसके पास पहुंचे. निर्धन ने पूछा - किसे खोज रहे हो ? उत्तर मिला - अपराधी को. निर्धन ने कहा- वह यहाँ कहाँ मिलेगा ? सभ्यों की बस्ती में चले जाइए, बहुत मिलेंगे. 
    सभ्य कृत अपराधों की न्यायिक जाँचों का पाखण्ड हमारी पारदर्शी अपसंस्कृति का एक अंग बन चुका है. और न्याय ..... ...एक दुर्लभ विषय जिसे देने और पाने का मंचन अब पूरी तरह व्यवस्थित हो चुका है. 
   आज का तथाकथित सभ्य यदि सुविधाभोगी है तो वह न्याय की अवधारणा को समझ ही नहीं सकता. क्या है यह न्याय ? ....विवेकी मनुष्य की अकिंचन एवं निर्लिप्त संवेदनाओं का प्रतिफल ....जो व्यवस्था के लिए निष्पक्षता और सत्यनिष्ठा के साथ समर्पित हो सके...............हो पाता है यह सब ? 
      पाखण्ड ! ........एक वर्जना........और यह वर्जना ही हमारे जीवन व्यापार का एक अंग बन चुकी है. आधुनिक सभ्यता की पराकाष्ठा है - पाखण्ड को समाप्त करने के उपदेशों और अभियानों का एक और पाखण्ड. ऐसे लोग ऐश्वर्य के साथ जीते हैं क्योंकि पाखण्ड के सबसे बड़े पोषक तो वे ही हैं. सच्चा मनुष्य तो मर जाता है अल्पायु में ही .....संघर्ष करते-करते. 
    एक तंत्र है जो जीने नहीं देता सच्चे मनुष्य को. विषपान करना पड़ता है उसे ......या सूली पर चढ़ना पड़ता है .....या और कोई ऐसी ही पीड़ादायी असमय मृत्यु का वरण करना पड़ता है. उसकी मृत्यु के पश्चात वही तंत्र मंच पर पुनः प्रकट होता है और मृतक को महिमा मंडित कर एक और नया व्यापार प्रारम्भ कर देता है. 
   हे ईश्वर ! इस अखिल ब्रह्माण्ड में इतने प्राणियों के होते हुए भी इस मनुष्य नामक सर्वाधिक भयानक एवं क्रूर प्राणी की रचना क्या इन्हीं सब व्यापारों के लिए की है तूने ? 
   अनंताकाश में टिमटिमाते खगोलीय पिंडों का अभिभूत कर देने वाला दृश्य, पृथिवी पर  फैले विशाल समुद्रों 
का आश्चर्यकारी सौन्दर्य, हिमाच्छादित उत्तुंग पर्वत शिखरों की दिव्यता, हरे-भरे पेड़-पौधे, रंग-बिरंगे पुष्प, उड़ती हुयी रंगीन तितलियाँ, उछल-कूद करता गाय का छौना और वर्षा ऋतु की रातों में झींगुरों के संगीत में होने वाले ईश्वर के दिव्य गुणगान के पश्चात्  अब और क्या है जिसके लिए मनुष्य विकल हो गिरता-पड़ता...लहू-लुहान होता भागा चला जा रहा है ?       
      
     


    

11 टिप्‍पणियां:

  1. योगी हर प्राणी है, और विभिन्न साकार भी!

    ब्रह्माण्ड में सभी विभिन्न साकार रूप योग से ही बने हैं - शुद्ध शक्ति के एक अंश और शक्ति के ही दूसरे अंश से जो भौतिक रूप में परिवर्तित किया गया है,,, और जो अस्थायी है एक पानी के बुलबुले की समान, जो पैदा होता है और तुरंत मर भी जाता है, जबकि हिमालय सदियों से खड़ा है पृथ्वी की कोख से ही चन्द्रमा समान जन्म ले (जम्बुद्वीप के उत्तर में, शक्ति की कृपा से) और संभव है फिर से समुद्र की गोद में समां जाये जैसा अटलांटिस के बारे में भी प्रसिद्द है (विष्णु, नादबिन्दू, के वामनावतार ने राजा बलि के सर पर पैर रख उसे पाताल में पहुंचा दिया था!)...

