रविवार, 18 मार्च 2012

इंतज़ार में हम पाँच

   वह हमारे पास पहले भी कई बार आ चुकी थी पर चेहरे याद न रखपाने की अपनी दुर्बलता के कारण मैंने हमेशा की तरह इस बार भी गलती करने में कोई कमी नहीं की। किंतु इस बार उसका आना मेरे मन-मस्तिष्क पर सदा के लिये अंकित हो गया। जिस स्वाभाविकता और अपनेपन के साथ उसने मेरे कमरे में प्रवेश किया था उससे मैं सम्मोहित हुये बिना न रह सका। वह लड़की बड़ी ही मासूमियत के साथ घाव करती चली गयी और मैं खुशी-खुशी घाव को स्वीकार करता रहा। उसके चले जाने के बाद अभी इस क्षण तक मैं उस घाव के दर्द में डूबता जा रहा हूँ। हमारे भारतीय समाज की कई विशेषताओं में से एक दर्दनाक विशेषता यह भी है कि हमारी आधी दुनिया दर्द को बड़े ही स्वाभाविक रूप से स्वीकारने की उर्वरता साथ ही लेकर धरती पर आती है।
  बात बिल्कुल ज़रा सी है, पर उसके विश्लेषण में जायेंगे तो उसकी गम्भीरता आपको बेचैन कर सकती है। पूरा किस्सा कुछ यूँ है -
  चिकित्सालय का प्रथम सत्र समाप्त होने में अभी तीस मिनट शेष थे। यह ऐसा समय होता है जब लोगों की भीड़ नहीं रहती, चिकित्सक ज़रा फ़ुरसत में होते हैं और इक्का-दुक्का रोगी आराम से आते-जाते रहते हैं। जिस समय उसने मेरे कमरे में प्रवेश किया, मैं अकेला था। वह खिले हुये कमल की तरह ऐसे आयी जैसे कि तालाब में खिले कमल ने पानी की हिलोर से तनिक करवट ली हो। कमरे में कोई रोगी न होने के कारण मैं उसकी हर गतिविधि को देख पा रहा था। उसके पीछे-पीछे एक और लड़की थी...छोटी सी, छह साल की। और उसकी उम्र थी बारह साल। लगा कि वह अपने घर के किसी कमरे में आयी हो। आते ही उसने मेरे पैर छुये, मुझे संभलने का अवसर नहीं मिल सका( हम लड़कियों से अपने पैर नहीं छुवाते)। छोटी ने भी उसका अनुसरण करना चाहा तो मैने उसके हाथ पकड़ लिये। चिकित्सालय में दो अनजान बच्चियों के इस अपनत्व भरे व्यवहार ने चौंका दिया मुझे। मैने पूछा –“क्या हुआ है, तुम्हारी चिट्ठी( ओ.पी.डी. पर्ची को यहाँ के लोग चिट्ठी कहते हैं। यह शब्द इस रूप में जीवित बना रहेगा यह सोचकर अच्छा लगता है) कहाँ है?”
  उसने हँसते हुये कहा- “पिताजी आ रहे हैं अभी। हम दोनो को सर्दी-खाँसी हुई है ...यह मेरी छोटी बहन है। हम लोग पाँच बहन हैं ....और केवल एक भाई.........  वह अभी बहुत छोटा है। भाई के इंतज़ार में हम लोग पाँच हो गये। मेरी बड़ी माँ की भी पाँच लड़कियाँ हैं..... दस बहनों में केवल एक भाई।”
   वह रुक-रुक कर बोले जा रही थी और मैं सुन रहा था। छोटी ने जोड़ा- “हाँ ! और वह बहुत बदमाश भी है .......जब हम लोग सो रहे होते हैं तब वह हमारी आँख में अपनी उंगली गड़ाता रहता है।“
   बड़ी ने फिर कुछ कहा पर मेरी सुई एक वाक्य पर अटकी हुई थी –“भाई के इंतज़ार में हम लोग पाँच हो गये”।
   उसके पिता चिट्ठी बनवाकर ले आये थे। मैं अपने कार्य में व्यस्त होने लगा। छोटी ने एक पुराना किस्सा सुनाना शुरू किया, मुझे अपना काम रोकना पड़ा। उसने सुनाया – “पहले जब हम वहाँ थे तब डॉक्टर बात करके हमको खूब हँसाते थे फिर हँसाते-हँसाते ही इंजेक्शन लगा देते थे।“ उसके चेहरे पर जाना-पहचाना भय उभर आया था। उसने बड़ी मासूमियत से अपनी समस्या रख दी थी। मैने मुस्कराकर कहा-“ हम आपको केवल मीठी दवा देंगे।“ बड़ी बोली –“मुझे तो सुई से डर लगता है।“

   मैने प्रिस्क्रिप्शन लिखा। बच्चियाँ खुश थीं कि उन्हें इंजेक्शन से मुक्ति मिली। इस बीच कुछ रोगी और आ गये थे पर मेरी सुई वहीं अटकी हुयी थी –“भाई के इंतज़ार में हम लोग पाँच हो गये।“

