शनिवार, 30 जुलाई 2011

तुम न होते अगर .



यूँ हमें देखकर, तुम न जलते अगर 
आग लगती न यूँ, तुम न होते अगर.
ऐ तमाशाइयो ! खूब जम के जलो 
और चढ़ जाएगा, इश्क परवान पर. 
इश्क  सागर में उठती हुयी कोई लहर 
इश्क सपनों में जीता हुआ कोई शहर.
इश्क कर दे सुधा, चाहे हो कोई जहर .
इश्क पढ़ता है कलमा, आठो पहर 
इश्क में मर गए,  हो गए हम अमर.
लोग आहें न भरते, इश्क को जानकर 
यूँ हमें देख कर, तुम न जलते अगर .
 

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

वो क्या है जो


लो फिर छला है रात भर, मेरे चाँद ने हमें.    
नादां है दिल ये फिर भी, भूलता नहीं उन्हें.


सपनों में हम सदा ही, ढूंढा किये उन्हें.
वो भूल से ही सही, कभी दिखते तो हमें.

हम भी मगर तलाश में, चलते रहे यूँ ही.
छालों ने तो थी की खबर, थे बेखबर हमीं.

जलता रहा दिया ये, रात-रात भर यूँ ही.
वो मुस्कुरा के चल दिए, बोले - 'अभी नहीं'.

वो क्या है जो जला रहा, वो क्या है जो लुभा रहा.
वो क्या है जो चाहत बनी, वो क्या है जो बुझती नहीं.

वो प्यास है, हाँ ! प्यास ही, दिखती नहीं हमें .  
लो फिर छला है रात भर, मेरे चाँद ने हमें. 


