शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

विद्रोह से आध्यात्म तक


जितना है गहन तम
शक्ति भी उतनी प्रबलतम
कृष्ण विवरों से भला
जीती है कब किरण!
आँखें भी सहती हैं
तमस,
नहीं
प्रखर किरणों को।
हो गया प्रकाशित 
जो कुछ भी आसपास
उसे ही भर लें अंक में
हो पाता उतना भी कहाँ?
तमस से व्यथित हैं फिर भी
प्रकाश को
सहते हैं कब नयन?
कृष्ण विवरों से भला
जीती है कब किरण!
चौदह वर्ष तक जंगलों में क्यों भटकते रहे राम? अग्निपरीक्षा के बाद भी सीता को क्यों होना पड़ा निर्वासित? कृष्ण को मथुरा से क्यों करना पड़ा पलायन? सत्य क्यों होता है पुनःपुनः अपमानित? आध्यात्मिक देश भारत में क्यों पल्लवित-पुष्पित होते हैं पापों के जंगल? क्यों होते हैं बलात्कार उन कन्यायों से जो शक्ति के रूप में पूज्यनीय स्वीकृत हैं भारत में? स्त्रियाँ क्यों वंचित हैं मानवीय अधिकारों से जो घोषित हैं देवी के रूप में? श्रम क्यों रहता है निर्धन जो स्वयं उत्पादक है मुद्रा का? देववाणी संस्कृत क्यों चली गयी नेपथ्य में? क्यों बारबार पराधीन होता है आर्यों का देश? क्यों संकुचित होती जा रही हैं आर्यावर्त की सीमायें? ....और तम क्यों घिर-घिर आता है हर बार? 

इन प्रश्नों ने मुझे सदा ही व्यथित किया है। समाधान की आशा में कहाँ-कहाँ नहीं भटका हूँ। भटकाव से मुक्त नहीं हो सका, अभी भी पथ में ही हूँ।

भारत ऐसा देश है जहाँ यात्रा के प्रारम्भ में ही तीक्ष्ण पाषाणों से भरे दुर्गम पर्वतों का सामना करना पड़ता है संसारी को। गहन अन्धकार में एक दीर्घ और क्लांत कर देने वाली यात्रा .....

और मैं ......

कभी थका ...कभी हारा ...कभी विद्रोही हुआ .....कभी पलायन करने का मन हुआ ....कभी समाधान की आशा दिखी .....कभी आशा ने निराशा को फिर आगे कर दिया ....

नुकीले पत्थरों ने कहा –“ हमारी तीक्ष्णता बाह्य है ...अन्दर झाँक कर देखोगे तो सुगम आकाश पा लोगे। दुर्गमता वह पराकाष्ठा है जहाँ से सुगमता को प्रारम्भ होना ही पड़ता है।”

किंतु ठोस पत्थरों के भीतर झाँक पाना इतना सरल है क्या?

सर्वविदित है कि पश्चिम के लोग भौतिकवादी हैं। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि पश्चिम के लोग सांसारिक उपलब्धियों का उपभोग करने में प्रवीण हैं। पूर्व के लोग भौतिकता के उपभोग में वानर वृत्ति से मुक्त नहीं हो सके। वानर लोभी होता है ...उसकी लिप्सायें अनियंत्रित होती हैं ...उसके उपभोग की प्रक्रिया अव्यवस्थित होती है, उसमें प्रवीणता का अभाव होता है।

वे पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते इसलिये इस जीवन को भरपूर जीने और जीने देने का प्रयास करते हैं। हम पुनर्जन्म में विश्वास तो करते हैं किंतु स्वयं भर जीना चाहते हैं ...दूसरों का जीना संकट में डालते हुये।

लोग कहते हैं कि पश्चिम के लोग हमारे जितने आध्यात्मिक नहीं होते। पर जितने प्रश्न हमारे पास होते हैं उतने प्रश्न उनके पास नहीं हुआ करते।

पश्चिम से प्रतिभायें पलायन नहीं किया करतीं ...सूर्य की किरणें विश्राम पाती हैं वहाँ। भारत से प्रतिभाओं को सदा ही पलायन करने को विवश होना पड़ा है ...सूर्य की किरणों को अपनी यात्रा पूर्व से ही प्रारम्भ करनी पड़ती है ...पश्चिम की ओर।

दीपक अपने आधार को कब प्रकाशित कर सका है भला!   

