मंगलवार, 27 नवंबर 2012

काश! मुझे भी ईश्वर नें बनाया होता

तो मौत के बाद कोई ठिकाना तो मिला होता। 

 

यूँ न इतराओ अपनी ख़ूबसूरती पे

कसम से ....कभी हमारे भी जलवे हुआ करते थे 

 

आकाश भी हमारा न रहा

यहाँ भी बिछा दिया सामान .....हमारी मौत का 

 

सल्फ़ी ने बाँध लिये ......सिर पे फिर सेहरे

 

सिर रहे न रहे पर झुकेंगे नहीं। दम हो तो झुका के दिखाये कोई।

 

कट गया धान ...अब हमारी बारी।

 

एइलेंथस एक्सेल्सा ...ज्वरनाशक है स्टेम बार्क का जूस।

 

सोमवार, 12 नवंबर 2012

तकदीर बनाने प्यासों की अब कुयें स्वयं ही चलते हैं

     दया, दान, क्षमा, उदारता, प्रेम और अहिंसा .... आदि उदात्त मानवीय गुण समाज में संतुलन बनाये रखते हुये एक सहिष्णु और सौम्य समाज के  निर्माण में सहायक होते हैं। इसीलिये धर्मग्रंथों में इन गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है। समाज के भौतिक विकास के साथ-साथ ये गुण अपने लक्ष्य खोते गये और आज दूषित कुविचारों के साधन मात्र बनकर रह  गये हैं।

     पात्रता का निर्धारण युक्तियुक्त तरीके से न करना उदात्त मानवीय गुणों का दुरुपयोग ही कहा जायेगा।  भिखारी को भीख देना उस पर दया करना है किंतु इस दया से उसकी तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति के अतिरिक्त कोई और उद्देश्य पूरा नहीं होता। एक आदर्श व्यवस्था तो यह है कि उसके भीख मांगने के कारणों को दूर करते हुये उसे आत्मनिर्भर बनने में सहयोग किया जाय।

     हमें यह समझना होगा कि सत्तायें सदा ही समाज में ऐसे कारण उत्पन्न करने में लगी रहती हैं जो शासन की ज्वलंत आवश्यकता को बनाये रखें। सत्ताओं की रुचि समस्या के समाधान में कम, उनके निर्माण में अधिक रहती है। आदिम समाज में सत्ता कभी समाज की आवश्यकता थी जो कि अब मनुष्य की आवश्यकता बन गयी है। जब हम समाज से मनुष्य की ओर आते हैं तो व्यक्तिवाद प्रकट होने लगता है। यह व्यक्तिवाद ही प्रभावी होकर कुविचारों और कुनीतियों को जन्म देता है।

     भारत जैसे प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न देश में अभाव, दरिद्रता, अपराध, अनीति, आतंक, असंतोष, हिंसा, बलात्कार,  रोग, अधोपतन और बौद्धिक पलायन जैसी समस्यायें हैं ......परंतु क्यों हैं यह गम्भीर चिंतन का विषय है। ये समस्यायें अनियंत्रित क्यों हैं ....इनका समाधान क्यों नहीं मिल पा रहा ....कहीं ये समस्यायें जानबूझकर निर्मित तो नहीं की गयीं? हम जिन आदर्शों के बारे में पढ़ते हैं ...जिन उपदेशों को सुनते हैं वे कहीं भी दिखायी क्यों नहीं देते ? और दिखायी देते हैं तो सुदूर उत्तर में स्वीडेन और फ़िनलैण्ड जैसे देशों तक ही सीमित क्यों हैं?

