रविवार, 24 जून 2012

फूल खिले हैं जंगल-जंगल

वर्षा में जंगल का सौन्दर्य देखते ही बनता है। चलिये न! जरा घूम कर आते हैं  ...नहीं-नहीं, मैं आपको भारत के सबसे ख़ूबसूरत "जगदलपुर-वाल्टेयर" रेलमार्ग की ओर नहीं ले जा रहा, जो बरसात में और भी मनोहारी हो जाता है बल्कि अभी तो जंगल से होकर जाते रायपुर-बस्तर राजमार्ग के दोनो ओर अनुपम छटा और भीनी ख़ुश्बू बिखेरते कुटज के जंगल के दर्शन कराने ले चल रहा हूँ जहाँ वारिश के शुद्ध जल से स्नात कुटज के पेड़ श्वेत पुष्प गुच्छ थामे आपके स्वागत में प्रतीक्षारत हैं... 


यही है कुटज (Holerina antidysentrica)
जोकि डिसेंट्री यानी आँव-पेचिश की उत्कृष्ट औषधि है। इसके तने की छाल से बनती है डिसेंट्री की औषधि, इसकी लम्बी फली में लगने वाले यव के आकार के बीजों(इन्द्रयव) से बनती है मधुमेह की औषधि और इसकी जड़ की छाल के चूर्ण का क्षीरपाक लाभ करता है ट्युबर्क्युलोसिस में।
तो देखा आपने कितना उपयोगी है यह ख़ूबसरत वनौषधि।  

विल्व (Aegle marmilose)
मामला डिसेंट्री का हो तो विल्व फल के बिना मुक्ति नहीं मिलने वाली। डिसेंट्री की प्रसिद्ध औषधि "विल्वावलेह" के लिये तो आपको शिव प्रिय विल्व की शरण में जाना ही होगा। इसके कच्चे फ़लों के गूदे से बनता है विल्वावलेह। इसके पत्ते के स्वरस से बनती है मधुमेह की औषधि। यह विषघ्न भी है तभी तो शिव जी को अत्यंत प्रिय है विल्वपत्र।

गिलोय Tinospora cardifolia
ज्वर कैसा भी हो, साधारण, विषम या फिर टायफ़ाइड गिलोय के बिना काम नहीं चलने वाला। ज्वर के अतिरिक्त पेप्टिक अल्सर, अर्टीकेरिया, डर्मेटाइटिस आदि के लिये भी गिलोय प्रसिद्ध है तभी तो इसका नाम है "अमृता" । पेड़ पर चढ़ी इसकी लता का सम्बन्ध यदि जड़ से समाप्त कर भी दिया जाय तो शेष बची बेल से कुछ दिनों में लम्बी-लम्बी नयी जड़ें निकलकर मिट्टी से पुनः अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं। काश! इंसान को भी अपनी मिट्टी से इतना ही प्रेम होता !

और ये रहे गिलोय के फल


पकने पर ये फल लाल और फिर सूखने पर गहरे कत्थई रंग के हो जाते हैं

पुनर्नवा (Boerhavia diffusa)
किडनी की व्याधियों की उत्तम औषधि इसके मूल से बनती है। गुर्दे की कई विकृतियों को दूर करने, रक्त को शुद्ध करने, रक्त का निर्माण करने और एडिमा की चिकित्सा के लिये पुनर्नवादि गुग्गुल, पुनर्नवादि मण्डूर और पुनर्नवारिष्ट के उपयोग से कौन अपरिचित है भला!

गगन विहारी
समय का सम्मान करना कोई इनसे सीखे। तभी तो इन्हें डॉक्टर्स के चक्कर नहीं काटने पड़ते हैं न!
चलिये, अब हम भी चलें अपने-अपने घर ...

रविवार, 17 जून 2012

कागज का पुलिन्दा

  उस दिन जब मृण्मयी ने कहा था कि यह जितना भी दिखाई देता है .....संसार इतना ही नहीं है, और भी बहुत से संसार हैं जो दिखाई तो नहीं देते पर होते बहुत जटिल हैं और जिनके रचयिता हम स्वयं होते हैं, तब निशांत कुछ समझ नहीं सका था। समझ सका तब, जब किशोर ने एक-एक कर अपनी कई गाँठें खोल डालीं उसके सामने। पर गाँठें क्या यूँ ही खुल गयी थीं ! सहज नहीं होता किसी गाँठ को खोल पाना...विशेषकर तब और भी जब कि अपने रचना संसार की सीमायें दूसरों के लिये अप्रवेश्य हों। 

    अपने एक दूर के चाचा के पास रहकर पढ़ायी के लिये आये किशोर का अपना घर यहाँ से बहुत दूर है इसलिये पड़ोस में रहने वाली मृण्मयी ने उसे नाम दिया है प्रवासी । ग्रामीण पृष्ठभूमि से आये प्रवासी किशोर को यहाँ रहते दो वर्ष बीत चुके हैं। संकोची स्वभाव का किशोर आजकल कुछ अधिक ही गंभीर हो गया है। उसकी गंभीरता ने सामान्य व्यवहार की सरलताओं को वर्ज्य कर दिया था जिसके कारण उसका मित्र निशांत भी कुछ असहज अनुभव करने लगा था। कई बार निशांत ने जानने का प्रयास किया कि आख़िर हुआ क्या, पर किशोर ने कोई उत्तर नहीं दिया। निशांत पीछे पड़ता तो चुपचाप उठता और चल देता नदी की ओर ......और बैठा रहता वहीं घण्टों ...नदी के किनारे। 

  पर आज निशांत ने भी पीछा नहीं छोड़ा उसका, पीछे-पीछे लगा ही रहा नदी तक। उसने भी सोच लिया था, कुछ भी हो आज इस प्रवासी मित्र के मन का रहस्य अनावृत करना ही होगा। अंततः इस सबका दुष्प्रभाव उसके अध्ययन पर पड़ना निश्चित था। तब उस दिन बहुत मनाने समझाने के पश्चात् जो भी कुछ बताया उसने उसे सुनकर तो एक बारगी आश्चर्यचकित ही रह गया निशांत। इतना कुछ घट गया और उसे पता तक नहीं। 

  कुछ स्तब्ध क्षणों को पारकर निःश्वास छोड़ते हुये निशांत ने पुनः प्रश्न किया - "तो उस दिन मृण्मयी की हठीली धारणा का समाधान न कर पाने से ही इतना विषाद हो गया है तुम्हें?" 

