गुरुवार, 29 मार्च 2012

भरोसा


नदी के किनारे
यह कहकर
कि वे कभी नहीं मिलते
लोगों ने उतार दिया उन्हें
खलनायक की भूमिका में।
वे निभाते रहे.....  
अपनी भूमिका का चरित्र
बिना किसी परिवाद के
और नदी
बहती रही।
एक दिन लोगों ने देखा
किनारे एक हो गये हैं
पर नदी
अब वहाँ कहीं नहीं थी। 

स्त्री
बलात्कार की शिकार
केवल तुम्हीं नहीं हो
बल्कि
आदमी की रुचि
हर स्त्रीलिंग में है
फिर वह स्त्री हो
या नदी.....
या प्रकृति......
या शक्ति......
उसने छोड़ा किसे है?

आँखों का पानी
उन्होंने
दान कर दिया है
अपनी आँखों का पानी
उन गरीबों को
जिनकी आँखों में पहले से ही
कम नहीं थे
ज्वार से उछलते आँसू।
सुना है 
अब घोटालेवाज़ों की आँखें मुस्कराती हैं
गिरफ़्तारी के वक़्त।  

शहद
अपने बच्चों के लिये
मेडिकल स्टोर से नकली शहद लेने गयी
एक मधुमक्खी।
केमिस्ट ने अचरज़ से पूछा-
हमारे पास “मैनमेड” है,
तुम अपना ही शहद क्यों नहीं वापरतीं?
मधुक्खी ने कहा-
ज़हरीले फूलों से बना असली शहद खिलाकर
                 हमें अपना वंशनाश करना है क्या?        

भरोसा
उन्हें भरोसा है
इसीलिये प्रतिवर्ष सावन में
बड़ी धूम-धाम से करते हैं रुद्राभिषेक।
सुना है
कि जब भी पकड़े गये
मृत पशुओं की अस्थियों को निचोड़
नकली घी बनाते हुये,
वे
कभी नहीं रहे
एक घण्टे भी सलाखों के पीछे।
  
प्रकाशन
अपने लेखन पर
       यूँ न इतराया करो सनम!   
अधिक नहीं
         सिर्फ़ एक.....  
सिर्फ़ एक संकलन भर छपवा के दिखाओ
तो जानें।  

मंगलवार, 27 मार्च 2012

गुणग्राहक

मन में एक प्रश्न उठा है - ज्ञान के पथ पर शर्तों की बैसाखियों के सहारे कितनी दूर तक यात्रा सम्भव है?

थोड़ा विचार करते ही स्पष्ट हो गया कि शर्तों में जो स्वीकार्यता है भी तो वह निषेध की प्राणवायु से जीवन पाती है। इस स्वीकार्यता में सहजता नहीं होती ...बाध्यता होती है।

निषेध जीवन को नकारात्मकता की ओर ले जाते हैं। जहाँ निषेध है वहाँ स्वीकार्यता को अपने लिये आधारभूमि  खोज पाना बड़ा दुष्कर होता है।

ज्ञानी कुछ भी कहें पर समाज का व्यवहारवाद कुछ और ही कहता है।
.....कहता है कि प्रकाश और अन्धकार परस्पर विरोधी स्वभाव के हैं। किंतु इनका यह विरोधी स्वभाव ही मनुष्य की आवश्यकता है। सोचो ज़रा, केवल प्रकाश ही प्रकाश हो तो क्या जीवन व्यापार चल सकेगा हमारा!
हमें प्रकाश तो चाहिये ही किंतु अन्धकार भी हमारी आवश्यकताओं में से एक है।
एक सांसारिक को ये दोनो ही चाहिये.....पर ज्ञानी का विरोध है इससे। वह प्रकाश ही चाहता है केवल, अन्धकार बिल्कुल नहीं। उसके मन में ...उसके विचारों में .....उसके आचरण में एक निषेध उत्पन्न हो गया है अन्धकार के प्रति।   

बड़ी विकट स्थिति है यह तो......

ज्योति और तमस का विरोधाभास है यहाँ।
तमस कहता है कि मुझे ज्योति नहीं चाहिये उसे दूर रखो मुझसे।
ज्योति कहती है कि हर जगह तो तुम्हीं व्याप्त हो, मुझे भी जीने का हक दो।
तमस ने कहा तब तुम्हारे अस्तित्व के आगे मैं रह नहीं सकूँगा।
ज्योति ने पूछा- तब मैं कहाँ जाऊँ? मेरा ठिकाना जहाँ हो वहाँ बतादो।

दोनो के ही पास एक-दूसरे के प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं।
दोनो के अस्तित्व परस्पर विरोधाभासी हैं। एक का होना दूसरे का न होना है।

मिट्टी का एक दीपक सुन रहा था उनकी बातें, बोला कि मुझे तो आप दोनो ही अच्छे लगते हैं। मेरे पास आ जाओ तो यह झगड़ा नहीं रहेगा।
वे दोनो दीपक के पास चले गये। दीपक ने दोनो को प्यार दिया ...दोनो को सम्मान दिया। तब से दोनो वहीं रहते हैं।
मिट्टी का दीपक गुण ग्राहक है। उसे किसी के अस्तित्व से कोई मतलब नहीं। उसका अभीष्ट तो गुण है  .....जो उसे चाहिये ही ...हर कीमत पर चाहिये ...वह कहीं भी क्यों न मिले।
अस्तित्व अहं का प्रकट रूप है ...किंतु दीपक को अहं से क्या मतलब? वह तो प्रकाश के प्रकट होने के उपक्रम की योजना करता है। ...और कितना निस्प्रह है कि तम के भरोसे को भी बनाये रखा है उसने।
तो मुझे लगता है कि गुण ग्राहक होना बड़े त्याग और तप की बात है ...इसीलिये मेरी दृष्टि में दीपक की भूमिका  कहीं अधिक महत्वपूर्ण है उस ज्ञानी की अपेक्षा।    

रविवार, 25 मार्च 2012

बस्तर के जंगल से... - 1


ये छोटे-छोटे पीले फल तेन्दू के हैं! इसके पत्तों से बीड़ी बनायी जाती है। फल के गूदे में पर्याप्त रेशे और मिठास होती है, लोग इसे देशी चीकू कहते हैं। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप इसके मीठे फल पसन्द करते हैं या फेफड़े जलाने वाली इसके पत्तों से बनी बीड़ी। उपहार और दण्ड दोनो उपलब्ध हैं निर्णय आपका है।  
बाल धोने के लिये शीकाकाई के उपयोग से कौन अनभिज्ञ है भला?