     इन प्रश्नों के उत्तर हमें खोजने होंगे। वस्तुतः भारत में सत्ता का उद्देश्य़, जैसा कि मैंने कहा, मनुष्य़ और समाज का निर्माण करना नहीं अपितु मनुष्य और समाज पर शासन करना भर ही रह गया है। सत्ता के लिये समाज को बांटने और लोगों में परस्परिक फूट डालने जैसे दुष्ट विचारों के लिये हमें अंग्रेज़ों को ही दोष देने की आदत से मुक्त होना होगा। स्वतंत्र भारत में अंग्रेज़ों की इस विरासत में निरंतर वृद्धि करने वाले लोग कौन हैं .....किस देश के निवासी हैं?

      भारत में आर्थिक अपराध घोटालों के रूप में मान्य हो चुके हैं। अपराध ने राजनीति को निगल कर पचा लिया है और राजनीति पूरी तरह अपराध के शरणागत् हो चुकी है। आज इन दोनों की एक-दूसरे के बिना कल्पना नहीं की जा सकती। भारत के किसी भी राजनीतिक दल में या समाज में भी भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव ही दिखायी दे रहा है। प्रशासन के उच्चाधिकारी प्रायः समाज के लिये कम किंतु  सत्ता के लिये अधिक समर्पणभाव से कार्य करते हैं। उनकी कार्यशैली इस बात का प्रमाण है। उनका सामंती तौर-तरीका और अन्य विभाग के अधिकारियों के साथ अकारण ही निरंतर अपमानजनक व्यवहार आश्चर्यजनक है। कई बार सन्देह होता है कि कहीं वे किसी अन्य ग्रह के प्राणी तो नहीं। उनके निर्णय अव्यावहारिक और समाज के लिये अनुपयोगी होते जा रहे हैं। तर्क उन्हें पसन्द नहीं ...केवल अपमानजनक तरीके से अव्यावहारिक आदेश देना ही उनके अस्तित्व का एकमात्र लक्षण बन गया है। यह एक शोध का विषय होना चाहिये कि भारत का एक आम नागरिक मसूरी से लौटने के बाद किसी दूसरे ग्रह का प्राणी कैसे और क्यों बन जाता है?

     आधी शताब्दी की स्वतंत्र यात्रा के पश्चात् अब यह स्पष्ट हो चुका है कि सत्ता बनाये रखने के लिये समाज को निरंतर और निरंतर दुर्बल बनाये रखने की आवश्यकता ही आज भारत का एकमात्र आदर्श रह गया है। जातिगत् आरक्षण की व्यवस्था समाज को अव्यवस्थित करने की स्थायी व्यवस्था के रूप में अपना दृढ़ स्थान बना चुकी है। आरक्षण अपने उद्देश्य को पाने में असफल रहा है, समाज का एक वर्ग यह समझने के लिये तैयार नहीं हो पा रहा। उन्हें यह समझना होगा कि किसी स्वस्थ्य समाज को उत्कृष्ट गुणों और दक्षता की आवश्यकता होती है न कि इनमें शिथिलता की? विश्व के किसी भी देश में गुणों और दक्षता में शिथिलता के साथ विकास की कल्पना नहीं की गयी, और इसका परिणाम सबके सामने है। हम एक चम्मच भात खाकर ही भूख मिट जाने की कल्पना को भारतीय समाज में स्थापित कर चुके हैं और यह कल्पना किसी परजीवी की तरह भारतीय समाज को खोखला करती जा रही है। दुर्बल और अक्षम को सबल और सक्षम बनाने के प्रयास किये जायें न कि उन्हें योग्यता और दक्षता में शिथिलता प्रदान की जाय। यह समाज निर्माण की नहीं समाज विघटन की प्रक्रिया है।

