बुधवार, 4 मई 2011

धर्म चिंतन ........2


पिछली बार हमने लौकिक धर्म पर कुछ चर्चा की थी. सुज्ञ जी ने सार रूप में धर्म को लोक स्व-भाव कहा. यह सूत्र ज्ञानियों के लिए है. अभी ओसामा-बिन-लादेन के मारे जाने के पश्चात प्रसंगवश इस "स्व-भाव" पर पुनः चर्चा की आवश्यकता है. अस्तु .......
     
पिछली बार धर्म के प्रसंग में भौतिक शास्त्र के अनुसार ब्रह्माण्ड के स्व-भाव पर चिंतन किया गया था. जब हम स्व-भाव की बात करते हैं तो यह संकेत चराचर जगत के मौलिक गुणों की ओर होता है. मौलिक गुण किसी भी पिंड की सूक्ष्म संरचना के संयोजन पर निर्भर करते हैं. वही इलेक्ट्रोन-प्रोटोन और न्यूट्रोन सभी तत्वों के परमाणुओं में होते हैं किन्तु संख्या और संयोजन की भिन्नता के कारण कोई परमाणु सोने का बन जाता है तो कोई यूरेनियम का....और फिर ये सभी तत्व अपने-अपने भिन्न गुणों के कारण भिन्न-भिन्न स्वभाव प्रकट करते हैं. अब चिंतन का विषय यह है कि क्या ओसामा-बिन-लादेन जैसे   लोगों का स्व-भाव भी उनका अपना विशिष्ट धर्म कहा जाएगा ? मानवता विरोधी कार्यों में संलिप्त और उस तरह की सोच रखने वाले लोगों के स्वभाव को क्या कहा जाय ? 
    
सामान्य बोलचाल में हम स्वभाव को किसी व्यक्ति की प्रकृति से जोड़ कर देखते हैं.  निश्चित ही यह उसकी विशिष्ट दैहिक संरचना का विशिष्ट प्रभाव है.....और इस नाते उसका स्वभाव उसका भौतिक धर्म है.... जड़ता का धर्म है.  किन्तु मनुष्य का धर्म भौतिक धर्म से आगे का धर्म है.....और यह चेतना का धर्म है.....विवेक निर्णीत धर्म है ......सर्व कल्याण का धर्म है. जड़ और चेतन के धर्म में यही अंतर है. 
    
सुर-असुर, देव-दैत्य, मानव-दानव आदि के स्वभावों के आधार पर दो प्रकार की प्रवृतियां सामने आती हैं ...हिंसक और अहिंसक. मनुष्य चेतन जगत में सर्वश्रेष्ठ है ...इसलिए उससे सर्व कल्याणकारी व्यवहार ही अपेक्षित है.... और यही मनुष्य का लौकिक धर्म है .  
    
मनुष्य की मूल प्रकृति अहिंसक है ...हिंसा तो उसकी विकृति है. चेतन जगत में मनुष्य ही सर्वाधिक व्यापक परिवर्तनकारी कारक है....उसकी यह परिवर्तनकारी प्रवृत्ति शान्ति या अशांति का कारण बन  सकती है. इसलिए मनुष्य से अपने भौतिक धर्म के अतिरिक्त चेतन धर्म की भी अनिवार्य अपेक्षा की जाती है. हम अपने भौतिक धर्मों का तो पालन कर लेते हैं ....जन्म, ज़रा ..मृत्यु की स्वाभाविक जैव-रासायनिक क्रियाएं स्वतः संपन्न होती रहती हैं. फिर जीवन को बनाए रखने के लौकिक धर्म भी जैसे-तैसे  संपन्न करते ही हैं ......पर जो चूक होती है वह इस चेतन-धर्म के पालन में ही हो रही है...और इसके प्रति हम ज़रा भी संवेदनशील नहीं हैं. सारा ध्यान लौकिक धर्म के पाखण्ड में ही केन्द्रित हो कर रह गया है. 
   
सुज्ञ जी को बहुत-बहुत धन्यवाद. उनके सूत्र वाक्य के कारण ही इस विमर्श को कुछ और गति मिल सकी.         
         

26 टिप्‍पणियां:

  1. वाह
    क्या सुन्दर वैज्ञानिक विश्लेषण किया आप ने व्यक्तित्व और गुणों का..अहिंसा प्रवृत्ति है मगर कभी कभी हिंसा जरुरत होती हैं न की विकृति..
    कंस रावण लादेन को मारना जरुरत थी ..

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  2. गरम दल वाले आशुतोष जी ! सापेक्षता के सिद्धांत पर किंचित विचार कीजिये ........ कंस-वध को हिंसा नहीं कहेंगे. हिंसा तो वह है जो अकारण और केवल निज स्वार्थ के लिए की जाय ...इसमें ह्त्या ही नहीं .....प्रताड़ना, शोषण, भ्रष्टाचार ...यहाँ तक कि कटु वचन भी शामिल हैं इस हिंसा में. वहीं लोक कल्याण के लिए दधीची की तरह प्राणत्याग भी आत्मोत्सर्ग है हिंसा नहीं.