   हमारे समाज में लड़कों का महत्वपूर्ण स्थान अभी भी कायम है....। यह महत्व इतना अधिक है कि इसे पाने के लिये हम परिवार का आकार बड़ा कर लेने और अपना बज़ट बिगाड़ने में भी नहीं  हिचकते। बच्चियों की दृष्टि से देखा जाय तो अस्तित्व के न्यूनाधिक महत्व का विभाजन हमने उन्हें घुट्टी में पिला दिया है। जाने-अनजाने हमने उन्हें यह भी बता दिया है कि वह अधिक महत्वपूर्ण है जिसकी प्रतीक्षा में उनकी संख्या एक से पाँच तक पहुँच गयी इसलिये उन्हें अपनी गौणता समाज में सदा ही बनाये रखनी चाहिये। उस बारह बरस की मासूम बच्ची ने अपने अस्तित्व की गौणता को कितनी सहजता के साथ स्वीकार कर लिया है। उसके बाल मन पर पुरुष के महत्वपूर्ण अस्तित्व ने अपना अधिकार अभी से जमा लिया है और वह तैयार हो गयी है हर प्रकार की पीड़ा को अपना भाग्य मान लेने के लिये।
  मेरा पौरुष आत्मग्लानि से भर गया है। हमने अपनी आधी दुनिया को कैसा बना दिया है कि वह अपने होने को अपनी पूर्णता के साथ स्वीकार न कर पाने के लिये बाध्य हो गयी है।                             


18 टिप्‍पणियां:

  1. लिंगानुपात सुधरने की संभावना बनती है.

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    1. हाँ! अगर डॉक्टर्स अपने नैतिक उत्तरदायित्व को समझ सकें तो।

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  2. सुन्दर प्रस्तुति । आभार।।

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  3. पुत्र प्राप्ति का मोह वैदिक युग से चला आ रहा है परन्तु स्थितियां बदल रही हैं, शनै शनै.

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    1. इस सार्थक पोस्ट के लिए बधाई स्वीकार करें.
      कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" पर पधार कर अपनी राय प्रदान करें.

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    2. तब पुत्रियों के साथ अमानवीय व्यवहार नहीं होते थे। "पुत्रवती भव" एवम "जातक" जैसे शब्दों से कुछ लोगों को भ्रम हो जाता है, किंतु ये रूढ़ शब्द हैं। भारत विश्व का पहला ऐसा देश है जहाँ स्त्रियों को सर्वधिक सम्मान देने की परम्परा रही है। कन्या के पाँव पूजने की परम्परा इसका प्रमाण है।

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  4. यह गौणता की स्वीकृति वास्तव में दुखदायक है।

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  5. सुन्दर प्रस्तुति...यथार्थक एवं भावनात्मक - सादर.

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  6. हर घर में लड़की का होना बहुत जरूरी है।

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  7. लिंग भेद गहरा है। यहां मैने विस्तार से लिखा है...
    http://devendra-bechainaatma.blogspot.in/2009/12/blog-post.html

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  8. डॉक्टर साहब!
    हम पाँच सुनकर बड़ी ताकत का बोध होता है.. एक मुट्ठी का, एकता का, शक्ति का, आत्मविश्वास का.. लकिन ये हम पाँच तो इन सबको नकार रहा है.. एक मुट्ठी जिसमें कैद है बच्चियों की बचपन और वृथा पौरुष का दंभ!!
    अभी हाल ही में पाकिस्तान की एक फिल्म देखी थी "बोल".. इस विषय को बहुत संजीदगी से छुआ है!! बहुत सुन्दर पोस्ट!!

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  9. Los rododendros ya han florecido
    coloreando de naciente primavera mi balcón
    y mi corazón sé vestirá de hojas de alegría.

    La alegría que este amanecer te envío
    sobre el dorado crepúsculo de la poesía
    para ser amonestado el silencio del vacío...

    Mis retinas se detendrán
    en la estación con más acuarelas
    que han podido brotar
    de la diestra paleta del pintor...

    Un beso con sabor a inaugurada primavera

    María del Carmen


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  10. bahut achhi laghu ktha hai koushlendr ji ...

    ise jarur kahin chhpne ke liye bhejein ....
    ek laghu ktha vesheshank nikal rha hai n ...
    net pe bhi hai shayad ...

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  11. "मेरा पौरुष आत्मग्लानि से भर गया है। हमने अपनी आधी दुनिया को कैसा बना दिया है कि वह अपने होने को अपनी पूर्णता के साथ स्वीकार न कर पाने के लिये बाध्य हो गयी है। ".... निशब्द हूँ ... बहुत गहरी बात कही है आपने इस लेख में ...

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  12. भाई के इंतजार में हम पांच हो गए। कितनी गंभीर बात कह दी उस जरा-सी बच्ची ने।

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  13. हम्म...बचपन से ही यह सब शुरू हो जाता है....बढ़िया खाना...बढ़िया कपड़े..महँगी शिक्षा सब कुछ भाइयों के लिए होती है...और दोयम दर्जे के होने का अहसास उम्र के साथ पुख्ता होता जाता है.

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  14. कौशलेन्द्र जी, एक भोली सी बच्ची और एक कड़वी सच्चाई को केन्द्र में रखकर बुनी हुई इस हृदयस्पर्शी लघुकथा के लिये आपका आभार।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.