   एक गम्भीर श्वास लेकर रहस्य की एक और पर्त को उदीर्ण किया किशोर ने, बोला -"नहीं बन्धु! इतना भी तो ठीक था पर मेरी समस्या तो उस दिन से प्रारम्भ हुयी जिस दिन मैं यह लक्ष्य कर सका कि मृण्मयी के जीवन में एक विचित्र ही परिवर्तन हो गया है। तुमने भी देखा होगा, अब वह पहले जैसी नहीं रह गयी। उसकी चपलता, चंचलता और हर पल अधरों पर रहने वाली निर्मल हंसी सब कुछ एकबारगी ही न जाने किस गह्वर में विलीन हो चुकी हैं । मुझे लग रहा है अब उसके जीवन में वह उल्लास नहीं ...वह आनन्द नहीं ..। बस, जीवन एक निरुद्देश्य भार सा बन कर रह गया हो जैसे...और जिसे वह ढ़ोये जा रही है चुपचाप , बिना किसी प्रतिवाद के। उसकी यह स्थिति ही मेरे लिये असह्य हो उठी है क्योंकि इसका उत्तरदायी किसी न किसी रूप में मैं स्वयं ही हूँ। सच, यदि मैने इतना तिरस्कार न किया होता उसका तो ऐसा नहीं होता......कभी नहीं होता।"  

  बोलते-बोलते उसकी आँखें शून्य में न जाने कहाँ जाकर उलझ सी  गयीं, जैसे खो गया हो कुछ ....और उसे खोजने में प्रयत्नशील हो वह । 

  देर तक दोनो के मध्य मौन छाया रहा। निशांत भी किंकर्तव्यविमूढ़ ...कुछ सोचने की शक्ति ही जैसे समाप्त हो गयी हो। समस्या अवश्य ही साधारण नहीं थी, और उसका समाधान ? अब भला समाधान भी क्या हो सकता है उसका ? शत्रु के संसाधनों को नष्ट करते समय यह विचार ही नहीं आया उसे कि अपनी सीमा में वापस आने के लिये कोई तो मार्ग शेष रखे। सब साधन नष्ट कर दिये थे उसने ...स्वयं अपने ही हाथों से। 

  निशांत की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था , तो भी इतना तो कहा ही - "जिसका स्वेच्छा से ...अकारण ही तिरस्कार कर दिया तुमने आज उसके लिये ही इतना दुःख या मोह करने की क्या आवश्यकता ?"  

  कहने को तो कह गया पर तुरंत ही किशोर की अपनी ओर उठी आहत दृष्टि देखकर ही निशांत ने अनुमान कर लिया कि अभी उसने जो कहा वह उचित नहीं था अथवा सामयिक नहीं था। जो भी हो, फिर तो उसने चुप रहना ही उचित समझा। परंतु मन स्थिर न रह सका, स्थिर रहता भी कैसे, कोई साधारण कहानी थी किशोर की ? 

  निशांत का मन करुणा से भर उठा, पर उससे क्या, दोष तो सचमुच किशोर का ही था न! समाज की प्रतिक्रियायों का ध्यान करके इतने भीरु होने से काम चलता है कहीं ? समाज तो हर अच्छे-बुरे कार्य में टिप्पणी करने से नहीं चूकता पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि मनुष्य आलोचना के डर से हर कार्य को तिलांजलि ही दे दे। प्रत्युत् यहाँ तो मृण्मयी की ही प्रशंसा किय बिना नहीं रहा जा सकता जो उसने सबके सामने ही एक दिन यह घोषणा कर दी कि "समाज की संकीर्ण बुद्धि किसी के घर आने-जाने और परस्पर विचार विनिमय को भ्रांत दृष्टि से विश्लेषित कर कोई प्रतिबन्ध लगाना चाहे तो मुझे उसकी लेश भी चिंता नहीं ...और इसके लिये तो मैं लड़की होकर भी समाज के प्रत्येक आघात का सामना करने के लिये सदैव तैयार हूँ।" 

  सच तो यह है कि मृण्मयी को किशोर के पास बैठकर बातें करना अच्छा लगता था, विभिन्न विषयों पर ढेरों बातें होती थीं उनके बीच ..बिना किसी दुराव-छिपाव के। पर यह केवल सम्भाषण ही नहीं था, इस साहचर्य के पीछे  किशोर के प्रति अपने सहज आकर्षण को मृण्मयी ने कभी छिपाया नहीं, उसे इसकी कभी आवश्यकता ही नहीं हुयी । पर किशोर ?  

  ग्रामीण पृष्ठ्भूमि से आया प्रवासी किशोर जानता है कि हमारे समाज में विपरीत लिंगियों के मध्य की इस सहजता के लिये कोई स्थान नहीं है, इसी कारण वह नहीं चाहता था कि वहाँ के समाज के परोक्ष या अपरोक्ष  विरोध के कारण उसके अध्ययन में कोई बाधा आये। तभी तो उसने अड़ोस-पड़ोस का हल्का सा विरोध होते ही एक दिन स्पष्ट कह दिया मृण्मयी से -"यहाँ मत आया करो मृण्मयी, तुम्हारा मुझसे मिलना-जुलना उचित नहीं।" 

  पर जब मृण्मयी ने इसके लिये समाज से टक्कर लेने की घोषणा कर किशोर को अवाक कर दिया तो शीघ्र ही कुछ उत्तर देते न बन पड़ा उसे। फिर जैसे-तैसे धीरे से कहा -"मैं प्रवासी हूँ, तुम्हारे सान्निद्य के लिये मुझे समाज का विरोध सहने की क्या आवश्यकता ?" 

