शनिवार, 28 जनवरी 2012

तुमायी सौं ....

"ए सखी ! सुन्यो हे बसंत आय गयो .....जे देखो ....आम के पेड़ में बौर कैसो झूम रयो ए....."
"मोय तो लगे तू भी बौराय गयी ए.......जे आम को पेड़ नाय ए ........"
"हाय दइया...तौ का मैं बाबरी है गयी ........"
" और नइ तो ...... जे तो बस्तर में चिरौंजी को पेड़ बौरायो ए  ......चल छोड़ ....तू  तो जे गीत को मजो लैले ....    

हरो घाघरो पीली चुनरी पीलो गजरो 
मौसम ने लै लई अंगड़ाई छाँट्यो कोहरो....
छाँट्यो कोहरो तुमायी सौं ह्वै गयो बेसुध मैं नाच्यो झूम-झूम के.

गोरी को नयो-नवेलो मीत, पगड़ी सर पे बांधे पीत 
नैन सों झरैं प्रीत के गीत.....
झरैं प्रीत के गीत तुमायी सौं ह्वै गयो बेसुध मैं गायो झूम-झूम के.

कोयल मस्ती में कूके, हवा ने कान हैं फूके 
भ्रमर अब काहे को चूके........
काहे को चूके तुमायी सौं ह्वै गयो बेसुध मैं आयो झूम-झूम के.

बचैगो ना कोऊ प्यासो, निकल कें बाहर तो अइयो
संदेसो कलियन ने भेज्यो ....... 
कलियन ने भेज्यो तुमायी सौं ह्वै गयो बेसुध मैं झूम्यो झूम-झूम के.

हुलस के झांकएँ तेरे अंग, टपके अंग-अंग मकरंद 
आजा तोय लगाय लऊँ अंग........ 
तोय लगाय लऊँ अंग तुमायी सौं ह्वै गयो बेसुध मैं पी ल्युं झूम-झूम के. 



चिरौंजी

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

...इसलिए चुराई पत्थरों ने धूप



पर्शुकाओं के प्राचीर में दबे हृदय की पीड़ा को सुनते रहने का अभ्यस्त हूँ .....इसलिए सोचा चलो......आज पत्थरों की धड़कन सुनते हैं और पता लगाते हैं क्यों चुराते हैं ये पत्थर ज़रा सी धूप ? किन्तु पहले इस नगर को देखिये ......यह है कलचुरी वंश के राजाओं की राजधानी कांकेर. इसी नगर के पार्श्व में स्थित है गढ़िया पहाड़ जहाँ आज मैं जा रहा हूँ .....पत्थरों से बातें करने ....उनकी धड़कनों को सुनने....


