शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

आधी भीड़ ये कर दे वादा .



रहा बाँस का बाँस ही  बिरवा, ना बन पाया मीठा गन्ना.
टोपी पर लिख देने से क्या, हो जाएगा तू भी अन्ना..
हम भ्रष्ट आचरण संरक्षित कर , पढ़ते और पढ़ाते गीता.
खींची तो थी लक्ष्मण रेखा, नहीं बची थी फिर भी सीता..
भली बात क़ानून बनाना, असल बात है अमल में लाना.
ग्रंथों में तो लिखा है सब कुछ, पढ़ा सभी ने सबने जाना..
भ्रष्टाचार हमीं से पोषित, समझ-समझ कर भी न समझना.
टोपी पर लिख देने से क्या, हो जाएगा तू भी "अन्ना"..

क़ानून के डर से साधू बनना, ये तो कोई बात नहीं है.
आत्म नियंत्रण से बढ़कर कोई, दुनिया का क़ानून नहीं है..
क़ानून बना देने भर से क्या, खुद ही संयम करना होगा.
हम रावण बध कर-कर हारे, अब राम स्वयं बनना होगा .. 
देव नहीं, अवतार नहीं ये, साँचा मानुस भर है अन्ना.
साँचा मन करले हर कोई, हर ओर दिखेगा अन्ना-अन्ना..

सब टोपी पहन-पहन कर आये, कुछ केवल भीड़ जुटाने आये.

भ्रष्टाचार की चाबी घर में, कहीं सुरक्षित रखके आये
स्वर्ग बनेगा देश हमाराआधी भीड़ ये कर दे वादा .
भ्रष्ट आचरण त्याग अभी से, जीवन अपनाएंगे सादा ..   

रहा बाँस का बाँस ही  बिरवा, ना बन पाया मीठा गन्ना.
बाँस काट जब बनी बंसुरिया, गाये जय-जय राधे-कृष्णा ..
टोपी पर लिख देने से क्या , हो जाएगा तू भी "अन्ना".

 