  किशोर के इस उत्तर से मृण्मयी के दुःख और क्षोभ का अंत नहीं, खिन्न मन से इतना ही कहा- "जानती हूँ, तुम भी घृणा करते हो मुझसे। दूसरों की तरह स्वयं को मिथ्या पूर्वाग्रहों से मुक्त न कर सके तुम भी। पर इतना समझ लो, वैसी नहीं हूँ मैं जैसी कि धारणा बना रखी है तुमने। मेरी उन्मुक्तता को बहुत ही संकीर्ण अर्थों में लिया है तुमने।" 

   इसके बाद एक पल भी नहीं रुकी मृण्मयी, तुरंत द्रुत गति से चली गयी वहाँ से। किशोर रोकता ही रह गया...पर नहीं, मानिनी मृण्मयी को रोक पाना सम्भव नहीं था अब। घर पहुँचते ही क्षोभ और अपमान से झर-झर आँसू झर पड़े उसके ।

   मृण्मयी के हृदय में किशोर के प्रति उत्पन्न हुये सहज आकर्षण के लिये हमारे समाज में एक ही संज्ञा है -'उच्छ्रंखलता'। अपने खुले विचारों के कारण वह लोगों की घृणा की पात्र थी । पर किशोर से ऐसी आशा नहीं थी उसे।

  मृण्मयी की इस धारणा का समाधान चाहकर भी किशोर नहीं कर सका कभी। मृण्मयी ने समाधान चाहा भी नहीं । पर यह एक अंतिम पृष्ठ था उसकी किशोरावस्था के एक अध्याय का। इसके बाद जो नया अध्याय खुला उसके प्रथम पृष्ठ ने ही तो किशोर को झकझोर कर रख दिया है इतना। 

  परंतु प्रारम्भ में तो किशोर ने भी कहाँ ध्यान दिया था इस ओर प्रत्युत् यही सोचकर चैन की साँस ली कि चलो, आँधी आयी, निकल गयी....मुक्ति मिली। 

  सच ही, आँधी सी ही तो आयी थी वह । एक दिन निशांत के घर ही परिचय हुआ था उन दोनो का । उसी दिन मृण्मयी को किशोर की विलक्षणता का आभास हो गया था । उसके मन ने स्वीकारा था कि इसमें अवश्य ऐसा है कुछ जो अन्य लोगों में नहीं है । वह मंत्र मुग्ध हो खिंचती चली गयी थी किशोर की ओर। किशोर वय किशोर ने भी मन ही मन स्वीकार किया था, मृण्मयी नहीं ....शकुंतला है यह। कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम की अनिन्द्य सुन्दरी। 

  यह सब जैसे एक बारगी अनायास ही  प्रारम्भ हुआ था वैसे ही अनायास इतिश्री भी हो गयी इसकी। परंतु कसक! वह तो शेष है अभी तक ..और कब तक अभी और सालती रहेगी उन्हें , यह भी कौन जानता है? खेत में पड़े हर बीज का अंकुरण आवश्यक तो नहीं ...पर जो अंकुरित नहीं हो पाता सड़ना पड़ता है उसे। प्रकृति का यही नियम है।

                                                                             ॥ दो ॥


  आज सुबह से ही पानी की जो झड़ी लगी तो पूरे दिन लगी ही रही । अपरान्ह, जबकि सूर्य विन्ध्य पर्वत श्रेणियों के पीछे छिपने का उपक्रम कर रहा था तभी आकाश पूरी तरह निर्मल हो गया। सन्ध्या की रक्तिम किरणें विन्ध्य उपत्यका में जंगली लताओं और मखमली घास पर अठखेलियाँ करने लगी थीं । वातावरण एकाएक ही बड़ा मनोरम हो उठा था। निशांत रोक नहीं सका अपने आपको, सम्मोहित हो चल पड़ा नदी की ओर । सावन में इस पहाड़ी नदी का उन्मुक्त हास बड़ा ही प्रिय है उसे। 

  नदी के किनारे पर पहुँचते ही उसकी दृष्टि एक ओर को पड़ी तो तत्क्षण ही निशांत के मानस पटल पर महाकवि जयशंकर प्रसाद की कामायनी की पंक्तियाँ अंकित हो उठीं -"हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह। एक व्यक्ति भीगे नयनों से, देख रहा था प्रबल प्रवाह॥"

  एक ऊँची शिला पर बैठ नदी के जल-प्रवाह को अपलक निहारे जा रही मृण्मयी सम्भवतः किसी गहन चिंतन में लीन थी । गहरी हरी साड़ी, गोया मखमली धरती से होड़ लेने की ठान रखी हो मृण्मयी ने। सिर पर पड़े पल्लू से झाँकता उसका गौर मुखमण्डल ....जैसे कि मक्के के हरे भुट्टे को ऊपर, एक ओर से थोड़ा सा अनावृत्त कर पौधे में ही लगा छोड़ दिया हो किसी ने।

  इधर कई महीनों से उसे घर के बाहर कदम रखते नहीं देखा था किसी ने। यह अप्रत्याशित था, नहीं तो उसका पैर्‍ टिकता ही कब था घर में । सारे दिन निर्भय सिंह शावक की तरह उसे मोहल्ले की गलियों में, खेतों में ..तो कभी ऊँची शिलाओं पर ..तो कभी नदी में अठखेलियाँ करते देखा जा सकता था। वही चंचल मृण्मयी इतनी गम्भीर हो एकाकी ही बैठी थी चुपचाप। ठीक ही तो कहा था किशोर ने, मृण्मयी के जीवन में अनायास हुआ यह अवसादपूर्ण परिवर्तन ही तो व्यथित किये है उसे। किशोर को लगता है कि इस सबके लिये वह स्वयं ही उत्तरदायी है, एक अपराधबोध से ग्रस्त हो गया  है वह।

  आज मृण्मयी को कई माह बाद इस तरह देख आश्चर्यचकित हुये बिना न रह सका निशांत। वह और निकट पहुँच गया उसके पर मृण्मयी की तन्मयता में तो लेश भी व्यवधान नहीं हुआ। तभी ध्यान आया, किसी को इस तरह तन्मय देख न जाने कितनी शैतानियाँ उपज आती थीं मृण्मयी के मन में। उसकी चुहुलों से कौन परिचित नहीं था भला! किसी जंगली लता का फूल फेक कर स्वयं आड़ में छिप जाना या फिर चुल्लू भर पानी ही उलीचकर किसी की भी तन्मयता भंग कर देना बड़ा प्रिय लगता था उसे। कई बार तो स्वयं निशांत भी तंग हुआ था उसकी ऐसी चुहुलों से। कोई और अवसर होता तो सम्भवतः निशांत भी सारे बदले चुक लेता आज। परंतु कभी गम्भीर न रहने वाली मृण्मयी को आज गम्भीर देख ऐसा करने का साहस नहीं हुआ निशांत का। उसने धीर से पुकारा। पर बड़ी रुखाई से एक बार निशांत को देखा भर उसने फिर पुनः ध्यानमग्न हो गयी उसी तरह। बड़ा विचित्र लगा निशांत को, ऐसी तो कभी नहीं थी मृण्मयी। दोनो बालसखा हैं, कदाचित इसी कारण भीतर से करुण हो उठा निशांत । स्नेहासिक्त शब्दों में फिर पुकारा -" बोलोगी नहीं मन्नो?"