रविवार, 17 जुलाई 2011

प्रतीक्षा ......तीसरी एवं अंतिम किश्त

     
    आगरा में पूस के महीने में खूब पाला पड़ता है. कभी-कभी तो दिन के ग्यारह बजे तक भी धुंध छाई रहती है, और रात की शीत का तो पूछो ही मत. ऐसी  पालेवाली रात में आँखों में यदि नींद भी न हो तो रात न जाने  कितनी और लम्बी लगने लगती है. 
    चारो ओर सन्नाटा पसरा है और मैं कम्बल ओढ़े पूरे वार्ड में टहल रहा हूँ . सोच रहा हूँ दो पीढ़ियों के मध्य पडी मत वैषम्यता की विकराल खाई के बारे में .....सास के बारे में ....परमहंस से प्रतीत होने वाले राहुल के बारे में ....आग में भुनी शकरकंद की तरह फूल कर वीभत्स हो गयी अंतिम साँसें गिन रही बहू के बारे में .........और सोच रहा हूँ राहुल के ऊपर लगाए गए उस आरोप के बारे में भी जिसके कारण बहू इस सीमा तक निराश हो चुकी थी. 
     तो क्या राहुल सचमुच ही उसके रहते किसी और को चाहने लगा था ?  
     लगता है , सब ओर से निराश हो चुकी थी बेचारी. सास-ससुर का कड़ा अनुशासन और पति की उपेक्षा ...आखिर कोई तो हो उसके सुख-दुःख का साथी.  इस नितांत अकेलेपन को भी कहाँ तक ढोती वह !   
    बार-बार घड़ी देखता हूँ ......उफ़ ! ये रात भी ...कितने धीरे-धीरे खिसक रही है ...अभी तो तीन ही बजे हैं. बहू के प्रिय स्वजन निद्रा में डूबे हुए हैं ...और आश्चर्य कि मेरी आँखों में नींद का लेश भी नहीं. आखिर क्यों नींद नहीं आ रही है मुझे .....लगता ही कौन हूँ मैं उसका ! पहले कभी देखा भी तो नहीं उसे ...और वह अभागी ही क्या देख पा रही है मुझ अनदेखे पड़ोसी को जिसके ऊपर अंतिम समय में इतना विश्वास हो गया उसे. हे ईश्वर ! विचित्र है तेरी माया , विचित्र है मनुष्य का मन !
      सोचते-सोचते भी कितनी देर हो गयी है पर घड़ी की सुई गर्मियों की दोपहरी की तरह अभी तक बिल्कुल ज़रा सी ही बढ़ सकी है आगे.  तभी ड्यूटी रूम का दरवाज़ा खुला एक नर्स बाहर निकली और थोड़ी ही देर बाद पुनः अन्दर दाखिल हो गयी ......आते-जाते उसने गौर किया मेरी ओर ...कदाचित सोचा भी हो कि इतनी सर्दी में कौन है यह पागल जो मात्र एक कम्बल ओढ़े टहल रहा है . 
  जाड़े की रात भी जागकर काट पाना कितना दुष्कर कार्य है ....और शैय्या पर पडी बहू ...उसके लिए कितना दुष्कर होगा ....उफ़ ...अनुमान लगा सकना भी संभव नहीं मेरे लिए तो. 
    मैं पूरी निष्ठुरता के साथ प्रतीक्षा कर रहा हूँ उसके मरने की. प्रतीक्षा करना तो और भी उबाऊ काम है. सभी परिचित और व्यवहारी इतने दिनों में ही निराश हो चुके थे प्रतीक्षा कर-कर के. उन्हें शवयात्रा में सम्मिलित होना ही तो एक काम नहीं, सो बेचारे तीन दिन तक यहाँ मंडराकर अब अपने -अपने काम से लग चुके थे. सोचा होगा , जब सूचना मिलेगी मरने की तब आ जायेंगे अर्थी में सम्मिलित होने, आखिर इतना पुराना व्यवहार  है इन लोगों से ....इतना तो करना ही पड़ेगा न !  
   "इतना तो करना ही पड़ेगा" ....जिसके जीते जी कोई कुछ करने के लिए तैयार नहीं था उसीके मरने के बाद "इतना तो" करने के लिए मंसूबे बना चुके थे लोग. मुझे वितृष्णा होने लगी थी सबसे. मैंने अपने दांत भींचे और एक क्षण में निर्णय ले लिया कि अभी जब कोई नहीं है तब मैं हूँ ...और जब सब होंगे तब उस भीड़ में मैं नहीं रहूँगा ...बिलकुल नहीं ...मैं इस संवेदनहीन भीड़ का हिस्सा नहीं बनूँगा. कैसा विचित्र है संसार, बहू जीवित है अभी ...और लोग उसके अंतिम संस्कार की योजना बना रहे हैं. तीव्र आक्रोश और दुःख ने मेरी आँखों की अश्रुग्रंथियों को कसकर मसल दिया ...वे निर्बंध हो बह उठीं. कम्बल को सिर से ओढ़कर मैं एक कोने में जाकर ठंडी फर्श  पर बैठ गया. पास में राहुल को खर्राटे भरते सुन मन और भी वितृष्णा से भर गया.....अभी एक वर्ष ही तो हुआ है शादी को और अंतिम यात्रा की तैयारी देख इतना परमहंस हो गया ? स्वार्थी कहीं का.............इसका  वश चले तो कहो कल ही दूसरी शादी कर ले ...छी . 
