रविवार, 17 जुलाई 2011

प्रतीक्षा ......तीसरी एवं अंतिम किश्त

     
    आगरा में पूस के महीने में खूब पाला पड़ता है. कभी-कभी तो दिन के ग्यारह बजे तक भी धुंध छाई रहती है, और रात की शीत का तो पूछो ही मत. ऐसी  पालेवाली रात में आँखों में यदि नींद भी न हो तो रात न जाने  कितनी और लम्बी लगने लगती है. 
    चारो ओर सन्नाटा पसरा है और मैं कम्बल ओढ़े पूरे वार्ड में टहल रहा हूँ . सोच रहा हूँ दो पीढ़ियों के मध्य पडी मत वैषम्यता की विकराल खाई के बारे में .....सास के बारे में ....परमहंस से प्रतीत होने वाले राहुल के बारे में ....आग में भुनी शकरकंद की तरह फूल कर वीभत्स हो गयी अंतिम साँसें गिन रही बहू के बारे में .........और सोच रहा हूँ राहुल के ऊपर लगाए गए उस आरोप के बारे में भी जिसके कारण बहू इस सीमा तक निराश हो चुकी थी. 
     तो क्या राहुल सचमुच ही उसके रहते किसी और को चाहने लगा था ?  
     लगता है , सब ओर से निराश हो चुकी थी बेचारी. सास-ससुर का कड़ा अनुशासन और पति की उपेक्षा ...आखिर कोई तो हो उसके सुख-दुःख का साथी.  इस नितांत अकेलेपन को भी कहाँ तक ढोती वह !   
    बार-बार घड़ी देखता हूँ ......उफ़ ! ये रात भी ...कितने धीरे-धीरे खिसक रही है ...अभी तो तीन ही बजे हैं. बहू के प्रिय स्वजन निद्रा में डूबे हुए हैं ...और आश्चर्य कि मेरी आँखों में नींद का लेश भी नहीं. आखिर क्यों नींद नहीं आ रही है मुझे .....लगता ही कौन हूँ मैं उसका ! पहले कभी देखा भी तो नहीं उसे ...और वह अभागी ही क्या देख पा रही है मुझ अनदेखे पड़ोसी को जिसके ऊपर अंतिम समय में इतना विश्वास हो गया उसे. हे ईश्वर ! विचित्र है तेरी माया , विचित्र है मनुष्य का मन !
      सोचते-सोचते भी कितनी देर हो गयी है पर घड़ी की सुई गर्मियों की दोपहरी की तरह अभी तक बिल्कुल ज़रा सी ही बढ़ सकी है आगे.  तभी ड्यूटी रूम का दरवाज़ा खुला एक नर्स बाहर निकली और थोड़ी ही देर बाद पुनः अन्दर दाखिल हो गयी ......आते-जाते उसने गौर किया मेरी ओर ...कदाचित सोचा भी हो कि इतनी सर्दी में कौन है यह पागल जो मात्र एक कम्बल ओढ़े टहल रहा है . 
  जाड़े की रात भी जागकर काट पाना कितना दुष्कर कार्य है ....और शैय्या पर पडी बहू ...उसके लिए कितना दुष्कर होगा ....उफ़ ...अनुमान लगा सकना भी संभव नहीं मेरे लिए तो. 
    मैं पूरी निष्ठुरता के साथ प्रतीक्षा कर रहा हूँ उसके मरने की. प्रतीक्षा करना तो और भी उबाऊ काम है. सभी परिचित और व्यवहारी इतने दिनों में ही निराश हो चुके थे प्रतीक्षा कर-कर के. उन्हें शवयात्रा में सम्मिलित होना ही तो एक काम नहीं, सो बेचारे तीन दिन तक यहाँ मंडराकर अब अपने -अपने काम से लग चुके थे. सोचा होगा , जब सूचना मिलेगी मरने की तब आ जायेंगे अर्थी में सम्मिलित होने, आखिर इतना पुराना व्यवहार  है इन लोगों से ....इतना तो करना ही पड़ेगा न !  
   "इतना तो करना ही पड़ेगा" ....जिसके जीते जी कोई कुछ करने के लिए तैयार नहीं था उसीके मरने के बाद "इतना तो" करने के लिए मंसूबे बना चुके थे लोग. मुझे वितृष्णा होने लगी थी सबसे. मैंने अपने दांत भींचे और एक क्षण में निर्णय ले लिया कि अभी जब कोई नहीं है तब मैं हूँ ...और जब सब होंगे तब उस भीड़ में मैं नहीं रहूँगा ...बिलकुल नहीं ...मैं इस संवेदनहीन भीड़ का हिस्सा नहीं बनूँगा. कैसा विचित्र है संसार, बहू जीवित है अभी ...और लोग उसके अंतिम संस्कार की योजना बना रहे हैं. तीव्र आक्रोश और दुःख ने मेरी आँखों की अश्रुग्रंथियों को कसकर मसल दिया ...वे निर्बंध हो बह उठीं. कम्बल को सिर से ओढ़कर मैं एक कोने में जाकर ठंडी फर्श  पर बैठ गया. पास में राहुल को खर्राटे भरते सुन मन और भी वितृष्णा से भर गया.....अभी एक वर्ष ही तो हुआ है शादी को और अंतिम यात्रा की तैयारी देख इतना परमहंस हो गया ? स्वार्थी कहीं का.............इसका  वश चले तो कहो कल ही दूसरी शादी कर ले ...छी . 