गढ़िया पहाड़ से कांकेर नगर का विहंगम दृश्य 


.........तो मैं पहुँचा इन पत्थरों के पास........ बैठकर बहुत देर तक गुफ़्तगूं की.....कुछ उनकी सुनी ...कुछ अपनी कही.....कान लगाकर उनकी धड़कने भी सुनीं .....धड़कनें क्या सुनीं, मैं तो हैरान रह गया...उफ्फ़ ! इतना दर्द .....
लीजिये,  आप भी सुनिए,  इन धड़कनों ने क्या कहा मुझसे ....  
"मेरी आँखें ...मेरा शरीर ....सब कुछ पाषाण हो गया है .....सब देख-देख और सह-सह कर. किन्तु आश्चर्य ! हृदय भर पाषाण नहीं हो पाया...वह भी हो जाता तो इस पीड़ा से मुक्ति मिल जाती मुझे. मनुष्य मनुष्य के प्रति इतना कठोर और निर्मम कैसे हो जाता है ...यह हम पत्थर आज तक नहीं समझ पाए. राजतंत्र में राजाओं की निरंकुशता ...उनकी कठोरता...निर्ममता और अत्याचारों के प्रमाण जो अंकित हो चुके हैं हमारे शरीर पर वे क्या मिट सकेंगे कभी ? ...काश मिट पाते कभी ! ......आज भी हमारे हृदय पटल पर अंकित हैं वे सारे दृश्य ......अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए राजबंदियों की निर्ममतापूर्वक हत्याओं के न केवल साक्षी रहे हैं हम अपितु भागीदार भी रहे हैं ......."
मैंने आश्चर्य से पूछा- "आप और हत्याओं के भागीदार ...?"
उस विशाल काले पत्थर ने एक दीर्घ निःश्वास लेकर कहा -"हाँ ....हत्याओं के भागीदार .....किन्तु सच मानिए ....यह भागीदारी हमारी विवशता थी ...हमने कभी ऐसी निर्ममता का समर्थन नहीं किया .....न चाहकर भी हमें न जाने कितने राजबंदियों की यातनापूर्ण मृत्यु का कारण बनना पड़ा है................."
गढ़िया पहाड़ मौन हो गया .....उसका मौन पूरे पहाड़ पर पसर गया .....जैसे कोई घायल रोगी कराहते-कराहते अचानक मूर्च्छित हो गया हो .....
मैंने बूढ़े शैल खंड से पूछा ".....किन्तु आप मृत्यु के कारण कैसे बन गए  .....?"
उसने कहा -"उधर देखो ...उस शैल खंड को देख रहे हो .....न जाने कितनी बार ...न जाने कितने राज बंदियों को वहीं से नीचे फेके जाने का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ मैं ......नीचे कठोर पत्थरों से टकराकर उनकी भयानक चीखों को सुना है मैंने ....... उनके शरीर से बहते हुए लहू से हमारे भी हाथ रंगे हुए हैं .............भय से आँखें फाड़-फाड़ कर मैंने देखा है उन्हें तड़पकर मरते हुए .......राज सैनिक तो फेक कर जीवित राजबंदी को चले जाते थे अपने घर .....और मैं देखता रहता था उन्हें तड़पता हुआ ...मरता हुआ ....."
मैंने कहा  - "किन्तु मैं तो धूप चुराने की बात पूछ रहा था आपसे ..."

बूढ़े ने कहा- " हाँ मैं भी वही बात कह रहा हूँ ....तुम समझते हो कि हम धूप चुराते हैं......नहीं .....हम प्रायश्चित करते हैं उस निर्मम पाप में अपनी सहभागिता के पाप का प्रायश्चित ....रोज कुछ देर के लिए धूप को अपने पास बुला लेते हैं ....उसकी किरणों के ताप से अपने मन के संताप को निर्मल करने का प्रयास भर करते हैं हम ......बस और कुछ नहीं ...और आप समझते हैं कि हम धूप को चुराते हैं .......... "
बूढ़े पहाड़ की बातों से मुझे अपनी सोच पर हीनता का अनुभव हुआ ......पहाड़ कठोर होते हुए भी कितने निर्मल होते हैं ......

यही है वह शिलाखंड जहाँ से राजबंदियों को जीवित ही नीचे फेक दिया जाता था .......
यहाँ से फेके जाने के बाद कोई भी राजबंदी जीवित बच सकता है भला ! 




यह रहा इसका प्रमाण ....


इन सब प्रमाणों को एकत्र करते समय सारा ध्यान कैमरे और दृश्य पर होने के कारण एक बार यहाँ उगी इस सूखी घास पर से संतुलन बिगड़ने के कारण गिरते-गिरते बचा.....बच गया ..पता नहीं कैसे .....सूखी घास पर आपके जूते फिसल सकते हैं ...शायद यही बताने के लिए.... 



............यदि गिरता ...............................तो नीचे ये शैल समूह हमारे स्वागत के लिए तैयार बैठे थे. 
इसके बाद तो पूर्ण विराम लगना ही था. 

रविवार, 22 जनवरी 2012

सुना है, कुछ पत्थरों ने चुरा ली.... एक टुकड़ा धूप ...

ये रहे वो पत्थर ....


नीलगात आकाश ने झाँककर कहा, चलो हम ढूँढते हैं....कहाँ है धूप ....


कहीं यहाँ तो नहीं .....


अन्दर प्रवेश कर देखते हैं .....


नन्हीं धूप का वह रहा एक  टुकड़ा ....


चलिए न ! कुछ और समीप से देखते हैं ....