राई जैसे नन्हें दानों वाले इस मोटे अनाज का नाम है रागी ..बोले तो बस्तर के आदिवासियों के प्रिय भोज्य 'पेय' का स्रोत मड़िया। ऋषियों ने सर्वे संतु निरामयाः की कामना की है किंतु यदि आप मधुमेह से पीड़ित हैं तो यह आपके लिये भोजन और औषधि दोनो का कार्य करेगी।
ये सुन्दर से फल हैं भल्लातक यानी भिलावा के। यह काजू का छोटा भाई है, छोटा इसलिये कि एक ही परिवार का होने के बाद भी इसके फल/ बीज औषधि के अतिरिक्त सूखे मेवे के रूप में व्यवहृत नहीं होते। इसका तेल दाहक है किंतु बीज की गिरी रसायन कर्म करती है। geriatic effects को नियंत्रित करने के लिये इससे निर्मित भल्लातक अवलेह नामक औषधि सर्व विदित है।

ज़रा और करीब से देखिये, चपटा काला भाग बीज है।


ग्रीष्म ने दस्तक दे दी है, पर परेशान क्यों हो रहे हैं आप? नारियल है न! आपकी तृषा शांत करने के लिये। डाभ का मीठा पानी O.R.S.से बेहतर है, क्योंकि इसमें मिनेरल्स पर्याप्त मात्रा में हैं। डिहाइड्रेशन से बचने के लिये प्रकृति ने कितना अनमोल उपहार दिया है हमें!

 ज़रा करीब से देखिये। क्या ? आपका जी नहीं ललचाया अभी भी? झूठ .... मैं मान ही नहीं सकता।


हमारे जंगल में पधारने के लिये धन्यवाद! ये तरुणी(गुलाब) पुष्प आपके लिये हैं...
फिर आइयेगा ....


उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़ !!!! परेशान हो गया,  दो बार चित्र डाले ...दोनो बार थोड़ी देर तक चित्र ठहरे फ़िर ख़फ़ा हो गये । पता नहीं कहाँ अंतर्ध्यान हो जाते थे। शिल्पा जी और रविकर जी की शिकायतें ....चित्र नहीं दिख रहे । तीसरी बार मुझे हठ योग करना पड़ा, पता नहीं यह हठ योग कितना सफल होगा! मुझे लगता  हैकि यह चेतावनी है ..किसी दिन सारी मशीनें रूठ जायेंगी और दुनिया ठप्प ! सारा सिस्टम पैरालाइज....उफ़्फ कल्पना से ही कैसा तो लगता है! कोई देशी उपाय करना पड़ेगा। शिल्पा जी! बताइये अब आपको लोहक रहा है कि नहीं?
एक्स्प्रेशन जी ने आते ही सल्फ़ी की माँग कर दी। अब वे इस ब्लॉग के नये मेहमान हैं, हम ना तो कर नहीं सकते। तो लीजिये एक्स्प्रेशन जी! बस्तर की सल्फी से स्वागत है आपका!
बाकी लोगों को बता देते हैं ...ये जो आसमान में सिर उठाये खड़ा है न! इसी का नाम है सल्फ़ी....विदेशियों को भी इसने खूब लुभाया है। इस पेड़ का महत्व इसी से समझ लीजिये कि यहाँ पर यह पेड़ लड़कियों को दहेज़ में भी देने का रिवाज़ है। ताड़ी की तरह इसका रस भी मादक होता है। यूँ, यह मेरे किसी काम का नहीं :((  





रविवार, 18 मार्च 2012

इंतज़ार में हम पाँच

   वह हमारे पास पहले भी कई बार आ चुकी थी पर चेहरे याद न रखपाने की अपनी दुर्बलता के कारण मैंने हमेशा की तरह इस बार भी गलती करने में कोई कमी नहीं की। किंतु इस बार उसका आना मेरे मन-मस्तिष्क पर सदा के लिये अंकित हो गया। जिस स्वाभाविकता और अपनेपन के साथ उसने मेरे कमरे में प्रवेश किया था उससे मैं सम्मोहित हुये बिना न रह सका। वह लड़की बड़ी ही मासूमियत के साथ घाव करती चली गयी और मैं खुशी-खुशी घाव को स्वीकार करता रहा। उसके चले जाने के बाद अभी इस क्षण तक मैं उस घाव के दर्द में डूबता जा रहा हूँ। हमारे भारतीय समाज की कई विशेषताओं में से एक दर्दनाक विशेषता यह भी है कि हमारी आधी दुनिया दर्द को बड़े ही स्वाभाविक रूप से स्वीकारने की उर्वरता साथ ही लेकर धरती पर आती है।
  बात बिल्कुल ज़रा सी है, पर उसके विश्लेषण में जायेंगे तो उसकी गम्भीरता आपको बेचैन कर सकती है। पूरा किस्सा कुछ यूँ है -
  चिकित्सालय का प्रथम सत्र समाप्त होने में अभी तीस मिनट शेष थे। यह ऐसा समय होता है जब लोगों की भीड़ नहीं रहती, चिकित्सक ज़रा फ़ुरसत में होते हैं और इक्का-दुक्का रोगी आराम से आते-जाते रहते हैं। जिस समय उसने मेरे कमरे में प्रवेश किया, मैं अकेला था। वह खिले हुये कमल की तरह ऐसे आयी जैसे कि तालाब में खिले कमल ने पानी की हिलोर से तनिक करवट ली हो। कमरे में कोई रोगी न होने के कारण मैं उसकी हर गतिविधि को देख पा रहा था। उसके पीछे-पीछे एक और लड़की थी...छोटी सी, छह साल की। और उसकी उम्र थी बारह साल। लगा कि वह अपने घर के किसी कमरे में आयी हो। आते ही उसने मेरे पैर छुये, मुझे संभलने का अवसर नहीं मिल सका( हम लड़कियों से अपने पैर नहीं छुवाते)। छोटी ने भी उसका अनुसरण करना चाहा तो मैने उसके हाथ पकड़ लिये। चिकित्सालय में दो अनजान बच्चियों के इस अपनत्व भरे व्यवहार ने चौंका दिया मुझे। मैने पूछा –“क्या हुआ है, तुम्हारी चिट्ठी( ओ.पी.डी. पर्ची को यहाँ के लोग चिट्ठी कहते हैं। यह शब्द इस रूप में जीवित बना रहेगा यह सोचकर अच्छा लगता है) कहाँ है?”
  उसने हँसते हुये कहा- “पिताजी आ रहे हैं अभी। हम दोनो को सर्दी-खाँसी हुई है ...यह मेरी छोटी बहन है। हम लोग पाँच बहन हैं ....और केवल एक भाई.........  वह अभी बहुत छोटा है। भाई के इंतज़ार में हम लोग पाँच हो गये। मेरी बड़ी माँ की भी पाँच लड़कियाँ हैं..... दस बहनों में केवल एक भाई।”
   वह रुक-रुक कर बोले जा रही थी और मैं सुन रहा था। छोटी ने जोड़ा- “हाँ ! और वह बहुत बदमाश भी है .......जब हम लोग सो रहे होते हैं तब वह हमारी आँख में अपनी उंगली गड़ाता रहता है।“
   बड़ी ने फिर कुछ कहा पर मेरी सुई एक वाक्य पर अटकी हुई थी –“भाई के इंतज़ार में हम लोग पाँच हो गये”।
   उसके पिता चिट्ठी बनवाकर ले आये थे। मैं अपने कार्य में व्यस्त होने लगा। छोटी ने एक पुराना किस्सा सुनाना शुरू किया, मुझे अपना काम रोकना पड़ा। उसने सुनाया – “पहले जब हम वहाँ थे तब डॉक्टर बात करके हमको खूब हँसाते थे फिर हँसाते-हँसाते ही इंजेक्शन लगा देते थे।“ उसके चेहरे पर जाना-पहचाना भय उभर आया था। उसने बड़ी मासूमियत से अपनी समस्या रख दी थी। मैने मुस्कराकर कहा-“ हम आपको केवल मीठी दवा देंगे।“ बड़ी बोली –“मुझे तो सुई से डर लगता है।“