    इसे मानव का दुर्भाग्य कह सकते हैं कि वो ईश्वर का प्रतिरूप होते हुए भी अपने जीवन काल में 'सत्य' तक नहीं पहुँच पाता, जैसे 'पहुंचे हुवे' योगी जान पाए काल की चाल सतयुग से कलियुग तक, यानि ज्ञान से अज्ञान की ओर (वर्तमान भी उनके अनुसार घोर कलियुग जाना गया) ,,,
    और उनके बाद आने वाले 'निम्न स्तर' के योगियों अथवा जोगियों के लिए जीवन का सार अथवा सत्व, "सत्यम शिवम् सुंदरम" और "सत्यमेव जयते" बता गए - शिव ही सुंदर है और शिव ही सत्य है और वो ही अमृत है,,,
    साकार केवल योगमाया अथवा माया के द्वारा रचा असत्य है,,, वो उपयोगी है भूतनाथ शिव के लिए, अजन्मे का अपना अनंत इतिहास पढने का प्रयास, अपने स्रोत को जानने के लिए, बार बार, अमृत से विष तक की यात्रा, अपने एक दिन यानि हमारे चार अरब वर्ष तक १०८० बार,,, और उसकी उतनी ही लम्बी रात आने पर वो थक कर सो जाता है - अगले दिन फिर से नयी खोज जारी करने हेतु !... (शायद इस में ईश्वर के प्रतिरूप मानव को संकेत है अपने आरंभिक स्रोत को जानने के लिए इसी जन्म में?)

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  2. hmmmmmmm
    ek ek sahbd sach....ek ek baat shii
    baba bahut hiiii gehan bhaaw liye ..ik sarthak lekhan
    pr baba ..aaj fir se whii baat khli
    ki kaash meri hindii bhi mere baba ajsieee itniiiiii bdhiyaa hoti
    baba ..aapki hindi...pe abhut hi mazbooot pakd he.......hindi to main bhi bolti hun..pr hmaari bahaasha aur aapki hindi bhasha me jameen aasmaa ka fark he
    baba..aapko prnaaam

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  3. अनंताकाश में टिमटिमाते खगोलीय पिंडों का अभिभूत कर देने वाला दृश्य, पृथिवी पर फैले विशाल समुद्रों
    का आश्चर्यकारी सौन्दर्य, हिमाच्छादित उत्तुंग पर्वत शिखरों की दिव्यता, हरे-भरे पेड़-पौधे, रंग-बिरंगे पुष्प, उड़ती हुयी रंगीन तितलियाँ, उछल-कूद करता गाय का छौना और वर्षा ऋतु की रातों में झींगुरों के संगीत में होने वाले ईश्वर के दिव्य गुणगान के पश्चात् अब और क्या है जिसके लिए मनुष्य विकल हो गिरता-पड़ता...लहू-लुहान होता भागा चला जा रहा है ? ......

    -------

    कौशलेन्द्र जी ,

    ये लेख पढ़कर तो पूरा ह्रदय इसकी खूबसूरती में गोते लगा रहा है । क्या लिखूं ...बस डूब-उतरा रही हूँ...बहुत बार पढ़ चुकी हूँ अब तक ...

    .

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  4. हम यदि अपने भूत पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि जब भारत स्वतंत्र हुआ तब हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा मिला,,, किन्तु संभवतः इसे प्राकृतिक ही कह सकते हैं कि अंग्रेजी सम्पूर्ण विश्व की भाषा बन जाने के कारण भारत में भी इसे पहला दर्जा मिलता चला आ रहा है, हम इसे भले ही अंग्रेजों की गुलामी कह लें (और हमको तो गुलामी की आदत सी होना स्वाभाविक है, भारत में तो संसार में बोली जाने वाई सब भाषाएँ का कहीं न कहीं उपयोग होता चला आ रहा है क्यूंकि हमने सभी को अपनाया था, और इस पर हमें गर्व भी है !) ,,,

    किन्तु यह भी सत्य है कि भाषा केवल एक माध्यम है, अपने हृदय के उद्गारों को दूसरों के सम्मुख प्रस्तुत करने का...और अच्छी भाषा सुनने में करीने से सजाई गयी भोजन की थाली समान अवश्य सुंदर लगती है, इसमें दूसरी राय नहीं हो सकती...किन्तु जैसे भोजन का केवल सुंदर दिखना ही काफी नहीं है, वैसे ही सुंदर शब्दों में ही भले कुछ शंकाओं का समाधान न हो तो आवश्यक हो जाता है, उनको किसी भी भाषा में भले ही कहा जाए, उनका निवारण करना, अपने गौरवमय इतिहास को ध्यान में रखते हुए, इस पृष्ठभूमि से कि इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे पूर्वज पहुंचे हुवे योगी थे ...