  एक बार फिर उसका बचपन झाँकता सा प्रतीत हुआ। इस बार वह अवहेलना न कर सकी, शिला से उतर घायल मृगी सी भाव-भंगिमा लिये मंथर गति से चलती हुयी निकट आकर खड़ी हो गयी। तब बिना किसी भूमिका के ही कहना प्रारम्भ किया निशांत ने, -"यह सब कैसे हो गया मन्नो ? ऐसी तो कभी नहीं थीं तुम !"

  मृण्मयी ने इस बार भी कोई उत्तर नहीं दिया। एक बार आहत करुण दृष्टि से उसकी ओर निहारा भर फिर चल दी घर की ओर...बड़ी ही मंथर गति से। निशांत चुपचाप खड़ा ही रह गया। 

  पर वह गयी नहीं .....तुरंत ही पलटकर उसके समक्ष आ खड़ी हुयी, बोली- "अच्छा निशांत! यह तो बता कि मनुष्य अन्दर से जैसा होता नहीं वैसा बाहर से दिखने का प्रयास क्यों करता है, किस प्रयोजन से भला?"

    निशांत सोच ही रहा था कि उसके इस अप्रत्याशित प्रश्न का क्या उत्तर दिया जाय कि तभी वह पुनः बोल पड़ी, -"यह जो प्रवासी है न ! तुम्हारा मित्र ! मुझे बड़ी दया आती है उस पर, कितना उलझा हुआ है अपने आप में । स्त्री-पुरुष के सामान्य संबन्धों में भी आचरणहीनता की दुर्गन्ध लगती है उसे। स्त्री को मात्र वासना भर ही समझ सका है वह। स्त्री-पुरुष के साहचर्य को घृत और अग्नि के सम्बन्ध की तरह देखता है वह। यह सब इसलिये क्योंकि पुस्तकों में ऐसा ही पढ़ा है उसने, और इसलिये भी कि उसकी बुद्धि का भी यही निर्णय है। परंतु जानते हो निशांत, उसने पुस्तकें तो पढ़ लीं पर वह अपने मन को नहीं पढ़ सका अभी तक, पढ़ पाता तो समझ भी लेता। मन उसका सहज आत्मनियंत्रित नहीं है, बल्कि उसे बलात् अंकुश में रखने का प्रयास कर रहा है वह। भय लगता है उसे , पुस्तकीय शिक्षा से...पाप से...समाज से......और इन सबके ही भय से वह सहज सत्य को अस्वीकार कर सांसारिक संबन्धों से वंचित रखना चाह्ता है स्वयं को ।  

   निशांत ने अनुभव किया, मृण्मयी का अंतर्मन बहुत ही आहत था। सम्भवतः वह अभी कुछ और कहती पर बीच में ही प्रतिवाद कर दिया निशांत ने, -"तुमने कैसे जाना कि मन उसका आत्मनियंत्रित नहीं है, किसी के मन की बात को भला कैसे जान सकता है कोई?"

  वह उपेक्षा से किंचित मुस्कुरा दी, "यह भी कोई इतना दुरूह विषय है जो जाना न जा सके? समाज के भय से ही तो उसने मुझे अपने घर आने से रोक दिया । परंतु क्या सचमुच  समाज के भय से ही? उसे अपने आप से लेश भी भय न था क्या? समाज की मिथ्या धारणाओं का प्रतिवाद कर सकने का साहस था उसमें ? और यदि नहीं, तब क्या यह उसके अंतर्मन के दौर्बल्य का परिचायक नहीं?"

  फिर कुछ क्षण चुप रहकर पुनः कहना प्रारम्भ किया, -"यह मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकती हूँ कि किशोर के मन में ही कहीं दबी-ढकी अप्रकट कोई लालसा उत्पन्न हो गयी थी, जिसे अप्रकट ही बने रहने देने के लिये उसने ऐसा निर्णय लिया था। उसे भय हो गया था कि कहीं हम दोनो के सान्निद्य से वही सब न हो जाय जिसकी कल्पना को कारण बनाकर समाज ने उसका विरोध करना चाहा था । दुनिया में स्त्री-पुरुष का एक ही सम्बन्ध तो नहीं ....?"

   मृण्मयी का मुखमण्डल दीप्त हो उठा था। तर्क अकाट्य थे उसके, निशांत कुछ भी उत्तर न दे सका।

फिर चलते-चलते  लक्ष्य किया उसने, मृण्मयी के नेत्रों से अनवरत अश्रु प्रवाह चल रहा था। जैसे उसके भीतर का सारा समुद्र विद्रोह कर उठा हो बाहर उमड़ पड़ने के लिये। उसके दुःख से निशांत भी कातर हो उठा, पर उसकी सहायता किस प्रकार से कर सके या किस उपाय से उसकी प्रसन्नता लौटाई जा सकती है, यही उसकी समझ में नहीं आ रहा था। 


                                                                  ॥ तीन ॥


   निशांत के प्रवासी मित्र का अपने गाँव जाने का समय हो आया, उसकी पढ़ायी पूरी हो चुकी थी। विदायी की बेला में उसने कागजों का एक बड़ा सा पुलिन्दा थमा दिया निशांत के हाथों में, यह कहते हुये कि "जो बात मृण्मयी से प्रत्यक्ष में न कह सका कभी उसे ही विभिन्न रूपों में कहने का प्रयास किया है मैने। यदि किसी तरह ये कवितायें पहुँचा सको मृण्मयी के पास तक तो इतना उपकार कर देना मित्र।" 

  फिर किंचित रूखी हंसी हंसकर बोला,- "कल स्वप्न में देखा था, मैं एक पहाड़ी की चोटी पर हूँ और समीप ही समुद्र में एक जहाज दूर जा रहा है मुझसे। जहाज की डॆक पर खड़ी मृण्मयी अश्रुपूर्ण नेत्रों से हाथ हिला-हिलाकर विदा दे रही है मुझे। "

  किशोर चला गया। निशांत के हाथों में था कागजों का एक पुलिन्दा और मन में थे मृण्मयी के शब्द-"मन उसका आत्मनियंत्रित नहीं है ...उसे बलात नियंत्रण में करने का असफल प्रयास भर कर रहा है वह .....समाज की मिथ्या धारणाओं का प्रतिवाद करने का साहस था उसमें? "

  थोड़ी देर में जब निशांत सामान्य हुआ तो उसके सामने एक प्रश्न आ खड़ा हुआ, यह पुलिंदा मृण्मयी को समर्पित कर दूँ या फिर इसे विन्ध्य की गोद में बहती नदी की धारा में विसर्जित कर दूँ ?