हाँ हाँ ...यही तो है ....
पर भला, पत्थरों ने क्यों चुराई धूप .....? पता तो लगाना ही पड़ेगा न! ...... 

सभी चित्र कांकेर के गढ़िया पहाड़ के हैं ...

चलो चलें भगवान बाबर की औलादों का नाटक देखने .... जुहू के इस्कॉन मंदिर में ...




प्रिय बंधुओ ! 
आगामी गणतंत्रदिवस के दिन मुम्बई में जुहू स्थित हरे कृष्ण चेतना अन्तर्रष्ट्रीय संगठन (इस्कॉन) के मंदिर प्रांगण में सलमान खुर्शीद लिखित नाटक "बाबर की औलादें" का मंचन होने जा रहा है. इस नाटक में बाबर के वंशजों को महिमा मंडित किया गया है. 
    घोर चिंतन-मनन के पश्चात् भी ऐसा कोई भारतीय चरित्र नाटक नहीं प्राप्त हो सका जिसका मंचन किया जा सकता अस्तु "बाबर की औलादें" नामक महान नाटक का मंचन किया जाना तय हुआ.

  भारतीय गणतंत्रदिवस दिवस के दिन बाबर को महिमा मंडित करने का विचार भारतीय नेताओं का एक अद्भुत, अनूठा और महान  प्रयास है. इस महान नाटक के महान लेखक सलमान खुर्शीद साहेब से हमारा अनुरोध है कि वे एक-एक नाटक चंगेज़ खान, मोहम्मद गौरी और महमूद गज़नवी पर भी लिखने की कृपा करें जिससे उन्हें महिमा मंडित किया जा सके.....भारत पर उनके उपकारों की एक सूची सभी कार्यालयों में लगाई जानी चाहिए ताकि भारत के लोग उनसे प्रेरणा ले सकें. राष्ट्रीय महत्त्व के अवसरों पर विश्व के इन महानायकों के नाटकों का मंचन अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए. संस्कृत को मृत भाषा घोषित करने के उपायों पर भारत शासन विचार कर ही रही है. अब हमारा यह अनुरोध है कि कालिदास, भवभूति और वाणभट्ट जैसे भारतीय मूल के लोगों के साहित्य पर भी  प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए ...इनके साहित्य से भारत में साम्प्रदायिक सौहार्द्य समाप्त होने की पूरी-पूरी संभावना है. सभी भारतीय बंधुओं से आग्रह है कि २६ जनवरी को मुम्बई पहुँच कर इस्कॉन मंदिर परिसर में पहुँचकर बाबर वान की औलादों का महिमा मंडन देखने की कृपा करें और अपना जीवन धन्य बनाएं. बड़ा पुण्य मिलेगा ...इस महान अवसर का लाभ अवश्य उठायें. भारत के महानाटककार सलमान खुर्शीद जी की जय !!!   



शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

माओवाद



             
            भारत की धरा पर हर कोई लिखता सफ़रनामा 
आया प्रेत 'माओ' का, यहाँ अब होश में चलना. 
कभी गौरी, कभी गज़नी, कभी बाबर ने है लूटा 
कभी चंगेज ने काटा, कभी अंग्रेज ने लूटा. 
गौतम बुद्ध के घर में, हैं बहती खून की नदियाँ 
सहम कर देखते हैं सब, तड़पना और मर जाना. 
माओवाद के सुर में, जहाँ रोकर भी है गाना 
पता बारूद की दुर्गन्ध से तुम पूछ कर आना. 
बिना दीवारों का कोई किला ग़र देखना चाहो 
तो बस्तर के घने जंगल में चुपके से चले आना. 
धुआँ बस्तर में उठता है तो बीज़िंग से नज़र आता 
हमारे खून से लिखते हैं माओ का वे अफसाना.
वे लिख दें लाल स्याही से तो ट्रेने भी नहीं चलतीं 
कंटीले तार के भीतर डरा सहमा पुलिस थाना. 
ड्रेगन के इशारों पर कभी रुकना कभी चलना 
यहाँ तिल-तिल के है जीना यहाँ तिल-तिल के है मरना. 
यहाँ इस देश की कोई हुकूमत है नहीं चलती 
कि बंदूकों से उगला हर हुकुम सरकार ने माना. 
यहाँ जंगल धधकते हैं, वहाँ बादल बरसते हैं 
ये बादल मौसमी इनको गरज कर है गुज़र जाना. 
जो रखवाले थे हम सबके, वे अब केवल उन्हीं के हैं 
नूरा कुश्तियों में ही ये बंटते अब खजाने हैं. 
हमने ज़िंदगी ख़ुद की ख़रीदी तो बुरा क्या है 
यहाँ सरकार भी उनको नज़र करती है नज़राना. 
वो मंगल के बहाने से दंगल करने आते हैं 
जंगल को निगल कर वो हमें कंगाल करते हैं.
ये कैसी रहनुमाई है, ये कैसी बदनसीबी है 
जी भर खेलना मुझसे, कुचलकर फिर चले जाना. 
तन के ग्राहकों ने कब किसी के मन को है जाना 
ये बस्तर है यहाँ केवल हमें खोना उन्हें पाना. 
भरत का मर गया भारत, इसे अब इंडिया कहना 
लहू भी बन गया पानी, ये दुनिया भर ने है जाना. 
चबाकर जी नहीं भरता,  भरता पीढ़ियाँ खाकर 
सुना है इंडिया ही है, बिछाती रात का बिस्तर. 
सिसकता रात-दिन भारत, इंडिया मुस्कुराती है 
शरण जब माँगते हिन्दू, इंडिया खिलखिलाती है.
धर्म ने देश को बांटा, मगर फिर भी वो प्यारा है 
जिताने को चुनावों में, वही तो एक सहारा है. 
चलो एक बार फिर से हम, उन्हें कुछ और हक देदें 
ये भारत जो बचा इतना, टुकड़े कुछ और फिर कर दें. 
जो आये थे लुटेरे बन, वो हक़ से अब यहीं रहते 
किरण से माँगते हैं अब, अँधेरे भी हलफ़नामा. 
कभी इतिहास लिखना हो, तो इतना काम कर लेना  
तुम, ढूँढते हुए हिन्दू , किसी टापू में आ जाना. 

फिलहाल अवतार लेने का प्रोग्राम केंसिल ...