हमने स्वयं को आध्यात्मिक तो घोषित कर दिया पर आध्यात्मिकता में भी अपनी भौतिक लिप्साओं को ही अन्वेषित करते रहने के अभ्यस्त हो गये हैं।

अपने आसपास की अनियंत्रित अव्यवस्थाओं, जड़ हो गयी कुरीतियों, स्वीकृत हो चुके भ्रष्टाचार, निरंकुश होते अत्याचार, स्वतंत्र संत्रास और पल्लवित हो रहे पाप से जूझते-जूझते हर बार यही प्रतीत हुआ है कि प्रकाश स्थायी कब हो पाया है .....जो स्थायी है वह तो अन्धकार ही है। ब्रह्माण्ड में अन्धकार ही अधिक है ...प्रकाश बहुत कम। प्रकाश के स्रोत भी अस्थायी हैं ...व्याप्त तो अन्धकार है।

पश्चिम में सूरज उगता भी है तो कभी-कभी। वहाँ अन्धकार इतना घना नहीं होता ...इतना प्रकाश भी नहीं होता ...इसलिये वहाँ के लोग धुंधलके में जीने के अभ्यस्त हैं।

भारत में प्रखर प्रकाश है तो गहन अन्धकार भी। किंतु हम अन्धकार में जीने के अभ्यस्त हैं ...तभी तो प्रार्थना करते हैं ...”तमसोमा ज्योतिर्गमय”।

हम क्रांति तो करते हैं पर क्रांति के परिणाम अवसरवादियों को हस्तांतरित कर देते हैं। एक सुविचार जैसे ही किसी परिणाम में परिवर्तित होता है दूसरा विरोधी विचार उस पर अपना पारम्परिक अधिकार कर लेता है और संपूर्ण परिस्थितियाँ पुनः विसंगतियों और विरोधाभासों से भर जाती हैं।

जटिलतायें इतनी अधिक हैं कि समाधान की भूमिका निर्मित करने में ही पूरा जीवन चुक जाता है। धुंधलके में जिया जा सकता है पर गहन अन्धकार तो जीवन की सारी गतिविधियों को बन्दी बना लेता है।

जीना है तो प्रकाश का संधान करना ही होगा ...तीक्ष्ण पाषाणों से भरे अन्धेरे अपथ पर यात्रा प्रारम्भ कर आगे बढ़ते हुये ...विद्रोह के झंझावातों से जूझते हुये ....प्रकाश का अनुसंधान करना ही होगा।

प्रकाश की ओर बढ़ने की प्रक्रिया ही आध्यात्मिक यात्रा की प्रक्रिया है। यह अनुपलब्धियों से उपजी उपलब्धि है। यह घोर अशांति से उपजी शांति की यात्रा है। यह पाप के अवश कुण्ड का प्रबल विस्फोट है। यह न सुलझ पाने वाली विकट समस्यायों का व्यक्तिगत समाधान है। यह निर्बल का सबल होना है। यह पराजित की विजय यात्रा है। यह व्याप्त हुये कोलाहल की एकांत शांत प्रस्तावना है। यह चरम दुःखों का अंतिम विसर्जन है। यह गहन अन्धकार से विस्फोटित हुआ तीव्र प्रकाश है।

यही कारण है कि भारत में अध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाश की तीव्रता इतनी अधिक हो सकी। यह तीव्रता इतनी अधिक है कि लोगों की आँखें चौंधिया गयी हैं।

चकाचौंध को हमारी आँखें कब सह पायी हैं भला!

काश! भारत के पास ऐसी आँखें होतीं जो तीव्र प्रकाश को भी सह पातीं।

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

मौत अब आधुनिक हो चुकी है


मुझे
मौत से
डर नहीं लगता अब
क्योंकि मौत
अब परेशान नहीं करती,
पहले से भयभीत नहीं करती,
सौम्य इतनी
कि पीड़ा अनुभव करने तक का
समय नहीं देती,
वह तो आती है...
मुस्कुराती हुयी सुन्दरी के वेश में 
या...
कभी छिपकर
फूलों के गुलदस्तों में
या ...
कभी बन्द होकर
टिफ़िन में
रहस्यमय भोजन की तरह
और...
पलक झपकते ही
पूरा करती है अपना धर्म।
लोग कहते हैं...
कि ज़माना फ़ैशन का है,
मौत
अब आधुनिक हो चुकी है।
मैंने
तैयार कर लिया है अपने आप को
नये फ़ैशन के लिये।

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

खुसरूपुर वाली बहुरिया


उस कच्चे रास्ते के दोनों ओर तलवार सी पत्तियों वाली पतार की घनी पंक्ति को चीर कर यदि आप उस ओर जा सकें तो दोनों ओर मूँगफली के लहलहाते खेत देख सकेंगे। किंतु दस-दस हाथ ऊँची पतार के झुरमुट को चीर कर उधर झाँक पाना एक आम राहगीर के वश की बात नहीं। अपने गाँव से सोनपुर रेलवे स्टेशन आते-जाते न जाने कितनी बार मुझे इस रास्ते के दोनों ओर छिपे खेतों ने आकर्षित किया है। पतार के झुरमुट को पार करने का कभी साहस नहीं कर सकी किंतु इस रास्ते को पार करते ही छदामी के टीले पर चढ़कर मूँगफली के खेतों को जी भर निहारती रही हूँ। जो छिपा है वह अधिक आकर्षित करता है, हम सब की यही प्रवृत्ति है। इस सहज आकर्षण पर विजय पाना सरल नहीं। गुह्य के अनावरण के प्रति हमारी लिप्सा हमें शांत कब बैठने देती है ! पर गुह्य के अनावरण का मार्ग भी तो सरल नहीं। इसीलिये वैकल्पिक मार्गों की ओर ही हमारा ध्यान पहले जाता है किंतु इन मार्गों के अपने संकट भी तो कम नहीं।