   वह विचार कर ही रहा था कि तभी उधर से मृण्मयी आती दिखी उसे । निशांत के हाथ से कागज का पुलिन्दा छीनकर फेकती हुयी बोली, "उठो न! कितने दिन हो गये हमें शैतानियाँ किये, चलो आज फिर कोई शैतानी करते हैं । 

  और फिर हाथ खीचकर उठा ही लिया उसने निशांत को । वह उठकर खड़ा हुआ ही था अभी कि मृण्मयी ने अपना सिर टिका दिया उसके वक्ष पर और स्फ़ुट स्वर में बोली,- "मैं तुम्हें सदा से बुद्धू ही समझती रही मेरे बाल सखा!" 

           

शुक्रवार, 15 जून 2012

फेसबुकिया युग की चार क्षणिकायें

1-
वे हिन्दी प्रेमी हैं
इसीलिये
रोमन में हिन्दी लिखते हैं
और अंग्रेजी
देवनागरी में।
2-
सच कहूँ
तो फेसबुक के पन्नों पर इतराती हिन्दी
रोमन वेश में विदूषक सी लगती है।  
सुना है
वह देवनागरी की
रोज हत्या करती है।
अच्छा तो है
सिन्धी को एक बहन मिल जायेगी।
3-
 मैं
सन्देश तो लाया हूँ मरने का
पर तुम
दुःख मत करना, क्योंकि  
हिन्दी से पहले
और भी मरती रही हैं भाषायें।
बस, हिन्दी के प्रेत से बचे रहना
सुना है,
आजकल फेसबुक पर घूमता रहता है।  

4-
 
खजुराहो जाने की क्या ज़रूरत ? 

जबकि खजुराहो

 ख़ुद.....
घूमने लगे हैं शहर में

बसने लगे हैं फ़ेसबुक में

मंडराने लगे हैं दिलो-दिमाग में।

खजुराहो फैल गया है

हमारे पूरे देश में।

सच ही तो

खजुराहो जाने की क्या ज़रूरत ?

बुधवार, 13 जून 2012

सोनागाछी

च्चीस अगस्त को मुम्बई के गेटवे ऑफ़ इण्डिया और झवेरी बाज़ार में उग्रवादियों द्वारा दो भयानक बम विस्फ़ोट किये गये । मुम्बई भ्रमण के लिये आये पाठक जी विस्फ़ोट से कुछ ही मिनट पहले गेटवे ऑफ़ इण्डिया से होकर निकले थे। मृत्यु और जीवन के बीच समय की एक क्षीण रेखा को पार कर वे विजयी हो चुके थे पर यह विजय उन्हें प्रसन्नता नहीं दिला सकी। धमाके की आवाज़ सुनकर वे वापस पलटे। क्षत-विक्षत शवों और रक्तरंजित घायलों को देख भावुक हृदय पाठक जी वहीं रो पड़े। अनायास ही उन्हें पत्नी और बच्चों की स्मृति ने आ घेरा।
    इस भीषण आतंकी घटना के पश्चात् उनके जीवन में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुये। एक तो यह कि वे अब नियमित रूप से पूजा-पाठ करने लगे थे और दूसरा यह कि उन्होंने नियमित दैनन्दिनी लेखन को अपना मित्र बना लिया। आतंकवादी घटना ने उन्हें जीवन के प्रति संवेदनशील बना दिया था। समाज की हर छोटी-बड़ी घटना का वे सूक्ष्मावलोकन करते और फिर अपने तरीके से उसका विश्लेषण करते। रात में जब वे उस विश्लेषण को शब्दों के परिधान से सुसज्जित करते तो उनकी दैनन्दिनी में वह घटना एक कहानी बन जाती।
   अभी कुछ दिन पहले वे अपने नगर के एक परिचित सेठ के साथ उनके व्यापारिक कार्य में सहयोग करने कोलकाता गये थे। वहाँ से लौटते ही वे लिखने के लिये अधीर हो उठे, स्नान व भोजन से निवृत्त होकर जब वे बैठे तो जो कहानी कागज पर उतरी वह कुछ इस प्रकार थी-
   दिनांक- 09-09-2003, कोलकाता। होटल नीरानन्द से नीचे उतरकर सेठ धरमचन्द ने टैक्सी चालक को आदेश दिया-  “के.सी. दास की दुकान।“
   टैक्सी में बैठते-बैठते सेठ जी ने अपने ज्ञान को प्रकट किया, बोले- “दुनिया में रसगुल्ले की खोज सबसे पहले इसी दुकान में हुयी थी।“
   थोड़ी ही देर में टैक्सी के.सी. दास की दुकान के सामने खड़ी थी। दुकान में पहुँचते ही सेठ जी ने कूपन ख़रीदा और नौकर से फ़रमाया – “दो जगे रसगुल्ला और सन्देस लिआ।“
   हम दुकान के ऊपरी हिस्से में चले गये, वहाँ मुश्किल से सात-आठ मेजों के लिये ही स्थान था। हम लोग पीछे की अंतिम मेज पर पहुँचे। मुझे रसगुल्लों से अधिक उन चित्रों ने आकर्षित किया जो कलाप्रेमी हलवायी ने दीवाल पर एक पंक्ति में टाँग कर सजा रखे थे। हलवायी की कलात्मक अभिरुचि प्रशंसनीय थी। ये आधुनिक पेंटिंग्स थीं और शायद महंगी भी। मैं उठकर एक पेंटिंग के समीप गया, अभी देख ही रहा था कि सेठ जी ने पुकारा- "पाठक जी !"
    आकर देखा, मेज़ पर मिठाई लग चुकी थी। मैंने उन्हें अब और प्रतीक्षा कराना उचित नहीं समझा।
  वहाँ से निकलकर गाड़ी में बैठते ही ड्रायवर ने पूछा- "अब कहाँ?”
  सेठ जी बोले- "धरमतल्ला चल ......नहीं, पहले सियालदह....। भोजन वहीं जीमेंगे।"
  रास्ते में हुगली के पुल से होकर जाते समय सेठ धरमचन्द ने अचानक प्रश्न किया- "पाठक जी ! आपने देखा, कलकत्ते में पति-पत्नी के बीच उमर का अंतर कितना है? बाप-बेटी जैसा नहीं लग रहा आपको?”
  मैं चौंका, “अयँ ! .....मैने तो ध्यान नहीं दिया"
  सेठ बोले- “तो आपने कल से आज तक कलकत्ते में देखा क्या?”  
  मुझे लगा- कोलकाता में देखने-समझने का यह भी एक विषय है। सचमुच, अभी तक आते-जाते किसी भी जोड़े पर मैंने लेश भी ध्यान नहीं दिया था। मनुष्यों की भीड़ से छलकते इस जंगल में किस-किस् पर ध्यान केन्द्रित किया जाय! मैं उनके प्रश्न का क्या उत्तर देता? यह तो अच्छा था कि बिहारी ड्रायवर बातचीत में बराबर हिस्सा ले रहा था। उसने इसके सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक...कई कारण गिनाये।
  सेठ जी ने कहा- "सवाल जे नईं है कि उमर में इतना अंतर क्यों है,  बाल्कि जे है कि इसका परिणाम क्या होगा? क्या इनका अपना दाम्पत्य जीवन और साथ ही समाज भी इसके दुष्प्रभावों से अछूता रह सकेगा कभी?”
  ड्रायवर चुप रहा, मैं भी। फिर सेठे जी ने अपने जीवन के गूढ़तम अनुभवों के आलोक में इसके निश्चित परिणाम गिनाने प्रारम्भ किये। वे एक पक्षीय बोलते रहे, बीच-बीच में ड्रायवर हाँ में हाँ मिलाता रहा। मुझे इस विषय में कोई रुचि नहीं थी, सो चुप ही रहा।
  सियालदह पहुँचकर ड्रायवर ने एक छोटे से भोजनालय के सामने गाड़ी रोक दी। वहाँ आसपास की गन्दगी से उठ रही दुर्गन्ध से सेठ जी कुपित हो गये, बोले -"यहाँ कौन जीम सकेगा? जल्दी ले चल यहाँ से।"
  ड्रायवर ने पूछा- "तब और कहाँ?”  
  उत्तर मिला- "सोनागाछी।"
  ड्रायवर ने एक खीझ भरी दृष्टि से उनकी ओर देखकर गाड़ी आगे बढ़ा दी।