     सुविधा के नाम पर समाज को अपंग बनाने की कला में हम दक्ष हैं। सत्तायें नहीं चाहतीं कि लोग आत्मनिर्भर हों। गरीबों पर दया करना और उन्हें आगे बढ़ने के लिये सहयोग करना अच्छा है पर सीमा और औचित्य का निर्धारण आवश्यक है। गरीबों को कम मूल्य में खाद्यान्न उपलब्ध कराने का प्रभाव यह हुआ कि अब लोग काम ही नहीं करना चाहते। शिक्षकों को यह लक्ष्य दे दिया गया कि वे घर-घर जाकर बच्चों को पढ़ने के लिये शाला आने के लिये प्रेरित करें, उनके बच्चे रुग्ण हों तो उनकी चिकित्सा करायें, उन्हें भोजन करायें ...उनके लिये सब कुछ करें पर स्वयं उन्हें एक अच्छे नागरिक बनने के लिये आवश्यक आत्मनिर्भरता के पाठ से सदा दूर रखें। सचेष्ट विकास के स्थान पर निश्चेष्ट विकास को ही सत्ता और व्यवस्था ने अपना लक्ष्य बना लिया है। सुदूर और पहुँचविहीन अंचलों में स्वास्थ्य सेवाओं के लिये सचल औषधालय की व्यवस्था स्वागतेय है किंतु इससे भी अधिक स्वागतेय होगा उन पहुँचविहीन अंचलों को पहुँचयुक्त और सुगम बनाना। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत के आम नागरिक को अपना उत्तरदायित्व समझने और उसे स्वस्फूर्त निर्धारित करने के लिये प्रतिकूल स्थितियाँ निर्मित की गयी हैं। किसी रुग्ण को अपने स्वास्थ्य की चिंता करने की आवश्यकता नहीं रह गयी, यह शासन के चिकित्सकों का उत्तरदायित्व बन गया है कि वे उनके लिये न केवल चिंतित हों अपितु औषधियाँ लेकर उनके पीछे-पीछे जगह-जगह डोलते फिरें। जहाँ कहीं भीड़ दिखे डॉक्टर्स को वहाँ पहुँचना ही होगा, जैसे कि रोगियों को भीड़ में जाना बहुत प्रिय हो। रुग्ण होने पर लोग घर में आराम करना नहीं बल्कि भीड़ में घुसना पसन्द करते हों। स्वास्थ्य मेलों का आयोजन घर पहुँच सेवा का एक प्रकार है। इसके लिये डॉक्टर्स को पहले से पर्याप्त प्रचार करना होता है कि हम आपके गाँव आ रहे हैं ...आपकी चिकित्सा के लिये..... हमारे आते तक वहीं ठहरो। यह प्रचारित करने की आवश्यकता नहीं है कि आपके गाँव में ही या आपके गाँव के समीप ही स्वास्थ्य केन्द्र हैं जहाँ रोगी को पहुँचना उसका अपना उत्तरदायित्व है। आखिर कब हमारी व्यवस्था लोगों को अपने जीवन की आवश्यकताओं को स्वयं समझने और अपने उत्तरदायित्व स्वयं निभाने के लिये आत्मनिर्भर बनने का अवसर देगी? आम नागरिक को अपंग बनाती इस व्यवस्था का परिणाम दिखायी देने लगा है। छत्तीसगढ़ में शिक्षक और चिकित्सक सबसे दयनीय प्राणी बन गये हैं। छोटे शहरों या गाँवों के  डॉक्टर्स का अपने व्यक्तिगत् कार्य से भी बाहर निकलना मुश्किल हो गया है। लोग रास्ता रोक कर ताकत और कामशक्ति बढ़ाने वाली दवाइयाँ मांगने लगे हैं। लोग चिकित्सालय आने की आवश्यकता नहीं समझते बल्कि कहीं भी चिकित्सक को देखते ही उन्हें अपनी बीमारी याद आ जाती है फिर भले ही वह कोई विवाह समारोह ही क्यों न हो। क्या यह गम्भीर चिंतन का विषय नहीं कि स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हम अपने नागरिकों को शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में स्वयं पहल करने की सोच तक विकसित नहीं कर पाये? विकास और प्रगति की यह छद्म अवधारणा आत्मनिर्भरता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है, और यह बात भारत के आम नागरिक को समझनी होगी।

तक़दीर बनाने प्यासों की, अब कुयें स्वयं ही चलते हैं

दीपक हैं सारे बुझे हुये, अब पथ ही हरदम जलते हैं॥

पथ सारे जल जायेंगे तो पथहीन बनेगा यह भारत

भटकेगा सारा देश तभी, होगा फिर नया महाभारत॥  

 

रविवार, 11 नवंबर 2012

आयुष्यदाता

धन्वंतरिदेव आयुष्यदाता!