     मुझे चैन नहीं ....उठ कर फिर टहलने लगता हूँ. भोर होने में अभी देर है. टहलते-टहलते अनायास रुक जाता हूँ उसके पलंग के पास. कराह सुनायी नहीं दे रही......कहीं सांस बंद तो नहीं हो गयी !  झुककर देखता हूँ, क्षीण सांस चल रही है अभी. चेहरे और कन्धों की कठोरता और भी बढ़ गयी है. रुई से मुंह का हरा झाग साफ़ करने के लिए सिस्टर एक फोरसेप्स छोड़ गयी है. उसी से कठोरता का अनुमान लगाने के लिए मैं कान, चेहरा,और कन्धों को टोहकर देखता हूँ. कट..कट...कट...कट...नेक्रोसिस हो गयी है. मुडी हुयी एक बाँह कल से उसी तरह अधर में झूल रही है...दूसरा हाथ पेट पर रखा है. बड़े बलपूर्वक नेक्रोस्ड बांह को थोड़ा सा हटा पाता हूँ...उतने स्थान में पेट की त्वचा पर स्केमिया हो चुकी है. फोरसेप्स के तनिक से स्पर्श से ही उतनी त्वचा छिलके सी उधड़ जाती है. उफ़ ! प्रथम बार अंग-अंग की मृत्यु होते देख रहा हूँ. जीवन यात्रा खंड-खंड में पूर्ण हो रही है. जिसे तिल-तिल कर मरना कहते हैं शायद यही है. 
   मैंने पुकारा - "पानी दूं !"
   उत्तर मिला - "नईं "  
   धन्य है प्रभु ! अभी तक चेतना यथावत ! पर नहीं इतने से ही आभास हो गया मुझे कि यात्रा अब पूरी होने ही वाली है. गंतव्य अब और दूर नहीं. 
   चिकित्सालय के दो कम्बलों के अतिरिक्त घर के शेष कम्बल उसके ऊपर से हटा दिए मैंने. ऑक्सीजन थोड़ी तेज कर दी, फिर उसके पतिपरमेश्वर को जगाकर सारे बिस्तर समेट लेने को कहा. 
   उसने पूछा -"गयी ?" 
   मैंने कहा - " अभी तो नहीं ...पर अब जाने ही वाली है आप भी घर जाने की तैयारी कीजिए " 
   हमारी प्रतीक्षा की घड़ियाँ समाप्त होने को हैं अब . ट्रेन धीमी हो रही है ...गंतव्य आ ही चुका समझो .....बस ! प्लेटफोर्म आते ही सभी लोग अपना-अपना सामान लेकर उतर जायेंगे. डॉक्टर अपनी फोरसेप्स ले जाएगा. नर्स आकर ऑक्सीजन और कैथेटर हटा देगी. फिर दो डोम आयेंगे, मृत शरीर को नीचे तक पहुंचाने के लिए. मैंने उसके पति को सावधान किया, कोई सामान भूल मत जाना हड़बड़ाट में. सावधानी से  समेट लेना सारा सामान. मेरा आक्रोश व्यंग्य में बदल चुका था जिसे वह परमहंस शायद समझ भी नहीं सका.
    बिस्तर बाँध दिए गए हैं. गिलास, चम्मच, खाली हो गयीं डेक्सटरोज और नार्मल सेलाइन की बोतलें ...सभी कुछ समेटा जा रहा है. मैंने उसकी ऑक्सीजन थोड़ी और तेज़ करदी. ड्रिप बंद हो गयी थी ..उसे भी तेज़ किया.....पैर को फैलाकर हिलाया-डुलाया पर पर ड्रिप ज़रा भी नहीं खिसकी. चले भी तो कहाँ , कितने अंगों में तो नेक्रोसिस हो चुकी है. 
   उसका एक संबंधी जो अभी-अभी आया था, यह सब देखकर बाहर कैंटीन में चाय पीने चला गया. पता नहीं फिर मिल भी पायेगी या नहीं. कहो पूरे ही दिन व्यस्त रहना पड़े.......श्मशान कोई यहाँ है ...पूरे तीन मील चलना पड़ेगा पैदल.....चाय पीना आवश्यक है ...बहुत आवश्यक है....उसके बिना एक दिन भी रहा नहीं जा सकता  ........नहीं कतई संभव नहीं है.  
   क्षितिज से सूर्य भी झाँक कर परिणाम जानने के प्रयत्न में उत्सुक दिखायी देने लगा . एक स्टूल खिसकाकर मैं उसके पलंग के समीप बैठ जाता हूँ...उसकी डूबती साँसों के अंतिम दर्शन के लिए ......
    राहुल और उसकी माँ घर चले गए हैं ...सामान पहुंचाने ........बहुत आवश्यक था सामान पहुंचाना. और उसी बहाने नित्य कर्म से निवृत्त हो कर चाय पीना भी ......दिनचर्या में अधिक परिवर्तन नहीं होना चाहिए ...यह ध्यान देने योग्य बात है...एक दिन भी दिनचर्या में परिवर्तन हो जाय तो स्वास्थ्य खराब होने की संभावना रहती है....किसी संभावना को क्यों आमंत्रित किया जाय ?   
   सारी रात जागते हुए मैं भी थक चुका हूँ ....शरीर से भी और मन से भी....पर अकेला छोड़कर कैसे चला जाऊं ? अभी पूरी तरह सांस कहाँ बंद हुयी है उसकी .........
सभी की तरह मैं भी प्रतीक्षारत हूँ ....कब जाऊँ यहाँ से .......
   और बहू ! 
   कल से उसने भी जान बचाने की याचना करनी बंद कर दी है.........वह भी प्रतीक्षारत है ...............कब जा पाऊँ यहाँ से ......
                                           