बुधवार, 24 अगस्त 2011

इस जन आन्दोलन को व्यक्तिगत आन्दोलन बनाएं


 भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना के आन्दोलन ने एक देशव्यापी आन्दोलन का रूप ले लिया है. शीर्ष भ्रष्टाचारियों को छोड़कर शेष छोटे-छोटे भ्रष्टाचारी भी आम जनता के साथ मिलकर इस जन आन्दोलन में अपनी भागीदारी तय कर रहे हैं. स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित चित्रों को जब मैं देखता हूँ तो आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहता कि शहर के बेईमान लोगों ने कितनी स्फूर्ति से इस मंच पर भी अपना अधिकार कर लिया है. विश्व की सभी क्रांतियों की नियति और  प्रोग्नोसिस ऐसी ही रही है. कुछ होते हैं जो नींव के पत्थर बन जाते हैं .......वे कंगूरे नहीं बनना चाहते ...पर कुछ होते  हैं जो सिर्फ कंगूरे बनने की ही प्रतीक्षा करते हैं. वे सियार की तरह इस ताक में रहते हैं कि शेर के किये शिकार को किस तरह झपट कर अपना निवाला बना सकें. भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का यही हश्र हुआ था. मरा कोई ......और उनकी लाशों पर जिया कोई. अब इस इतिहास से सबक लेने की आवश्यकता है. किसे लेना है सबक ? देश की कोटि-कोटि जनता जनार्दन को सबक लेना है. सबक उसे लेना है जो अंतिम आदमी है. सबक उसे लेना है जो न तो शहीद हो सकता है न सियार जैसा झपट्टामार. सबक उसे लेना है जो सुबह से शाम तक दाल-रोटी की तलाश में खटता रहता है. सबक देश के बुद्धिजीवियों को भी लेना है क्योंकि अपनी समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ खुली रखना उनका धर्म है. देश और समाज के प्रति सर्वाधिक उत्तरदायी वे ही होते हैं. 
      तो सजग रहने की आवश्यकता है कि समुद्र मंथन से निकले अमृत का दुरुपयोग न हो सके. एक जनकल्याणकारी लोकपाल विधेयक जिसे पारित होने से अब कोई रोक नहीं सकता, लोकतंत्र के लिए अमृततुल्य होते हुए भी उपयुक्तता की अपेक्षा रखता है. कोई भी क़ानून इंद्रजाल की तरह चमत्कार नहीं कर सकता यदि उसका पालन युक्ति-युक्त तरीके से न किया जाय. और इसका सारा उत्तरदायित्व है नागरिकों पर. जागरूक नागरिक ही किसी क़ानून के सदुपयोग से समाज में चमत्कार कर सकते हैं. आइये हम सब इस चमत्कार में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करें ...लोकपाल बिल को संसद में पारित होने से पहले ही अपने ऊपर लागू कर एक आदर्श प्रस्तुत करें.....अपने-अपने कार्यालयों में रिश्वत लेना बंद करें .......अच्छा तो तब हो जब हम स्वेच्छा से अपना अपराध स्वीकार करते हुए स्वयं को क़ानून के सामने समर्पित करना शुरू कर दें,  कि लो, अब तक बहुत लूटा हमने देश को अब और नहीं ....सज़ा भोगने के लिए तैयार हैं हम. 
    अन्ना का आन्दोलन तो एक आगाज़ भर है .....अभी तो लम्बी लड़ाई बाकी है. सरकारी अधिकारी या कर्मचारी जो अपने वरिष्ठों द्वारा उनकी स्वेच्छाचारिता, अन्याय और उत्पीडन के शिकार होते हैं, न्यायालय से न्याय पा भी जायं तो अन्यायी-अत्याचारी अधिकारी को दंड नहीं दिला पाते क्योंकि मौजूदा क़ानून इसमें उनकी कोई सहायता नहीं कर पाता. दोषी अधिकारियों को न्यायालय से दण्डित नहीं किये जाने के कारण ही शासकीय कार्यालयों में भ्रष्टाचार की जड़ें बरगद की एरियल रूट की तरह दिनोदिन सुदृढ़ होती रहती हैं. मैं यह न्याय आज तक समझ नहीं सका जिसमें पीड़ित के हक़ में तो फैसला हो ( उसकी ज़िंदगी के अधिकतम वर्षों की ह्त्या की कीमत पर ) किन्तु पीड़क दंड से वंचित रह जाय. ऐसा न्याय हर स्तर पर अपूर्ण है और सच कहूं तो एक छलावे से अधिक और कुछ नहीं. हमारी अगली लड़ाई इसी के लिए होगी. आप सबके मूल्यवान सुझाव सादर आमंत्रित हैं.             