    क्षीरसागर में शेष नाग की शैय्या पर अपने सम्पूर्ण गात को खुजाते हुए विकल भाव से विष्णु जी चिंतामग्न बैठे थे. मन में किंचित क्रोध भी था - इन मनुष्यों के लिए कितना भी करो पर ये तो मुझे भी नहीं छोड़ते आजकल. यूरिया वाला नकली दूध क्षीर सागर में चढ़ा-चढ़ा कर पूरा सागर ही सत्यानाश कर दिया. अब हो गयी न मुझे भी डर्मेटाइटिस .....अश्विनी कुमारों की कोई दवा भी लाभ नहीं कर रही....वहाँ भी तो खाद डाल-डाल कर सब विषाक्त कर रखी हैं सारी वनस्पतियाँ और औषधियाँ ..... 
लक्ष्मी जी ने मेड इन ज़र्मनी वाला एक होम्योपैथिक इम्पोर्टेड मलहम उनके शरीर पर लगाते हुए पूछा-
"तो उस बारे में आपने क्या सोचा ?"
"किस बारे में ?"
"वही....... यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ......."  
"देवी ! जाना तो पडेगा ही .....भारत में पापाचार सारी सीमाएं लांघ चुका है ....पूरे कुएं में भांग डाल दी है किसी ने.  भारत का मनुष्य स्वशासित और आत्मनियंत्रित होता तो क्या बारम्बार अवतार लेना पड़ता मुझे........."
जगत के पालनकर्ता विष्णु ने बड़े ही दुखी मन से लक्ष्मी जी को अपनी व्यथा सुनायी. 
"देखो ! अन्ना और रामदेव से मैंने कहा था कि कुछ प्रयास करें...उन्होंने लोगों को एक सूत्र में बांधने का किंचित प्रयास किया भी पर ......."
विष्णु जी भारी मन से चुप हो गए तो लक्ष्मी जी ने पूछा- 
"पर क्या स्वामी ?"
एक ठंडी सांस लेकर प्रभु बोले -
".....पर सब टायं टायं फिस्स हो गया....भ्रष्टाचार लेश भी कम नहीं हुआ ....लोकपाल बिल की प्रतीक्षा क्यों कर रहे हैं लोग ? क्या नियंत्रण की वल्गा खींचे बिना और दंड का अनुशासन थोपे बिना भ्रष्टाचार समाप्त नहीं किया जा सकता ? भ्रष्ट कौन है ? क्या केवल  सिब्बल, चिदंबरम और राजा आदि लोकतंत्र के देवगण ही ? जन साधारण को सत्य मार्ग पर चलने की आवश्यकता नहीं ?...
देवी ! मैं तो देख रहा हूँ कि भारत का जन-जन भ्रष्ट हो चुका है ......जन साधारण इस भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा पोषक हो गया है. कोई इसे समाप्त नहीं करना चाहता ..न जनता ...न कांग्रेस  ...न भाजपा ...सब बनाए रखना चाहते हैं इसे ......जो विरोध कर भी रहे हैं...वे भ्रष्टाचार का नहीं ..बल्कि केवल सत्ता दल का ...अन्यथा ये दुग्ध्स्नात भाजपा वाले कुशवाहा को अपनी मांद में घुसने ही क्यों देते ?"
लक्ष्मी जी मुस्करायीं -
" हे दयानिधि ! इतने चिंतित मत हों. तृषित को अपना मार्ग अन्वेषित करने दें ....यह भारत है ..यहाँ का जन समुदाय बड़ा ही ढीठ और विचित्र है. यहाँ तो विरोध मात्र इसलिए किया जाता है कि वह स्वयं अवसर से वंचित है. लोग किसी बात का विरोध तब तक ही करते हैं जब तक कि कोई अलभ्य लाभ उसे प्राप्त नहीं हो जाता. प्राप्त होते ही विरोध समाप्त हो जाता है. यहाँ लोग उत्कोच का विरोध देते समय करते हैं लेते समय नहीं ......है न विचित्र ....  मैं तो यही समझ सकी हूँ कि आपको भ्रष्टाचरण के प्रति नहीं अपितु भारतीयों के विचित्राचरण के प्रति चिंतित होना चाहिए प्रभु !"
विष्णु जी हतप्रभ हुए ...आज देवी ने यह कौन सी नयी समस्या का विमोचन कर दिया .........प्रकट में बोले -
"विचित्राचरण कैसा देवी !"
देवी पुनः मुस्करायीं, उनकी मुस्कराहट में एक आकर्षण था ....एक सम्मोहन था ....एक रहस्य था. प्रभु कई बार इस मोहनी के भंवर में पड़ कर अपना संतुलन खो चुके थे. देवी ने कहना प्रारम्भ किया -
" जैसे कि आप कुछ  जानते ही नहीं .......अभी ही देख लीजिये न .....चुनाव की बेला आते ही लोग एक-दूसरे के छिद्रान्वेषण में जुट जाते हैं...प्रजा को एक दिन आभास होता है कि यह वाला ठीक है वह वाला भ्रष्ट है...अगले ही दिन आभास होता है नहीं यह वाला भी भ्रष्ट है यह तीसरा वाला ठीक है ...और इस तरह वह एक अनंत भूल भुलैया में फंस कर रह जाता है. सब एक से एक छलिये. मायावती की यात्रा एक झोपडी से प्रारम्भ होकर स्कूल मास्टरनी से होते हुए राज सिंहासन तक पहुँच गयी ..इस बीच यह मायाविनी स्त्री कोटि कोटि मुद्रा की स्वामिनी बन गयी. यह कौन सी जनसेवा है जिसे करते करते लोग इतने संपन्न हो जाते हैं कि सेवा पाने वाला तो वहीं का वहीं रहता है और सेवा करने वाला देव लोक के समस्त सुखोपभोग का अधिकारी हो जाता है. किन्तु नहीं ...यह मुझे नहीं कहना चाहिए यह तो विचित्राचरण वाली भारतीय प्रजा को सोचना और पूछना चाहिए ...."
प्रभु बोले-
"आप का कथन सर्वथा सत्य है प्रिये ! तृषित को जलाशय का मार्ग स्वयं अन्वेषित करना चाहिए ....बारम्बार अवतार लेकर कहीं मैंने भी तो उन्हें मक्कार और पराश्रयी नहीं बना दिया ?"
दो सेंटीमीटर वाले स्मित हास्य से लक्ष्मी जी ने कहा -
" अब आपका चिंतन सही मार्ग की ओर हो रहा है प्रभु ...आपका संदेह सत्य है ...बारम्बार अवतार लेकर आपने भारतीयों को मक्कार बना दिया है ...शेष कुछ क्रियाशीलता रही भी होगी तो उसे  भारतीय संविधान के आरक्षण ने निष्क्रिय कर दिया. देखिये न प्रभु ! दुबई में तो इतना भ्रष्टाचार नहीं है .....कौन गया था सुधारने ? अमेरिका और यूरोप में भी तो भारत जितना नहीं है न ! वहाँ तो कभी नहीं गए आप...किसने सुधारा ......स्वनियंत्रण और आत्मानुशासन वहाँ के लोगों ने कैसे सीखा ......? हे प्रभु ! भारत के प्रति आपके मोह ने ही इन लोगों को बिगाड़ कर रख दिया है ......अब कभी मत जाइयेगा वहाँ......"
प्रभु मुस्कराए -
"ठीक है..... मैं वचन तो नहीं देता ...किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि आपके तर्कों का सम्मान किया जाना चाहिए."
" तो प्रभु ! क्या मैं इसका अर्थ  यह लगा सकती हूँ कि अभी फिलहाल अवतार लेने का प्रोग्राम केंसिल ...?" 
प्रभु मुस्कराए, "देवी ! यह इम्पोर्टेड मलहम कब मंगवाया ? लगाते ही लाभ होने लगा .....अश्विनी कुमारौ ऐसा मलहम क्यों नहीं बना पाते ?"           
      

