शनिवार, 30 जुलाई 2011

तुम न होते अगर .



यूँ हमें देखकर, तुम न जलते अगर 
आग लगती न यूँ, तुम न होते अगर.
ऐ तमाशाइयो ! खूब जम के जलो 
और चढ़ जाएगा, इश्क परवान पर. 
इश्क  सागर में उठती हुयी कोई लहर 
इश्क सपनों में जीता हुआ कोई शहर.
इश्क कर दे सुधा, चाहे हो कोई जहर .
इश्क पढ़ता है कलमा, आठो पहर 
इश्क में मर गए,  हो गए हम अमर.
लोग आहें न भरते, इश्क को जानकर 
यूँ हमें देख कर, तुम न जलते अगर .
 

4 टिप्‍पणियां:

  1. डॉक्टर साहब!!आज तो इश्कन इश्कन हो गए हैं आप.. और हम.. लाली देखन मैं चली मैं भी हो गयी लाल वाली स्थिति से गुजार रहे हैं!! अति सुन्दर!!

    जवाब देंहटाएं
  2. यूँ हमें देखकर, तुम न जलते अगर
    आगलगती न यूँ,तुम न होते अगर.

    डॉक्टर साहब!!आज तो इश्कन इश्कन हो गए हैं आप..
    कौन जल रहा है .....???

    जवाब देंहटाएं
  3. हर व्यक्ति के भीतर एक ही बत्ती जलती है,,,
    जिसे आत्मा कहते हैं,,,
    जो बुझी तो सड़क पर जाते लोगों को 'राम नाम सत्य' बोलते सुना था बचपन में,,,
    और कुछ मैदान में खेलते नटखट नन्दलाल समान बच्चों को धीरे से कहते, "मुर्दा बेटा मस्त है"!

    "भला था कितना अपना बचपन"!

    जवाब देंहटाएं

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.