   मैने प्रिस्क्रिप्शन लिखा। बच्चियाँ खुश थीं कि उन्हें इंजेक्शन से मुक्ति मिली। इस बीच कुछ रोगी और आ गये थे पर मेरी सुई वहीं अटकी हुयी थी –“भाई के इंतज़ार में हम लोग पाँच हो गये।“

   हमारे समाज में लड़कों का महत्वपूर्ण स्थान अभी भी कायम है....। यह महत्व इतना अधिक है कि इसे पाने के लिये हम परिवार का आकार बड़ा कर लेने और अपना बज़ट बिगाड़ने में भी नहीं  हिचकते। बच्चियों की दृष्टि से देखा जाय तो अस्तित्व के न्यूनाधिक महत्व का विभाजन हमने उन्हें घुट्टी में पिला दिया है। जाने-अनजाने हमने उन्हें यह भी बता दिया है कि वह अधिक महत्वपूर्ण है जिसकी प्रतीक्षा में उनकी संख्या एक से पाँच तक पहुँच गयी इसलिये उन्हें अपनी गौणता समाज में सदा ही बनाये रखनी चाहिये। उस बारह बरस की मासूम बच्ची ने अपने अस्तित्व की गौणता को कितनी सहजता के साथ स्वीकार कर लिया है। उसके बाल मन पर पुरुष के महत्वपूर्ण अस्तित्व ने अपना अधिकार अभी से जमा लिया है और वह तैयार हो गयी है हर प्रकार की पीड़ा को अपना भाग्य मान लेने के लिये।
  मेरा पौरुष आत्मग्लानि से भर गया है। हमने अपनी आधी दुनिया को कैसा बना दिया है कि वह अपने होने को अपनी पूर्णता के साथ स्वीकार न कर पाने के लिये बाध्य हो गयी है।                             