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  5. कौशल भाई योगी की तरह सोचने के लिए या तो समाज में परिस्थितियां हो या तो हम जंगल चले जाएँ.
    वर्तमान परिस्थिति में यही लगता है..
    ............
    योगी राष्ट्र का संचालन नहीं कर सकता. इसलिए सभी योगी नहीं होते . किसी की इच्छाएं प्रबल होती हैं......प्रबल और दुर्दांत ....वह भी वशीकरण जानता है. वह वश में कर सकता है समाज को ....शक्ति को ....धन को ...सत्ता को ....क्योंकि वह वस्तुतः योगी नहीं "जोगी" होता है (छत्तीसगढ़ के विशेष सन्दर्भ में लिया जाय )......और जोगी पाखंडी होता है, केवल पाखंडी. क्योंकि वह उदारता और सहिष्णुता, करुणा और उपकार , न्यायप्रियता और कर्मठता आदि का अभिनय करने में कुशल होता है.
    ...............
    ये योगी जब समाज को दिशा देने होती है उसी बिंदु पर "जोगी" बन जाते है..जैसा की आप ने कहा भी इसका समाधान सनातन धर्म में है जिसे हमारी गुलाम मानसिकता बर्दास्त नहीं कर प् रही और सेकुलर जमात में हम अपना नाम लिखाने के लिए पगलाए जा रहें हैं...

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  6. @ आशुतोष जी
    आपने कहा, "... योगी की तरह सोचने के लिए या तो समाज में परिस्थितियां हो या तो हम जंगल चले जाएँ.
    वर्तमान परिस्थिति में यही लगता है..."

    वैसे देखा जाए तो हम आज कंक्रीट के जंगल में तो निवास कर ही रहे हैं और आदि-मानव समान अपनी अपनी 'गुफा' में अधिक समय व्यतीत करते हैं, वो भले ही हमारा निवास-स्थान हो अथवा कार्यालय !!!

    इसीलिए मेरा मानना है कि सबसे पहले हमें भागवद गीता अवश्य पढनी चाहिए, क्यूंकि हम 'योगी' शब्द से अपने मन में एक धारणा बना लेते हैं एक जोगिया वस्त्र धारी जटा-जूट वाले अनपढ़ व्यक्ति की जिसकी उपस्तिथि का आभास हमें आज उनके अर्ध-कुम्भ अथवा कुम्भ मेले में (६ अथवा १२ वर्ष में एक बार) गंगा स्नान के समय ही मीडिया द्वारा कराई जाती है,,, जबकि दूसरी ओर हमें यह भी पता है कि प्राचीन 'हिन्दू' पहुंचे हुए खगोलशास्त्री, अथवा 'सिद्धि' प्राप्त पहुंचे हुए व्यक्तित्व के थे, जहां पहुंचना हरेक के जीवन का उद्देश्य भी माना जाता था - कठिन तपस्या कर सिद्धि प्राप्त करना (केवल एक विषय में ही नहीं, जैसा वर्तमान में, कलियुग में, चलन है और हर कोई अपनी अपनी तूती बजा रहा है, नक्कार खाने में! )...कुम्भ मेले में गंगा के घाट में एकत्र हो चारों दिशा से आये योगी सत्य पर चर्चा करते थे, और शास्त्रार्थ में विजयी योगी को सुन, फिर वापिस लौट ज्ञान का प्रचार अपने अपने क्षेत्रों में करते थे...आम आदमी कि सुविधा को ध्यान में रख...
    और इस प्रकार प्राचीन भारत में आम व्यक्ति के जीवन काल को चार अवस्थाओं में विभाजित किया गया था, जिसमें 'सन्यास आश्रम' चौथी और अंतिम अवस्था थी जब व्यक्ति से अपेक्षित था कि वो ("सत्यम शिवम् सुंदरम" वाले) 'सत्य' को जानने का प्रयास करे मोक्ष प्राप्ति हेतु... इस अवस्था तक पहुँचते पहुँचते आम आदमी भौतिक संसार का सम्पूर्ण दृष्टिकोण से अनुभव प्राप्त कर परिपक्व हो चुका होता था और इस कारण मन को आरंभ में एकांत में साधने के लिए, तपस्या कर, तैयार था - जिसकी एक झलक शायद हमें आज भी मिलती है 'जंगली' घोड़ों और हाथियों को परंपरागत तरीके से साधते चले आने से...

