रविवार, 5 फ़रवरी 2012

सुनो! मैं कविता हूँ


 

- सुनो!  मैं कविता हूँ 
- अरे, मुझे नहीं जानते ?.....सीधी-सादी कविता .....आपकी अपनी चिरसहचरी ....सदा गुनगुनाती रहने वाली ......
"हाँ-हाँ ! जानता हूँ तुम्हें, वही न ......जो व्याकरण की जंजीरों से जकड़ी हुयी ....न जाने कैसे कैसे शिल्प से बुनी ....अलंकारों की माला से सजी-धजी  .....नियंत्रण के पाजेब खनखनाती हुयी ...संभल-संभल कर नव विवाहिता की तरह मंथर गति से चलती हुयी......आम आदमी से दूर-दूर भागने वाली ......विशिष्टजन-प्रिया......मस्तिष्क की तेज रेती से घिस कर धारदार बनायी गयी ...हृदय से भावों की भीख मांगती हुयी ...... और ......."
और क्या ?
"और .....इसके बाद भी समीक्षाकारों की कोप दृष्टि से सदा पीड़ित रहने वाली ....."
- हाँ ! कविता तो वह भी है ...पर वह शहर की है ....उसे सजना संवरना अच्छा लगता है. मैं तो दूसरी हूँ .....गाँव वाली कविता.....हृदय के सहज झरने से झरती एकदम अल्हड़ ......हर पुष्प को स्पर्श करते वसंत के सुवासित पवन की तरह झूमती हुयी, नदी की तरह इठलाती हुयी, झरने की तरह खिलखिलाती हुयी...........मुझे अपना मार्ग मालुम है ......मैं खुद जो बनाती हूँ उसे. दूसरों की बनायी सड़क पर पर क्या चलना.......टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी पर झूमते हुए चलने में जो आनंद है वह पक्की सड़क पर चलने में कहाँ ?  
-सुनो ! नदी ने फिजिक्स पढी है कभी ? तो फिर ......क्या उसे गति के सिद्धांतों की जानकारी के अभाव में चलना-बहना मना है ? तुम्हारी जो शहर वाली है न ! वह तो कार की तरह चलती है ...यंत्रवत .....बनी-बनायी सड़क पर ....नियंत्रित गति से ....कहीं दुर्घटना न हो जाय इस डर से सहम-सहम कर चलती हुयी......कहीं मेकअप न बिगड़ जाय इस डर से सहज आनंद से वंचित  ...  
-क्यों, क्या मैं उस शहर वाली से कम सुन्दर हूँ ?   

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी मान्यता पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

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    1. मनोज भैया ! सादर प्रणाम !
      आज साहित्य के पाठकों की संख्या बहुत कम हो गयी है ...कविता के पाठक तो और भी कम हैं. अखबारों में छपी कवितायें कितने लोग पढ़ते हैं ? क्या कविता अपना सन्देश देने में असमर्थ होती जा रही है ? ..क्या कविता आम आदमी से दूर होती जा रही है ? ...ये कुछ प्रश्न हैं जो साहित्यकार के समक्ष खड़े हो कर उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं. गाँव में लोग आल्हा गाते हैं तो लोगों की भुजाएं फड़क उठती हैं .....ऐसी सम्प्रेषणशीलता क्यों नहीं हो पा रही है अब ? आशा है कि इन विषयों पर चिंतन होगा ......

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  2. आपके प्रथम आगमन पर आपका हार्दिक स्वागत है .....शुभागमन मंगलमय हो....

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  3. फिजिक्स बिना पढ़े गतिशील होने का आनंद ही कुछ और है

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  4. हमारे ग्राम की महिलायें प्रत्येक सामाजिक अनुष्ठान के अवसर पर गीत गाया करती थीं (हैं का पता नहीं).. वे गीत आज भी हमारे जन-मानस का हिस्सा हैं.. वे गीत, वे कवितायें और वह संगीत किसी मेक-अप का मोहताज नहीं.. आज भी बेसुरे कंठों का वो सुरीला संगीत ह्रदय पर अंकित है... कविताओं को लोगों ने घर की बात समझ लिया है.. अच्छा लगा आपका यह सम्भाषण!!!

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  5. सर ! जिस कविता की बात आपने की है उसे मैं भी जानता हूँ ....भारत के हर गाँव का हर व्यक्ति जानता है...उसका प्यार से घर में पुकारने का नाम है "लोक गीत" , जिनकी धुनों पर मुम्बई वाले भी न्योछावर हैं .........
    सास गारी देवे .......ननद गारी देवे ....देवर समझावे .......
    ससुराल गेंदा फूल ....
    शहर की सुन्दर-सुन्दर.... सजी-धजी कविताएँ मर सकती हैं पर लोक गीत तो अमर होते हैं सर ! कविता को मरने से बचाने के प्रयास होने चाहिए ....साहित्य-चिंतन के इस नितांत नए पक्ष पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है...किन्तु बिना किसी पूर्वाग्रह के.

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  6. मैं खुद जो बनाती हूँ उसे. दूसरों की बनायी सड़क पर पर क्या चलना.......टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी पर झूमते हुए चलने में जो आनंद है वह पक्की सड़क पर चलने में कहाँ ?
    शायद इस ग्राम सुंदरी की महत्ता और सुन्दरता शहर पाश्चात्य धुवें के आवरण में छुप सी गयी है..मगर सूर्य की प्रखर रश्मियों को बादलों क आवरण क्या रोक सकेगा??
    आप का एक प्रश्न था की गाँव में लोग आल्हा गाते हैं तो लोगों की भुजाएं फड़क उठती हैं .....ऐसी सम्प्रेषणशीलता क्यों नहीं हो पा रही है अब ?
    प्रश्न का उत्तर आप की पोस्ट में ही दिखता है आज कविता को व्याकरण की जंजीरों और अलंकारों की जकडन से फुर्सत नहीं..मेरे समझ से जनमानस को समझ में आने वाली कविताओं की समालोचना करते समय विद्वान भी पूर्वाग्रह से ग्रसित होते हैं(कुछ एक स्थापित लेखको के अपवाद के अलावा)..भरी भरकम क्लिष्ट शब्दों का उपयोग कविता को बौधिक रूप से पुरस्कृत होने की श्रेणी में ले जा सकता है मगर जनमानस से दूर...

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  7. कविता का अच्छा परिचय लिखा है... लेकिन जहाँ तक मेरा मानना है कविता बहुत ही सहज है... क्योंकि यह ह्रदय की तलहटी से फूटती है....

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.