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

हुंह........ ऐसे थोड़े ही चलता है



1- तंत्र की बाध्यता 

कपड़े 
कितने भी ख़ूबसूरत क्यों न हों 
चौबीसों घंटे नहीं पहन सकते आप.
उतारने ही पड़ते हैं 
कभी न कभी... 
अपनी-अपनी सुविधानुसार 
और तब 
कोई नहीं रह जाता  
उतना सभ्य
जितना कि वह दिखता था 
अब से पहले.


२- प्रेम ....  


मैं इनवर्टेड कॉमा नहीं
जो लिस्बन से चलकर
खजुराहो में आकर दफ़न हो जाऊँ.
आग लगाने के लिए 
अर्ध विराम क्या कम है ?
गौर से देखो  .... 
मैं डैश-डैश हूँ ......
यहाँ  
कभी विराम नहीं होता. 


3- साल 


क्या ?
नया साल फिर आ गया ?
अपना वो पुराना वाला किधर है ...
मुझे तो वही देदो 
बड़ी जतन से 
उसमें कुछ पैबंद लगाए थे मैंने 
नए साल में वही दोहरकम कौन करे! 


४- नेता के आंसू 


ए समंदर !
तुझसे कितनी बार कहा है .....
दो बूँद 
उसे भी क्यों नहीं दे देता 
बेचारे को 
ग्लिसरीन से काम चलाना पड़ता है. 


५- ये तो होना ही था.....


यूनीवर्सिटी लवली 
स्टूडेंट लवली 
बातें लवली 
कपड़े लवली 
स्टाइल भी लवली. 
सुना है, 
जालंधर में 
लवली ने कोर्ट मैरिज कर ली है.


६- डिग्री 


छात्र को यूनिवर्सिटी ने दी 
यूनिवर्सिटी को यू.जी.सी. ने दी
यू.जी.सी. को पैसे ने दी 
पैसे सेठ जी की जेब में थे 
जो अब खाली है 
जेब फिर से भर गयी है.
इस पूरे धंधे में 
फैकल्टी कहीं नज़र नहीं आ रही. 