                                                                    -----समाप्त ------   

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

प्रतीक्षा (..प्रथम भाग से आगे )

   
     आधुनिक सुख सुविधाओं में जीने के अभ्यस्त हो चुके हम कितने असहिष्णु होते जा रहे हैं यह आये दिन की घटनाओं से प्रमाणित होता रहता है. हमारी सहनशीलता के घटते स्तर ने हमारे अन्दर उग्रता और हिंसा भर दी है. हमारे मन के विपरीत तनिक कुछ हुआ नहीं कि हम आर या पार की बात सोचने लगते हैं. 
    ...........तो मैं आपको विवाद का मूल कारण बता रहा था.....वह कारण जिसे जानकर मैं भी आश्चर्य चकित रह गया कि बस इतनी सी बात ! ...... इतनी सी बात इतनी बड़ी घटना का कारण भी बन सकती   है भला. किन्तु सत्य तो यही है .......नयी और पुरानी पीढ़ी के बीच बढ़ते जा रहे शून्य का विस्तार आत्मदाह की सीमा तक पहुँच जाय तो यह एक चिंतनीय विषय हो जाता है. जीवन जीने के तरीकों में स्वेच्छाचारिता और उच्छ्रंखलता की स्वतंत्रता का अधिकार चाहने वाली नयी पीढ़ी का एक एक वर्ग उत्तेजना और निराशा का शिकार होता जा रहा है....राहुल की ब्याहता ने इसे प्रमाणित कर दिया था.  रसायनशास्त्र में परास्नातक बहू ने विद्रोह भी किया होता तो ठीक था, पर उसने तो ........ 
     सास-श्वसुर के दिशा निर्देशों से आहत बहू को लगा कि हमारी स्वतंत्रता का तो अपहरण कर लिया इन लोगों ने ...अब जीने का क्या औचित्य ?  ये रोज-रोज सास के ताने वह क्यों सहे भला .....सहना है तो पति सहे ..........उनका खून जो ठहरा. और फिर किसी को क्या अधिकार अपने विचार दूसरों पर थोपने का ? और सच पूछो ....तो राहुल को भी पसंद नहीं था यह सब.... पर लोक-लाज का डर जो ठहरा ! क्या कहेंगे पड़ोसी ...क्या कहेंगे नाते-रिश्तेदार ....अभी साल भर हुआ नहीं ब्याह का कि अलग हो गया जोरू को लेकर ...जोरू का गुलाम कहीं का ! 
      जोरू का गुलाम .......यह एक ऐसी गाली है जिसे जोरू का गुलाम भी सुनना पसंद नहीं करता. तो राहुल ने पत्नी जी से सीमित सम्बन्ध रखना ही उचित समझा...कौन झंझट में पड़े...अपना मतलब निकालो और बाकी जय राम जी की. पत्नी को पति की इस भीरुता से और भी कष्ट. 
      दिन में राहुल की अम्मा ने रो-रो कर कलह गाथा का विस्तृत विवरण दिया था मुझे. क्यों दिया था ...इसका भी एक कारण है. एक तो हमारे समाज में सासें कुछ हैं ही बदनाम उस पर पिछले कुछ दशकों से जल कर मरने वाली बहुओं ने इस धारणा की पुष्टि ही की है. तो राहुल की अम्मा का एक तरह से स्पष्टीकरण था यह. 
       मैं सोचता था कि सासें अपनी बहुओं को खाना नहीं देती होंगी . बेचारी बहूयें एक फटी साड़ी पहने सारे दिन चूल्हे-चौके से खटती रहती होंगी और खूसट सासें पान की गिलौरी मुंह में दबाये पलंग पर बैठी आदेश देती रहती होंगी. फिल्मों के ऐसे दृश्य देख-देख कर मेरे मन में बनी यह धारणा कितनी सत्य थी और कितनी अतिशयोक्तिपूर्ण यह तो ऊपर वाला ही जाने. पर मेरे मन में एक बात सदा से उठती रही है कि क्या सासें सचमुच ही इतनी ही अमानुष होती हैं ? आखिर वे भी तो बहू रही होंगी कभी किसी की. तब ...? तब क्यों होता है यह गृहकलह ...क्यों आत्मह्त्या कर लेती हैं बहुएं ....और बहुएं ही क्यों ...सासें क्यों नहीं करतीं ?  क्या इसलिए कि बहू पराई जायी है ?  
      पर सासों के प्रति मेरी यह धारणा तब की है जब हमारी उम्र गधापचीसी की थी.......जब मैं निरा नासमझ था और इस बहुरंगी ...छली जगत के व्यावहारिक स्वरूप से अनभिज्ञ था. आज तो बहुत कुछ देख सुनकर सही गलत का निर्णय कर सकने में समर्थ हो गया हूँ. जहाँ तक राहुल की अम्मा का प्रश्न है......मेरे अनुमान से झूठ नहीं कहतीं वे. ठीक वैसा ही तो होता है मेरे भी घर में . मेरी पत्नी को भी पसंद नहीं हैं माँ की पुरानी मान्यताएं. सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की के सामने खड़े होकर बहू को बाल संवारते देख टोके बिना रहा नहीं जाता मेरी अम्मा को .  पत्नी भी खीझ कर कहेगी - "अरे अम्माँ ! आदमी अंतरिक्ष में पहुँच रहा है और आप हैं कि अभी तक उन्हीं दकियानूसी मान्यताओं से चिपकी चल रही  हैं " 
     बहू को इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता और अम्मा को अपने समय की मान्यताओं के आगे सब कुछ थोथा लगता है. तुरंत कहेंगीं -"मगर बहू ! अंतरिक्ष की यात्रा करने वाले आदमी भी यान के भीतर सुरक्षित बैठकर ही तो यात्रा करते हैं ...न कि उसके ऊपर बैठकर. बहू-बिटिया को घर ही शोभा देता है ..सड़क या मैदान तो नहीं." फिर तो महाभारत छिड़ते देर लगती है भला ! माँ कहेंगी, हमारे घर में आज तक कभी छिपकली नहीं पड़ी दूध में, जब से ये महारानी जी आयी हैं आये दिन दूध में छिपकली ही पड़ती रहती है. पढी लिखी बहू को भला सहन होगा यह आरोप ? उस पर मेरी पत्नी को तो अपनी परास्नातक उपाधि का बड़ा ही गर्व. तुरंत उत्तर देगी, मैं क्या जानबूझ कर छिपकली पकड़ कर डाल देती हूँ दूध में ?  
      माँ को पत्नी का उन्मुक्त स्वभाव , सभी के सामने सर खोले बातें करना ....चाय का जूठा कप दिन भर पड़े रहना ......न जाने कितनी ही बातें हैं ऐसी जो उन्हें बिलकुल  भी पसंद नहीं हैं. और पत्नी को माँ की सारी बातें ही दकियानूसी लगती हैं.   