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  3. कौशलेन्द्र जी,

    आपने 'धर्म'शब्दार्थ को विभिन्न दृष्टिकोण समुचित विश्लेषित किया। अपने चिंतन को विनम्रता से मेरे विचार प्रेरित बता यूं ही श्रेय दिया है, तथापि उल्लेख के लिये आभार ज्ञापित करता हूँ।

    धर्म का व्यापक अर्थ स्व-भाव ही है, विभिन्न वस्तुओं में रही उनकी गुण-विशिष्ठता के लिए हम 'गुण-धर्म' शब्द का प्रयोग करते ही है।

    जैसे ताप, आग का गुण-धर्म है अर्थात् स्वभाव है।
    शीतलता पानी का गुण-धर्म है, स्वभाव है।
    परमाणुओ के गुण-धर्म का आपने उल्लेख किया ही है।
    धुएं अथवा विशेष गैसों का उपर उठना उनका गुण-धर्म अथवा स्वभाव है।
    स्व-भाव से तात्पर्य है उनका स्वयं का भाव। उनका स्व-गुण-धर्म।
    उसी तरह जीव अथवा मनुष्य के अपने गुण-धर्म है, अच्छे बुरे कोई भी हो जो उसका स्वभाव है, उसी दृष्टि से उसके लिए भी धर्म शब्द प्रयुक्त हो सकता है। पर चुकि आध्यात्म व शुभ-कर्म के लिए 'धर्म' शब्द रूढ है, स्थापित है तो आध्यात्म में धर्म शब्द को उसी विशेषार्थ में ग्रहण करना होगा। जो 'धारण किया जाय वही धर्म' सूत्र का दोनों अर्थों से कोई विरोधाभास नहीं है। क्योंकि वस्तुएँ भी गुण धारण करती है अतः वे उन वस्तुओं के धर्म कहलाए जाते है। स्व-भाव और धर्म पर्याय है।
    तो आध्यात्म में प्रयुक्त धर्म वस्तुतः आत्मा के स्व-भाव से है, आत्मा का स्व-भाव है अनंतसुख प्राप्त करना, अथवा अपने शुद्ध स्वभाव में लौटना। अपने स्व-भाव में स्थापित होने के कर्म को धर्म कहा गया, अर्थात् उसका स्वभाव कहा गया।
    अब विचार करते है बुरे कार्यों को उस व्यक्ति का धर्म कैसे कहा जाय?
    संक्षेप में धर्म कह भी दिया जाय तो बाधा नहीं है पर भावार्थ तो यही होगा कि उसका स्वभाव है हिंसाधर्म, दुष्कृत-धर्म, माया-धर्म और विकृत धर्म आदि। पर 'धर्म' शब्द है तो स्वभाव विशेष।

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  4. कौशलेन्द्र जी, सुज्ञ जी, क्षमा प्रार्थी हूँ, मेरे विचार से 'धर्म' अथवा 'स्वभाव' आदि पर चर्चा से पहले शायद हमें बताना चाहिए कि कैसे और क्यूँ मानव समाज (निराकार ब्रह्म के अनंत प्रतिरूप?) अधिकतर किसी छोटे से छोटे विषय पर भी, (और 'ओसामा' के निधन पर जहां विभिन्न देशवासी टी वी के कारण अपने अपने विचार रख रहे हैं), संख्या कम हो तो कम से कम दो, अथवा हिन्दू मान्यतानुसार ॐ द्वारा दर्शाए गए निराकार ब्रह्म के संयुक्त किन्तु प्रथक प्रतीत होते तीन साकार रूप, यानि सूर्य, पृथ्वी को आकार देने वाली उसके केंद्र में उपस्थित गुरुत्वाकर्षण की शक्ति, और साकार पृथ्वी,,, ब्रह्मा-विष्णु-महेश समान (सृष्टि कर्ता- सृष्टि के पालक -सृष्टि के संहार कर्ता), (३) तीन भाग में बँट जाता है - यानि कुछ उसका अनुमोदन करते हैं, और कुछ उसके विरोध (माया के सन्दर्भ में, उसके 'हमें' शीशे में उलटे दिखते प्रतिबिम्ब समान, और जैसा मानव जीवन में अधिकतर शीशा सादा ही अपनाया जाता है, किन्तु यदि वह सादा न हो 'जादुई' भी हो सकता है इसलिए शीशे के 'स्वभाव' के कारण आम आदमी के विकृत अथवा हास्यास्पद, आदि, अनेक चेहरे भी दिखना संभव है),,, और संख्या अधिक होने पर कुछ, निर्गुण ब्रह्म समान, न इधर के न उधर के :)

    ॐ नमः शिवाय...