७- सवाल-जवाब  


जंगल में गाँव 
गाँव में कॉलेज 
कॉलेज में देश का 'भविष्य' 
यह 'भविष्य' अपने वर्त्तमान से चिंतित है
रोज भीख माँगता है...
"भगवान के नाम पर एक अदद शिक्षक का सवाल है माई-बाप".
.........................
हुंह........ 
ऐसे थोड़े ही चलता है 
हर चुनाव से पहले 
एक ही माँग पूरी करने का विधान है.


८-  उपनाम 


मेरे पिता जी उपाध्याय लिखते हैं 
मैं मिश्र लिखता हूँ  
मेरी पत्नी चतुर्वेदी लिखती है 
मेरी बेटी चटर्जी लिखती है 
मेरा बेटा बनर्जी लिखता है 
मेरा कुत्ता शर्मा लिखता है 
मेरी बिल्ली तिवारी लिखती है 
मेरा तोता पाण्डेय लिखता है 
मेरे दादा जी क्या लिखते थे 
यह नहीं बताऊँगा 
बस, इतना जान लो 
कि हम लोग 
अनुसूचित जाति वाली सुविधाओं के सुपात्र है 
खबरदार ! जो कभी मुझे भंगी कहा.


९- जाति 


स्कूल में 
जाति लिखना अनिवार्य है तो क्या हुआ.
इस अभिशाप से मुक्ति का सरलतम उपाय तो है 
ऐसा करते हैं ....
ब्राह्मणों और राजपूतों के उपनाम लूट लो 
यह अभिशाप दूर हो जाएगा.
उपनाम का डाका वरदान बन जाएगा. 
शादी के बाद लड़की को बता देंगे 
कि दरअसल 
यह तो एक आदर्श 
इंटरकास्ट मैरिज थी.







ये वो नन्हें फूल हैं जो ......



मैं हूँ छुटकी ...

और मैं हूँ बड़की .....


बच्चे मन के सच्चे .....सारी जग की आँख के तारे
ये वो नन्हें फूल हैं जो भगवान को लगते प्यारे .....
छोटे से कांकेर के नन्हें से पार्क में इन बच्चों को देखा तो सत्तर के दशक के गाने की उपरोक्त पंक्तियाँ याद आ गयीं


  अंकल ! इस छोटू को तो मुस्कराना भी नहीं आता ...चलो मैं ही खींच देता हूँ इसके होठ .....


मेरा तो समय हो गया पढ़ाई का .....

और मेरी पढाई का वक़्त ? 
शायद अब कभी नहीं आयेगा ........

मालुम है .....बच्चों की फेहरिश्त में अपना नाम जुड़वाने और अपना फोटो छपवाने के लिए मुझे कितने पापड़ बेलने पड़े हैं .......यह सफलता यूँ ही नहीं मिली है मुझे......
मेरा नाम याद है न ! लोग मुझे बूज़ो कहते हैं .....कुछ लोग मुझे बदमाश भी कह कर पुकारते हैं ..........क्या मैं आपको बदमाश जैसा दिखता हूँ ?  





सोमवार, 16 जनवरी 2012

गोंड आदिवासियों का पूस कोलांग नृत्य महोत्सव


हे आदिवासी ! 
तेरे पास खोने के लिए क्या है ?
जल-जंगल-जमीन ...जो कभी तेरी थी 
आज वह पराई हो गयी है.
सोना, चांदी, धन-दौलत, मोटर-गाडी. बंगला-हवेली तेरे पास है नहीं
तेरी प्राकृतिक संपदा और मौलिक सत्ता, बहुत पहले तुझसे खो गयी है
फिर तू खोने (मरने ) से क्यों डरता है?
अब तू पाने के लिए उठ, लड़, 
क्योंकि तेरे पास खोने को कुछ शेष नहीं है.
हे आदिवासी ! 
जो तेरा था उसे प्राप्त कर 
क्योंकि धरती का सारा ऐश्वर्या तेरा ही इंतज़ार कर रहा है,
क्योंकि भारत का तू ही मूल निवासी है. 