     मुझे चैन नहीं ....उठ कर फिर टहलने लगता हूँ. भोर होने में अभी देर है. टहलते-टहलते अनायास रुक जाता हूँ उसके पलंग के पास. कराह सुनायी नहीं दे रही......कहीं सांस बंद तो नहीं हो गयी !  झुककर देखता हूँ, क्षीण सांस चल रही है अभी. चेहरे और कन्धों की कठोरता और भी बढ़ गयी है. रुई से मुंह का हरा झाग साफ़ करने के लिए सिस्टर एक फोरसेप्स छोड़ गयी है. उसी से कठोरता का अनुमान लगाने के लिए मैं कान, चेहरा,और कन्धों को टोहकर देखता हूँ. कट..कट...कट...कट...नेक्रोसिस हो गयी है. मुडी हुयी एक बाँह कल से उसी तरह अधर में झूल रही है...दूसरा हाथ पेट पर रखा है. बड़े बलपूर्वक नेक्रोस्ड बांह को थोड़ा सा हटा पाता हूँ...उतने स्थान में पेट की त्वचा पर स्केमिया हो चुकी है. फोरसेप्स के तनिक से स्पर्श से ही उतनी त्वचा छिलके सी उधड़ जाती है. उफ़ ! प्रथम बार अंग-अंग की मृत्यु होते देख रहा हूँ. जीवन यात्रा खंड-खंड में पूर्ण हो रही है. जिसे तिल-तिल कर मरना कहते हैं शायद यही है. 
   मैंने पुकारा - "पानी दूं !"
   उत्तर मिला - "नईं "  
   धन्य है प्रभु ! अभी तक चेतना यथावत ! पर नहीं इतने से ही आभास हो गया मुझे कि यात्रा अब पूरी होने ही वाली है. गंतव्य अब और दूर नहीं. 
   चिकित्सालय के दो कम्बलों के अतिरिक्त घर के शेष कम्बल उसके ऊपर से हटा दिए मैंने. ऑक्सीजन थोड़ी तेज कर दी, फिर उसके पतिपरमेश्वर को जगाकर सारे बिस्तर समेट लेने को कहा. 
   उसने पूछा -"गयी ?" 
   मैंने कहा - " अभी तो नहीं ...पर अब जाने ही वाली है आप भी घर जाने की तैयारी कीजिए " 
   हमारी प्रतीक्षा की घड़ियाँ समाप्त होने को हैं अब . ट्रेन धीमी हो रही है ...गंतव्य आ ही चुका समझो .....बस ! प्लेटफोर्म आते ही सभी लोग अपना-अपना सामान लेकर उतर जायेंगे. डॉक्टर अपनी फोरसेप्स ले जाएगा. नर्स आकर ऑक्सीजन और कैथेटर हटा देगी. फिर दो डोम आयेंगे, मृत शरीर को नीचे तक पहुंचाने के लिए. मैंने उसके पति को सावधान किया, कोई सामान भूल मत जाना हड़बड़ाट में. सावधानी से  समेट लेना सारा सामान. मेरा आक्रोश व्यंग्य में बदल चुका था जिसे वह परमहंस शायद समझ भी नहीं सका.
    बिस्तर बाँध दिए गए हैं. गिलास, चम्मच, खाली हो गयीं डेक्सटरोज और नार्मल सेलाइन की बोतलें ...सभी कुछ समेटा जा रहा है. मैंने उसकी ऑक्सीजन थोड़ी और तेज़ करदी. ड्रिप बंद हो गयी थी ..उसे भी तेज़ किया.....पैर को फैलाकर हिलाया-डुलाया पर पर ड्रिप ज़रा भी नहीं खिसकी. चले भी तो कहाँ , कितने अंगों में तो नेक्रोसिस हो चुकी है. 
   उसका एक संबंधी जो अभी-अभी आया था, यह सब देखकर बाहर कैंटीन में चाय पीने चला गया. पता नहीं फिर मिल भी पायेगी या नहीं. कहो पूरे ही दिन व्यस्त रहना पड़े.......श्मशान कोई यहाँ है ...पूरे तीन मील चलना पड़ेगा पैदल.....चाय पीना आवश्यक है ...बहुत आवश्यक है....उसके बिना एक दिन भी रहा नहीं जा सकता  ........नहीं कतई संभव नहीं है.  
   क्षितिज से सूर्य भी झाँक कर परिणाम जानने के प्रयत्न में उत्सुक दिखायी देने लगा . एक स्टूल खिसकाकर मैं उसके पलंग के समीप बैठ जाता हूँ...उसकी डूबती साँसों के अंतिम दर्शन के लिए ......
    राहुल और उसकी माँ घर चले गए हैं ...सामान पहुंचाने ........बहुत आवश्यक था सामान पहुंचाना. और उसी बहाने नित्य कर्म से निवृत्त हो कर चाय पीना भी ......दिनचर्या में अधिक परिवर्तन नहीं होना चाहिए ...यह ध्यान देने योग्य बात है...एक दिन भी दिनचर्या में परिवर्तन हो जाय तो स्वास्थ्य खराब होने की संभावना रहती है....किसी संभावना को क्यों आमंत्रित किया जाय ?   
   सारी रात जागते हुए मैं भी थक चुका हूँ ....शरीर से भी और मन से भी....पर अकेला छोड़कर कैसे चला जाऊं ? अभी पूरी तरह सांस कहाँ बंद हुयी है उसकी .........
सभी की तरह मैं भी प्रतीक्षारत हूँ ....कब जाऊँ यहाँ से .......
   और बहू ! 
   कल से उसने भी जान बचाने की याचना करनी बंद कर दी है.........वह भी प्रतीक्षारत है ...............कब जा पाऊँ यहाँ से ......
                                           
