शनिवार, 18 जून 2011

ये आवारे ....

शायद पिछले वर्ष की ही बात है, एक दिन जगदलपुर में देखा कि आवारा कुत्तों को पकड़ने वाली गाड़ी आयी और शहर के बहुत सारे आवारा कुत्तों को बोरे में भर कर ले गयी. लोगों ने कहा कि नागालैंड की फ़ोर्स के लिए भोजन की व्यवस्था की जा रही है. बस्तर में नक्सलियों से निपटने के लिए पूरे हिन्दुस्तान से फौज आती रहती है...फिर कुछ महीनों बाद अपने कुछ साथियों को खोकर ...शरीर और मन पर कभी न मिटने वाले घाव लेकर वापस चली जाती है .......पर उनके जाने से पहले आ जाती है एक और नयी बटालियन .....फिर अपने कुछ साथियों को खोने और   अपने शरीर के कुछ अंगों को खोने की अलिखित शर्त पर. 
 मैं कुत्तों की बात कर रहा था ....आवारा कुत्तों की बात ....राष्ट्रीय कुत्तों की बात नहीं. राष्ट्रीय कुत्ते ! आप नहीं जानते ? अरे वही दो पैर से चलने वाले दोपाये ....देश को रसातल में ले जाने वाले. 
हाँ ! तो जगदलपुर के आवारा कुत्ते एक बड़े से बोरे में बंदी बनाकर ले जाए जा रहे थे .....उन्हें मालुम था कि अब उनके जीवन का अंत निकट ही है. बंदी भूरे कुत्ते का एक रिश्तेदार नागालैंड में है उसी ने भूरे को कभी यह बात बतायी थी कि वहाँ के लोगों को कुत्तों का मांस अधिक प्रिय है ...भूरे ने अगले दिन अपने सभी आवारा साथियों को बता दिया कि हम बस्तर के कुत्ते अधिक भाग्यशाली हैं ....पर उन्हें क्या पता कि एक दिन उनकी भी वही दुर्दशा होने वाली है. बोरे में बंदी कुत्तों के हलक सूख गए थे ...घिग्घी बंध गयी थी ...रोज बिना बात के यूं ही भौंकते रहने वाले कुत्ते अपनी आगत मृत्यु को सन्निकट जानकर भी चुप थे जैसे कि उन्होंने इसे अपनी नियत मानकर स्वीकार कर लिया हो. महाबदमाश कुत्ता मोती भी आज चुप था.....उसे अपने लिए नहीं वरन रहरह कर केवल झबरू के लिए दुःख हो रहा था. मात्र सात महीने का झबरू सबका प्यारा था. वह आवारा ज़रूर था पर बहुत ही सात्विक विचारों का था. उसे कभी किसी ने झगड़ते नहीं देखा था. आवारा किन्तु आदर्श कुत्ता झबरू ..........मोती की आँखें डबडबा आयीं .....अपने जीवन में पहली बार किसी के लिए आंसू बहाने वाला बदमाश मोती आज गंभीर था. कुत्ता कुल का दीपक झबरू आज हम लोगों के साथ अपना भी जीवन खोने जा रहा है. बीमार खजहे कुत्ते ने मोती की आँखों में आंसू देखे तो रहा नहीं गया ......दल के दादा की आँखों में करुणा और विवशता के आँसू.....खजहे ने अपना पंजा दादा की पीठ पर रखा -' क्या है दादा ?'  खजहे की शक्ल से चिढ़ने वाले मोती ने आज कोई प्रतिवाद नहीं किया. धीरे से बोला -' सब भाग्य का खेल है.  हमीं आवारे नहीं हैं. अम्बाला कैंट के टीन शेड पर पीढ़ियों से अड्डा जमाये पूरे प्लेटफ़ार्म को संडास बना देने वाले आवारा कबूतर और अनाज के बोरे के बोरे चट कर जाने वाले दादर रेलवे स्टेशन के आवारा मोटे चूहे भी तो हैं ...पर नहीं ...इन्हें तो आवारा के नाम पर सिर्फ हमीं नज़र आते हैं. ..अरे ! हम आवारा हैं तो क्या हमें जीने का हक़ नहीं है ? '......मोती फूट पड़ा.....उसकी आँखों से अविरल अश्रुधार बह चली. पूरा माहौल ग़मगीन हो गया. 
अचानक गाड़ी के ड्राइवर ने ब्रेक लगाई , झटके से रुकने के कारण सारे कुत्ते बोरे के अन्दर ही एक दूसरे के ऊपर लुढ़क गए. खजहा तो एकदम ही मोती के ऊपर जा गिरा. एक क्षण में मोती ने एक फैसला कर लिया. उसने सबके कान में कुछ कहा. सारे आवारा कुत्तों में अभूतपूर्व एकता का सूत्र निर्मित हो गया. गाड़ी का डल्ला खोला गया. एक दोपाये ने बोरे को खींच कर ज़मीन पर डाल दिया. झबरू की चीख निकल गयी. शायद उसे कहीं चोट लग गयी थी. झबरू की चीख ने मोती के गुस्से में घी का काम किया. अब उसने और प्रतीक्षा नहीं की ..गुप्त संकेत किया और पल भर में सारे आवारों ने मज़बूत बोरे के टुकड़े-टुकड़े कर दिए. जैसे ही बोरे का बंदी गृह टूटा मोती ने झबरू को भागने का आदेश दिया. पर वह अपने नेता को छोड़ कर जाने के पक्ष में नहीं था. इधर दोपायों में अफरा-तफरी मच गयी, वे लाठियां लेने दौड़े इस बीच मोती ने सबको भागने का हुक्म दिया.....सारे कुत्ते भाग खड़े हुए . सबसे पीछे मोती था ...जैसे कि सबको हाँक रहा हो. तभी पीछे से एक दोपाये ने लाठी के भरपूर वार में  अपनी सारी खीझ उड़ेल दी ..... और पहले वार में ही मोती ढ़ेर हो गया...एक हृदयविदारक चीख के साथ मोती लुढ़क गया. पर मरते समय उसे संतोष था कि उसने अपने सारे साथियों को बचा लिया. 
दोपाये खुश हो गए ...आज के भोजन की व्यवस्था हो गयी थी.                   