    खैर !  कुछ भी हो, मेरा अक्खड़ मन द्रवित था राहुल की आग में जल कर भुन गयी बहू के प्रति . वस्तुतः, कल जब लोकाचारवश  मैं भी रुग्णा को देखने चिकित्सालय पहुंचा तो देखा कि बहू अपने पलंग पर पड़ी तड़प रही है और सम्बन्धियों में से कोई भी पास नहीं फटक रहा उसके. सभी को दुर्गन्ध और घृणा लग रही थी. सब दूर बैठे तड़पता हुआ देख रहे थे उसे. मुझे समझ में नहीं आ रहा था  ...... फिर लोग आये ही क्यों हैं यहाँ ? पड़ोसी भी आकर घर वालों से ही थोथी सहानुभूति प्रकट कर और चलते-चलते कान में कुछ खुसुर-फुसुर करके चले जाते थे वापस. कल तक बहू की सुन्दरता की प्रशंसा करने वाले लोगों को बहू के वीभत्स हो गए चेहरे से डर लगने लगा तथा अब. ऐसे में अपने आपको रोक पाना संभव न था मेरे लिए. पड़ोस में रहकर भी जिस बहू को आज तक देखा नहीं कभी उसी के समीप बैठकर मैंने निःसंकोच उसका शरीर तो छुआ ही मन भी स्पर्श किया...और तभी  निर्मल स्पर्श की ऊष्मा से उसके मन के सारे छाले एक-एक कर फूट कर बहने लगे. 
       " आक्कर................कैसे ई अशा लो उन्झे    ..." ( डॉक्टर ......कैसे भी बचा लो मुझे ) 
       उसका अस्पष्ट करुण चीत्कार सुनायी पड़ता है . मैं फिर निरुपाय हो देखने लगता हूँ उसकी ओर. ......उफ़ ! अपने ही हाथों कैसे दुर्गति कर ली है इसने ! चेहरा कितना वीभत्स हो गया है. सूजन के बाद अंगों में कठोरता प्रारम्भ हो चुकी है अब . निचले जबड़े से लेकर वक्ष तक और दोनों भुजाओं में कठोरता बढ़ती ही जा रही है. कठोर और विदीर्ण हो गए होठों से निकले अस्पष्ट शब्दों को बड़े प्रयास से ही समझा जा सकता है. बोलने में भी कष्ट हो रहा है उसे, फिर भी वह बराबर अपनी पीड़ा को शब्दों से ही अभिव्यक्त करने का प्रयास कर रही है. सोचने और समझने की विवेक शक्ति भी अभी तक यथावत है उसमें ....जबकि काल का क्रूर पंजा निरंतर उसकी ओर बढ़ता चला आ रहा है. 
   अनायास पूछ बैठता हूँ, " यह क्या हो गया था आपको ....अपने ऊपर इतना अत्याचार ....ऐसा भी क्रोध किया जाता है भला ? "
    वह  रो पड़ी . परन्तु रुदन के करुण स्वर के अतिरिक्त अब कोई और ऐसा चिन्ह शेष न रहा जिससे उसके रोने का अनुमान भी किया सकता. शारीरिक जैव रासायनिक परिवर्तन से उत्पन्न कठोरता की जड़ता ने चेहरे को भाव शून्य कर दिया है . रुदन की विकृत रेखाएं चेहरे को अब और विकृत कर पाने में असमर्थ हो चुकी हैं. नेत्रों की अश्रुग्रंथियों की भी कार्यशक्ति क्षीण हो चुकी है ....मृत्यु पूर्व कितनी यातना सहनी पड़ रही है उसे. उसकी यह दुर्दशा देख मेरी आँखों की सहनशीलता समाप्त हो गयी ...झर पडीं झर-झर.........
    मेरा विचार था कि आत्महत्या करने वाला व्यक्ति जीवन से निराश और कायर होता है अतः वह सहानुभूति का पात्र नहीं है. पर जब उसने अपनी खंड-खंड आवाज़ में पूछा  -" मैं बच तो जाऊंगी न ! "  तो मेरा ह्रदय भी कंठ को आ पहुंचा...ह्रदय में एक हूल सी उठी........मैं कितना गलत हूँ, आवेश में उसने कर कुछ भी लिया हो पर जिजीविषा पूरी तरह समाप्त कब होती है मनुष्य में. आत्मह्त्या के क्षणों में व्यक्ति की निराशा और कायरता का क्षणिक आवेग अपने चरमोत्कर्ष  पर पहुँच जाया करता है. इन चरम क्षणों में ही घटित होती हैं ऐसी अमानवीय घटनाएँ . ऐसा व्यक्ति यदि बच जाय किसी तरह तब जीवन से सर्वाधिक प्यार करने वाला वही होता है.   
    यह जीवन से मोह ही तो है उसका जो बार-बार रटे जा रही है ......"मुझे बचा लो किसी तरह". इस मोह का एक रूप और भी देखने को मिला मुझे. सुबह उसने असहनीय पीड़ा में गिड़गिड़ा कर कहा मुझसे..."यदि बचा नहीं सकते तो यूँ तड़पा कर क्यों मार रहे हो मुझे ...कुछ नहीं तो ज़हर ही दे दो न ! "
   पर उसे क्या मालुम कि चिकित्साशास्त्र में मरते हुए रोगी को शान्ति से मरने देने का विधान नहीं है. डॉक्टर तो अंतिम साँस तक दवाइयां देता रहेगा ...भले ही रोगी में अरिष्ट लक्षण स्पष्ट क्यों न हो चुके हों.
    " आनी  ..............." उसके विदीर्ण होठों से एक शब्द निकलकर बर्न यूनिट के वार्ड में तैर गया. मैं उसके मुंह में गंगा जल की कुछ बूँदें टपका देता हूँ ( घर वालों का ऐसा ही निर्देश था ) . उसने हलके से सर हिला दिया -"अस्स ......."
     उफ़ ! मृत्यु कितनी भयानक होती है ...और उसकी प्रतीक्षा ......!  वह तो और भी यंत्रणादायक होती है . मृत्यु की आसन्नता निश्चित हो चुकी है. आगरा में माघ की शीतरात्रि  में सब लोग उसकी टूटती साँसें बंद होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं ...कितने दिन हो गए ....ग्रीष्म ऋतु होती तो कब का राम-नाम सत्य हो गया होता. सच ही तो ....शीघ्र मृत्यु हो तो इस यंत्रणा से तो मुक्ति पा जाय बेचारी. पर क्या मृत्यु इतनी सहज है
    रात्रि के दो बज चुके हैं, पूरे वार्ड में शान्ति है. मृत्यु संभवतः चुपके-चुपके अपने पैर बढ़ा रही है. एक ओर बहू अपनी मृत्युशैया पर पड़ी अपनी अंतिम साँसें गिन रही है वहीं दूसरी ओर कुछ दूर हटकर दीवाल के सहारे फर्श पर बिस्तर बिछाए उसका पति और सास खर्राटे भर रहे हैं. मुझे कष्ट हो रहा है और आश्चर्य भी कि लोग ऐसे में सो कैसे लेते हैं
    मैं देख रहा हूँ .....बहू के विकृत और वीभत्स हो गए डरावने चेहरे को ...सुन रहा हूँ उसके अस्पष्ट स्वर .....और अनुभव कर रहा हूँ दो पीढ़ियों के बीच पड़ी खाई की गहराई और उसकी भयानकता को. मुझे एक बात बार-बार खटकती है.....राहुल को भी नींद आ गयी !  कहीं उन दोनों के बीच में भी तो नहीं बन गयी थी कोई खाई