  सोनागाछी मेरे लिये एक नितांत नया अनुभव सिद्ध हुआ। सभ्य और गणमान्य लोगों की दृष्टि में वह कोलकाता का सड़ा हुआ नासूर था, जीवित नारी अंगों का सड़ाँध मारता बाज़ार था, मरे हुये लोगों का ज़िन्दा मरघट था, पाप का कुण्ड था, समाज को नर्क में ढकेलने वाले पापियों का अड्डा था....और भी न जाने कितनी वर्ज्य विशेषतायें थीं सोनागाछी की ।
  पर सच कहूँ, मुझे तो वह नारी के फटे हुये और मैले-कुचैले अंग-वस्त्रों सा ही प्रतीत हुआ। सोनागाछी....फटा और गन्दा ....किंतु रंग-बिरंगा.......। रंग-बिरंगा तो इतना कि भद्रगण भी उसके आकर्षण में डूबने से स्वयं को बचा नहीं पाते। इतना गन्दा और त्यक्त्य होते हुये भी भीड़ से मुक्ति नहीं मिलती उसे, वहाँ तो बलबलाये समाज से निकलकर छलकती रहती है भीड़ ....दिन-रात। इसीलिये तो सोनागाछी अपने जन्म से ही पीड़ित है अनिद्रा के रोग से।
  सभ्य गणमान्य, जिन्हें दिन में किसी के द्वारा स्वयं के पहचाने जाने का भय़ रहता है, रात के अन्धेरे में छलकते रहते हैं वहाँ। सोनागाछी को जागना पड़ता है तब....भूखे पेट के लिये। किंतु दूर से आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों, व्यापारियों एवम् उत्तर-प्रदेश और बिहार से आये श्रमिकों को अपने पहचाने जाने का भय नहीं होता। पहचान छिपी रहे तो सोनागाछी का हर ग्राहक भद्र और गणमान्य ही बना रहता है। इसीलिये कुछ लोग तो निर्भय हो दिन में भी वहाँ जाने से संकोच नहीं करते। रात का थका-निचुड़ा सोनागाछी दिन में भी सो नहीं पाता तब....पेट के लिये, स्पन्दित होता रहता है अहार्निश ....बिना किसी परिवाद के।
  व्यस्त कोलकाता के जीवित रहने में सोनागाछी के इस स्पन्दन की भी एक अस्वीकृत सहभागिता है। कोलकाता को जीवन देने वाले थके-हारे श्रमिकों, भ्रमण पर आये पर्यटकों, पाप कर्म से धनवान बने मनचलों, अपने शरीर की पाशविक शक्ति के बल पर भयादोहन एवं स्थानीय आतंक से अपनी जीविका चलाने वाले बलवान मानुषों और यहाँ तक कि बड़े-बड़े सरस्वतीपुत्रों एवं लक्ष्मीपतियों तक को जीवन की ऊर्जा प्राप्त होती है यहाँ की सड़ी हुयी खाद की ऊर्जा से। भद्रजनों को जीवन की एकरसता से मुक्ति मिलती है यहाँ आकर। सरकारी नौकरी में पदोन्नति का कच्चा "माल" मिलता है यहाँ की मण्डी में। और कभी-कभी व्यापारिक समझौतों पर ठप्पा भी लगता है यहीं की ऊर्जा से प्रेरणा पाकर।
  अपने पेट की भूख मिटाने के लिये यहाँ आकर शरणागत हुयी किसी स्त्री का शरीर न जाने कितने पुरुषों की भूख मिटाने का साधन बन जाता है....धरती की तरह। भूख, जो शरीर से शांत होती है....। भूख, जो रोटी से शांत होती है...। इस भूख को मिटाने वालों में हैं असंख्य ग्राहक। इस भूख को मिटाने वालों में हैं इंसानियत के निर्दयी दलाल, व्यवस्था को अव्यवस्थित बनाये रखने में व्यस्त रहने वाली पुलिस, अवसर मिलते ही देश को बेच देने में भी संकोच न करने वाले राजनेता, धनलोलुप चिकित्सक और अवसरवादी ब्यूटीपार्लर्स भी। ये सब सोनागाछी के सहव्यवसायी हैं ...घात लगाकर बैठे हुये। सोनागाछी इन्हें भी पोषण देता है। इतने-इतने परिवारों को पालने की क्षमता रखने वाला सोनागाछी सड़ा नासूर या ज़िन्दा मरघट कैसे हो सकता है भला ! वह तो जीवित है, अहर्निश स्पन्दनशील है....अपनी तिरस्कृत और अनादृत शक्ति से भी स्पन्दित।
  सेठ धरमचन्द जीवन के सत्तावन वसंत देख चुके थे और इतनी ही बरसातें भी। वे आज भी बरसात में आग लगा देने की अदम्य चाहत से सराबोर थे।
  मुख्य मार्ग से अन्दर की ओर मुड़ते ही टैक्सी धीमी हो गयी। मैने देखा, सड़क पर सोनागाछियाँ थीं ...उनके दलाल थे। सोनागाछियाँ घरों के अन्दर भी थीं और घरों के बाहर भी, छज्जों से झाँकती हुयीं भी थीं और ज़िन्दगी की डोर से लटकती हुयीं भी। भाँति-भाँति की सोनागाछियाँ ...बाला, किशोरी, यौवना, तरुणी....सभी वयस की...अपने स्वर्णगात को मिट्टी बनाने न जाने कहाँ-कहाँ से आकर यहाँ डेरा जमाये हुयी थीं। अपनी जड़ों को निर्ममता से काटकर फेक चुकीं ये सोनागाछियाँ न जाने किस पुष्प-पल्लव की आशा के स्वप्न में जी रही थीं।
  मैंने दिन के उजाले में साफ-साफ देखा, सड़क पर ही निर्लज्ज अंग प्रदर्शन और मोलभाव। मांसल स्पर्श, भोग, भावना, विवशता, नैतिकता, मानवता...सब का मोलभाव। स्वर्णगात धन की वर्षा करता था..स्वर्णगाछ बनकर, विनिमय में लक्ष्मी का निर्लज्ज और पाषाणी प्रयोग।
  मानव शरीर की मण्डी ...सोनागाछी....माटीगाछी....। यहाँ आकर तो अश्लीलता को भी अपनी परिभाषा नये सिरे से गढ़नी होगी।