सोमवार, 5 मार्च 2012

वैसे ही लोग

          "देखी-सुनी" मेरी कहानियों का एक छोटा सा संग्रह है। 
फाल्गुण शुक्ल, विक्रम सम्वत 2064 में लिखी यह कहानी आज प्रस्तुत है आप सबके लिये। मेरी अन्य कहानियों की तरह ही इसमें भी है थोड़ी सी हकीकत थोड़ा सा फसाना .....
     अंततः ......रोती बिलखती बेटी को जाना ही पड़ा यहाँ से भी। उसकी कातर आँखों से आँसुओं का सागर उमड़ता रहा। उसके करुण क्रंदन से प्रश्नों की बौछार होती रही परन्तु पिछली बार की तरह इस बार भी लज्जा नहीं आयी किसी को। समाज क्या सदा से ऐसा ही रहा है, इतना निष्ठुर ...इतना संवेदनहीन ! विश्वास नहीं होता। अपने बचपन में समाज के जिस रूप को देख चुका हूँ ऐसा तो नहीं था वह। तब .....अब क्या हो गया है समाज को ?
     पहले, बहुत पहले...जब छोटा सा था मैं, तब की बात है। अच्छी तरह याद है मुझे, एक दिन सुबह-सुबह लाठी खटखटाते हुए आये थे पूरन काका। आते ही बोले थे- "बधाई हो मुनीम! सुना है अपना बिसनू बाप बन गया। भई लक्ष्मी आयी है घर में, मुह मीठा किये बिना तो जाऊँगा नहीं यहाँ से। " मुनीम ने बड़े ही आत्मसंतोष से मुस्कराते हुए कहा था- "काका, बड़े दिन बाद ही सही, आखिर सुन ही ली भगवान ने"
    सचमुच वे दिन ही कुछ और थे। बेटी होने पर लोग सोचते- ऊपर वाले ने बेटी दी है तो क्या हुआ! ब्याहने के लिए लक्ष्मी भी तो वही देगा। लोग हँसते-हँसते कहते ....बेटी आती है तो लक्ष्मी आती है और जब जाती है तो लक्ष्मी भी साथ ले जाती है। घर में कन्या का जन्म लक्ष्मी के आने का पूर्व संकेत माना जाता । तीज-त्योहारों में लोग कन्या को देवी मान कर पूजते और अपने कल्याण का आशीर्वाद लेते।
    बेटी घर भर की लाड़ली होती । माँयें अपने बेटों को झिड़कतीं-" तुम तो ज़िंदगी भर छाती पर होरा भूनोगे। बेटी का क्या, आज है कल अपने घर चली जायेगी, पराया धन कब तक रहेगा ? इसलिए जब तक यहाँ है, सुख से रहेगी। किसी ने कुछ कहा बिटिया को तो अच्छा नहीं होगा, कहे देती हूँ हाँ । "
    घर के लड़के चिढ़ाते-" खूब सिर पर चढ़ाए रखना, जब शिकायतें आयेंगी पराये घर से तब समझना अपनी लाड़्ली को।"
   वही बेटी जब बड़ी हो कर पराये घर जाती तो पूरा गाँव आँसुओं में डूबकर विदाई देता उसे। बिसनू की बेटी सचमुच भाग्यशाली थी।
    किंतु हर बेटी तो बिसनू की बेटी नहीं हो सकती न ! इसलिए इस हतभागिनी के अपार दुखों को जानकर भी यदि मेरी लेखनी चुप रही तो क्या यह भी एक और गंभीर अपराध न होगा? नहीं-नहीं, ऐसे अपराध का दुःसाहस कर पाना मेरे वश का नहीं। तो अब और चुप नहीं रहूँगा, आज आप भी जान ही लीजिये सब कुछ।
    तो यह किस्सा है उस हतभागिनी बेटी का जो पढ़-लिखकर मायके से विदा तो हुई, पर जिसे विदा करते समय किसी की आँखें प्रेम के विछोह से तनिक भी नम तक नहीं हुयीं। होतीं भी कैसे, कोई विदा करने आता तब न ! सच, कोई नहीं आया, न स्वजन न परिजन। बिना बाजे-गाजे के चोरों की तरह इस बार भी अकेली ही जाना पड़ा उसे। हाँ ...हर बार की तरह ...इस बार भी...।
    उसके दुख का कारण मर्म को भेदने वाला था। वह मायका छोड़कर जा तो रही थी....पर ससुराल नहीं, और न ही किसी और नये मायके।
    तब,.....तब और कहाँ, .....कहाँ जा रही थी वह?
    पता नही, ....संभवतः सात समन्दर पार....अनजान मनुष्यों के किसी जंगल में।
    तब....यह कैसी विदाई हुई बेटी की !
   नहीं-नहीं, ...वह बात भी नहीं, स्वेच्छा से कोई लड़की अपना घर छोड़कर कहीं जाती है भला!
   तो क्या उसके स्वजन सम्बन्धियों ने ही घर से निकाल दिया था उसे ?
    परंतु भारत की पवित्र धरती, आर्यावर्त के श्रेष्ठ संस्कारों और यहाँ तक कि इस देश के आधुनिक संविधान ने भी तो ऐसा करने की अनुमति नहीं दी किसी को। तब, .....कैसे हुआ यह सब ? कैसे हुआ यह अनर्थ आर्यावर्त की इस विशाल उदार धरती पर ? उस धरती पर जो बेटी को देवी और स्त्री को शक्ति के रूप में पूजता रहा है सदियों से...और "यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता" की गर्वीली उद्घोषणा करता रहा पूरे विश्व के सामने। तब क्या यह पूजा-अर्चना पाखंड है.....वंचना है यह उद्घोषणा?
   आप सोच रहे होंगे, कौन है यह बेटी ? किसकी है.....किसने जन्म दिया है उस हतभागिनी को?
   नहीं, .....उसके नाम या कुल का परिचय देने की आवश्यकता नहीं रह गयी अब। वह तो पूरे भारत की बेटी है। तन से...मन से....आचरण से.....संस्कार से.....आत्मा से....पूरी तरह इस आर्यावर्त की निष्पाप बेटी। किंतु इस आर्यावर्त में नारी निर्वासन की यह कोई पहली घटना तो थी नहीं।
   त्रेतायुग में, रघुवंश की कुलवधू सीता को भी तो अयोध्या के राजमहल से निर्वासन का अपमान भरा दंश झेलने विवश होना पड़ा था। आख़िर ऐसा क्या हो गया था कि रघुवंश के अजन्मे उत्तराधिकारी को अपने उदर में सहेजे, राजप्रासाद त्याग वन-वन भटकने को विवश होना पड़ा था सीता मैया को?
    जाने दीजिये, किंतु ईसवी सन वाले कलियुग में इक्कीसवीं शताब्दी की इस बेटी का प्रकरण तो और भी गम्भीर था। यहाँ तो ससुराल से बहू का नहीं अपितु मायके से बेटी का निर्वासन हुआ था। बेटी को इतना बडा दंड! किस अपराध के लिये? कारण जानने पर सिर लज्जा से झुक जाता है। किंतु सत्य छिपाने से भी तो काम नहीं चलेगा न ! लज्जा से सिर झुके तो झुके।