                                                                                  ..............अगले अंक में समाप्त 

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

प्रतीक्षा


                                    
  नारी के दुखते मन को हलके से सहला भर दो एक बार फिर तो उसके अंतर्मन की कोई बात छिपी न रह सकेगी आपसे. यह मेरे अनुभव की बात है . यदि ऐसा न होता तो क्यों राहुल की साल भर की ब्याहता मुझ अनदेखे व्यक्ति के सामने सारा भेद रख देती खोलकर ! 



   कल पूछा था उसके पति ने- " तुम नाराज तो नहीं हो मुझसे ?" 
   उत्तर मिला था - "नहीं "
   फिर उसने भी यही प्रश्न पूछा था राहुल से और उत्तर मिला था - "नहीं" . 
   जीवन के अंतिम क्षणों में भी यह नाटक मेरी आँखों के सामने खेल रहे थे दोनों पति-पत्नी. और मजे की बात यह कि दोनों ही यह अच्छी तरह समझ रहे थे कि वे मात्र एक-दूसरे का मन रखने के लिए ही झूठ बोल रहे हैं. 
   चलो, झूठ ही सही, दोनों ने एक-दूसरे के बारे में सोचा तो सही. मैं स्पष्ट अनुभव कर रहा था, तेज आंधी के बाद की शान्ति है यह जिसमें किसी को हवा से कोई परिवाद नहीं, और हवा को भी किसी से कोई बैर नहीं. 
   अभी कुछ ही समय पूर्व राहुल की ब्याहता ने किसी से न बताने की कसम दे कर वास्तविकता बतायी थी मुझे. कैसी विचित्र है नारी ! जो भेद पुलिस अधिकारी के सामने नहीं खोला, किसी डॉक्टर से भी नहीं कहा, वही मुझसे कह डाला सब कुछ. एक अनदेखे व्यक्ति पर इतना विश्वास ! बार-बार पूछा था सभी ने, आखिर ऐसा किया ही क्यों था तुमने ? पर बहू का हरबार वही रटा रटाया उत्तर मिलता- " तुम लोग अपने मन से चाहे जो गढ़ते रहो, मैं तो चाय बना रही थी , धोखे से आग लग गयी थी कपड़ों  में."
   उधर सास सबको यह बता-बता कर परेशान कि आखिर यह सूझा क्या बहू को ? छोटी-मोटी बातें तो हर घर में होती ही रहती हैं. मन नहीं मिलता था तो अलग हो जाती अपने पति को लेकर, मना तो किया नहीं था किसी ने. इधर समाज में एक मत से यह चर्चा चल पडी कि सास ने ही मिट्टी का तेल डालकर जला डाला बहू को . पर बहू ने चुपके से जो बताया था मुझे उसका आशय यह था कि आखिर वह अलग भी हो जाती तो किसे लेकर ? जब पति ही अपना न हो तो जिए भी तो किसके सहारे ? 
    मैं आश्चर्यचकित !  तो क्या विवाद सास -बहू का नहीं ? परन्तु यह तो बाद में स्पष्ट हो सका कि विवाद का मूल न तो पति-पत्नी के बीच था और न सास-बहू के बीच, अपितु विवाद का मूल तो था ...........
  "कोई है ........." 
  बहू के गले से एक क्षीण पुकार सुनकर मैं तुरंत उसके पलंग के निकट जाकर किंचित झुककर पूछता हूँ- " पानी चाहिए ?" 
  " नईं  ................करअट.." ( नहीं करवट ) उसके होठ आग की लपटों में भुन कर अपना मौलिक कर्त्तव्य छोड़ चुके थे इसीलिये उच्चारण में बाधा हो रही थी. 
मिट्टी के तेल, जले चमड़े और औषधियों की एक मिली-जुली तीव्र गंध आती उसकी देह को एक बार आपाद-मस्तक देख मैं कुछ क्षण साहस जुटाने में लगाता हूँ फिर किसी तरह उसे अपनी दोनों बाहों का सहारा देकर दाहिनी करवट लिटा देता हूँ.
   " सोने सी देह मिट्टी कर ली बहू ने "....किसी पंजाबी भाषी महिला का स्वर मेरे कानों में पडा. पलटकर देखता हूँ, सहानुभूति प्रदर्शित करने कुछ स्त्रियाँ आयी हुयी हैं.... उन्हीं में से किसी एक का स्वर था यह. 
    एक बात मैं बराबर लक्ष्य किये जा रहा था कि आने वाली स्त्रियाँ जब सास के पास खड़ी होकर सहानुभूति प्रदर्शित करतीं तो बीच में बहू की सुन्दरता की चर्चा करना न भूलतीं. तो क्या इतनी सुन्दर थी बहू ! रही होगी.............मैं तो पहली बार देख रहा हूँ उसे...वह भी ऐसी स्थिति में जबकि उसकी आँखें भी सूजकर बंद हो गयी हैं...... ....पलकें और होठ जलकर फट गए हैं......चेहरे को छोड़कर पूरे शरीर पर पट्टियाँ ...और चेहरा भी तो जलकर कितना वीभत्स हो गया है. डॉक्टर्स को आश्चर्य, नब्बे प्रतिशत जली होने पर भी वह जीवित कैसे है अभी तक !  स्वयं उसे भी कोई कम आश्चर्य नहीं. मुझसे कह रही थी, " मैं क्या जानूँ जलकर मरने में इतनी असहनीय पीड़ा होती है . अखबार में जब-तब निकलता रहता है ...सैकड़ों बहुएं तो मर गयीं आग लगाकर."
     नारी मन तो है ही विचित्र ......पर मैं अपने भी मन की क्या कहूँ . परसों जब सुना कि पड़ोस के एक घर में किसी की बहू ने मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा ली अपने शरीर में तो उस क्षण मुझे उससे बिलकुल भी सहानुभूति नहीं हुयी, पर जब चिकित्सालय में आकर नारकीय यंत्रणा भोगते हुए उसे जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष करते देखा तो मैं सहज ही उसके प्रति अन्दर तक आर्द्र हो उठा......पर यही  एक कारण नहीं......इसके अतिरिक्त एक कारण और भी था मेरे द्रवित हो जाने का. 
                                  .................कहानी के शेषांश के लिए प्रतीक्षा करें             