  टैक्सी के धीमी होते ही रूप के कई दलालों ने आकर घेर लिया। उन्होंने खींसें निपोर दीं। एक बिहारी ने पूछा- “क्या चाहिये सेठ ?”

  “चाइनीज़ मिलेगी ?”

  “मिलेगी"

  “.....और गोवानी?”

  “सब मिलेगी, गाड़ी से नीचे तो आइये।"

  “भाव बोल ...!" - सेठ जी ने उसी तरह पूछा जैसे कि वे प्रायः शहद, शतावरी, सफ़ेद मूसली या विडंग ख़रीदते समय पूछा करते हैं।

  दलाल ने कहा - “ऐसे कैसे सेठ....! अन्दर आइये, माल देखिये, पसन्द कीजिये ....भाव तो तभिये न होगा।" ...अपने व्यापार में वह भी पारंगत था।

  “ठीक है, खाना खाकर एक घण्टे में आयेंगे अभी।" -सेठ ने आश्वासन दिया।

  “आइयेगा ज़रूर ....दिल खुश कर देंगे आपका।"

  मैने देखा, एक साँवली सी युवती जो जो केवल अधोवस्त्रों में थी, मेरी ओर इस तरह देख रही थी जैसे कि मिन्नतें कर रही हो। वह दलालों की भीड़ से अलग सड़क के एक ओर खड़ी थी...चुपचाप। मैने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी पर उसकी बोलती आँखों और उदास चेहरे को पढ़ने की एक बार चेष्टा अवश्य की। इतने में गाड़ी आगे बढ़ गयी। युवती ललचायी दृष्टि से देखती रही।

  गाड़ी दूसरी गली में मुड़कर वाप मुख्य मार्ग पर आ गयी। ड्रायवर ने पूछा- ”अब किधर?”

  उत्तर मिला- "बहू बाजार चल।"

                                                                  //  2 //

   दिनांक 10-09-2003, आज मैंने सेठ जी को होटल में ही विश्राम करने की सलाह दी जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। यह मेरे लिये एक तरह से मुक्ति का सुअवसर था। कुछ पल चैन से साँस लेने के लोभ में मैं होटल छोड़कर बाहर खुली हवा में आ गया। प्रातः काल समाचार पत्र से पता चल गया था कि कोलकाता में इन दिनों मैदान में राष्ट्रीय पुस्तक मेला लगा हुआ था। भारत के किसी भी महानगर का यह सबसे बड़ा मैदान है, सुविख्यात ईडेन गार्डेन इसी मैदान के बीच में है। टैक्सी पकड़कर मैदान पहुँचा और विशाल पुस्तक मेला देखकर मन प्रसन्न हो गया।

   पुस्तकें ख़रीदकर अभी चलने को ही था कि तभी किसी परिचित से चेहरे की एक झलक दिखायी दी। वह एक बंग्ला पुस्तक उलट-पुलट रही थी। मुझे आश्चर्य हुआ, यहाँ कोलकाता में कौन परिचित हो सकता है मेरा, ध्यान से देखा, पीले सलवार-कुर्ते में बड़ी-बड़ी आँखों वाली एक साँवली युवती, साथ में थी कोई गोरी तरुणी, बंग्ला साड़ी में। सोचने लगा, कौन हैं ये लोग ?  कहीं देखा तो है। मैं अभी अपनी उधेड़बुन था कि तभी पीले सलवार-कुर्ते वाली युवती की दृष्टि मुझ पर पड़ी। वह हड़बड़ाकर पुस्तक वहीं छोड़ बाहर निकलने का उपक्रम करने लगी। अचानक याद आ गया, अरे यह तो वही है, कल वाली.... सोनागाछी.... माटीगाछी। सलीके के परिधान में पहचान में ही नहीं आ रही थी। मैं तुरंत आगे बढ़कर उसके सामने आ गया, बोला –“सुनिये !”

   वे दोनो अनसुनी कर आगे बढ़ गयीं। ऐसी स्त्री के दो रूप देखकर आश्चर्य हुआ मुझे। किंतु इससे इतना तो स्पष्ट हो ही चुका था कि स्त्री कितनी भी निर्लज्ज क्यों न हो जाय, समाज में भद्र दिखने और नार्योचित सम्मान पाने की चाह उसके अंतस में बनी ही रहती है।

   मैंने गौर किया, सोनागाछी तो यह आज लग रही है, पीले सलवार-कुर्ते में ..... स्वर्णगात सी .... कंचन कामिनी। कल तो माटीगाछी थी यह। मैं तेजी से आगे आकर उन दोनो का रास्ता छेकता हुआ बोला – “सुनिये तो, मुझे कुछ काम है आपसे....।“  

  साथ की तरुणी बोली –“क्या है ?”