                                                                                   //2//

     वैद्यक शास्त्र  के अध्ययन के दिनों में कल्पना के सुनहरे पंख लगा कर मुक्ताकाश में निर्बाध उड़ने वाली उस बेटी ने कभी यह सोचा भी न था कि अपनी लेखनी से निकलने वाले सत्य के लिये कभी इतना बड़ा मूल्य भी चुकाना पड़ सकता है उसे। डॉक्टर बन जाने के बाद भी वह गगन बिहारी बेटी "सत्यमेव जयते" के सुनहरे भ्रम में जीती रही। महापुरुषों के जीवन आदर्शों से संबल पा उसकी निर्भीक लेखनी चली तो देश का सारा समाज ही तिलमिला उठा। शीघ्र ही समाज की तिलमिलाहट ने रौद्र रूप धारण कर लिया। ....और तब प्रतिशोध अपने जिस रूप में प्रकट हुआ वह था मृत्युदंड। धर्मान्ध कट्टरपंथियों के लिये सत्य का सामना कर पाना सहज नहीं होता। तब तो और भी नहीं जब सत्य किसी महिला के द्वारा उद्घाटित किया गया हो। समाज में स्त्री और पुरुष के बीच यदि अधिकारों में समानता न हो और प्रधानता किसी एक पक्ष की हो जाय तो ऐसे अधिकार निरंकुश हो बर्बरता की सीमा तक पहुँचने में समय नहीं लेते। तब एक पक्ष हो जाता है शासक और दूसरा रह जाता है केवल शोषित और चिरपीड़ित।
    अंततः प्राण रक्षा के लिये भरे हृदय से अपनी जन्मभूमि छोड़नी पड़ी थी उसे। किंतु तब संतोष की बात यह थी कि मौसी ने बेटी को हाथो-हाथ ले लिया था। लाड़ली बेटी माँ का घर छोड़ आ गयी कोलकाता... मौसी के घर ....जहाँ प्राणरक्षा के साथ-साथ भय से मुक्ति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी मिल गयी थी उसे। उसके लिये तो इससे बड़ा सुख और कुछ न था कि अब वह पुनः लिख सकेगी ...निर्बाध ....निर्भय।
   मौसी का कोलकाता अपने ही देश जैसा तो लगा था उसे। वही भोजन, वैसा ही परिधान, वैसी ही भाषा, वैसे ही लोग.....। अयँ, "वैसे ही लोग" ! आज वह स्मरण करती है तो वक्ष में कहीं असंख्य शूल से चुभने लगते हैं एक साथ। "वैसे ही लोग" .......यहाँ भी ?
      प्रारम्भ में तो उसे अच्छा लगा था सब कुछ। एक तरह से कहा जाय तो वह अपने देश को भूल कर रम ही गयी थी कोलकाता में। लेखनी फिर चल पड़ी थी, ...निर्भय ...निर्बाध.......। कुछ समय तक तो सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा, पर .......... यहाँ भी वैसे ही लोग ?
     संकीर्णता का विषाक्त धुआँ फिर उठने लगा। हृदय की वेदना और मस्तिष्क की घुटन को फिर जैसे किसी ने कुरेद दिया हो। सब कुछ ताज़ा होने लगा। वह बेचैन हो उठती, उठ कर भागती.... और हुगली के किनारे भेष बदले घंटों बैठकर मटमैली जलराशि में खोजती रहती कुछ ......कुछ ऐसा जो अब कभी नहीं मिलने वाला था उसे ...कभी नहीं...।
    इस सबके बाद भी दिन किसी तरह बीत रहे थे। लेखनी भी चल रही थी ....और साथ ही चल रही थी कटु-मधु आलोचना भी। इतना सब होने पर भी मन की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी....और बढ़ती जा रही थी उसकी तड़प भी।
    तड़प .....जिसे पहचानने में तनिक भी विलम्ब नहीं लगता लोगों को। बिल्ली जैसी चतुरता और श्रृगाल जैसी हिंसक धूर्तता से परिपूर्ण लोगों का यह वह अवसरवादी वर्ग है जो नारी को भोग्या से अधिक और कुछ नहीं समझता। उसकी सहानुभूति का जन्म, उसकी सम्वेदना का लक्ष्य,  उसकी करुणा का स्रोत, उसके परोपकार की प्रेरणा, उसकी कृपा का बोझ .....सब कुछ ....एक मांसल देह से प्रारम्भ हो कर मांसल देह पर ही समाप्त हो जाने वाला होता है। मौसी के यहाँ भी शरण के दिनों में उससे मिलने आने वाले ऐसे मार्जार और श्रृगाल योनि के पुरुषों की कमी नहीं थी। वे संभ्रान्त हुआ करते थे, बड़ा नाम ....बड़ा पद ....बड़ी गाड़ी .... बड़ी बातें ...बड़ा लोभ ....बड़ा आश्वासन ...बड़ा ...........।
    लोग अपनी संवेदनाओं के सहारे पहले तो करीब आकर उसे छूने का और फिर ......समूचा निगल जाने का भरपूर प्रयास करते। पहली बार मौसी के यहाँ जब बड़े नाम वाले एक प्रतिष्ठित व्यक्ति ने उसकी दुखती रग पर हाथ रखा तो उस दिन ....सचमुच अच्छा लगा था उसे। ....किंतु जब एक के बाद एक ऐसे ही कई संभ्रांत आने लगे तब तो मानो हर बार तप्त तवे पर जल की एक दुर्लभ बूंद छन्न से भाप बनकर उसे और भी गहरे तक जला जाती। ऐसे न जाने कितने फफोले अपने अंतस में लिये जीती जा रही थी वह। तब बीते दिनों की स्मृति में एक दिन अपनी दैनन्दिनी में लिखा था उसने-

कोई एक ही नहीं तड़पा था
उस भूख से,
फिर क्यों बने रहे तुम
भीड़ में गुमनाम,
और होते गये
सिर्फ.....
और सिर्फ हम ही बदनाम।
--------------------------
रात के अन्धेरे में
पकौड़ों की तरह
खूब चबाया हमें।
सुबह
हाज़त रफ़ा की
और चले गये
हमें
बद्बू की मानिन्द
यूँ ही सड़ता हुआ छोड़कर।