सोमवार, 22 अगस्त 2011

बड़ा हिम्मत करके डाका डाले हैं सलिल भैया के ब्लोग पर



ज का पोस्ट हम सलिल भैया को समर्पित कर रहे हैं ....काहे से की ई उन्हीं का अस्टाइल है . नहीं नहीं एकदम ओईसन ही त नहिंए है बाकी कोसिस ज़रूर किये हैं. का करें, हम भोजपुर त छोड़ दिए पर भोजपुरी हमको छोड़े तब न ! भोजपुरिया बोली के मिठास का मोह छोड़ना तना सरल है का !
       एगो बात याद आ गया, भोजपुरी बोली के एगो अइसन बिसेसता  है जो हमको अउर कहीं नहीं मिला. जब हम पढ़ते थे त पटना के बेली रोड पर लिट्टी-चोखा खा-खा के खूब धरना, परदरसन आ अनसन किये. खड़ा हिन्दी वालों को मजाके मज़ाक में कहते थे के भोजपुरी मं भासन  दीजिये त कभी अटकिएगा नहीं....ई हमारा गारंटी है. नेता बनने का बहुत सारा ट्रेनिंग त विद्यार्थी जीवन में ही लेना पड़ता है न ! ख़ास करके भासन देने आ पुलिस से निपटने का. भासन एकदम परभावसाली होना चाहिए .......बिना रुके ...बिना अटके......एकदम धुंआधार  तभिये न लोग कहेगा के ई है नेता के लायक. तब विद्यार्थी जीवन में नेता का ई गुण ही जादा आकर्सक लगता था.
     लेकिन पहिले ई बता देते हैं कि ई बिसेसता का भासन में एप्लीकेसन का बिचार हमको कइसे आया. हमारे मकान मालिक थे केसरी जी ! ऊ जब बतियाते थे त तना अटकते थे कि उनका आधे से जादा बात तो "एथी-एथी" में ही बूझना पड़ता था. कभी-कभी बड़ा खीझ भी लगता था के आपके कौन सा वाला एथी को का समझा जाय ? हमारे एगो साथी थे बिरजेस जी,  उनको गोलमोल जबाब देने में बड़ा मजा आता था. केसरी जी का "एथी" उनको तना पसंद आया के अपना धारा-परवाह बार्ता में उसका तना तड़का मारना चालू कर दिए के सुनने बाला सर खुजाता रह जाय पर मजाल है कि समझ में कुच्छो आ जाय. ई सब त लड़कपन का बेवकूफी था पर एक दिन हम गंभीरता से बिचार किये त लगा के "एथी" भोजपुरी का बड़ा महत्वपूर्ण सब्द है. कहीं अटक जाइए त जादा माथापच्ची का ज़रुरत नहीं है...संकटमोचन बनके "एथी" आपको बिस्मृति के भंवर से फिलहाल त बाहर निकालिए देगा ..आ भासन का परवाह बना रहेगा. सबके सामने किसी को कोई गोपनीय बात कहना हो तो एक्सक्यूज मी कहके कोने में जाके फुसफुसाने का ज़रुरत नहीं है . आपका मदद के लिए "एथी" का कवच है. बुझने बाला बूझते रहेगा आ आप अपना बात सबके सामने अपना टार्गेट तक पहुंचा भी दिए. किसी को टालना हो त ख़ास सब्द केलिए "एथी" कह के बाद में घुमा दीजिये के अरे नहीं हमारा मतलब "ऊ" नहीं "ई" था. एतना मल्टीडाइमेंसनल सब्द कहीं मिलेगा ? सलिल भैया आ मनोज जी ! का कहते हैं आप !

गुरुवार, 18 अगस्त 2011


सावन 

सबहिं कहत सखि सावन आये
पुलकित मन, तन खिल-खिल जाए. 
सुन रे सखी घन भेद करत ये
कभी मन भाये कभी अगन लगाए .

श्याम-श्याम घन तोहे मन भावन 
घन घिर आये सखि मोहे न सावन.
गरजत बरसत घनन छनन घन
तड़पत हूँ ज्यों दामिनि छन-छन.

आज सखी क्यों केश  सँवारे 
आवत क्या घनश्याम तुम्हारे. 
रहस छिपावत मन अकुलावत  
चितचोर बने क्यों नयन तुम्हारे.

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

अन्ना का विरोध कितना न्यायिक ?