आज मैं अपने मन की आँखों से पतार के धारदार झुरमुट के उस पार मूँगफली के हरे-भरे खेतों के बीच यामिनी को भी अच्छी तरह देख पा रही हूँ ...उसी यामिनी को, जिसे देख कर भी देख नहीं पायी थी इतने वर्षों तक।

हमारे गाँव के बिल्कुल ही किनारे पर एक तालाब है। ठाकुर उदेतसिंह ने अपनी ज़मींदारी के दिनों में गाँव के गाय-गोरुओं को पानी उपलब्ध कराने के लिये यह तालाब बनवाया था। ज़मींदारी समाप्त हो गयी, ठाकुर भी पंचतत्व में विलीन हो गये। तालाब के किनारे जिनके घर बने थे उनके लोभ नें तालाब की सीमाओं पर किश्तों में डाका डालना शुरू कर दिया था। तालाब की अपनी सीमायें और विवशतायें होती हैं .... अब वह संकुचित होने लगा था। उसे अपना अस्तित्व बचाने के लिये पोखर का रूप धारण करना पड़ा। किंतु एक दिन अनायास ही एक नन्हीं सी बूँद ने विद्रोह कर दिया। उसके विद्रोह का साक्षी पूरा गाँव रहा है। नन्हीं सी बूँद का विद्रोह किसी को सहन नहीं हुआ था और सच पूछो तो उस समय तो मुझे भी नहीं।  

खुसरूपुर की यामिनी हमारे गाँव की बहू बनकर आयी थी, सुमेर सिंह की ब्याहता बनकर। अधिक पढ़ी-लिखी तो नहीं थी किंतु मात्र कुछ ही देर की वार्तालाप से कोई यह अनुमान भी नहीं लगा सकता था कि एम.ए. पास जैसी लगने वाली बहू वास्तव में मात्र आई.ए. तक ही पढ़ी है। रंग-रूप था औसत से सुन्दर के बीच की किसी सीमा को स्पर्श करता हुआ सा .... किंतु सुरुचिपूर्ण परिधान और मधुर व्यवहार ने उसे आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी बना दिया था।

मुँह दिखायी के समय ही महिलाओं में खुसुर-पुसुर होने लगी थी। उसी शाम पूरे गाँव के हर घर के पुरुष को जो सूचना अपनी विश्वस्त सूचनादायिनी से प्राप्त हुयी उसके आधार पर “हूर के साथ लंगूर” वाली कहावत को प्रमाण सहित पुनः स्थापित करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं हुयी। सुमेर का आपाद-मस्तक विवरण प्रस्तुत करने की सामर्थ्य जुटाना मेरे लिये सम्भव नहीं। बस, इतना जान लीजिये कि गाँव में अपनी परचून की दुकान चलाने वाले थुलथुल शरीर के विशाल राज्य पर नियंत्रण कर पाने में अक्षम रहने वाले क्षत्रप सुमेर सिंह बदसूरती की सभी सीमाओं तक अपनी पहुँच बना सकने में सफल मान लिये गये थे। लक्ष्मी जी की कृपा उन पर बनी हुई थी जिसके प्रभाव से उनके पूज्य पिताजी को अपने अँगूठाछाप पुत्र के लिये खुसरूपुर के  एक निर्धन की कन्या को बहू बना कर लाने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था। सुमेर की बारात जब बहू के साथ वापस आयी तो गाँव में चारो ओर एक ही चर्चा थी –“गैंडा संग हिरनी के बिहा हो गइल रे !”   

अब पता नहीं यह संयोग था या कोई ठोस कारण कि यामिनी गाँव की महिलाओं के लिये ईर्ष्या और पुरुषों के लिये चर्चा का विषय बनी रहती थी। मुँह दिखायी वाले दिन के अतिरिक्त कुल मिलाकर अभी तक मैं चार-पाँच बार ही उससे मिली होऊँगी। दूसरी बार किसी के घर शादी-ब्याह के अवसर पर मिली थी ...चहकती हुयी यामिनी का वह रूप आज भी याद है। तीसरी बार वह स्वयं ही आयी थी मुझसे मिलने ............ वह मेरी और यामिनी की पहली वार्ता थी किंतु पूरे सात घण्टे तक चली वह वार्ता क्या भुलायी जा सकती है कभी!

