शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

सबकी एक ही पहचान होती


काश!
मैं भारत का सम्राट होता
तो
भारत का नाम इण्डिया नहीं
भारत ही होता।
जो हठ से इसे इण्डिया कहता
उसे मैं भारत से बाहर करता।
 
भेज देता वापस
चार देशों के आयातित संविधान
उनके अपने-अपने देशों में
लिखकर यह टीप
कि अशोक नहीं लाये थे
बाहर से कोई संविधान
अब और नहीं सहेंगे यह वैचारिक अपमान।
हम फिर से
अपना संविधान बना सकते हैं
और भारत को
सोने की चिड़िया बना सकते हैं।
 
तोड़ देते वे बैसाखियाँ
जो बाँटी जा रही हैं
सही सलामत पैरों को।
नहीं रहता कोई आरक्षण।
देते हर किसी को
शिक्षा का समान अवसर।
नहीं होती कोई शिथिलता
योग्यता के धरातल पर
सुपात्र को ही मिलते अवसर।
होती समान नागरिक संहिता
धर्म और जाति पर नहीं होते
बवाल
वर्णाश्रम व्यवस्था पर नहीं उठते
इस तरह सवाल।
 
सारे धर्मों का सम्मान होता
न कोई अल्पसंख्यक
न कोई बहुसंख्यक होता
हर व्यक्ति
केवल भारत का नागरिक होता
सबकी एक ही पहचान होती
और भारत
केवल हिन्दू राष्ट्र होता।
 
करते जो भ्रूण हत्या
मृत्युदण्ड उन्हें मिलता।
आशीर्वाद में कहते - 'दूधों नहाओ'
पर पूत एक ही
सपूत होता।
 
जंगल का सम्मान होता
नदियों का उपचार होता
नहीं अटकती गंगा
बारबार शिव की जटाओं में।
हिमालय से गंगा का
फिर से अवतरण होता
गंगा के लिये साधु का
न आमरण अनशन होता।
नदियाँ सब भरी होतीं
कोख सब हरी होतीं।
धरा खिलखिलाती
फसल लहलहाती
अन्नपूर्णा का भरा
सदा भण्डार होता।
 
मानसरोवर अपना होता
नहीं लेनी पड़ती अनुमति
छोटे-छोटे चीनियों से।
हर नागरिक में
भारत का स्वाभिमान होता
देश पर मिटने को सदा तैयार होता।
 
माँ "माँ" होती
बेटी "बेटी" होती
कोई रिश्ता कलंकित न होता
तलवार में धार होती
पर धार में प्यार होता।
 
मंच तो होता
पर मंच पर नंगा
'परिधान' न होता।
कला "कला" होती
संगीत ध्रुपद होता
नारी के चरणों में पुरुष का नमन होता।
 
विचरते
सभी प्राणी होकर उन्मुक्त
नहीं होती कोई भी प्रजाति विलुप्त।
हर शेर को जंगल मिलता
हर आदमी को घर मिलता
हर हाथ को काम मिलता
कोई भूखों न मरता
कोई फ़र्ज़ी बिल न बनता
रिश्वत का जोर न होता।
 
उद्योग देशी होते
विदेशी भाग जाते।
भारत का राष्ट्रपति
सोनिया नहीं
भारत में जन्मा
भारत का ही नागरिक तय करता।
देश का पैसा देश में होता
साधु का सम्मान होता
दुष्ट का अपमान होता
शिक्षा में संस्कार होता
घोटालेवाज जेल में होता।
अपनी भाषा
अपना संस्कार होता
सच्चे अर्थों में
भारत आज़ाद होता।

रविवार, 19 अगस्त 2012

आज के समाचार ...

यूँ ही नहीं था
ये चमन मुरझाया। 
किसी ने लक्ष्मी को
तो किसी ने मौत को गले लगाया।
गवाह एक-दो नहीं
थी पूरी बस्ती
मगर अफसोस
कि लोगों के मुहों में
आजकल जीभ नहीं होती
अगर होती
तो ये संसद
यूँ बदनाम न रोज होती।  