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

हमारे भगवान बड़े धनवान


   जब से तिरुअनंतपुरम के स्वामी पद्मनाभपुरम के गुप्तगृह से लक्ष कोट्याधिक  मूल्य की स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हुयी हैं मन में एक ही प्रश्न उठ रहा है कि क्या जिस देश में इतनी निर्धनता हो वहाँ इतनी संपत्ति का मंदिरों में निरुपयोगी पड़े रहना उचित है ? अब देश में एक प्रश्न यह भी उठ रहा है कि इस अकूत संपत्ति का किया क्या
 जाय ...इसका मालिक कौन होगा...किसके संरक्षण में इसका उपयोग हो ...? संदेह भी उठ रहे हैं कि कहीं इस संपत्ति का दुरुपयोग या बन्दर बाँट न हो जाय.
समाधान के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा....उस युग में जाना होगा जब देवालय ही समाज की उन्नति के केंद्र हुआ करते थे. समाज, धर्म, ज्ञान, राजनीति, न्याय आदि को दिशा देने वाले केन्द्रों के रूप में देवालयों की प्रतिष्ठा थी. सूत्र रूप में यूँ कहें कि देवालय ही भारतीय समाज की सर्व गतिविधियों के संचालन की ऊर्जा के केंद्र हुआ करते थे. तब इनके संचालन के लिए जनता स्वस्फूर्त चेतना से दान दिया करती थी. दान भगवान को प्रसन्न करने के लिए नहीं अपितु जन सेवा के लिए दिया जाता था. आज उन गतिविधियों के लिए विभिन्न संस्थाएं हैं. धर्म और राजनीति पृथक हो गए हैं. सारी पूर्व संस्थाएं छिन्न-भिन्न हो गयी हैं. शिक्षा की दूकानें खुल गयी हैं, जन हित के कार्य सरकार ने अपने हाथ में ले लिये हैं, विकास और पुनर्वास भी सरकार के हाथ में है....तो कुल मिलाकर अब परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं. इन बदली हुयी परिस्थितियों में पुरानी परम्परा का औचित्य तभी है जब उस पुराने परिवेश को पुनः जीवित किया जाय. और मुझे लगता है कि भारतीय समाज को इसकी आवश्यकता है . 
   मंदिरों के दायित्व सरकारी संस्थाओं को हस्तांतरित हो जाने के पश्चात से भारतीय समाज अपसंस्कार और बिखराव की ओर ही अग्रसर हुआ है. देवालय सक्षम हैं इस बिखराव को रोकने में. आज स्कूलों के बाहर निःशुल्क कंडोम वितरण की बात हो रही है ...यदि इस नए प्रयोग को आगे बढ़ाना है तब तो ऐसा ही चलने दिया जाय किन्तु यदि आपको ऐसा लगता है कि यह भारतीय समाज को पतन की ओर ले जाने वाला है तो शिक्षा और संस्कार के बारे में हमें नए सिरे से सोचना होगा. भारत में आज जहाँ नए निजी विश्वविद्यालय खुल रहे हैं वहाँ देवालयों की इस संपत्ति का उपयोग भारतीय ज्ञान-विज्ञान, संस्कार, भाषा आदि के संरक्षण, संवर्धन और पुनर्स्थापन के लिए किया जाना ही उचित होगा. इस संपत्ति का पहले भी यही तो उद्देश्य था. 
यह भी विचारणीय है कि पापियों की कुदृष्टि इस धन पर पड़ चुकी होगी और वे जाल निर्माण में लग गए होंगे. देवालयों की संपत्ति का पहले विदेशियों ने बलात अपहरण किया था, अब भी यदि भारतीय समाज नहीं चेता तो देशी लोग ही इसे चट कर जायेंगे. देवालयों की संपत्ति के साथ ही पुराने राजघरानों की गुप्त संपदा को भी प्रकाश में लाया जाना चाहिए ...अंततः यह सब है तो भारतीय जनता की परिश्रम से अर्जित की हुयी संपदा ही न ! जनता की संपदा जनता के हित में..... समाज के सर्वांगीण विकास में ही व्यय की जानी चाहिए, यही न्याय संगत है...इसलिए हम आव्हान करते हैं कि संत समाज इस विषय पर अपने मौन को तोड़े और भारत के बुद्धिजीवी बड़ी दृढ़तापूर्वक यह मांग रखें कि 
१- सभी देवालयों एवं राजघरानों की गुप्त एवं राजसात की जा चुकी सम्पूर्ण संपत्ति को प्रकाश में लाया जाय और इसे सरकारी संरक्षण से दूर रखा जाय.
२- इस संपत्ति का उपयोग केवल और केवल सनातन धर्म के उद्देश्यों और आदर्शों के अनुरूप समाज हित में किया जाय.
३- इस संपत्ति से देव संस्कृति विश्व विद्यालयों की स्थापना की जाय जिनमें शिक्षा और संस्कार के माध्यम से भारतीय समाज के विकास की प्रतिबद्धता सुनिश्चित हो.
४- देव संस्कृति विश्व विद्यालयों का संचालन मंदिरों की अखिल भारतीय सभा द्वारा किया जाय.
५- देश पर आतंरिक या बाह्य किसी भी प्रकार के मानवीय या दैवीय संकट के समय देवालयों की संपत्ति देश के हित में व्यय किये जाने का प्रावधान किया जाय.
  हम आशा करते हैं कि भारत के लोग आवश्यकता पड़ने पर इस संपदा के सदुपयोग के लिए आन्दोलन के लिए भी तैयार रहेंगें. 
          हरि ॐ तत्सत ! ! ! 