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  5. धर्म एक बहुत ही वृहत विषय है और हर व्यक्ति अपनी सूक्ष्म बुद्धि के अनुसार उसका अर्थ समझता है। लादेन अपनी अज्ञानता वश जो धर्म समझता था उसका पालन किया। ओबामा ने देश हित में अपने धर्म का पालन किया। यदि भारत की सत्ता में बैठे स्वार्थी जन भी सचेत हो जाये और देश हित में चिंतन करें , तो देश का भी कल्याण होगा। देश काल और परिस्थिति के अनुसार , जो हित में है वही धर्म है।

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  6. डॉक्टर दिव्या जी, क्षमा प्रार्थी हूँ कहते कि आपने सूर्य ('विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल पर विराजमान ब्रह्मा') एवं पृथ्वी ('साकार रूप में चतुर्भुज शिव', और उस के भीतर केंद्र में उपस्थित गुरुत्वाकर्षण शक्ति, नादबिन्दू, चतुर्भुज विष्णु का प्रतिरूप) द्वारा रचित काल और महाकाल शिव, नवग्रह (सौर-मंडल के नौ सदस्यों, जिसके सार से मानव शरीर भी बना जाना गया) को शायद अपने कथन में अनदेखा कर दिया...इस पृष्ठभूमि से कि काल सतयुग से कलियुग को दर्शाते जाना गया, एक बार ही नहीं, अपितु १०८० बार, ब्रह्मा के एक दिन में जो चार अरब से अधिक जाना गया, और उसके पश्चात उसकी उतनी ही लम्बी रात,,, जबकि उसके प्रतिरूप अथवा प्रतिबिम्ब मानव की रात और दिन दोनों औसतन १२ घंटे के ही होते हैं, और निद्रा को अर्ध-मृत अवस्था कहा गया और जीवन काल मात्र १०० वर्ष (+/ -) !

    और हमसे अधिक ज्ञानी, प्राचीन 'हिन्दू' जो नवग्रहों (महाशिव) में से चंद्रमा (हिमालय-पुत्री, 'पार्वती', अथवा 'अष्ट-भुजा धारी' दुर्गा, जिसका दुर्ग समान कवच धारण करने का उपदेश दिया उन्होंने अपने मानव रूप में विभिन्न प्रतिबिम्बों को),,, और यूं 'क्षीर-सागर मंथन' की मनोरंजक कहानी द्वारा चन्द्रमा को उच्चतम स्थान दे, शिव के मस्तक पर दिखा उन्होंने सांकेतिक भाषा में उसे 'विष्णु का मोहिनी रूप' दर्शाया! और 'सत्य' उसे जान जो काल के परे हैं, महाकाल, भूतनाथ शिव / नादबिंदु, योगेषर विष्णु द्वारा रचित जो योगनिद्रा में अपना भूत देख रहे हैं...:)

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  7. .

    JC जी ,

    काल गतिमान है , समय निरंतर बदल रहा है , यदि हम समय के साथ नहीं बदलेंगे तो बहुत पीछे रह जायेंगे। सतयुग गया । अब सतयुग वाले संत जन भी नहीं होते। इसलिए मैंने देश , काल , परिस्थिति के अनुसार जो हितकारी हो , उसी को धर्म कहा।

    मैंने लाइफ को simmplify कर रखा है । इसलिए किसी भी विषय पर इतना गूढ़ चिंतन ही नहीं करती , क्यूंकि समय और साधन सीमित हैं। तथा मेरा ज्ञान भी सीमित है इस विषय पर।

    जो उचित लगता है वही कह देती हूँ spontaneously। लेकिन आप सभी विद्वानों के मध्य चर्चा का आनंद अवश्य लेती हूँ और ज्ञानवर्धन भी करती हूँ अपना।

    आप , आज पहली बार मुझसे मुखातिब हुए , मुझे बात करने के लायक समझा , इसके लिए आपका आभार।

    .

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  8. JC जी ,

    क्षमा करना जे सी जी, आपने शब्दाडम्बर से विषय को दुरूह बना दिया है, बात पहुँच ही नहीं पा रही जो आप कहना चाहते है। यदि प्रस्तुतिकरण बोधगम्य न होगा तो चर्चा कैसे सम्भव होगी। और कथ्य एक तरफा कह कर समाप्त कर दिया जायेगा तो प्रश्न कहाँ से उपस्थित होगा।
    अतः पहले स्पष्ठ करें कि आप किस विषय में क्या कहना चाहते है।

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  9. दिव्या जी, सुज्ञ जी, एवं कौशलेन्द्र जी, मुझे खेद है कि मेरी बात समझ के बाहर प्रतीत हुई आपको, शायद इस लिए कि मैंने 'हिन्दू मान्यता' को पिछले तीन दशक में एक खगोल शास्त्री, एक वैज्ञानिक, के दृष्टिकोण से देखा है ...