     समर्थवान लोगों के आश्वासनों की अनुर्वर भूमि पर पड़े स्वप्न के बीज भरमाते थे उसे। फिर भी, उसे नाउम्मीद सी एक उम्मीद थी उन बीजों के अंकुरित होने की। ये स्वप्न ही हैं जो जीवन की आशा को कठिन से कठिन स्थितियों में भी बनाये रखते हैं ......और प्राणों की ज्योति जलती रहती है इसी तरह । एक बार तो ऐसे ही कुछ दुर्बल क्षणों में उसके भी मन में आया कि चलो, जीवन में एक जुआ और सही। पर तभी सँभल गयी वह, जीवन के पूर्व अनुभवों ने झिड़क कर पूछा उससे- "जुये में कहीं फिर हार गयी तो?"
     यूँ कहने को तो वह स्वतंत्र थी मौसी के घर पर सच्चाई यह है कि "वैसे ही लोगों" ने यहाँ भी गुप्त जीवन जीने को विवश कर दिया था उसे। ऐसे में एक और हार! आखिर कब तक हारती रहेगी वह ....नहीं, अब और नहीं सह सकेगी वह।
    धीरे-धीरे मायके में बेटी का निवास और भी गुप्त होता गया। ....किंतु वह तो उड़ना चाहती थी ...मुक्ताकाश में पंछी की तरह।  गुनगुनाना चाहती थी ....भौंरों की तरह। चहकना चाहती थी .....गौरैया की तरह। ..... और पद्मा नहीं तो हुगली के किनारे ही सही, एकाकी बैठकर खो जाना चाहती थी ......मीठे सपनों में।
    सपने ......जो हर बेटी देखती है। ...देखती है कि अपना सा लगने वाला एक अनजान राजकुमार आता है, ....कहता है- "लो, आ गया मैं तुम्हें लेने। चलो, अब अपने घर चलो।"
    पर सच तो यह है कि इस हतभागिनी बेटी के सपनों का राजकुमार तो कभी आया ही नहीं डोली लेकर। जो आये भी, वे राजकुमार नहीं, लुटेरे थे ....या फिर सौदागर। पर उसे तो केवल राजकुमार ही चाहिये था।
    यहाँ मौसी के देश में राजकुमार तो नहीं..... पर हाँ ! शुभचिंतकों की कमी नही थी। सब एक से एक लुभावने समाधान सूत्र बड़ी सहानुभूति और अपनेपन से प्रस्तुत करते। सब अंगुली पकड़कर पहुँचा पकड़ने का निर्लज्ज प्रयास करते और फिर .....। छोडिये भी, बस इतना जान लीजिये कि इनमें बुद्धिजीवी भी थे, बड़े-बड़े अधिकारी भी, बड़े-बड़े राजनेता और आदर्श समाजसुधारक भी।
    क्या मौसी के देश में इन बड़े-बड़े लोगों के अतिरिक्त कोई साधारण सा मनुष्य नहीं रहता....., - वह प्रायः सोचा करती। तब अचानक ही वह तड़प उठती किसी साधारण से मनुष्य से मिलने के लिये।  ....वह तड़प उठती बाज़ार की भीड़ का एक हिस्सा बनकर किसी सब्ज़ीवाले से ठेठ बांग्ला में मोल-भाव करने के लिये। वह तड़प उठती सड़क किनारे खड़े होकर ताज़े डाभ का जल पीने और चलती ट्रॉम में दौड़कर चढ़ जाने के लिये। कोई अंत भी था भला उसकी तड़प का ? आज उसके लिये वह सब कुछ दुर्लभ बन चुका था जो किसी भी अकिंचन के लिये सहज सुलभ था। सत्य की इतनी बड़ी कीमत ?
      भीड़ भरे मनुष्यों के जंगल में वह अकेली थी, नितांत अकेली। उसकी तड़प बढ़ती ही जा रही थी कि तभी एक दिन कुछ विशिष्ट लोगों के आमंत्रण पर उसे हैदराबाद जाना पड़ा। मन में आशा की एक किरण जागी, कदाचित वहाँ ही मिल जाय कोई साधारण सा मनुष्य। किंतु निज़ाम के इतने बड़े शहर में भी उस हतभागी को कोई साधारण सा मनुष्य नहीं मिल सका। सभी तो विशिष्ट थे, अतिविशिष्ट। विशिष्ट न होते तो क्या इस तरह निर्लज्जतापूर्वक हिंसक प्रहार करते उस पर? उस बेटी पर, जिसे अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था निज़ाम के शहर में। यह कैसा शिष्टाचार है यहाँ का? उस देश का, जहाँ "अतिथि देवो भव" कहते नहीं थकते लोग। बार-बार वह यही सोचती, विश्व के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की यह कैसी रीति है ?
   
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      मौसी, जो धीरे-धीरे एक पारम्परिक सास सी बन गयी थी, अब उससे अपना पिंड छुटाने के उपायों पर कूटनीतिक किचार करने लगी थी। एक अतिथि बेटी के कारण वह किसी वर्ग विशेष की नाराजगी मोल लेकर अपनी वोट निधि को क्षति पहुँचाने के पक्ष में बिल्कुल भी नहीं थी। बेटी का क्या, आज है कल चली जायेगी। उसके लिये वह क्यों कुल्हाड़ी मारे अपने पैरों पर?
     चुनावों का ख्याल आते ही मौसी की सांसारिक बुद्धि प्रखर हो उठती ...और हो भी क्यों न ! उसे तो बार-बार चुनाव में खड़े जो होना है। और खड़े ही नहीं होना है बल्कि हर बार जीतना भी है। सच तो यह है कि अपनी इसी सांसारिक बुद्धि के कारण मौसी के अन्दर भीरुता ने कब आकर अपना सुदृढ दुर्ग बना लिया था, यह स्वयं उसे भी पता नहीं चल सका। इतनी शक्तिशाली मौसी डरने लगी थी अब .....'वैसे ही लोगों' से।
     ये 'वैसे ही लोग' थे तो मुट्ठी भर  ही, पर  मौसी की दुर्बलताओं ने  उन्हें सशक्त बना दिया था। वे इस अभागिन बेटी को देश से निर्वासित कराने के लिये हड़ताल कर सकते थे, ....तोड़-फ़ोड़ कर सकते थे, ...आगजनी कर सकते थे, .....वे चुनाव में मौसी को हार का मज़ा चखा सकते थे....।
    हार! न....न....चुनाव में हार से सख़्त परहेज़ है मौसी को। हार के नाम पर उसे पसंद है तो केवल पुष्पाहार या फिर स्वर्णाहार ही। चुनाव चिंतन करते ही मौसी अचानक कठोर हो उठती और तब अपनी बेटी को शरण देने वाली वही मौसी गिरगिट की तरह रंग बदलने लगती। धीरे-धीरे बेटी के प्रति उसकी बेरुखी जग ज़ाहिर होने लगी। उसे बुरा लगता, पर वह कर ही क्या सकती थी? जब अपने ही घर में उसे प्यार-दुलार की जगह मौत का फ़तवा सुनाया जा चुका था तो इस सत्तालोलुप भीरु मौसी के घर में 'क्या' और 'कितनी' आशा की जा सकती थी?
    मौसी का देश, जो कभी मायका जैसा था, अब पराया लगने लगा था। आदर्शों की पताका फ़हराने वाले सर्व सम्प्रभुता सम्पन्न इस इतने विशाल और महान लोकतांत्रिक भारत देश में उसे ऐसा कोई मनुष्य नहीं मिल सका जो कहता - "....यह देखो, अपना खेत, .... यह अपना पोखरा, .......यह रहा अपना आमों का बाग, .....और ज़रा इस माल्दा को खाकर तो देखो...."
    घर आये शत्रु को भी शरण देने का आदर्श बघारने वाले इस देश में ऐसा कोई न मिल सका जो विषाद के स्थूल क्षणों में उसे अपनी सशक्त बाहों में भर कर कहता- "......चिंता मत करो, मेरे रहते तुम पर कोई आँच नहीं आ सकती। मैं हूँ न! तुम तो बस लिखती रहो.....लिखती रहो। करती रहो कलम की साधना, देखता हूँ भला कौन आता है तुम्हारी सत्य साधना भंग करने ...।"
    स्त्री स्वातंत्र्य का दम्भ भरने वाले पवित्र देवियों के इस देश में ऐसी कोई स्त्री न मिल सकी जो कहती, "....लो बहू, ये रहीं घर की चाबियाँ। आज से तुम्हीं देखना सब कुछ, अब और कहाँ तक देख सकूँगी मैं ....।"
   