नमन देव स्वीकार कर लो हमारा।

अज्ञान से जन्म लेते रहे हम

अज्ञान में मृत्यु बुनते रहे हम॥

पुरुषार्थ का मंत्र अब गुनगुना दो

हमें मुक्ति का मार्ग अब तो बता दो॥

रहस्य तन औ मन का है क्या कहो तो

जीवन सहजतम ये कर दो हमारा॥

 

जीवन है पथहीन, घनघोर वन सा

शरीरं इदं गूढ़ ब्रह्माण्ड जैसा॥

दुर्गम जटिलतम विचित्रं रहस्यम्

हमें पथ बता दो सहजतम सरलतम॥

मन शांत हो और निर्मल हो तन भी

हितं हो परं, कर सकें परहितं भी॥

कैसे जियें, भेद सबको बता दो

अनुरोध स्वीकार कर लो हमारा॥

 

जब भी थकें हम, तुम शक्ति देना

कैसे चलें, मार्ग भी तुम बताना॥

हर जीव जग का, करे लक्ष्य पूरा

सुख से जिये, हो न जीवन अधूरा॥

बने दिव्य जीवन, वरदान यह दो

हटा कर तमस ये भर दो उजाला॥

घनी पीर है और है तेरा सहारा

नमन देव स्वीकार कर लो हमारा॥   


शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

राज्योत्सव

स्थापना दिवस ....यानी स्वतंत्र भारत के एक राज्य का जन्म दिन । जन्म दिन है तो उत्सव का स्वस्फूर्त कारण तो है ही।

  

हुक़्म हुआ है कि उत्सव को हर्षोत्साह के साथ मनाया जाय।

सभी सरकारी विभागों के अधिकारी सारे विभागीय नित्य कर्म त्याग कर योजना बनाने और जन्म दिन मनाने की तैयारियों में जुट गये हैं। कुछ विभाग बेहद गरीब हैं तो कुछ बहुत ही सम्पन्न। ज़ाहिर है, जन्म दिन मनाने में धन का अपव्यय तो होना ही चाहिये। उत्तर प्रदेश की याद आती है जहाँ की एक महिला का जन्म दिन उतर प्रदेश के लोग बड़े ही उत्साह के साथ मनाते हैं। हीरे और स्वर्णाभूषणों के अम्बार लग जाते हैं। एक गरीब महिला केवल अपने प्रतिवर्ष मनाये जाने वाले जन्म दिनों से ही अरबपति बन गयी है।

यह छत्तीसगढ़ है ...प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर एक गरीब प्रांत जहाँ के लोग बड़े गर्व से गीत गाते हैं -"मैं छत्तिसगढ़िया हौं .....मैं चटनी-बासी खात हौं। नदी किनारे मोर झोपड़ी ....जंगल-जंगल जात हौं॥"

 