    मैंने हिंदी स्कूल में आठवीं कक्षा तक ही पढ़ी थी, अधिक नहीं पढ़ी, उसके लिए में आपसे माफ़ी मांगता हूँ, क्यूंकि अंग्रेजी माध्यम से ही मैंने इन्जीनीरिंग के विषय पढ़े... किन्तु ब्राह्मण परिवार में पैदा होने से अवश्य अपने पुराण, राम लीला, कृष्ण लीला आदि की कहानियाँ और हिन्दू मान्यता पर कुछ विचार कानों में पड़ना प्राकृतिक ही कह सकते हैं,,, टी वी पर महाभारत और रामायण आदि की कथा भी अन्य सभी की भांति मैंने भी देखी, और अमर चित्र कथा आदि में कहानियाँ पढने को मिलीं थीं... कुछ वाक्य ने बचपन से ही, जैसे, "माँ यशोदा ने कृष्ण के मुंह में ब्रह्माण्ड देखा", मुझे आकर्षित किया था...और बाद में गीता में पढ़ कि सारी सृष्टि कृष्ण के भीतर समायी है, यद्यपि वो माया से सबके भीतर दिखाई पड़ते हैं, मुझे कुछ कुछ सत्य का आभास हुआ !

    मेरा सत्य के विषय में सोचना भी चिकित्सकों के कारण ही हुआ, जानते हैं कौशलेन्द्र जी, जब सत्तर के दशक के अंत से नब्बे के दशक के अंत तक, मैं अपनी पत्नी के आर्थराइटिस के कारण, विभिन्न पद्दति के चिकित्सकों के अतिरिक्त तांत्रिकों तक के भी परेशान हो चक्कर काटता रहा (और तब मैंने क्राइस्ट को भी याद किया जो छू कर ही अंधों, कोढियों आदि को ठीक कर दिया करता था!)... उस बीच अस्सी के दशक में भागवद गीता में पढने के बाद कि कृष्ण तक कोई भी पहुँच सकता है, कह सकते हैं कि मेरी हिन्दू पुराण, हिन्दू मान्यता आदि में रूचि अधिक जगी...और मैंने सम्बन्ध पाया ब्लैक होल, जो हमारी गैलेक्सी के केंद्र में उपस्थित जाना गया वैज्ञानिकों द्वारा, और द्वापर में उसके प्रतिरूप 'कृष्ण', मीरा के रहस्यमय कृष्ण के सत्य में भी, जो मूर्खों को राज्य देते हैं और पंडितों को भिखारी बनाते हैं !...

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  10. शायद आज सभी जानते हैं कि अपनी धुरी पर चक्र समान घूमती, और अपनी कक्षा पर सूर्य की परिक्रमा करती, हमारी पृथ्वी पर समय को दर्शाने के लिए वर्तमान में घड़ियाँ हैं जो औसतन एक दिन के १२ घंटे और १२ घंटे की एक रात, कुल २४ घंटे, दर्शाती हैं, शून्य (०, मध्यरात्रि ) से दिन के १२ बजे (मध्यान्ह) तक, और १२ घंटे फिर से दूसरी मध्यरात्रि तक,,, (जबकि प्राचीन हिन्दुओं ने एक दिन सूर्य के उगने से अगले दिन उसके उगने तक माना),,, एक दिन माना जाता है उस काल को जो पृथ्वी अपनी धुरी पर सूर्य के सामने घूमने में लेती है और सूर्य के सामने एक बिंदु से उसी बिंदु पर लौटने में जितने चक्र उसने लिए होते हैं वो एक वर्ष माना जाता है,,, और क्यूंकि एक वर्ष में पृथ्वी अपनी धुरी पर ३६५ से अधिक बार घूम चुकी होती है, एक वर्ष ३६५ दिन का माना जाता है,,, और कमी को पूरी करने हेतु तीन वर्ष ३६५ दिन और चौथा ३६६ दिन का माना जाता है... किन्तु हिन्दुओं ने काल के निर्धारण के लिए इंदु यानि चन्द्रमा के चक्र को अधिक मान्यता दे मास और अधिक-मास मान सूर्य की चाल से कदम मिलाने का प्रयास किया... उन्होनें भी दिन को २४ घंटे (८ ३) में ही विभाजित किया, किन्तु घडी- पल के स्थान पर वर्तमान में एक घंटे को ६० मिनट में और एक मिनट को ६० सैकिंड में विभाजित किया जाता है...किसी एक वर्ष में पृथ्वी से सूर्य को एक माह, १२ में से किसी एक तारा-मंडल विशेष में देखे जाने के कारण ज्योतिषियों ने एक वर्ष को १२ माह में, १२ राशियों में विभाजित किया, जबकि प्राचीन हिन्दुओं ने जन्म कुंडली चन्द्रमा की १२ घरों में किसी एक घर पर स्तिथि के आधार पर उसकी राशि निर्धारित कर किसी व्यक्ति विशेष की प्रकृति और भविष्य का अनुमान लगाने का प्रयास किया...