                                                                    -----समाप्त ------   

4 टिप्‍पणियां:

  1. कौशलेन्द्र जी, अपनी धर्मपत्नी के माध्यम से रुमेतोइद आर्थ्राइटिस से आरम्भ कर और फिर २३ वर्ष के भीतर अन्य उसके 'मौसेरे भाइयों' जैसे अन्य तकलीफों के साथ साथ बढ़ते कष्ट, विशेषकर अंतिम २ वर्ष में वैस्क्युलाइटिस के कारण अत्यधिक शारीरिक कष्ट, उनके ही नहीं पूरे परिवार के, भुगतने के भी मेरे मन में उभर के आगये...

    दिल्ली में यह खासियत मानी जाती है कि जब आप अपने सर दर्द का चर्चा करें तो दूसरा आपसे कहेगा कि तेरे दर्द से मेरा दर्द अधिक होता है :)

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  2. सर ऐसी तीखी और भयानक कहानी कहाँ मिली? पढ़ते हुए पूरे समय आशा बनी रही कि कहीं से चमत्‍कार हो और वह बच जाए...। सारे काम बहुत जरूरी होते हैं। सब जरूरी काम निपटाना चाहते हैं, साथ कोई नहीं रुकता... फिर यह उम्‍मीद, यह आशा, यह अपेक्षाएँ क्‍यों...। बहुत निराशाजनक कहानी है। कहानी पढ़कर ऐसा लगता है किसी मोर्ग में बैठा हूँ।

    - आनंद

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  3. आनंद जी ! सुखान्त सभी को अच्छा लगता है ...पर सुखान्त का भ्रम नहीं . जीवन में सब कुछ हमारे अनुकूल ही नहीं होता. प्रतिकूल स्थितियों के लिए हमें तैयार रहना होगा. निराशा हमें प्रेरणा भी दे सकती है...और समीक्षा का अवसर भी. ठीक उसी तरह जैसे कि इतिहास हमें बहुत कुछ संभलने का अवसर देता है.
    समाज के सत्य से हम भाग नहीं सकते .....सत्य को स्वीकारने का अर्थ कभी-कभी शल्य चिकित्सा भी हो सकता है. शल्य चिकित्सा पीड़ादायी होने पर भी प्राण बचाने के लिए आवश्यक है.
    आनंद जी ! मेरे पास तो इससे भी भयानक कहानियाँ हैं .....या यूँ कहिये कि दृश्य हैं . विवाह के मात्र माह भर बाद ही राजस्थान से बस्तर में आये जवान की नक्सली बम विस्फोट में चिथड़े-चिथड़े हुयी लाश की गठरी आयी देख कर नव विवाहिता की दारुण पीड़ा की कहानी भी सुनाऊंगा कभी. अभी तो मैं स्वयं ही साहस नहीं जुटा पा रहा हूँ उन दृश्यों को शब्द देने का . इक्कीसवीं शताब्दी के हर सत्य के लिए हमें अपने द्वार खोल कर रखने होंगे .

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  4. सत्य को शब्दों का जामा पहनाना भी तो बड़ा ही दुष्कर काम है कौशलेन्द्र जी....और आप जैसे लेखक ही उसे सुधि पाठको तक पहुँचाने का साहस रखते हैं......इस कहानी को सेव कर रही हूँ...आराम से बैठकर पढूँगी....पर हाँ आपकी अन्य कहानियों की प्रतीक्षा अवश्य रहेगी.....

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.