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

पूत के पाँव ....

कई क्षेत्रों में छत्तीसगढ़ अपने जन्म से ही विवादास्पद रहा है  ...उनमें से दो प्रमुख हैं शिक्षा और चिकित्सा. परीक्षा में अनुचित साधनों का प्रयोग, अभिवावकों की ओर से प्रोत्साहन , भ्रष्टाचार में उच्चाधिकारियों की संलिप्तता, ...और इससे भी बड़ी बात यह कि लज्जास्पद घटनाओं की सतत पुनरावृत्तियाँ.
पिछले एक माह के अन्दर दो बार पी.एम्.टी की परीक्षा का आयोजन और निरस्तीकरण ...पुनः तीसरी बार परीक्षा की तैयारी .....मैं समझता हूँ कि इतनी लज्जास्पद स्थिति कदाचित ही किसी प्रांत में देखने को मिली हो अब तक. छत्तीसगढ़ व्यावसायिक परीक्षा मंडल और लोक सेवा आयोग ने अपकीर्ति के जो शिखर तय किये हैं पूरे देश में वैसी मिसाल असंभव है. इतने वषों में  इस भ्रष्टाचार का एक कोढ़ जो उभर कर आया है वह है अभिभावकों की संलिप्तता. मुन्नाभाई की तर्ज़ पर यहाँ मुन्नीबाई का होना और भी कष्टदायक है. मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में अनुचित साधनों के लिए तेरह लाख रुपये तक की भारी राशि चुकाने वाले अभिभावक इस समाज के लिए कलंक हैं. नकलची छात्रों और नक़ल गैंग के कर्ताधर्ताओं के साथ ही अभिभावकों को भी दण्डित किये जाने की आवश्यकता है.   
      दैनिक भास्कर की मानें तो छत्तीसगढ़ राज्य के मेडिकल कॉलेजेस  में प्रवेश पाते ही पी.एम.टी. में टॉप करने वाले छात्र फेल हो जाते हैं. रायपुर मेडिकल कॉलेज में  ऐसे कई पी. एम. टी. टॉपर छात्र हैं जो 10-15 साल में भी एम.बी.बी.एस. की पढाई पूरी नहीं कर सके हैं. एक टॉपर जिसने सन 2005 में एडमीशन लिया था आज सन २०११ में भी सेकेंडियर का ही छात्र है. 
तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में इतने व्यापक भ्रष्टाचार को किसका संरक्षण मिला हुआ है यह एक अनुत्तरित प्रश्न है. किन्तु इतना तय है कि इस भ्रष्टाचार ने शिक्षा की पवित्रता को दूषित कर दिया है. एम.बी.बी.एस. की प्रतिष्ठापूर्ण शिक्षा प्रश्नों के घेरे में आ चुकी है. ऐसे छात्र डॉक्टर बनने के बाद जनसेवा करेंगे ऐसा  सोचना मूर्खता ही है. तो प्रश्न यह है कि आम जनता के स्वास्थ्य का उत्तरदायित्व क्या ऐसे ही डॉक्टर्स  के भरोसे रहने वाला है ?  प्रवेश परीक्षा में अनुचित साधन के बल पर कई योग्य छात्रों को पटखनी दे कर डाक्टर बनने वाले ये बेईमान समाज के लिए कलंक हैं. अधिकारी और अभिभावक अपने गुरुतर अपराध के लिए क़ानून के शिकंजे से भले ही बच जाएँ पर वास्तव में समाज के गुनाहगार तो  ये बने ही रहेंगे. एक ओर बाबा रामदेव भ्रष्टाचारमुक्त भारत का स्वप्न देख रहे हैं तो दूसरी ओर देश की नयी पीढी भ्रष्टाचार के नित नए मार्गानुसंधान में लिप्त है.इस दोहरे वातावरण में समाज को अपनी दिशा तय करनी ही होगी.