शुक्रवार, 4 मई 2012

कृषि उद्यानिकी का द्वीप ..उत्तरांचल


उत्तरांचल और उससे लगे उत्तरी उत्तरप्रदेश की जो बात मुझे बहुत आकर्षित करती है वह है वहाँ की कृषि उद्यानिकी .... रेल मार्ग  से यात्रा करते हुये खेतों के हरे-भरे दृष्य आपके मन को बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट  कर लेते हैं। देखिये कुछ दृष्य आप भी....  

 

पॉपुलर के बड़े-बड़े वृक्षों के मध्य गेहूँ की खेती
 

और समीप से देखिये .....ग्रीन एंड गोल्ड ......



पूरी धरती सोना हो गयी ....



नीर के समीप उगने वाला ग्रेमिनी परिवार का नरकुल, जब हम बच्चे थे तो इसके तनों से बनाते थे कलम ...
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इसे नहीं पहचाना न ! पहचानेंगे कैसे... आमतौर पर मिलता ही कहाँ है ! रुद्राक्ष के ये सुन्दर वृक्ष हिमालय की गोद में ही मिलते हैं। जी हाँ! यही है रुद्राक्ष ..गले की माला और हृदय रोग की औषधि।



पड़ गये न चक्कर में ...अरे मीठा नीम तो है ये। बोले तो करी पत्ता .......
भीनी-भीनी सुगन्ध वाले इसके पुष्पों का गुच्छा कितना सुन्दर है!




भोले बाबा की नगरिया! ..जी नहीं! यह  है पण्डित गोविन्द बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर। विजया यानी भाँग यहाँ खरपतवार की तरह उगती है। मुझे तो इसके नन्हे-नन्हे फूल बहुत ख़ूबसूरत लगे....बाकी बनारस वाले जानें ....     :)
और हाँ! भाँग के पत्तों की सूती कपड़े में पोटली बनाकर अर्श यानी बबासीर यानी हीमोरॉइड्स के मस्सों की सिकायी करने से दर्द में लाभ मिलता है।
{मस्सों को नशा जो आ जाता है :)) }



जित देखूँ तित भंगा ....मत लेना मुझसे पंगा...... नहीं तो होगा दंगा .......क्यों गन्दी कर दी गंगा ......
ओह! लगता है चढ़ गयी  .....मैं तो चला.....अरे कोई नीबू तो दो मुझे ....

14 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर, रोचक... बाहोशोहवास.

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    1. मन में एक दबी ढकी इच्छा यह भी है कि छत्तीसगढ़ के लोग इन दृष्यों से कुछ प्रेरणा लेकर एग्रो-फ़ॉरेस्ट्री की दिशा में आगे बढ़ें।

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  2. रोचक जानकारी भाई जी ||
    आभार ||

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    1. ज़नाब! फ़ैज़ाबादी साहब! आदाब अर्ज़! हुज़ूर! ये ख़ाकसार आपके यहाँ की भी मिट्टी छान चुका है। आपके यहाँ आँवले के उद्यान के लिये मिट्टी मुफ़ीद है...साथ में और कोई भी फसल ली जा सकती है जैसे गन्ना, गेहूँ, उड़द या अरहर आदि।

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  3. nice pics....

    good to see weed..........rare one!!!
    :-)

    regards.
    anu

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  4. एक बार फिर बहुत सुन्दर फोटो फीचर.. इन जगहों का वर्णन मैं अपने अभिन्न मित्र चैतन्य आलोक से सुन चुका हूँ, जो उन्होंने वहाँ इंजीनियरिंग की पढाई के दौरान बिताए!!