   ओह! नहीं ......इतने अच्छे तो सपने भी इस हतभागिनी बेटी को देखने का अधिकार नहीं दिया है 'वैसे ही लोगों' ने। अब तक तो हुगली की मटमैली जलराशि में पद्मा की तलाश डूब चुकी थी। अब वह स्वप्न भी नहीं देखेगी, बिखरे स्वप्नों की किरचें तो और भी चुभती हैं न! और फिर सुना तो यह भी गया है कि सपने अब देखे नहीं, ख़रीदे जाते हैं।
    मायके वालों की पहुँच मौसी के दरबार-ए-ख़ास तक थी। उन्माद की आग का जो सैलाब वहाँ था, उसको भड़काने वाली आँधियाँ यहाँ भी थीं। अचानक सैलाब बढ़ने लगा। मौसी के महान देश में यत्र-तत्र बिखरे मुट्ठी भर 'वैसे ही लोगों' ने बेटी के विरुद्ध ज़ेहाद छेड़ दिया। तभी एक दिन भीरु मौसी ने चुपके से उसके कान में फुसफुसा कर कहा - 'तुम्हें अब कोलकाता छोड़ना ही होगा'।
     शरणागत हुयी बेटी को आर्यावर्त की इस महान धरती के किसी भी कोने में शरण नहीं मिल सकी। सरकारी पहरे में किसी अघोषित बन्दी की तरह उसे बंगाल से राजस्थान और फिर वहाँ से दिल्ली ले जाया गया। वही दिल्ली, जो दिल वालों की कही जाती है, शरणार्थी बेटी के लिये बेदिल वाली होकर बन्दीगृह बन गयी थी। अब वह स्वर्ण पिंजर में बन्द एक बुलबुल थी, जिस पर प्रतिबन्ध था कि वह अब कभी गीत नहीं गायेगी। बुलबुल फिर तड़प उठी। तड़प बढ़ती गयी उसकी ....बढ़ती ही गयी ....अंतहीन पीड़ाओं की घुटती तड़प.....।
     वह बार-बार मौसी से चिरौरी-विनती करती रही- "......तुम्हारे सिवाय और है ही कौन मेरा? अपने घर से मत निकलो मुझे। मैं जीना चाहती हूँ ...यहीं, तुम्हारी गोद में सिर रखकर। ऐसा आँचल मुझे इस दुनिया में और कहाँ मिलेगा मौसी!"
     पर मौसी तो जैसी काठ हो गयी थी.....निष्ठुर, संवेदनाहीन, हृदयहीन...। तभी एक दिन स्वर्ण पिंजर बोला- "चाहो तो उड़कर जा सकती हो, मैं द्वार खोल दूँगा .....पर वापस आने के लिये नहीं।"
     तिरस्कृत बेटी दुःख और निराशा के अथाह सागर में डूबी, अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई के लिये विवश कर दी गयी थी। उसके पास और कोई उपाय न था, सो पिंजर की बात उसे माननी ही पड़ी। भारी मन से उसने अपने को तैयार किया। स्वर्ण पिंजर से मुक्ति के सुख की कल्पना भी उसके अंतस की वेदना को कम नहीं कर सकी।
     मौसी के घर से सदा के लिये उसका रिश्ता समाप्त होने जा रहा था। पर क्या सचमुच, संभव हो सकेगा ऐसा - वह सोचती।
    अब इस मनुष्य सामाज में उसकी पहचान क्या होगी? उसका अस्तित्व क्या होगा? सोचते-सोचते उसे लगा, उसका हृदय किसी भारी बोझ तले दबा जा रहा है। वह बेटी होकर भी अब किसी की बेटी नहीं रह गयी थी। इस देश की सीमा छोड़ते ही वह और जो कुछ भी कहलाये पर अब 'बेटी' किसी की नहीं कहलायेगी।
     निर्वासन के दिन वह सुबह से ही उद्विग्न थी। स्नान करते समय वह पानी को अंजुरी में भर कर चेहरे के पास तक लाती और छपाक से मुह पर मारती, मानो सारे विषाद को धो देना चाहती हो।
     उस दिन उसने बहुत देर तक स्नान किया, पता नहीं इस देश का पानी जीवन में फिर कभी मिल सकेगा या नहीं। आज तो दिल्ली के इस नल के पानी में  ही उसे हुगली, मेघना और पद्मा के पवित्र जल की अनुभूति हो रही थी। स्नान के बाद मौसी के देश की धरती पर अपने अंतर्यामी को अंतिम बार उसने स्मरण किया। पर मन एकाग्र नहीं हो सका, अन्यमनस्क ही  बनी रही वह।
    जहाज में बैठते समय उसका मन आक्रोश से भरा हुआ था। उसे आक्रोश था मौसी के पाखंड के प्रति, ....आक्रोश था समर्थवानों की लाचार व्यवस्था के प्रति।
    वह असहाय थी, दुःख और हताशा में डूबी हुयी। कौन जाने अभी और क्या-क्या लिखा है उसके भाग्य में .....?उसका दुर्दैव और कहाँ-कहाँ ले जायेगा उसे ...?
    किंतु जहाज जैसे ही रन-वे पर दौड़ा, उसका हृदय चीत्कार कर उठा -".....माँ के बाद क्या अब मौसी से भी मिलना न हो सकेगा कभी.....?"  आक्रोश की अग्नि अनायास ही बुझ गयी, सागर का खारा जल ज्वार के थपेड़ों से फूट कर आँखों से बाहर फैल गया। हृदय, जैसे अब बैठा....तब बैठा। अन्दर एक हूक सी उठी- "....अब मेरा कहने को कुछ न बचा इस दुनिया में। पराये देश में कैसे रहूँगी? कहीं वहाँ भी वैसे ही लोग......."?
    वर्षों पहले कितनी आशाओं-विकल्पों के साथ मायका छोड़कर आयी थी कोलकाता, कि चलो मौसी भी तो अपनी ही है। पर मौसी के घर से भी तिरस्कृत होकर अब और कहाँ जगह मिलेगी उसे? उसकी स्थिति उस मेमने जैसी हो रही थी जिसे उसकी माँ से बलात अलग किये दे रहा हो कोई निष्ठुर। "अतिथि देवो भव" का राग अलापने वाली मौसी निर्विकार थी.....निःशब्द थी। भारत की कोटि-कोटि आँखों में बिटिया के लिये आँसू की एक बूँद भी न थी। वह बेटी जो वर्षों से मौसी के गले लगकर गिड़गिड़ाती रही थी - ".....माँ! अपने इतने बड़े आशियाने में तनिक सा ठौर मुझे भी दे दो न!" आज निर्वासित हो रही थी।
आज उसी बेटी की विवश आँखों से दुःख का अपार सागर उमड़ा पड़ रहा था और पूछ रहा था तैंतीस करोड़ देवताओं वाले भारत के कोटि-कोटि नागरिकों से कि विश्वगुरु भारत के आँगन में इतनी भी जगह न थी क्या जो एक बेटी को तनिक सा ठौर दे पाता कहीं ?  