समाचार है कि किले की सर्पिणी हज़म कर गयी अपने ही मासूम बच्चे। यह कैग की रिपोर्ट है जिसे पेश किया गया है भारत की संसद में, यह कहते हुये कि सरकार ने डुबोये देश के 1.86 लाख करोड़ रुपये। यह रकम इससे ज्यादा भी हो सकती है क्योंकि यह गणना सिर्फ़ सन् 2004 से लेकर 2009 तक के मध्य की है। सरकार ने कोल ब्लॉक बांट दिये उन्हें जो पहले से ही लक्ष्मी पुत्र थे। इन ब्लॉक्स की अगर नीलामी हुई होती तो देश के हर आदमी को उसका हक़ मिला होता। जो पैसा देश की जनता की भलाई में लगना चाहिये था ...जिस पर पूरे देश का हक़ था वो पैसा कुछ ख़ास लोगों की तिज़ोरी में कैद हो चुका है। लक्ष्मी को लूटने वाले ये लुटेरे ही शायद असली हक़दार थे इसके क्योंकि मात्र वे ही भारतवासी रहे होंगे बाकी शायद शरणार्थी हैं जिन्हें इस हक़ पर कोई हक़ नहीं। कुल मिलाकर अमीर और अमीर हुये, ग़रीब और भी गरीब हुये। कम से कम वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था ने तो देश के गरीबों की जन्मकुण्डली में यही लिख दिया है। कहा यह भी गया है कि इस बीच एक महान अर्थशास्त्री के पास कोयला मंत्रालय की बादशाहत थी।...मगर दुनिया जानती है कि उन्हें इन सब चीज़ों के बारे कभी कुछ पता नहीं रहता। शेर को नहीं पता कि उसकी माँद में आकर आख़िर शिकार किया किसने ? यह बालसुलभ भोलापन भारतीय राजनीति का एक ऐसा ऐतिहासिक गुण बन चुका है जिसका उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।
इधर बस्तर के धुर नक्सली क्षेत्र के नारायणपुर जिले के एक इंजीनियर ने कुछ ही दिन पहले आत्महत्या कर ली। इसी जिले का एक क्षेत्र है अबूझमाड़, जहाँ की विषम परिस्थितियों और नक्सली आतंक के बीच रहने के लिये विवश हैं लोग। हमारी भ्रष्ट व्यवस्था से प्रताड़ित उस इंजीनियर को ज़िन्दगी की अपेक्षा मृत्यु कहीं अधिक सहज लगी। मैं मानता हूँ जब भी कभी इस तरह की कोई घटना होती है तो उसके लिये हम सब ज़िम्मेदार होते हैं...पूरा देश गुनहगार होता है...क्योंकि पूरा देश इस पूरे वाकये का एक मूक दर्शक बना रहता है। ज़िन्दगी की अपेक्षा जब मृत्यु को सहज मान लिया जाय तो प्रश्न पूरी व्यवस्था पर उठते हैं कि संविधान प्रदत्त हमारे अधिकार भी हमें ज़िन्दगी जीने की राह दिखाने में समर्थ नहीं हैं। वैज्ञानिकों, पुलिस अधिकारियों और इंजीनियर जैसे उच्चशिक्षितों को अगर आत्महत्या करनी पड़ती है तो सवाल सीधे-सीधे व्यवस्था के मालिकों से होना चाहिये।  
ज़िन्दगी और मौत में किसी एक को चुनने का फ़ैसला इतना आसान नहीं हुआ करता। इस फ़ैसले के बीच न जाने कितनी बार ज़िन्दगी और मौत को क़रीब से देखना पड़ता है। कुछ लोग ज़िन्दगी से उम्मीद लगाये रहते हैं और जीने का फ़ैसला करके जीवन भर मरने के लिये बाध्य रहते हैं। इन्हीं में हैं वे लोग भी जो पिछले कुछ दिनों से मौत से भयभीत हो ज़िन्दगी बचाने के लिये भारत के विभिन्न शहरों से अपने प्रांत असम की ओर वापस भागे जाने के लिये विवश हुये हैं। न जाने क्या हो रहा है कि एक प्रांत के लोग दूसरे प्रांत के लोगों को विदेशी मानने लगे हैं और भारत के लोग भारत में ही बेगाने होने लगे हैं। राष्ट्रप्रेम के लक्षण कहीं दिखाई नहीं देते। शायद हम अपने-अपने दिलों में और अपने-अपने इरादों में कबीला तंत्र के बीज बोते जा रहे हैं। काश! सूरज इतना तपता...इतना तपता कि ये बीज झुलस के ख़ाक हो जाते।