    किन्तु सृष्टिकर्ता को शून्य काल और शून्य स्थान से सम्बंधित जाना हिन्दुओं ने, और इस कारण उसे अजन्मा और अनंत दर्शाया, और यह भी जाना कि ब्रह्माण्ड वास्तव में शून्य कल में ही निर्मित भी हो गया होगा और ध्वंस भी ! जिस कारण 'माया' अथवा 'योगमाया' (यानि अनंत नादबिन्दू / शिव यानि शक्ति के साथ साकार के योग) के द्वारा महाकाल ने हमारी गैलेक्सी, (कृष्ण के सुदर्शन-चक्र समान), के भीतर मक्खन समान उसके बाहरी ओर स्थित सौर-मंडल की उत्पत्ति की होगी जाना सिद्ध पुरुषों ने, जिसमें केवल गंगाधर शिव यानि पृथ्वी, अथवा वसुधा, का मुख्य रोल जाना उसके कुटुंब के द्वारा शून्य में घटी घटना को अनंत काल-चक्र द्वारा संभव करना - महाकाल को योगनिद्रा द्वारा अपना इतिहास, अथवा लीला, देखने हेतु :)

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  11. .

    JC जी ,

    आपकी knowledge बहुत vast है । आपको पढना मतलब - ज्ञान के सागर में गोते लगाना हुआ। बहुत कुछ नया सीखती हूँ आपसे।

    .

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  12. जे सी जी, हां अब कुछ स्पष्ठ हो चला है। आपने प्राच्य ज्ञान और नवविज्ञान के तथ्यों के समायोजन पर श्रमपूर्ण शोध की है। इस शोध का आभार, मित्र!!

    किन्तु खगोल शास्त्र में तीन दशक के श्रम से पाए निष्कर्षों को आप मात्र तीन टिप्पणी में समाहित कर प्रस्तुत कर देना चाहते है। मित्र खगोल के एक एक नियम को लें और अपअनी अवधारणाएं प्रस्तुत करें। साक्ष्यों और सन्दर्भों सहित। फिर देखिए आपकी प्रस्तुति कितनी मूल्यवान बन जाती है।

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  13. सत्य और अहिंसा के द्वारा जीवन की हर लड़ाई जीती जा सकती है।
    मैं तो जीवन में जो आचार संहिता (code of conduct) है उसे धर्म मानता हूं।

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  14. @ मैं तो जीवन में जो आचार संहिता (code of conduct) है उसे धर्म मानता हूं।

    मनोज भाई ! सत्य कथन है आपका. किन्तु सबने अपने-अपने code of conduct बना रखे हैं ...कोई सर्व मान्य और अविरोधी आचार संहिता प्रचलन में नहीं आ पा रही है....सारे विवाद इसी कारण हो रहे हैं.
    @ मैंने लाइफ को simmplify कर रखा है .........जो उचित लगता है वही कह देती हूँ spontaneously ......

    दिव्या जी ! बड़ी गूढ़ बात कह दी है आपने, सरल जीवन ही धर्मानुकूल है ...जीवन की क्लिष्टता तो हमें पाखण्ड की ओर ले जाती है. पर यह सरलता इतनी सरल नहीं है जो नदी के जल की तरह spontaneously प्रवाहित होती रहे. बड़ी साधना के बाद आ पाती है यह सरलता. शवासन देखने और सुनने में कितना सरल लगता है ...पर करने में उतना ही मुश्किल .....एक लम्बी साधना के बाद ही हो पाता है शवासन कर पाना. इस धर्म चर्चा में शैतान दिव्या का होना सुखद है (नाम में कंट्रोवर्सी ब्रह्माण्ड की अद्भुत लीला का दर्शन कराती है. शैतान भी और दिव्य भी ...या देवी सर्व भूतेषु ......ऐसी ही है हमारी दिव्या )

    सुज्ञ जी ! जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ..... बाबा जे.सी जी को ब्रह्माण्ड की लीला में ईश्वर के दर्शन होते हैं ...और मैं जब भी ह्यूमन फिजियोलोजी या इलेकट्रानिक फिजिक्स पढ़ता हूँ ...तो मैं जगत नियंता की अद्भुत व्यवस्था से आश्चर्य चकित हो जाता हूँ ....मुझे वहां ईश्वर की परम लीला ही दिखाई देती है. ईश्वर तो सर्वत्र है.....व्यापक है ... पर उसे जानने की हमारी क्षमताएं सीमित हैं. इसीलिये हम उसकी आंशिक लीलाओं में उसका किंचित अक्श भर देख पाते हैं
    p /s दिव्या ! तुम्हें डॉक्टर फ्रिट्ज़ऑफ़कापरा की "द टर्निंग प्वाइंट " और "द टाओ ऑफ़ फिजिक्स " पढ़ने में मज़ा आयेगा. इन्हें पढ़ने के बाद भारतीय दर्शन की वैज्ञानिकता स्पष्ट होने लगेगी. ये दोनों पुस्तकें काठ्मामांडू में मिल जायेंगी, मैंने वहीं से खरीदी थीं ....शायद बनारस में चित्रा सिनेमा के सामने चौखम्भा में भी मिल जाएँ. ..अन्यत्र मिलना मुश्किल है

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  15. थे The turning point पढ़ी तो नहीं , लेकिन मेरी लाइफ का turning point २००५ में आ चुका है । उसी के बाद से काफी कुछ बदल गयी । ये बदलाव सुखकर है।

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  16. मुझे प्रसन्नता हुई!
    सुज्ञ जी, हमारे पूर्वज कह गए "जो काल करे सो आज कर/ जो आज करे सो अब/ पल में प्रलय होएगी/ बहुरि करोगे कब?", और मनुष्य जन्म का उद्देश्य (गीता में) उन्होंने केवल निराकार ब्रह्म और उसके साकार रूपों को जानना ही बताया...