                                                                           ? ? ?                            


  
   

रविवार, 4 मार्च 2012

पड़ोसी

मुझे ज़ाहिदा हिना की पाकिस्तान डायरी पढ़ना बहुत अच्छा लगता है। ....और तब एक ही बात दिमाग में गूँजती रहती है कि -
बड़ा गुरूर है
अपनी सरहदों पर
ज़रा इस ख़ुश्बू को रोक के दिखाओ।
वो दूर कितने भी हों हमसे
उनके गम में, हमें
ग़मगीन  
और  खुशी में
खुश होने से
रोक के दिखाओ।  


दो मुल्कों की सियासी लड़ाई से जाहिदा जी  स्थायी भाव से आहत रहती हैं। वे परिंदे की मानिन्द दोनों मुल्कों में जब जी चाहे तब उड़ना चाहती हैं। पाकिस्तान की बदहाली और मज़हबी खूं- ख़राबे का आज़ाद माहौल उनकी अपनी आज़ादी का आहिस्ता-आहिस्ता खून किये दे रहा है। उनके अन्दर की बेइंतेहा तड़प को बड़ी आसानी से महसूस किया जा सकता है। अभी अपनी हाल की डायरी में उन्होंने जयपुर लिटिरेचर फेस्टिवल की तर्ज़ पर कराची में भी लिटिरेचर फेस्टिवल का ज़िक्र किया है। पाकिस्तान की प्रकाशक अमीना सैय्यद के हवाले से उन्होंने एक मजेदार चुटकी कुछ इस अंदाज़ में ली -
" हमें हिन्दुस्तान से मुकाबले का बहुत शौक है । उन्होंने एटम बम फोड़ा तो हमने भी एटमी पटाखा चला दिया; हिन्दुस्तानियों को बता दिया कि भैया तुम ही गरीबों के मुंह का निवाला छीनकर आतिशबाजी का दिखावा नहीं कर सकते, हम तुम से ज़रा भी कम नहीं, तुम कुँए में छलांग लगा कर दिखाओ, हम तुम्हारे पीछे छलाँग लगा देंगे"
सन सैंतालीस के बाद से चिनाव और सिंध में इतना पानी बह जाने के बावजूद दोनों मुल्कों के कुछ इंसान किस्म के लोग एक-दूसरे के लिए एक तड़प के साथ अमन और मिलन के खैरख्वाह हैं। काश ! दोनों मुल्क फिर से एक हो पाते। ( पाकिस्तान का भविष्य भारत में विलय के साथ ही सुरक्षित हो सकेगा..इस बात को अब कुछ लोग महसूस करने लगे हैं )  
याद आया, अभी एक दिन कहीं पढ़ा था कि बलूचियों ने इस्लाम के नाम पर हो रही दहशतगर्दी से परेशान हो कर एक जुदा मुल्क की माँग तो की ही उन्होंने अपनी कौम की सलामती के लिए हिन्दू हो जाने की बात भी की। खैर ! यह एक संजीदा मुद्दा है, हम तो इंसानियत के नाम पर दोनों मुल्कों की आम जनता की बेहतरी और अमन-चैन के लिए ईश्वर से प्रार्थना ही कर सकते हैं।  

शनिवार, 3 मार्च 2012

त्रिफणधारी सर्पराज ...प्लास्टिक की कारीगरी का एक नायब नमूना

इसे देख कर क्या आपको कालियादह के सहस्र फन वाले नाग की स्मृति नहीं हो आती ?

रायपुर से जगदलपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर केशकाल घाटी में मिले त्रिफणधारी इस दुर्लभ सर्प को देखने भीड उमड पडी तो सर्पराज को अच्छा नहीं लगा और वे जंगल में चले गये। 
 ..... ऐसा मुझे बताया गया पर बाद में पता चला कि यह तो नकली को असली जैसा प्रदर्शित करने की  हमारी कलाकारी का एक बेहतरीन नमूना भर है। दृष्य संयोजन की तारीफ करनी पडेगी।   



गुरुवार, 1 मार्च 2012

आगी बरय

फागुन आयो रे साँवरिया
कलियन भँवरा छेड़ रह्यो॥
मैहर सों लौट आयी कोयलिया
सूनी-सूनी बगियन शोर मच्यो।।
परदेस बसे नहिं आये साजन
जागी-जागी अँखियन भोर भयो॥
गदराय रयी महुवा झूम कें कहै
देखो मोहें आमा छेड़ रह्यो ॥
 माथे पे चार (प्रियाल) ने मौरा सजायो
पाँव काजू को भी भारी भयो॥
हार(खेत)-बगीचा सब बौराये
आगी बरय सेमर देहिंया ॥
 भीग गयी चुनरी, है भीगी अँगिया
लपट दिख रयी ना, बरय देहिंया ॥
गलियन-गलियन छोरा-छोरी
दैं पिचकारी जोरा-जोरी ॥
होरी में हर छोरा देवर लगय
रंग पिचकारी को जेवर लगय ॥
ना मैं जीतो ना तू हारी
प्यारी-प्यारी लागयँ गोरी तोरी गारी ॥
ऐसो रंग लगाय दऊँ गोरी
जनम-जनम ना भूलय होरी ॥
छोड़ कें ना जा पाय बाबरिया
गलियन-गलियन शोर मच्यो ॥