   ज दिनांक १६ अगस्त की भोर से ही भारत और विश्व की दृष्टि अन्ना और सरकार की गतिविधियों पर लगी रही. अन्ना और उनके दो सहयोगियों को उनके आवासों से बंदी बना लिया गया. दोपहर बाद तिहाड़ कारागार में भेज दिया और सूर्य डूबते-डूबते वापस उनके घर......और इस तरह एक राजकीय नाटक की यवनिका अगली भोर तक के लिए गिरा दी गयी.
    अब कल सुबह नाट्यगृह के पट खुलने पर नवीन दृश्य की सभी को प्रतीक्षा है. चलिए,  इस बीच हम कुछ आवश्यक बातें कर लें. प्रारम्भ करते हैं अन्ना के पूर्व समर्थक रहे और अब विरोधी विश्वबन्धु गुप्त से. वे भरपूर कुपित हैं अन्ना, किरण बेदी, पिता-पुत्र युगल अधिवक्ता और अरविंद केजरीवाल से. उनके अनुसार ये सभी लोग स्वयं लोकपाल बनने के स्वप्नदर्शी हैं ......नौकरी पाना चाहते हैं पर इसके लिए उन्हें जब विज्ञापन निकले तभी आवेदन करना चाहिए . उनके कुपित होने का एक कारण यह भी है कि "जाहिल" केज़रीवाल, अछूत राष्ट्रीय स्वयमसेवक संघ और सरकारी दलाल स्वामी अग्निवेश अन्ना को अपना समर्थन दे रहे हैं. अर्थात सच किसे बोलना है ...सत्य का समर्थन किसे करना है यह सब गुप्त जी तय करेंगे. हर व्यक्ति को सत्य बोलने का अधिकार नहीं है क्योंकि इससे लोकतंत्र की मर्यादा भंग होती है.
   गुप्त जी और बहुत से अन्य बुद्धिजीवियों के मत से लोकपाल बिल बनाने का अधिकार मात्र प्रजा द्वारा ईमानदार  उम्मीदवारों के अभाव की विवशता में निर्वाचित शासन के निकम्मे सांसदों को ही है, स्वयं प्रजा को नहीं. प्रजा जनहित के अनुरूप किसी विधि निर्माण के लिए शासन पर दबाव नहीं डाल सकती...यह अलोकतांत्रिक है. समाजसेवी और स्तंभकार शबनम हाशमी ( जो कि साम्प्रदायिक हिंसा अधिनियम के लिए संघर्षरत हैं ) और भ्रष्टाचार विरोधी मंच के संस्थापक डॉक्टर पुरुषोत्तम मीणा के विचार भी कुछ इसी तरह के हैं. अन्ना विरोधी अभियान से दो प्रमुख बातें उभर कर सामने आयी हैं जो कि अत्यधिक चिंतनीय हैं ...और उन पर पूरे राष्ट्र के जनमानस को गंभीर चिंतन करने की आवश्यकता है.
       पहली बात है दक्षिणपंथियों के प्रति अछूत जैसी मानसिकता में निरंतर वृद्धि. यह कितनी विचित्र बात है, जो लोग लोकतंत्र की दुहाई देते नहीं थकते वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और इसके साथ ही भारतीयता, सनातन धर्म, भारतीय संस्कृति, प्राचीन भारतीय आर्ष साहित्य, भारतीय दर्शन आदि की चर्चा या इनकी उपस्थिति का आभास होते ही इनके साथ अछूत जैसा व्यवहार करने लगते हैं. आप मानवीय मूल्यों की स्थापना की बात करिए या भ्रष्टाचार के विरोध की ...यदि आप "अहिंदू" हैं या "छद्म" धर्मनिरपेक्षतावादी हैं तभी अन्य लोगों द्वारा आपकी बात स्वीकार्य है अन्यथा नहीं. शबनम हाशमी और विश्व बन्धु गुप्त के ये तर्क कि अन्ना का आन्दोलन आर.एस.एस.  द्वारा समर्थित या प्रायोजित होने के कारण समर्थन योग्य नहीं है ...