शनिवार, 11 जून 2011

क्या करूँ ! सहन नहीं होता .....

 समाधान

बैठक के अध्यक्ष 
बहुत गंभीर दिखे .........
समस्या को 
जीवित बनाए रखने के उपायों पर.   
बैठक का नाम था 
"समस्या उन्मूलन" 

वादे

महत्वपूर्ण होते हैं 
केवल वे 
जो तोड़ दिए जाते हैं 
पूरा करने की 
शुरुआत किये बिना. 

ताकि परम्परा बनी रहे 

घर में 
मालिक की मौजूदगी में  
कोई शरीफ  
चोरी करे ...
झगड़ा करे ...
नंगा नाचे .....नगाड़े बजाये 
और मालिक को पता न चले 
यकीन मानो 
ऐसे मालिक को होना ही चाहिए 
भारत का प्रधानमंत्री    


राजनीति में 


ज़रूरी है 
समझौते करना 
पर कतई ज़रूरी नहीं है 
उन पर अमल करना.


शत्रु-मित्र


राजनीति में कोई शत्रु नहीं होता 
अर्थात मित्र होता है 
राजनीति में कोई मित्र नहीं होता 
अर्थात शत्रु होता हैं 
इन दोनों का अर्थ है 
कि राजनीति में 
कोई किसी का कुछ नहीं होता. 


लोकपाल बिल 


अन्ना के बिना ही 
बना लेंगे वे 
ताकि पलते रहें कुछ लोग 
'लोक' की आँखों में धूल झोंकते हुए .


सरकार 


पहले बाबा की आवभगत
फिर भगाने की जुगत
संग में भक्तों को चपत 
कितना प्रपंची है यह जगत ! 


जनता 


तमाशबीन है 
मामला संगीन है 
उसने कभी गवाही नहीं दी 
( देने के नाम पर वह सिर्फ वोट देती है  )
क्योंकि उसे 
किसी चमत्कार की उम्मीद है..