विवाह के सात वर्ष बाद भी उसकी सूनी गोद ने लोगों को चर्चा का एक और विषय दे दिया था। इसका प्रभाव यामिनी पर भी पड़ा, वह दुःखी रहने लगी थी। तभी एक दिन जेठ की भरी दोपहरी में उसने मेरे घर की कुण्डी खटखटायी। उसे अपने घर आया देख मुझे आश्चर्य मिश्रित हर्ष हुआ था। मैं अपने कच्चे घर की भीतर वाली कोठरी में लेकर गयी थी उसे।

  मेरे घर आने से एक दिन पहले ही यामिनी पटना के डॉक्टर सोम के पास गयी थी। वहाँ यामिनी ने डॉक्टर को अपनी जो समस्या बतायी उसे सुनकर एक बार तो डॉक्टर भी लजा ही गया होगा।

  यामिनी के बैठते ही डॉक्टर सोम ने अपने व्यावसायिक अभ्यासवश नपे-तुले शब्दों में पूछा था –“ बताइये, क्या तकलीफ़ है?”

  यामिनी ने उत्तर दिया था- “शादी के सात साल हो गये ....बच्चे नहीं हुये ...किंतु समस्या यह नहीं है.....”

  डॉक्टर सोम को आश्चर्य हुआ, उन्होंने उसके चेहरे की ओर देखते हुये पूछा – “तब ... समस्या और क्या है?”

  यामिनी ने निःस्संकोच हो कहा था- “मैं अपने पति से संतुष्ट नहीं हो पाती....मुझे लगता है जैसे कोई मेरे साथ बलात्कार कर रहा है।”

  कुछ क्षण के मौन के बाद डॉक्टर सोम ने पूछा- “जो शिकायत आपको अपने पति से है कहीं वही शिकायत उन्हें भी तो आपसे नहीं?”

  उत्तर मिला- “नहीं ..उन्होंने कभी ऐसी कोई शिकायत नहीं की...वे मुझसे संतुष्ट हैं ...बस मैं ही नहीं हो पाती...।”

  डॉक्टर ने सहानुभूति के साथ पूछा –“ क्या आपके पति आपके साथ आये हैं? अच्छा होगा यदि वे भी आपके साथ मेरे सामने हों  ।”

  यामिनी बोली- “नहीं, वे आ नहीं सकते..... बहुत मोटे हैं ...चलने में परेशानी होती है। मैं अपने ससुर के साथ आयी हूँ ....बाहर बैठे हैं।”

  डॉक्टर सोम कुछ क्षण चुप रहकर बोले- “देखिये, यह कोई रोग नहीं है, आप दोनो एक दूसरे को समझने की चेष्टा कीजिये......अपने पति से प्रेम कीजिये .... यह शरीर का नहीं आपके मन का विषय है ......”

  यामिनी ने टोका –“शरीर का ही है डॉक्टर ! आप मेरी समस्या को समझिये ..... वे मेरे साथ कुछ भी करते रहें मुझे कोई संवेदना नहीं होती .....एक बूँद पानी नहीं झरता ....... ”

  “माय गॉड ....... ”- डॉक्टर सोम के मुँह से अचानक निकला।

  डॉक्टर सोम असहज होने लगे थे...धाराप्रवाह बोलने वाले सोम रुक-रुक कर ......सोचते हुये ...अंतराल के बाद बोल पा रहे थे। उन्होंने पूछा- “यह स्थिति प्रारम्भ से ही है या ......”

  यामिनी बोली- “हाँ ...प्रारम्भ से ही है ...मुझे उस गैंडे को देखते ही घिन आती है ..... उनके साथ होने पर कभी भी मैं भीग नहीं पाती ....लेकिन ट्रेन में यदि कोई जरा सा छू भी ले तो मैं बुरी तरह भीग जाती हूँ।......मैं आपके पास बड़ी आशा से आयी हूँ सर! ......सुना है आप बहुत अच्छी दवा देते हैं .... कुछ तो कीजिये ....कोई तो उपाय होगा ....”

  डॉक्टर ने कहा –“माफ़ कीजिये! दवाइयों की अपनी सीमा है ...हम आपकी समस्या की गम्भीरता को समझ रहे हैं किंतु आपके लिये कुछ कर पाने में असमर्थ हैं ........आप ऐसा कीजिये, डॉक्टर बत्रा जी से मिल लीजिये वे बहुत अच्छे कौंसेलर हैं .... मैं उन्हें फ़ोन कर देता हूँ..... ”

  यामिनी ने निराश होते हुये कहा था –“...तो आप मेरे लिये कुछ भी नहीं कर सकते?”