बड़े ही विचित्र लगते हैं. अभिप्राय यह कि सत्य मार्ग पर चलने का अधिकार या न्याय की बात करने का अधिकार केवल वामपंथियों और छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों को ही है अन्यों को नहीं........सनातनधर्मियों को तो कदापि नहीं. भारतीयता के प्रति अस्पृश्यता का यह व्यवहार इस देश को रसातल में ले जाए बिना नहीं छोड़ने वाला. इस अस्पृश्यता के दुर्भाव का उन्मूलन आवश्यक हो गया है अब.
        दूसरी बात है यह कथन कि  " अन्ना और उनके सहयोगी कौन होते हैं सरकार से अपने बनाए क़ानून को लागू कराने वाले ? ये सरकार को ब्लैकमेल कर रहे हैं. इनकी सारी प्रक्रियाएं अलोकतांत्रिक हैं ".......इसलिए इनके शांतिपूर्ण आन्दोलन को अवैध और अलोकतांत्रिक घोषित करते हुए होने ही नहीं देना चाहिए. - यह बात सरकार, वामपंथियों और भारत विरोधी मानसिकता वाले लोगों के समूहों द्वारा प्रचारित की जा रही है. निर्विवादित रूप से ये लोग परम्परावादी और यथास्थितिवादी हैं. विचारणीय बात यह है कि जिस देश में सुशासन के लिए लोक द्वारा निर्वाचित कर अधिकृत किये गए लोगों द्वारा ही यदि निर्लज्ज लूटमार की परम्परा स्थापित कर दी जाय, चुनाव प्रक्रिया ही दूषित हो और योग्य लोग चुनाव में खड़े होने के लिए अघोषित रूप से अयोग्य स्वीकार कर लिए गए हों तो फिर निरीह लोक के पास अपनी रक्षा और मूल्यों की स्थापना के लिए और क्या उपाय रह जाता है ?  अन्ना ने एक सात्विक माँग रखी है.....उस माँग का प्रस्ताव दिया है कि इसे विधि द्वारा स्थापित किया जाय. अन्ना स्वयं विधि निर्माण नहीं कर रहे हैं...जिन्हें करना चाहिए  वे कर नहीं रहे हैं और न ही उनकी कुछ करने की मानसिकता है ...उन्हीं के द्वारा कराये जाने का एक लोकतान्त्रिक आग्रह है अन्ना का.  इसमें अनैतिक क्या है ? राजा जब प्रजा के हित के विरुद्ध कार्य करने वाला हो तो उसे रास्ते पर लाने या अपदस्थ करने का नैतिक और नैसर्गिक अधिकार प्रजा का होता है यह एक सुस्थापित ऐतिहासिक तथ्य है जिसकी अवहेलना करना आत्मघाती होगा.
         हम भविष्यवक्ता नहीं हैं और न अन्तर्यामी ....पर अभी की स्थितियों में अन्ना और किरण वेदी की नियति पर संदेह का लेश भी कारण दिखाई नहीं देता. ये दोनों ही व्यक्ति शासकीय सेवा से स्वेच्छया सेवा निवृत्ति ले चुके हैं ..............क्या इसलिए कि लोकपाल बनने की आकाशवाणी उन्हें वर्षों पूर्व सुनायी दे गई थी ? इस देश का लोक यह जानना चाहता है कि विश्वबन्धु गुप्त की दिव्यदृष्टि में लोकपाल के लिए ( जिसके बिल का ही अभी कोई पता ठिकाना नहीं है, सूत न कपास कोरी संग लठी-लठा ) किरण वेदी और अन्ना से अधिक राष्ट्रभक्त और ईमानदार व्यक्ति और कौन है जिसे वे लोकपाल के रूप में देखना चाहते हैं ? किरण वेदी की नियति पर संदेह करने वाले गुप्त जी को यह देश कभी क्षमा नहीं कर सकेगा...उनका अपराध अक्षम्य है.