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  7. डॉक्टर साहब!! आज तो दर्शन की अमृत वर्षा कर दी आपने..

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  8. अनंताकाश में टिमटिमाते खगोलीय पिंडों का अभिभूत कर देने वाला दृश्य, पृथिवी पर फैले विशाल समुद्रों का आश्चर्यकारी सौन्दर्य, हिमाच्छादित उत्तुंग पर्वत शिखरों की दिव्यता, हरे-भरे पेड़-पौधे, रंग-बिरंगे पुष्प, उड़ती हुयी रंगीन तितलियाँ, उछल-कूद करता गाय का छौना और वर्षा ऋतु की रातों में झींगुरों के संगीत में होने वाले ईश्वर के दिव्य गुणगान के पश्चात् अब और क्या है जिसके लिए मनुष्य विकल हो गिरता-पड़ता...लहू-लुहान होता भागा चला जा रहा है ?
    ....मंत्र मुग्ध कर देने वाली लेखन शैली है आपकी। आनंद आ गया पढ़कर। कभी एक गीत लिखा था...

    तू है कौन कौन हैं तेरे।

    ताल-तलैया पी कर जागा
    नदी मिली सागर भी मांगा
    इतनी प्यास कहाँ से पाई
    हिम से क्यों मरूथल तक भागा

    क्यों खुद को ही रोज छले रे!
    तू है कौन कौन हैं तेरे।

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  9. पांडे जी ! बस्तर के जंगल में स्वागत है आपका....

    क्यों खुद को ही रोज छले रे!
    तू है कौन कौन हैं तेरे।

    आपने तो इन पंक्तियों से चार-चाँद लगा दिए इस लेख में ...बहुत-बहत धन्यवाद

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  10. सब जानते हैं कि एक छुरा सब्जी काटने से ले कर किसी पशु, और किसी मनुष्य को भी, काटने में उपयोग में लाया जा सकता है,,, किन्तु 'आधुनिक' मानव के मस्तिष्क में विचार आ जाता है 'सही' और 'गलत' का,,,यानि वनस्पति और 'निम्न स्तर' के प्राणीयों को काटना गलत नहीं है, किन्तु मनुष्य की हत्या कानूनन वर्जित है,,,जबकि कुछ जीव हत्या को ही सही नहीं बताते,,, और आज तो हम पशोपेश में पड़ गए हैं जब बाघों की संख्या बहुत कम रह गयी हैं, और अब प्रतीत होने लगा है कि हमारे पूर्वजों ने सही कहा था कि 'मानव गलतियों का पुतला है',,, कठपुतलियों के सन्दर्भ में यह संकेत हो सकता है कि मानव को केवल एक निमित्त मात्र जाना गया था, 'मिटटी का एक पुतला जिसकी डोर किसी अदृश्य जीव के हाथ में है!!!



    (,,,और इसी प्रकार हम अन्य वस्तुओं को भी देखें तो कह सकते हैं कि हरेक के कई धर्म हैं, कई उपयोग हैं, मानव के भी, हर एक व्यक्ति के जो श्रंखला बद्ध तरीके से अन्य वस्तु और प्राणीयों पर निर्भर हैं),,,



    अर्जुन को कृष्ण द्वारा 'निमित्त मात्र' कहते दिखाया है हमारे पूर्वजों ने - एक माध्यम, ईश्वर के अपने निजी उद्देश्य के लिए बने जो हमारी पहुँच के बाहर हैं,,, और प्राचीन ज्ञानियों ने मानव को ब्रह्माण्ड का मॉडेल जाना, यानि एक अनंत शून्य का जो गुब्बारे की तरह बढ़ता ही जा रहा है काल के साथ,,, जबकि अन्य साकार सभी अस्थायी हैं (आत्माएं, जो रूप बदल रही हैं,,, शून्य से आरंभ कर शून्य में विलीन हो केवल मानव की शिक्षा हेतु ?) ...

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.