  डॉक्टर ने कहा-“ यामिनी जी ! आपको कौंसेलर की आवश्यकता है।”

  तड़प कर उठ खड़ी हुयी थी यामिनी, बोली- “मुझे किसकी आवश्यकता है यह आप क्या समझेंगे।”

  अचानक उसकी आँखों से धाराप्रवाह आँसू बहते देख डॉक्टर सोम भी व्यथित हो उठे। दुःखी हृदय से वे अपनी कुर्सी से उठे और धीर से बाहर निकल गये। यामिनी वहीं खड़ी रह गयी।

  कुछ समय बाद यामिनी जब सहज होकर डॉक्टर सोम के कमरे से बाहर आयी तो उसने देखा कि डॉक्टर  अपने बंगले के लॉन में साइकस के पेड़ के पास खड़े किसी चिंता में डूबे थे। यामिनी ने पास आकर धीरे से केवल इतना ही कहा –“वह डॉक्टर ही क्या जो रोगी की पीड़ा न समझ सके।”

  सोम को लगा जैसे किसी ने उन्हें जोर से थप्पड़ जड़ दिया हो। वे हतप्रभ खड़े रह गये, यामिनी तेजी से अपने ससुर के पास जाकर बोली – “चलिये, महेन्द्रूघाट चला जाय ...पहलेजा का जहाज खुलने में अभी आधा घण्टा है।”  

 

  यामिनी मेरी गोद में सिर रखकर फफक-फफक कर रो रही थी...मेरा हाथ उसकी पीठ पर था और डॉक्टर सोम की ही तरह मैं भी हतप्रभ थी।

  कुछ देर बाद संयत हो कर यामिनी बोली- “उस लिजलिजे काले गैण्डे से कोई प्रेम कैसे कर सकता है ? बाबू जी तो मुझे भाड़ में झोंक कर अपने बोझ से मुक्त हो गये ......मैं अपने हृदय के बोझ को कहाँ फेकूँ? .....कहाँ पटकूँ? ....कैसे मुक्त होऊँ? ...यहाँ कहीं उतार फेकूँ तो गाँव में किसी को कैसे मुँह दिखाऊँगी? सोचा था पटना बड़ी जगह है, वहाँ कौन जानेगा? डॉक़्टर थोड़ी रहम कर देंगे तो कुछ पल के लिये जी जाऊँगी...मैं ये ज़िन्दगी यूँ ही कैसे बरबाद हो जाने दूँ ......शराफ़त के लबादे में कैद होकर रात-दिन ख़ून जलाने की महानता का श्रेय लेने में अब उतना यकीन नहीं रहा। मैं गलत हो सकती हूँ चाची! लेकिन तनिक मेरी हालत में कोई ख़ुद को ही रख कर क्यों नहीं देखता। आदर्शों के उपदेश पचा सकना कितना मुश्किल होता है।”

  वह फिर सिसक उठी थी। उसकी हालत देख कर मैं भी विचलित हुये बिना न रह सकी। उफ़्फ़! स्त्री के लिये यह कैसी यंत्रणा है! एक ओर है धरती का कठोर सत्य, दूसरी ओर है जीवन का कठोर आदर्श। पुरुष हो तो कोई वर्जना नहीं, भले ही वह महर्षि ही क्यों न हो, आवश्यकता होने पर दो विवाह की आज्ञा समाज ने दे दी उन्हें। आवश्यकता होने पर यही आज्ञा स्त्री के लिये क्यों नहीं है?

 

   दियाबत्ती का समय हो गया था। अपने हृदय में उठते हाहाकार के साथ मुझे भी झकझोरते हुये यामिनी ने घर जाने के लिये विदा ली। उसके दुःख से मैं भी दुःखी हुयी ...पर चाहकर भी कुछ कर नहीं पायी। यामिनी धधकती हुयी आयी थी, धधकाती हुयी चली गयी। इस धधक को बुझाने के लिये कहीं कोई समन्दर नहीं बनाया उस निर्मोही ने। सबकुछ बनाया उसने पर वह नहीं बनाया जिसके होने से यामिनी के जीवन की कोमल कोपल को सुलगने से बचाया जा सकता।     

   उस घटना को बीते कई दिन हो गये। ठाकुर उदेत सिंह का बनवाया तालाब संकुचित होते-होते पोखरा बन चुका था। पानी जैसे-जैसे कम होता जा रहा था कीचड़ भी वैसे ही वैसे बढ़ता जा रहा था। यामिनी के जीवन में भी कीचड़ ही कीचड़ था। जीवन को प्राण देने वाला रस सूख चुका था कि तभी एक दिन उस पोखरे की एक नन्हीं सी बूँद ने विद्रोह कर दिया। उस विद्रोह का साक्षी पूरा गाँव रहा है। पूरे गाँव ने देखा कि पानी की एक विद्रोही बूँद उछली.... उछली कि बादल पर आरूढ हो बिहार करूँगी। पर उसके इसी दुस्साहस ने उसे सड़ाँध मारते एक गन्दे नाले में ला पटका था।  

  यामिनी को पलायन किये हुये कई दिन हो चुके थे। प्रारम्भ में तो गाँव में बहुत दिन तक यामिनी की ही चर्चायें होती रहीं। कोई कहता पटना में किसी की रखैल बन गयी है कोई कहता कि उस जैसी ही एक स्त्री को कलकत्ता के बहूबाज़ार में देखा गया है। वर्जनाओं से अटे पड़े समाज को चटखारे ले लेकर अपनी कलुषित लोलुपता को शांत करने के लिये एक भग्न वर्जना से निःसृत होने वाले रस की प्राणशक्ति मिल चुकी थी। किंतु कोई भी रस कितनी ही प्राणशक्ति वाला क्यों न हो कभी तो समाप्त होता ही है। धीरे-धीरे लोग यामिनी को भूलते गये। रोज-रोज के चटखारे अब बीती बात बन चुके थे।