तो इसी गरीब प्रांत के जन्म दिन पर करोडों की धनराशि उत्सव पर खर्च की जा रही है। जनता और राष्ट्र की सेवा में लगे सभी विभागों के अधिकारी और कर्मचारी व्यस्त हैं ...जन्मदिन की तैयारियों में। भव्य पण्डाल लगाये गये हैं। प्रशासनिक अधिकारी घूम-घूम कर निरीक्षण कर रहे हैं। भव्यता और उपलब्धियों के प्रदर्शन में कोई कमी नहीं रहनी चाहिये। आवश्यकता न होने पर भी वे विभागीय अधिकारियों को कुत्ते की तरह डाँट भी रहे हैं। अधिकारीगण एक प्रशिक्षित दासानुदासानुदास की तरह बड़े ही विनयपूर्वक उनकी उद्दण्डता को आत्मसात कर रहे हैं। अत्यंत हर्षमय वातावरण निर्मित हो गया है जिसमें प्रशासनिक अधिकारियों के सहज आतंक ने उसे कोटि गुणित  कर दिया है। दासानुदासानुदास धन्य हो रहे हैं।  

 

कुछ दरिद्र विभागों के दीन-हीन अधिकारियों ने भयभीत हो कर अपनी आर्थिक हैसियत से कहीं ज़्यादा खर्च करके प्रदर्शनी की भव्यता निर्मित करने का प्रयास किया।

 

आयुष विभाग के पण्डाल में चिकित्सा अधिकारियों की पूरी एक फ़ौज़ थी। वे  स्थानीय विधायक और सांसद को चिकित्सा विज्ञान की भारतीय परम्परा की विशेषतायें बताने में व्यस्त रहे, व्यस्त कैसे न होते, दो दिन में उनके पण्डाल में प्रवेश करने वाले एलिट लोगों में वे पहले प्राणी थे। प्रशासनिक अधिकारियों ने तो फूटी आँख उठाकर देखना तक मंज़ूर नहीं किया।  उनका ध्यान गुण से अधिक संख्या पर है। वे चाहते हैं कि स्वास्थ्य विभाग के लोग जहाँ कहीं सशरीर उपस्थित हों तुरंत उपस्थित लोगों की चिकित्सा में लग जायें। गोया पूरा देश रुग्ण है। जन समस्या निवारण शिविर हो या राज्योत्सव या अन्य कोई कार्यक्रम .....डॉक्टर्स को चलते-फिरते हर समय केवल और केवल रोगियों को दवाइयाँ बांटते रहना चाहिये। डॉक्टर यानी एक ऐसा मज़दूर जो हर समय ...हर स्थिति में फावड़ा चलाने के लिये तत्पर रहे। प्रशासनिक अधिकारियों की यह मानसिकता अनुकरणीय है ...अद्भुत् है ....स्तुत्य है। वारे जाऊँ इस मानसिकता पर। स्वास्थ्य विभाग चाहता है कि लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक किया जाय जिससे वे कम से कम रुग्ण हों। प्रशासकीय अधिकारी चाहते हैं कि लोग अधिक से अधिक रुग्ण हों जिससे कि उनकी चिकित्सा की जा सके और फलित आँकड़े दर्शनीय हो सकें। यूँ भी डॉक्टर्स लोग काम ही क्या करते हैं ....बस जरा सी कलम हिलायी और प्रिस्क्रिप्शन पूरा। यह भी कोई काम हुआ?

एक साहब बड़े गुस्से में आये, आते ही कच्ची ककड़ी की तरह भक्षण करने की मुद्रा में डॉक्टर्स को घूरते हुये हुक़्म दिया "बस चाय ही पीते रहोगे या मरीजों को कुछ दवा भी बांटोगे? चलो, टॆबल लगा कर दवा बांटो।"

बैंक के लोग किसानों को ऋण बांटते हैं, वन विभाग के लोग पौधे बांटते हैं, पशु विभाग के लोग सुअर बांटते हैं, महिला एवं बाल विकास विभाग के लोग रेडी टु ईट मील बांटते हैं, मन्दिर में पुजारी जी पंजीरी बांटते हैं .....ऐसा उत्तम विचार मन में लाते हुये भय को प्राप्त हुये डॉक्टर्स ने आनन-फानन में टेबल मंगाई कुछ दवाइयाँ मंगाईं और धूप से भरे-पूरे पंडाल में चुचुआते पसीने से युक्त होकर बैठकर रोगियों के आने की प्रतीक्षा करने लगे।