-के. आर. शाह 


रायपुर से प्रकाशित होने वाली "आदिवासी सत्ता" मासिक पत्रिका के संस्थापक व सम्पादक के. आर. शाह के उक्त उद्बोधन से आदिवासी समाज का एक आकर्षक स्वप्न लोक में पहुँचना स्वाभाविक है. पूस मास में, धरती माँ से धान की फसल का उपहार प्राप्त करने के बाद प्रकृति को धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए मनाये जाने वाले कोलांग उत्सव के उद्घाटन समारोह में एक बार फिर इसी स्वप्न की बात दोहराई गयी. 
खैर ! अभी तो हम चलते हैं कांकेर जिले के सिवनी ग्राम में जहाँ पदोमान (जनवरी )  की पदानालू (१४ ) एवं पदसंय्यू ( १५ ) तारीख  को पूस कोलांग की धूम मची हुयी है. गोंडी बोली में कोलांग का अर्थ है दंड या डंडा....तो डंडों के साथ किये जाने वाले इस नृत्य से गुजरात के डांडिया नृत्य की छवि मन में उभरती है. 

आप तैयार हो गए हों तो चलिए न ! हमारे साथ .......



लो, आ गए हम सिवनी ......

  
      
    जंगल में मंगल की तैयारी 


मंच की साज-सज्जा .....



नृत्य स्थल की तैयारी .......



लो, जुट गयी भीड़ .......लेकिन पहले देव आराधना ......फूस का मंदिर ...जिसमें विराजे हैं प्रकृति देव.....


....ये रहे प्रकृति देव .......


इतनी भीड़ ! अरे वाह !........चलो-चलो इन्हें स्वप्न दिखाएँ ...


...................................क्योंकि धरती का सारा ऐश्वर्या तेरा ही इंतज़ार कर रहा है,
क्योंकि भारत का तू ही मूल निवासी है. ..................



स्वप्न लोक से.....
चलो, धरती पर आएँ ....अपनी-अपनी ढोलक उठायें .......
सबने अपना राग सुनाया ...हम भी अपना ढोल बजाएं ........


पाँव में पहना यह वाद्य यंत्र घुँघरू सी आवाज देता है ....जब नाचूँगा तब सुनना ......
सबहिं नचावत राम गोसाईं .....
हम भी तैयार हैं नाचने के लिए .....


औरतों का घाघरा पहन कर ये मर्द कैसे लगेंगे...ज़रा हम भी तो देखें ....


लो देख लो जी ! ऐसे लगते हैं हम घाघरा पहनकर ...... रंग तो अच्छा है न ! 




अच्छा ! तो इन्होने लाली भी लगाई है .....सुन्दर दिख रहे हो जी !
और .....अपनी वही गुवाहाटी वाली हीर जी की जुबां में कहूँ तो ...ओय-होय-होय .....बड़े सोणे दिख रहे हो जी !


ये दर्पण ...?
हाँ ! मामला जब श्रृंगार का हो तो सर में कुछ भी खोंसा जा सकता है ....क्यों अच्छा नहीं लग रहा क्या ?  



लीजिये, हो गया नृत्य शुरू .......यही है कोलांग नृत्य .....डंडों की धुन सुनना है तो कल तक चुप बैठिये ...क्योंकि अब शाम होने वाली है ...कल चलचित्र देखिएगा ......लेकिन इससे पहले कुछ चित्र और .....

छोटा बच्चा जान के हमको ........
डूबी-डूबी डम-डम...... 


मैं फोन करके दुरपती (द्रोपदी) को बुलाती हूँ ...कितना मज़ा आ रहा है ....


चूल्हे ही चूल्हे ....
इतने लोग हैं तो चूल्हे तो इतने बनाने ही पड़ेंगे .... 
हाली-हाली चल  रे कहंरवा सुरुज डुबे ना दिहs ..........
मगर सूरज अब कहाँ रुकने वाले .......
यह कार्यक्रम तो चलेगा रात भर .....पर इतनी शीत में मेरी तो कुल्फी जम जायेगी ..ना बाबा ...हम ना रुकब ...
मैं भी चला अपने घर ...कल फिर आयेंगे ...