 

  बहुत दिन बाद, फिर एक दिन, जैसे वह गायब हुयी थी वैसे ही अनायास प्रकट भी हो गयी। प्रकट तो हुयी....  किंतु अपना सर्वस्व खोकर। जिस पर उसने विश्वास किया था उसी के द्वारा छली गयी वह...और अंत में पहुँच गयी एक मण्डी में। लगभग दो बरस तक भागलपुर की सुहासिनी मौसी के यहाँ रहते हुये मृगतृष्णा में भटकने के बाद उसे अपना लिजलिजा गैंडा बहुत याद आने लगा था। एक दिन अवसर पाते ही यामिनी भाग निकली वहाँ से। भागलपुर जंक्शन न जाकर उसने चम्पानगर के छोटे से स्टेशन से गाड़ी पकड़ी, क्या पता कहीं सुहासिनी के आदमी खोजते हुये आ न धमकें। मुजफ़्फ़रपुर तक उसकी जान संशय में अटकी रही। मुजफ़्फ़रपुर आते ही उसने चैन की साँस ली किंतु अब उसे एक भय और सताने लगा था। पता नहीं सुमेर उसे ऐसी स्थिति में स्वीकार करेगा भी या नहीं। न जाने कितनी बातें उसके मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ रही थीं।

  गाड़ी जब सोनपुर पहुँची तो पौ फटने में कुछ देर थी। सोनपुर से पगडण्डी पकड़ उसने सीधे मेरे ही घर का रुख किया था। रास्ते भर चिड़ियाँ मंगलगान करती रहीं। ओस की बूँदों के भार से मार्ग पर ही झुक आयी तेज धार वाली भीगी पतार के रास्ते को चीरती हुयी जब तक वह मेरे घर पहुँची तब तक भोर की लालिमा भी उसका स्वागत करने के लिये प्रकट हो चुकी थी। तभी चिड़ियों ने अपने गंतव्य की ओर उड़ान भरना प्रारम्भ किया और यामिनी ने हमारे दरवाजे को खटखटाया।

  मुझे आश्चर्य हुआ, इतने भिनसारे कौन हो सकता है? किंतु जब दरवाजा खोला तो सहज ही विश्वास नहीं हुआ। अचानक मेरे मुँह से निकल पड़ा- “बहू! ......................... तुम? .....अतना भिनसारे ....तहार लूँगा कsइसे भीगल...अs ई चेहरा पे खून ?”

  झुक कर पैर छूते-छूते उसने एक ही साँस में मेरे सभी प्रश्नों के उत्तर दे दिये, बोली- “बड़ा दुरिया से आवतनी...लूँगा ओस मंs भीगल हs.......चेहरा पतार से चिरा गइल।”

  मैंने उसे आशीर्वाद दिया तो वह एकदम से लिपट गयी। वह बहुत थकी-थकी सी लग रही थी। थकी भी ...और उजाड़ भी। लगता था जैसे इन दो ही वर्षों में उसने कितनी उम्र पार कर ली थी। आकर्षक काया की स्वामिनी मरियल भिक्षुणी सी लग रही थी।

  सूरज जब थोड़ा चढ़ आया तो मैं यामिनी को लेकर सुमेर के घर पहुँची। सुमेर ने जैसे ही यामिनी को देखा तो रुआसा होकर बोला –“हमरा से का गलती भsइल रहे....?”

  यामिनी कुछ नहीं बोली, बस जाते ही सुमेर के पैरों पर गिर पड़ी। सुमेर ने यामिनी को उठा कर छाती से लगा लिया। वह हिचकी ले लेकर रोये जा रही थी। क्षण भर में ही शंकाओं-कुशंकाओं के घने मेघ छट गये।  कोई प्रश्न नहीं ...कोई वार्ता नहीं .....केवल उदार स्वीकार। सुमेर के शरीर की तरह उसका हृदय भी कितना विशाल था इसके लिये अब किसी प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी थी।  

  बहुत देर बाद जब वह संयत हुयी तो जैसे-तैसे इतना ही बोल सकी, -“हमार अपराध माफ़ी लायक नई खे।”

सुमेर कुछ नहीं बोला, बस टुकुर-टुकुर ताके जा रहा था यामिनी को और रोये जा रहा था।

  मेरी भी आँखें भर आयीं...भरे गले से सुमेर के हाथ में यामिनी का हाथ सौंपकर मैंने कहा- “ले बाबू सँभाल ....हम जातsनी।” 