    शून्य से सम्बंधित होने के कारण अजन्मे और अनंत को शब्दों द्वारा जानने, और अन्य मानव जाति को उसे समझा पाने को, सांकेतिक भाषा में कहलो, उसी समान माना जा सकता है जैसे लंगड़ा आम और दशहरी आम दोनों की मिठास में अंतर का शब्दों में वर्णन कर पाना... सबको पता है कि फल का स्वाद केवल खाने वाले को ही पता चलता है और हमारी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा आम आदमी अवश्य शायद जान सकता है कि वो पक गया है कि नहीं, किन्तु जिसकी 'छटी इन्द्री' जागृत हो गयी हो वो बिना चखे ही संभव है उस का सही अनुमान लगा सकता है...किसी एक पुराण में पढने को मिला था कि कैसे काल के साथ साथ मानव की पाँचों भौतिक इन्द्रियों की क्षमता क्षीण होती चली गयीं ( उसका दोष उन्होनें 'राक्षशों' यानि स्वार्थ अथवा स्वार्थी को दिया) यद्यपि अन्य स्थानों में इसका कारण उलटी रील समान काल की चाल को दर्शाया गया, यानि सतयुग से कलियुग तक (उसके विपरीत वास्तविक उत्पत्ति 'क्षीर-सागर मंथन' की मनोरंजक कथा द्वारा दर्शाते)...

    आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी अनुसंधान के बाद जाना कैसे एक सूर्य के भार की तुलना में उससे पांच गुना अथवा अधिक भारी तारा अपनी 'मृत्यु' के बाद 'ब्लैक होल' में परिवर्तित हो जाता है,,, किन्तु कैसे 'ब्लैक होल' की उपस्थिति का आभास उन्हें, अंतरिक्ष में एक छिद्र समान, उस में उसके निकट उपस्थित तारों, गैलेक्सी आदि के समां जाने के कारण (उसकी अत्याधिक गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण) उस छिद्र से तारों के प्रकाश का भी बाहर आना बंद हो जाने से पता चला ! और प्राचीन हिन्दुओं ने, जो पहुंचे हुए खगोल शास्त्री तो थे ही, सिद्ध पुरुष भी थे, उन्होंने गहराई में पहुँच जाना था (जिसका प्रतिबिम्ब मोती का पाना दर्शाया जाता है) कि मानव ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप होने के कारण काल-चक्र के साथ शक्ति रूप से (८४ लाख) विभिन्न प्राणी रूप धारण करता चला जाता है,,,

    'माया' अथवा छलावा, या 'मिथ्या जगत' के सन्दर्भ में, प्राचीन हिन्दुओं ने सम्पूर्ण (अनंत काल और आकार का शून्य प्रतीत होने वाले) ब्रह्माण्ड के भीतर विभिन्न साकार प्रतीत होते रूपों को शक्ति का अस्थायी रूप जाना... वो वास्तव में प्रभु, यानि जो 'भू' अथवा भूमि के अस्तित्व में आने से पहले से ही शक्ति रूप में उपस्थित था, उनके सौर-मंडल द्वारा जनित विभिन्न काल में धारण किये गए वस्त्र समान ही विभिन्न रूपों में... उसे उन्होंने 'नादबिन्दू' शब्द के द्वारा निराकार शक्ति रूप दर्शाया और वर्तमान में हम अनुसन्धान द्वात्र अनुमान लगाते हैं कि कैसे हमारी पृथ्वी, जिसने प्राणी जगत को अनंत काल से धरा हुआ है, उस का धर्म अथवा स्वाभाव है, आरंभ में एक आग का गोला थी जो वायु एवं जल के स्वाभाव से धीरे धीरे ठंडी हो सबसे पहले शायद सूक्ष्माणु के रूप में प्राणी जीवन को संभव कर पायी...और मानव इसकी पशुओं में सर्वश्रेष्ठ कृति है, किन्तु एक सख्त कोयले के समान जो तराशने (तपस्या अथवा प्रशिक्षण) के उपरांत ही हीरा बन सकता है...और यूं 'आत्मा' से, ऐनक पर जमी धूल समान, जन्मों जन्मों से एकत्रित मैल को निरंतर हटा, सर्वगुण संपन्न 'परमात्मा' में मिलाने का उपदेश ! किन्तु 'द्वैतवाद' के कारण यह भी कह गए कि 'उसकी मर्ज़ी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता' :)

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  17. ग्लोबल अग्रवाल जी ! इस ब्लॉग पर आपके प्रथम आगमन पर आपका स्वागत है.