आह! बहुत देर हो गयी, एक भी रोगी नहीं .....इतिहास का रट्टा लगाकर बड़ा साहब बना कोई प्राणी फिर आयेगा और न जाने कितने विषवाण छोड़ेगा .....इस चिंता से ग्रस्त हुये डॉक्टर्स राज्योत्सव के विशाल प्रांगण में एक अदद रोगी खोजने की लालसा से यत्र-तत्र विचरण करने लगे। गरीब की आशा बड़ी दुखदायी होती है, बड़े यत्न के बाद भी कोई रोगी नहीं मिला। तब एक भयभीत डॉक्टर ने पड़ोस के पण्डाल में बैठे एक कर्मचारी से अनुनय विनय करते हुये कहा- "हे स्वतंत्र भारत के परतंत्र शासकीय कर्मचारी जी! आपके मुख पर छाये विषाद से प्रतीत होता है कि आप के मन में कोई शल्य है जो आपको पीड़ित कर रहा है। आप कृपा करके हमारे पण्डाल तक चलिये जिससे आपके मनोशल्य को दूर किया जा सके।" 

एक दुःखी प्राणी ने दूसरे दुःखी प्राणी के दुःख को समझा और चुपचाप उपकार भाव से दवा ले कर चला गया। रोगी पंजी में एक रोगी दर्ज़ हुआ। तभी एक बुज़ुर्ग सज्जन आये ...बिना किसी के प्रयास किये आ गये।  बोले, दूसरा विवाह किया है, कुछ कृपा हो जाय। उन्हें बड़ी विनम्रता से  कहा गया-"हे कामी पुरुष! शासन की ओर से ऐसी औषधियों का प्रदाय वर्ज्य है। आप किसी ख़ानदानी शफ़ाख़ाने वाले से संपर्क स्थापित करें।"

दुःखी डॉक्टर्स उन्हें दवा बांटने से वंचित रह गये ...किंतु रोगी पंजी में उनका शुभ नाम दर्ज़ कर उन्हें किसी उपयुक्त स्थान के लिये रेफ़र कर दिया गया।    

 

अहिंसा के गीत गाने वाले देश में मांसाहार को बढ़ावा देने के लिये पशुधन विकास विभाग की ओर से दो टर्की लाकर रखे गये हैं। विदेशों में भारतीय गाय(बॉस इण्डियाना) को पसन्द करने वालों की विदेशी गाय (बॉस टौरस) को प्रचारित करने के लिये एक बड़ा सा कट आउट लगाया गया है। भारतीय गाय का एक छोटा सा चित्र भी कहीं खोजे नहीं मिला। पूछने पर बताया गया कि सब कुछ हुक़्म के अनुसार हो रहा है। यह हुक़्म कौन देता है?

विदेशों में भारतीय गाय को सर्वोत्तम माना गया और भारत में भारतीय गाय को विदेशी साँड़ से संकर बनाया जा रहा है! अहो दुर्दैव! क्या उत्तम योजना है! भारत से भारतीय श्रेष्ठ गाय को सदा के लिये समाप्त कर देने की अद्भुत् योजना स्तुत्य है ...अनुकरणीय है।  

 

किराये पर लाये गये गरीब आदिवासियों से नृत्य कराया गया। भव्यता में वृद्धि हुयी, अधिकारीगण हर्षित हुये। आतंक किंचित कम हुआ।

 

एक प्रथम श्रेणी अधिकारी अपने पण्डाल की तैयारी में स्वयं ही जुट गयीं। ऐसे लोगों की सरलता के प्रति सहज श्रद्धा उत्पन्न हुयी।

 

रेडी टु ईट मील से संवरता भोला बचपन


 

मनुष्य तो नहीं ...हाँ! कीचड़ में खिले कमल अवश्य ही हमारी आशा के स्रोत हैं।