  अपराधबोध से ग्रस्त यामिनी को सामान्य होने में कुछ दिन और लगे। मुझे लगा यामिनी को सुमेर के साथ-साथ मेरी भी आवश्यकता है, कम से कम स्थित सामान्य होने तक तो अवश्य ही। बीच-बीच में वह थोड़ी देर के लिये मुझसे मिलने आ जाया करती थी। एक दिन जब मैं उसके घर पहुँची तो देखा कि रोज की अपेक्षा उस दिन यामिनी ने साधारण ही किंतु सुरुचिपूर्ण ढंग से श्रृंगार भी किया था। मैंने उसे छेड़ा- “लगता है आज गैंडे की किस्मत अच्छी है।”

 उसकी आँखें भर आयीं, मुझसे लिपट कर बोली- “वे लिजलिजे गैंडे नहीं हैं?"

 

 यह पहली बार था कि यामिनी उस पूरी रात भीगती रही थी। लगता था जैसे पूरा समन्दर ही उमड़ पड़ा हो। अगली सुबह सुमेर ने देखा कि गुलाब के फूल ओस से नहाये हुये हैं।

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

धर्मांतरण की वैश्विक नीति


विकसित समाज की त्रासदियों में से एक महत्वपूर्ण त्रासदी है बलात् धर्मांतरण। एशियायी देशों, विशेषकर पाकिस्तान, बांग्लादेश और भारत में हिन्दुओं के बलात् धर्मांतरण की घटनाओं पर किसी का कोई अंकुश नहीं होना और भी चिंताजनक है। पाकिस्तान और बांग्लादेश की अपेक्षा स्वतंत्र भारत में भी हो रही धर्मांतरण की घटनाओं ने स्थिति को और भी भयावह बना दिया है। हिन्दुओं ने कभी किसी को धर्मांतरण के लिये नहीं कहा ..न कभी ऐसा कोई अभियान चलाया, जबकि मुस्लिमों और ईसाइयों ने धर्मांतरण के लिये वह सब कुछ किया जिससे मानवता कराहती रही। यह क्रम सहस्त्रों वर्षों से अनवरत् चल रहा है ...तब के पराधीन भारत से लेकर आज के स्वतंत्र भारत तक। केवल एक औरंगज़ेब ने ही नहीं बल्कि उस जैसे बेशुमार लोगों ने इस्लाम धर्म के नाम पर मानवता को शर्मसार करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी। विश्व इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलेगा जिसमें किसी हिन्दू द्वारा किसी विदेशी भूमि पर जाकर वहाँ के राजाओं के साथ या वहाँ की प्रजा के साथ अमानुषिक व्यवहार किया गया हो। इस्लामिक अनुयायियों द्वारा प्रचलित प्रताड़ना के तरीके अद्भुत हैं ...क्रूरता की अपनी ही बनायी हर सीमा को तोड़ते हुये एक इस्लामिक विश्व की कल्पना की जाती रही है। यह मोहम्मद गोरी है जो पृथ्वीराज की आँखें बड़ी क्रूरता के साथ गर्म सलाखों से फोड़ देता है....यह औरंगज़ेब है जो शिवाजी के पुत्र सम्भा जी की जिव्हा काटकर फेक देता है और आँखें गर्म सलाखों से फ़ोड़ कर तड़प-तड़प कर मरने के लिये बाँध कर छोड़ देता है ...भारत में ऐसे उदाहरणों की भरमार है।

विदेशी मुसलमानों के अमानुषिक अत्याचारों से सदियों तक लुहूलुहान होते रहे उसी भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय धर्म के नाम पर देश के हिस्से हुये.... इस त्रासदी के बाद भी आर्यों का देश एक बार फिर खोखले आदर्शवाद और अदूरदर्शिता का एक लम्बे समय तक शिकार होते रहने के लिये बाध्य कर दिया गया। इस बाध्यता का परिणाम् क्या होगा कोई नहीं जानता। हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिये किये गये न जाने कितने महान लोगों के बलिदानों को विस्मृत कर दिया गया। धर्मनिरपेक्षता के आयातित पाखण्ड के खोखले आदर्शों की स्थापना के समय पृथ्वीराज और सम्भा जी की तप्तलौहदग्ध आँखों की पीड़ा को स्मरण किये जाने की किसी ने आवश्यकता नहीं समझी। किसी ने भारत की मासूम बेटियों-बहुओं के साथ इस्लामिक झण्डाबरदार अनुयायियों द्वारा क्रूरतापूर्वक किये जाते रहे बलात्कारों की पीड़ा को स्मरण करने की आवश्यकता नहीं समझी। और आज इतने वर्षों बाद यह सोचने की आवश्यकता भी कोई नहीं समझ रहा कि क्यों ....आख़िर क्यों पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दुओं की संख्या निरंतर कम होती जा रही है, वहीं भारत में मुस्लिमों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। असंतुलन की यह स्थिति आने वाले समय में भारत के मानचित्र में फिर परिवर्तन की प्रतीक्षा कर रही है। अब प्रश्न यह है कि भारत के मानचित्र में परिवर्तन का यह क्रम कब समाप्त होगा ? कभी समाप्त होगा भी या नहीं? पूर्वांचल के प्रांत ईसाई बहुल हो गये हैं, भारत के कई शहर मुस्लिम बहुल होते जा रहे हैं। ...धर्मांतरण का कुचक्र गतिमान है ...कहीं कोई नियंत्रण नहीं ...कहीं कोई प्रतिबन्ध नहीं। भारत के विभिन्न नगरों में हिन्दुओं पर आक्रमण, भारत की भूमि पर बलात् अधिकार और बलात् धर्मांतरण जैसी घटनायें पड़ोस के विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा भारत में आज भी हो रही हैं ...जिसका परिणाम् है अभी हाल में हुयी असम हिंसा...जिसकी लपट दूर मुम्बई में भी खूब भड़की। इस्लामिक अनुयायियों के आतंकवाद ने भारत को निरंतर शिकस्त दी है .....भारत में घुस कर भारतीयों का सामूहिक नरसंहार किया है। हिन्दुओं को विचार करना होगा कि विश्व में उनके लिये अब कौन सा ऐसा स्थान है जहाँ वे सुरक्षित रह सकते हैं। क्या हिन्दुओं को आगामी एक सौ वर्षों में ही भारत से पलायन करना पड़ेगा? प्रश्न गम्भीर है ...उपेक्षा करना आत्मघाती होगा।    

