मंगलवार, 12 जुलाई 2011

हमारे भगवान बड़े धनवान


   जब से तिरुअनंतपुरम के स्वामी पद्मनाभपुरम के गुप्तगृह से लक्ष कोट्याधिक  मूल्य की स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हुयी हैं मन में एक ही प्रश्न उठ रहा है कि क्या जिस देश में इतनी निर्धनता हो वहाँ इतनी संपत्ति का मंदिरों में निरुपयोगी पड़े रहना उचित है ? अब देश में एक प्रश्न यह भी उठ रहा है कि इस अकूत संपत्ति का किया क्या
 जाय ...इसका मालिक कौन होगा...किसके संरक्षण में इसका उपयोग हो ...? संदेह भी उठ रहे हैं कि कहीं इस संपत्ति का दुरुपयोग या बन्दर बाँट न हो जाय.
समाधान के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा....उस युग में जाना होगा जब देवालय ही समाज की उन्नति के केंद्र हुआ करते थे. समाज, धर्म, ज्ञान, राजनीति, न्याय आदि को दिशा देने वाले केन्द्रों के रूप में देवालयों की प्रतिष्ठा थी. सूत्र रूप में यूँ कहें कि देवालय ही भारतीय समाज की सर्व गतिविधियों के संचालन की ऊर्जा के केंद्र हुआ करते थे. तब इनके संचालन के लिए जनता स्वस्फूर्त चेतना से दान दिया करती थी. दान भगवान को प्रसन्न करने के लिए नहीं अपितु जन सेवा के लिए दिया जाता था. आज उन गतिविधियों के लिए विभिन्न संस्थाएं हैं. धर्म और राजनीति पृथक हो गए हैं. सारी पूर्व संस्थाएं छिन्न-भिन्न हो गयी हैं. शिक्षा की दूकानें खुल गयी हैं, जन हित के कार्य सरकार ने अपने हाथ में ले लिये हैं, विकास और पुनर्वास भी सरकार के हाथ में है....तो कुल मिलाकर अब परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं. इन बदली हुयी परिस्थितियों में पुरानी परम्परा का औचित्य तभी है जब उस पुराने परिवेश को पुनः जीवित किया जाय. और मुझे लगता है कि भारतीय समाज को इसकी आवश्यकता है . 
   मंदिरों के दायित्व सरकारी संस्थाओं को हस्तांतरित हो जाने के पश्चात से भारतीय समाज अपसंस्कार और बिखराव की ओर ही अग्रसर हुआ है. देवालय सक्षम हैं इस बिखराव को रोकने में. आज स्कूलों के बाहर निःशुल्क कंडोम वितरण की बात हो रही है ...यदि इस नए प्रयोग को आगे बढ़ाना है तब तो ऐसा ही चलने दिया जाय किन्तु यदि आपको ऐसा लगता है कि यह भारतीय समाज को पतन की ओर ले जाने वाला है तो शिक्षा और संस्कार के बारे में हमें नए सिरे से सोचना होगा. भारत में आज जहाँ नए निजी विश्वविद्यालय खुल रहे हैं वहाँ देवालयों की इस संपत्ति का उपयोग भारतीय ज्ञान-विज्ञान, संस्कार, भाषा आदि के संरक्षण, संवर्धन और पुनर्स्थापन के लिए किया जाना ही उचित होगा. इस संपत्ति का पहले भी यही तो उद्देश्य था. 
यह भी विचारणीय है कि पापियों की कुदृष्टि इस धन पर पड़ चुकी होगी और वे जाल निर्माण में लग गए होंगे. देवालयों की संपत्ति का पहले विदेशियों ने बलात अपहरण किया था, अब भी यदि भारतीय समाज नहीं चेता तो देशी लोग ही इसे चट कर जायेंगे. देवालयों की संपत्ति के साथ ही पुराने राजघरानों की गुप्त संपदा को भी प्रकाश में लाया जाना चाहिए ...अंततः यह सब है तो भारतीय जनता की परिश्रम से अर्जित की हुयी संपदा ही न ! जनता की संपदा जनता के हित में..... समाज के सर्वांगीण विकास में ही व्यय की जानी चाहिए, यही न्याय संगत है...इसलिए हम आव्हान करते हैं कि संत समाज इस विषय पर अपने मौन को तोड़े और भारत के बुद्धिजीवी बड़ी दृढ़तापूर्वक यह मांग रखें कि 
१- सभी देवालयों एवं राजघरानों की गुप्त एवं राजसात की जा चुकी सम्पूर्ण संपत्ति को प्रकाश में लाया जाय और इसे सरकारी संरक्षण से दूर रखा जाय.
२- इस संपत्ति का उपयोग केवल और केवल सनातन धर्म के उद्देश्यों और आदर्शों के अनुरूप समाज हित में किया जाय.
३- इस संपत्ति से देव संस्कृति विश्व विद्यालयों की स्थापना की जाय जिनमें शिक्षा और संस्कार के माध्यम से भारतीय समाज के विकास की प्रतिबद्धता सुनिश्चित हो.
४- देव संस्कृति विश्व विद्यालयों का संचालन मंदिरों की अखिल भारतीय सभा द्वारा किया जाय.
५- देश पर आतंरिक या बाह्य किसी भी प्रकार के मानवीय या दैवीय संकट के समय देवालयों की संपत्ति देश के हित में व्यय किये जाने का प्रावधान किया जाय.
  हम आशा करते हैं कि भारत के लोग आवश्यकता पड़ने पर इस संपदा के सदुपयोग के लिए आन्दोलन के लिए भी तैयार रहेंगें. 
          हरि ॐ तत्सत ! ! ! 

6 टिप्‍पणियां:

  1. सुझाव अच्छे लगे। दानदाताओं की इच्छा और उद्देश्य का आदर होना ही चाहिये।

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  2. अच्छे सुझावों युक्त विचारणीय लेख....

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  3. डॉक्टर साहब! उस भिखारी की सी स्थिति है जों सारी उम्र भीख माँगता रहा और मरने के बाद वहाँ की ज़मीन खोदी तो स्वर्ण मुद्राओं से भरा कलश मिला!
    आपके सुझाव एक नई सोच को जन्म देते हैं!!

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  4. .

    Demands suggested by you are very genuine and are in nation's interest. I admire the beautiful thoughts expressed in the post.

    regards,

    .

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.