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  18. 'ब्रह्मा के चार मुख' शायद उत्तर-पूर्व-पश्चिम-दक्षिण ( ) 'हिन्दू' मान्यतानुसार मुख्य चार दिशाओं के विभिन्न दिग्गजों को दर्शाता है, यानि सौर-मंडल के सदस्यों को 'इन्द्र-धनुष' के प्राइमरी रंगों के आधार पर जो 'अग्नि' की विभिन्न शक्ति के स्तर को दर्शाते हैं - सफ़ेद सबसे गर्म, नीला उससे कम, और पीला नीले से कम, और लाल सबसे कम, और उसके बाद काला यानि ठंडा, शून्य का द्योतक, जिसे काले बदन और लाल जिव्हा वाली माँ काली द्वारा दर्शाया जाता है, जबकि माँ दुर्गा के वाहन का शरीर सुनहरा पीला और उस पर काली धारियां ! ये दिग्गज ग्रहों से सम्बंधित अनुमान लगाये जा सकते हैं - चन्द्र (पीला रंग, उत्तर का राजा), सूर्य (श्वेत रंग, दक्षिण का राजा), शनि (नीला रंग, पश्चिम का राजा), और पुच्छल तारे अथवा ऐस्टेरौइड, नन्हे नन्हे ग्रहों का समूह (लाल रंग पूर्व दिशा स्थित काली/ कामख्या के नियंत्रण में !), जिनमें से पृथ्वी के निकट आने से उस पर कभी कभी गिरते हैं, और तालों, पुष्कर ताल जैसे, जो 'ब्रह्मा के कमल फेंकने से बना' माना जाता है, के बनाने का काम करते आते हैं, अथवा जंगल में आग लगाने का भी,,,और सूर्य के प्रतिरूप राम को तुलसीदास कहते दिखा गए "भय बिन होउ न प्रीत", जब वरुण देवता ने चार दिन प्रार्थना के पश्चात भी 'बानरों की सेना को' लंका का मार्ग प्रशस्त नहीं किया और उन्होंने उसे सुखा देने की धमकी दे लक्ष्मण से तीर माँगा (जो दर्शाता है पृथ्वी का ओज़ोन गैस के तल के माध्यम से सूर्य की किरणों में से अल्ट्रा वौइलेट और इन्फ्रा रेड किरणों को पृथ्वी के वातावरण में थोड़ी सी मात्र में प्रवेश !)...आदि आदि...

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  19. (NEWS) पढ़े!

    संभवतः उपरोक्त से साफ़ हो गया होगा कि कुछ ही समय से ऐन्तार्कटिका के आकाश में कुछ वर्षों से देखे जाने वाले ओजोन तल में छिद्र, जिनके कारण समस्त संसार चिंतित है और उन्हें बंद करने के उपाय ढूंढ रहा है, वे ही प्राचीन हिन्दुओं के अनुसार कथाओं आदि में दर्शाई गयी तीन संसार के राजा, त्रिपुरारी शिव जी का, 'तीसरा नेत्र' है, जो खुल जाने से पृथ्वी पर सूर्य की किरणों रूकावट हट जाने से पृथ्वी पर सब जल जाते हैं भले ही वो कामदेव हों अथवा भस्मासुर :)

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  20. ॐ नमोनारायण जे.सी. बाबाजी ! भारतीय मायथोलोजी में प्रतीकात्मक शैली में वैज्ञानिक अवधारणाओं को ही कलात्मक अभिरुचि के साथ दर्शाया गया है .....शिव के तीसरे नेत्र और ओजोन पर्त के छिद्र के बिम्ब से सहमत हूँ ..

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  21. शिव के तीसरे नेत्र और ओजोन पर्त के छिद्र के बिम्ब तो अद्भुत है।

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  22. प्राचीन 'हिन्दू' खगोलशास्त्री पृथ्वी को ब्रह्माण्ड के केंद्र में स्थित अनादि काल से दर्शाते चले आ रहे थे, किन्तु पश्चिमी देशों के 'आधुनिक वैज्ञानिकों', जिस दिशा का राजा (शैतान) ठन्डे रिंग अथवा छल्लेदार ग्रह शनि (सुर्यपुत्र) को माना था हिन्दुओं ने, उन्होंने संसार को यह कह कर कि हमारी पृथ्वी केवल एक छोटा सा ग्रह है (जबकि अब यह भी जान चुके हैं की चन्द्रमा भी इसी की कोख से उत्पन्न हुआ, जिस कारण पृथ्वी अवश्य ही काल के साथ साथ ऐसे कारणों से इसका वर्तमान आकार संभवतः छोटा हो गया हो सकता है), हमारे सौर-मंडल का एक नन्हा सा सदस्य जो अन्य ग्रहों के साथ साथ सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं, चौंका तो दिया किन्तु भटका भी दिया प्राचीन हिन्दुओं के तथाकथि 'सत्य' से, 'सत्यम शिवम् सुंदरम' से,,, कि 'शिव ही सत्य (सत्व?) है' और केवल वो ही सुन्दर है,,, और अनंत भी है (सत्यमेव जयते, जो केवल शिव के लिए ही विषपान करना संभव दर्शाए),,,जबकि दूसरी ओर उन्होंने इस से इनकार नहीं किया कि ब्रह्माण्ड में पृथ्वी ही सबसे सुंदर है, ऐसा जीवन कहीं और नहीं है!