स्वतंत्र भारत के समाचार पत्रों में धर्मांतरण के बारे में प्रायः कोई न कोई घटना प्रकाशित होती ही रहती है। पिछले कुछ दिनों से हिन्दू लड़कियों के अपहरण, बलात् धर्मांतरण और उनके साथ मुस्लिमों द्वारा बलात् विवाह करने जैसी घटनाओं की सूचनायें पड़ोसी देश पाकिस्तान से आ रही हैं। पहले तो पाकिस्तान के नुमाइन्दों ने इन सूचनाओं का खण्डन किया पर अब वे भी स्वीकार करने लगे हैं कि पाकिस्तान में हिन्दू लड़कियों का बलात् धर्मांतरण किया जा रहा है। गत् वर्ष 2011 में अल्पसंख्यक समुदाय की दो हज़ार लड़कियों और स्त्रियों को बलात्कार, यातना और अपहरण के माध्यम से इस्लाम का अनुयायी बनने के लिये बाध्य किया गया। कितने अपमान और पीड़ा का विषय है कि प्रताड़ना के हर प्रकरण में स्त्री ही हर किसी के अंतिम लक्ष्य पर होती है। यह कैसा इस्लाम है जो किसी की धार्मिक स्वतंत्रता का न केवल बलात् अपहरण करता है अपितु स्त्रियों के उत्पीड़न की सारी सीमायें लाँघ जाता है?

पाकिस्तान की हर प्रकार की व्यवस्थाओं पर कट्टर इस्लामिक संगठनों के नियंत्रण की स्थिति की भयावहता का प्रमाण है कि अल्पसंख्यक हितों के पक्षधर पाकिस्तानी पंजाब के राज्यपाल सलमान तासीर और केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्री शाहबाज़ भट्टी की 2011 में हत्या कर दी गयी।

इधर पाकिस्तान से प्रताड़ित हुये हिन्दुओं के भारत पलायन का क्रम थम नहीं रहा है। धार्मिक वीज़ा लेकर थार एक्सप्रेस से पाकिस्तानी हैदराबाद और सिन्ध से एक सौ एकहत्तर हिन्दू परिवारों ने पलायन कर राजस्थान के जोधपुर नगर में शरणार्थी बनकर अपना डेरा डाल दिया है। वे अब पाकिस्तान वापस नहीं जाना चाहते। कोई अपनी जन्म भूमि छोड़कर पलायन क्यों करता है? यह चिंतनीय विषय है। यह लेख लिखते समय मैं स्वीकार करता हूँ कि हर मुसलमान क्रूर और आतंकवादी नहीं होता ....मानवीय संवेदनाओं और मानव मात्र का हितचिंतन करने वाले मुस्लिमों के प्रति मैं विनम्रता पूर्वक अपना सम्मान प्रकट करता हूँ। तथापि पतन के इस युग में बड़ी ही विनम्रतापूर्वक मैं इस बात का भी प्रबल पक्षधर हूँ कि इस्लाम के नाम पर हो रहे अत्याचारों और अमानवीय कृत्यों को अंकुश में रखने के लिये एक ऐसी विश्वनीति बनायी जानी चाहिये जो धर्मांतरण को घोर आपराधिक कृत्य घोषित करे। विश्व के किसी भी देश या समुदाय में धर्मांतरण एक घोर अपराध स्वीकार किया जाना ही चाहिये। ध्यान रहे ...धर्मांतरण का अपराध राष्ट्रद्रोह का अपराध है।