रविवार, 14 अगस्त 2011

जब हम मुस्कराएँ तो समझ लेना कि यह भी हमारी विवशता है

      भी हम भी मनाया करते थे पंद्रह अगस्त .....पूरे जोश से मनाया करते थे...........हमारे मासूम चेहरे दो दिन पहले से खिल जाया करते थे. पर तब हम बहुत छोटे थे....दुनियादारी की समझ नहीं थी इसलिए किसी स्वप्न लोक में विचरते हुए खुश हो लिया करते थे. 
    अब हम  बड़े हो गए हैं .....हमारे साथ-साथ पंद्रह अगस्त भी बड़ा हो गया है....या यूँ कहिये कि सठिया गया है. सठियाये हुए क़ी सभी उपेक्षा करते हैं. 
     अब पंद्रह अगस्त हमारी उपेक्षा करता है...हम पंद्रह अगस्त क़ी करते हैं.
     पर हम दोनों को किसी क़ी तलाश आज भी है......जिसकी तलाश है वह मिल नहीं रहा.....कौन ले गया है उसे ? ......सब पता है....सबको सब कुछ पता है.....पर कोई कुछ कर नहीं पा रहा. कब दिन आयेगा कुछ कर पाने का ? 
  शैशवावस्था से अनायास ही वृद्धावस्था में पहुंचे हुए पंद्रह अगस्त को अपने अनदेखे बचपन, किशोरावस्था और युवास्था की तलाश है. उसे तलाश है उन लोगों की भी जिन्होंने उसकी उम्र के सुनहले पलों को आने से पहले ही अगवा कर लिया है . वह बड़ी उम्मीद और ललचाई दृष्टि से विदेशी बैंकों की ओर देखता है जहाँ इस देश का रक्त और स्वेद स्वर्णमुद्राओं में बंदी होकर सिसक रहा है. वह बड़ी निराशा से आर्थिक घोटालों और भारत के नैतिक पतन को होता हुआ देखने को विवश  है. सच पूछो तो पंद्रह अगस्त की विवशताओं का कोई अंत नहीं .  
  हमें भी तलाश है ........तलाश है उस स्वप्नफल की जो पंद्रह अगस्त के बाद हमें मिलना तय था, पर न जाने क्यों कभी मिल नहीं सका........बचपन से इस बुढापे तक की यात्रा में वह स्वप्नफल निरंतर और निरंतर दूर होता चला गया है. 
  कल सुबह जब ईसवी शताब्दी के दो हज़ार ग्यारहवें वर्ष के कैलेण्डर में पंद्रह अगस्त एक बार फिर हमें सोते से उठाने की कोशिश करेगा ......हम बड़े ही बेमन से उठेंगे ....एक सरकारी नाटक में शामिल होने के लिए ......एक ऐसा नाटक जो पिछले चौंसठ सालों से पूरी दुनिया को ठग रहा है . हमारा तंत्र एक बार फिर हमें मुस्कराकर तालियाँ बजाने और अपने विषादग्रस्त चेहरे पर मुस्कराहट का नकाब ओढ़ने के लिए विवश कर देगा. 
   निस्संदेह,  अब हम गुलाम नहीं रहे....किन्तु आज़ाद भी नहीं हो सके ........हम नहीं जानते कि इस स्थिति को क्या नाम दें  जिसमें कोई किसी को सरेआम पूरी निर्लज्जता से निरंतर लूटते रहने को स्वतन्त्र  रहता है. 
   इस देश पर लुटेरों का वर्चस्व है .....निर्लज्ज लुटेरों का वर्चस्व.... जिनके पास क़ानून बनाने का अधिकार है ...अपनी  सुविधा के अनुसार हमें लूटते रहने के अधिकार का क़ानून. 
    इनका बनाया तंत्र इनकी रक्षा करता है ...और वही हमारा सर्वनाश भी.....हम हमारा सर्वनाश होता हुआ देख रहे हैं....बड़ी पीड़ा .....और बड़ी खामोशी से. यह खामोशी हमारे जले पर नमक छिड़कती है और उन्हें देती है अभय का वरदान .
   हमारी हंसी खोयी नहीं है कहीं ......बल्कि सरेआम लूट ली जाती है रोज़. 
   कल सुबह जब हम मुस्कराएं तो समझ लेना कि यह भी हमारी विवशता है.