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    1. क्या वे रुड़की के स्नातक हैं? कभी रुड़की में ही घर बनाकर बसने की इच्छा थी...पर ईश्वर ने मेरे लिये बस्तर पहले से ही तय कर दिया था। ऐतराज़ भी करता तो क्या होने वाला था :(
      कभी आपके साथ नैनीताल जाने की इच्छा है।

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    2. डॉक्टर साहब,
      वे पंतनगर विश्वविद्यालय के एम्.टेक. (इलेक्ट्रिकल) हैं.. मेरे साथ नैनीताल जाने की बात हमारी-आपकी इच्छा पर कहाँ निर्भर है डॉक्टर साहब "उसकी" इच्छा पर निर्भर है.. जैसे आपका बस्तर में रहना उसने तय कर रखा था!! है ना?? :)

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    3. जी भइया! कह तो ठीक ही रहे हैं आप।
      पंतनगर में हमारी भाभी और बहू प्रोफ़ेसर हैं। ये भांग के पौधे उन्हीं के बंगले के बाहर उगे हुये हैं। चैतन्य जी देखेंगे तो स्थान पहचान लेंगे...सामने सरोजिनी भवन की लाल रंग की दीवाल दिखायी दे रही है।

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  5. बहुत सुन्दर फोटो प्रस्तुति...

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  6. आचार्य जी,

    वैसे प्रकृति तो होती ही है मनमोहक..

    लेकिन शहरी परिवेश रहने वाले बहुत सी जानकारियों और अनुभवों से वंचित रह जाते हैं.

    फिर भी मुझे नरकुल, मीठी नीम और भांग के पौधे देखने का अवसर तो मिल ही चुका है..

    शरकंडे से कलम और पटाखे फोड़ने की बन्दूक भी बहुत बनाई हैं.

    हाँ, रुद्राक्ष को पहली बार देखा है.

    क्या आपने कल्पवृक्ष भी देखा है? यदि देखा हो तो उसे भी दिखाइएगा.

    मन तो करता है कि आपकी सेवा के बहाने कुछ समय रहने ही आ जाऊँ आपके पास. यदि अपने संन्यासी आचार्य की बात मान ली होती तो आज पारिवारिक दायित्वों से मुक्त जीवन जी रहा होता.

    तब होता लगभग पूरा प्राकृतिक जीवन. आपके पास रहने से मुझे कई तरह का लाभ होता : यथा,

    — आपकी विद्वता से मेरे चिंतन को विचारने के कई आयाम मिलते.

    — दुर्लभ प्राकृतिक जानकारियों को सहजता से संजो पाता.

    — विविध विषयों के अल्पज्ञान में वृद्धि कर पाता नये दृष्टिकोण के साथ.

    — और भी बहुत से उद्देश्य पूरे हो जाते, जिनकी उपस्थिति अवचेतन में रहती है.

    कुछ अन्य चेतन में भी हैं लेकिन सामाजिक संकोच और शिष्टाचार के कारण वे अवर्णनीय ही रहना चाहते हैं.

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    1. प्रिय प्रतुल जी! बस्तर में आपका स्वागत है। जब भी समय हो चले आना।
      जब तक भौतिक जीवन है तब तक मुक्ति किसी से भी नहीं ..कुछ न कुछ तो बन्धन रहेंगे ही। पारिवारिक दायित्व निर्वहन भी सृष्टि परम्परा का एक अनिवार्य भाग है। भारतीय आर्ष परम्परा में चारो आश्रमों का अपना-अपना महत्व है ..एक की पूर्ति के पश्चात ही अगले का प्रारम्भ होना तय है। किसी भी एक आश्रम को स्किप नहीं किया जा सकता ....यदि करने का प्रयास किया गया तो पूर्णता की प्राप्ति सन्देह युक्त हो जायेगी। समय की प्रतीक्षा करें और प्रत्येक आश्रम को पूर्णता के साथ जीने का प्रयास करें। ऋषियों का ऐसा ही निर्देश है हमारे और आपके लिये।
      वर्षा ऋतु में आने से वनौषधियों का प्रत्यक्ष परिचय भी हो सकेगा। समय मिलते ही आ जाइये।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.