रविवार, 5 जून 2011

एक और जलियाँ वाला ......क्या यह इतना आवश्यक था ?

    
     देश का धन वर्षों से प्रवासी जीवन जीने को अभिषप्त है.  इधर, विकास के नए-नए आंकड़े सामने आ रहे हैं. मंत्री और सचिव अपनी पीठ थपथपा रहे हैं. और देश का आम आदमी शुद्ध जल की तो छोड़िये मध्य-प्रदेश के बुंदेलखंड में तो अशुद्ध जल की भी एक बूँद के लिए तरस रहा है.......देश के कई प्रान्तों में सबकी भूख मिटाने वाला किसान आत्म ह्त्या कर रहा है. देश का विकास अपने तरीके से चल रहा है और ऐसे में भ्रष्टाचार के विरुद्ध पहले अन्ना हजारे और फिर बाबा रामदेव बड़े सशक्त तरीके से सरकार के विरुद्ध खुल कर खड़े हो गए. किसी अवतार की प्रतीक्षा में युगों से प्रतीक्षारत भारत की जनता ने राहत की सांस ली......अब ज़ल्दी ही कोई चमत्कार होने वाला है. 
      कल ख्रीस्त की इक्कीसवीं शताब्दी के द्वितीय दशक के प्रथम वर्ष की चार जून का दिन भारत के लोकतंत्र का एक और ऐतिहासिक दिन बन गया. दिल्ली के रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के विरोध में और देश का धन वापस देश में लाने को लेकर सत्याग्रह में सम्मिलित होने देश भर से आयी, अर्धरात्रि में निहत्थी सो रही जनता से अचानक दिल्ली की सरकार को क़ानून-व्यवस्था पर खतरा मंडराने का खतरा दृष्टिगत हुआ. सरकारी हुक्म हुआ और रात में लगभग पांच हज़ार पुलिस के ज़वान जिनमें रैपिड एक्शन फ़ोर्स के जवान भी शामल थे सोयी हुयी जनता पर बर्बरता का कहर बरपाने पहुंच गये . स्त्री वेश में छिप कर बाबा को अपने प्राण बचाने पड़े. कई लोग घायल हुए ....जिनमें महिलायें और बच्चे भी थे. इस पूरे प्रकरण में सबसे शर्मनाक कार्य पुलिस का रहा. पुलिस विभाग में नौकरी करने के इच्छुक मेरे बेटे ने (उसने बचपन से यह सपना संजोया हुआ था ) आज इस घटना के बाद ऐलान कर दिया कि अब वह पुलिस विभाग में नौकरी नहीं करेगा.....जिस विभाग के उच्चाधिकारी इतने संवेदनशून्य और विवेकहीन हैं कि वे सही गलत का वैसा निर्णय भी नहीं कर पाते जैसा १८५७ में ब्रिटिश फ़ौज के भारतीय सिपाहियों ने किया था तो ऐसे सरकार परस्त विभाग में जाकर वह देश की जनता के साथ विश्वासघात करने का पाप नहीं करना चाहता. 
      बाबा के आन्दोलन की सफलता-असफलता और उनकी रणनीति पर टिप्पणी करने का समय नहीं है.जीत किसकी हुयी सरकार की या बाबा की ...इस पर भी मैं कुछ नहीं कहूंगा. अभी तो समय है देश के कुछ कर्णधारों की बतकही पर बतकही का. 
       तो पहले कर्णधार हैं दिग्विजय सिंह जी जिन्होंने बाबा को ठग की उपाधि से मंडित किया. उन्होंने बाबा की डाक्टरी विद्या पर भी प्रश्न उठाये. ....योग से कैंसर ठीक करने के दावे का परिहास किया गया (बाबा ने कई बार कहा है कि मैंने ऐसा दावा कभी नहीं किया )