    प्राचीन हिन्दू सांकेतिक भाषा में पृथ्वी की ओर संकेत कर उनका वर्णन उनके जटा-जूट (यानि लता-वृक्ष आदि), उनके अंग में श्मशान घाट की भस्म से मला होना (यानि पृथ्वी की सतही धूल, जिसमें प्राणीयों की राख अथवा धूल भी मिली होती है), उनके मस्तक पर चन्द्रमा और पूज्य गंगा नदी का दिखाया जाना, और उनके सोमरस अथवा चन्द्रमा की किरणों का पान, इत्यादि इत्यादि पृथ्वी को ही शिव (गंगाधर, चंद्रशेखर, आदि) दर्शाते चले आये थे...

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  23. काफी कुछ है पढ़ने के लिए ..पढते हैं.

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  24. कौशलेन्द्र जी, हम चारों भाई बचपन से ही दिल्ली में उसके निकट रहते, मंदिर मार्ग स्थित कुछेक स्चूलों में से, लक्ष्मी नारायण मंदिर ('बिरला मंदिर' के नाम से प्रसिद्ध) के साथ लगे बटलर स्कूल में पढ़े... जिस कारण वो मंदिर एक तरह से हम बच्चों के कई खेल खेलने के लिए एक साफ़ सुथरे स्थल उपलब्ध कराने का काम भी करता था...

    जब मैंने अस्सी के दशक में गौहाटी, आसाम, में रहते समाचार पत्र में एक अमरीकी भारतीय एस चंद्रशेखर के 'लाल तारों' (रेड स्टेज) पर पहुंचे, अपने अंतिम काल के निकट, तारों पर किये किये गए अनुसन्धान के विषय में पढ़ा तो मस्तिष्क की कार्य-विधि पर आश्चर्य हुआ क्यूंकि भारी तारे के ' ब्लैक होल ' बनने ने मुझे अपने बचपन में श्री कृष्ण जन्माष्टमी का वो दिन याद दिला दिया जब हमारी माँ सुबह मुझे अपने साथ मंदिर ले गयी थी, क्यूंकि उसे देर हो गयी थी और उसकी अन्य साथी जा चुकि थीं... वहां पहुँच उसने मुझे मंदिर के पिछ्ले भाग में सजाई गयीं कृष्ण के जीवन कि झांकियां देखने को कहा...

    सीढ़ियों पर भीड़ में फँस, लोगों के बीच पिचक, मैं ऊपर पहुँच गया जबकि मेरे पैर हवा में ही थे और मेरे बाल-सुलभ मस्तिष्क में अँधेरे के और सांस लेने में होती कठिनाई के कारण विचार आया था कि शायद मेरी मृत्यु हो चुकी थी ! किन्तु जब ऊपर पहुँच भीड़ तितर बितर हो गयी और मेरे पैर धरती पर पड़े तो मुझे प्रसन्नता हुई थी कि मैं मरा नहीं था ! यानि बचपन में ही कृष्ण ने मुझे संकेत से अपना परिचय करा दिया था और भयभीत भी किया, जिस कारण में भीड़ से डरने लगा था ! (गुरुत्वाकर्षण के क्षीण होने के, और आतंरिक दबाव की उसकी तुलना में अधिकता के कारण, तारा गुब्बारे के समान फट जाता है और सारा मलबा अंतरिक्ष में सीमित क्षेत्र में फैल जाता है,,, किन्तु दबाव हटते ही अब गुरुत्वाकर्षण मलबे को अन्दर की ओर दबाने लगता है,,, और यह प्रक्रिया चलती ही चली जाती है जब तक वो तीन में से एक अत्याधिक गुरुत्वाकर्षण रूप वाले अन्य स्वरुप में परिवर्तित नहीं हो जाता है,,, वो निर्भर करता है सूर्य की तुलना में उस तारे के मूल भार पर,,, सूर्य से पांच गुना भार वाला तारा ही 'ब्लैक होल' बन पाता है)... इस कारण मेरी जिज्ञासा तीव्र हो गयी गीता पढने की, जो संभव हुई जब मैं दिल्ली लौट कर मुझे भूटान जाने से पहले मेरे दिल्ली के एक स्टाफ ने मुझे उसकी एक प्रति दी थी,,, किन्तु भार के कारण उसे अपने निवास स्थान पर ही छोड़ गया था !

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.