        .......पर एक प्रश्न उठता है कि जब सरकार के एक आला नेता ने बाबा के खिलाफ इतने संगीन आरोप लगाए हैं तो उनके पास इसके प्रमाण भी होंगे. उन्होंने बाबा के योग शिविरों के विरुद्ध अब तक कोई प्रतिबंधात्मक कार्यवाही क्यों नहीं की ? दूसरी बात,  पूरे देश में सड़क किनारे बैठ कर नामर्दगी, लकवा और न जाने कौन-कौन सी बीमारियाँ ठीक करने का दावा करने वाले खानदानी शफाखाने वाले वैद्यों पर सरकार ने अभी तक कोई कार्यवाही क्यों नहीं की ? मजे की बात यह है कि इन शफाखाने वालों से आमआदमी से लेकर बड़े-बड़े अधिकारी और नेता तक नामर्दगी और हाज़मे की दवाइयां ऊंची कीमत पर खरीदते हैं. संयोग देखिये कि नेताओं के खराब हाज़मे और नामर्दगी का सबसे बड़ा प्रमाण कितना सहज सुलभ है !
        अगले कर्णधार हैं कपिल सिब्बल जी ! कल दिल्ली के रामलीला मैदान में जो स्वतन्त्र भारत का प्रथम जलियाँवाला काण्ड हुआ उसके सन्दर्भ में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया कि हम तो शठे शाठ्यम समाचरेत वाले हैं, शठ के साथ शठ जैसा व्यवहार किया गया है. हमारे क़ानूनदां नेता अफजल गुरु और कसाब के मामले में भी यही नीति अपनाते तो कितना अच्छा होता ? देश और मानवता के इन शत्रुओं पर प्रति दिन व्यय किया जाने वाला खर्च, जो कि इस देश की जनता की गाढ़ी कमाई का एक हिस्सा है, बचता.....और जिसका उपयोग देश के शहीदों की विधवाओं और उनके बच्चों की शिक्षा पर खर्च हो पाता....क्योंकि उनके हिस्से का पैसा तो ये लोग अपने व्यक्तिगत विकास में निर्लज्जता पूर्वक खर्च कर लेते हैं. सिब्बल बोले कि बाबा ने देश और सरकार को धोखा दिया है इसलिए उनके साथ जो हुआ वह उचित है. पर सरकारों में तो न जाने कितने ऐसे लोग हैं जो वर्षों से देश को धोखा देते आ रहे हैं ...उनके खिलाफ भी कुछ होना चाहिए था...पर नहीं हुआ. 
        सुबोध कान्त सहाय ने फरमाया कि बाबा की सारी बातें मान ली गयी थीं पर बाबा ने हठ करके आन्दोलन जारी रखा इसलिए उनके साथ ऐसा (कसाब जैसा नहीं ) बर्ताव करना सरकार की विवशता हो गयी थी. बाबा के मन में क्या है वह बाबा जानें ...पर सरकार के मन में क्या है वह तो सारा देश जान चुका है. लोकपाल बिल के  प्रकरण में पूरे देश ने सरकार की नियत को देख लिया है. पिछले दो वर्षों से बाबा काले धन की बात कर रहे हैं. उनके सत्याग्रह की प्रतीक्षा क्यों की गयी ? इस प्रश्न का उत्तर सरकार का कोई भी आदमी नहीं दे सकेगा. उन्होंने बाबा का काले धन वाला एजेंडा बड़ी चतुराई से चुराने (उचित शब्द है 'छिनाने' ) का असफल प्रयास भी किया - यह कहकर कि "यह तो सरकार का और सोनिया जी का एजेंडा है, बाबा करें या न करें सोनिया ज़रूर करेंगी". भाई वाह ! क्या बात है सोनिया जी और सरकार जी ! पर अभी तक यह एजेंडा कहाँ था ? इतने वर्षों में अभी तक इस अत्यंत ज्वलनशील राष्ट्रीय महत्त्व के विषय पर मौन क्यों छाया रहा ?  
   हम न तो बाबा जी है और न नेता .....एक आम आदमी हैं. हम राजनीति की कुटिल चालों को नहीं जानते ( और न जानना चाहते हैं ),.....मंत्रियों के मिथ्या आश्वासनों के कटु सत्य को जानते हैं ...और यह भी जानते हैं कि सरकार निर्वस्त्र खड़ी है....क्योंकि उसकी व्यवस्था पूरी तरह सड़ी-गली है.