  मैंने कहा – “यहाँ नहीं,  यदि आपकी ख़रीदारी हो गयी हो तो मेले से बाहर चलें ?”

  तरुणी ने कुछ सोचकार सहमति में सिर हिलाकर अनुमति दी। सोनागाछी चुप ही रही।

  सड़क पार करके हम लोग विशाल मैदान के किनारे-किनारे चलने लगे। थोड़ी देर बाद सोनागाछी की ओर संकेत करते हुये मैंने तरुणी से कहा- “मुझे इनसे कुछ बात करनी है।“

  सोनागाछी फिर भी चुप थी। मैंने उसे लक्ष्य कर कहा- “रोज कितना कमा लेती हैं आप ?”

 कहना तो बहुत कुछ चाहता था पर समझ नहीं पा रहा था कि शुरू कहाँ से करूँ। वह चुप रही। कल से अभी, इस क्षण तक उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं सुना था मैंने। सोचा, कहीं गूँगी तो नहीं ! वह कभी मेरी ओर देखती कभी आकाश की ओर अनंत में। साथ की तरुणी ने बताया- “यह हिंदी नहीं जानती।“

  फिर किंचित रुककर उसने मुझसे पूछा – “आप कबसे जानते हैं इसे ?”

  मैंने कुछ सकुचाते हुये उत्तर दिया – “बस कल से ही।“

  तरुणी ने विनय के स्वर में कहा – “हमें जाने दीजिये, घर पहुँचना है जल्दी।“

  मैंने कटाक्ष किया – “घर ! आपका भी घर होता है ? अच्छा छोड़िये, यह बताइये ये कौन सी भाषा जानती है ?”  

  “बांग्ला।“

  “ओह ! तब तो मुश्किल है,  मैं बांग्ला नहीं जानता।“

  “तब जाने दीजिये हमें।"

  “नहीं, मुझे जानना है इनसे। ..........................कितनी ज़रूरतें हैं इनकी ? पूरी हो जाती हैं सब ....इस तरह ?”

  “क्या करेंगे जानकर ? ब्याह करेंगे ? हमारी किस्मत बदलेंगे ? दया करेंगे हम पर ? .....आप जाइये बाबू ! सोनागाछी को अपनी किस्मत पर जीने दीजिये।“

  मैंने कहा – “नहीं, कर तो मैं कुछ भी नहीं सकूँगा किंतु सोना को माटी होते देख दुःख तो होता ही है न !”

  तरुणी कुछ झल्ला कर बोली – “तब क्या करें कि सोना माटी होने से बच जाये ? पुरुष की सहानुभूति में भी कोई न कोई स्वार्थ छिपा रहता है, सोना को माटी बनाने की ज़िद में पीछे कौन है भला ?” तरुणी ने एक ही झटके में निरुत्तर कर दिया मुझे।

  हम बातें करते हुये आगे बढ़ रहे थे । सामने पेड़ के नीचे एक आदमी डाभ बेच रहा था। मैंने तरुणी को डाभ पीने के लिये आमंत्रित किया पर वह मुझसे पीछ छुड़ाने के लिये बेचैन सी दिखी। बहुत अनुरोध करने पर ही तैयार हुयी। पास पहुँचकर मैंने उससे तीन डाभ तैयार करने को कहा। तीनो लोग चुप थे, तरुणी कुछ खिन्न सी थी और सोनागाछी निर्विकार।

  जब तक डाभ तैयार होता हमने कुछ और जानने की गरज़ से पेड़ की छाया में एक ओर खड़े होकर बातें करना शुरू किया। तरुणी ने बताया कि सोनागाछी बांग्ला के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं समझ पाती थी। हिन्दी उसके लिये दुर्बोध भाषा थी ।

  डाभ का पानी पीकर हम फिर पैदल ही आगे बढ़े। इस बीच तरुणी कुछ सहज हो गयी थी और मेरे प्रति आश्वस्त भी । तब उसने बताया कि नन्दिता, जिसे मैं बारम्बार सोनागाछी  (सोने के पेड़ पर चढ़ने वाली) सम्बोधित कर रहा हूँ, मूलतः बांग्ला देश की है । उसके दादा, परदादा और लकड़ दादा ...पीढ़ियों से चटगाँव के पास किसी गाँव के रहने वाले थे । सदियों से वे हिन्दुस्तानी थे। विभाजन के पश्चात् भी उनका परिवार उसी गाँव में रहा किंतु अब वे हिन्दुस्तानी न रहकर पाकिस्तानी हो गये थे । उनका परिवार मुक्ति-युद्ध के पश्चात् भी वहीं रहता रहा, अपने गाँव के पैतृक घर में ....अपने पूर्वजों की धरती पर । उनकी नागरिकता, उनकी पहचान एक बार फिर बदली । इस बार वे पाकिस्तानी से बांग्लादेशी हो गये थे । फिर हुये जातीय दंगे ...धार्मिक उन्माद ... मारकाट, लूट, अपहरण और पलायन ...। वहाँ से पलायन करके भारत आने वाले अब मूल हिन्दुस्तानी नहीं वरन् विदेशी और शरणार्थी हो गये थे । उन्नीस सौ छियालीस में चटगाँव के जो परिवार भारतीय थे, अब भारत की धरती में भी विदेशी और शरणार्थी थे ।

  किंतु नन्दिता तो यहाँ पलायन करके नहीं आयी थी। उसके माँ-बाप को बांग्लादेश में हिन्दू होने का दण्ड भोगना पड़ा । वे जातीय दंगों में मारे गये । नन्हीं नन्दिता किसी तरह अपहरणकर्ताओं के हाथ लगकर न जाने कितने घरों का दानी-पानी अपने उदर में डालती, सीमापार गाँव-गाँव डोलती अंततः कोलकाता की मानुष-मंडी में लाकर बेच दी गयी थी । उसकी अब कोई जाति नहीं थी, कोई धर्म नहीं था, कोई राष्ट्रीयता नहीं थी । अब वह थी निर्दयी पुरुष के लिये मात्र एक सोने का गाछ भर जो दिन-रात जब चाहो हिलाने से सोना देती थी ...सिर्फ़ सोना ...। सोनागाछी अब उसकी जाति थी, सोनागाछी ही धर्म और सोनागाछी ही उसकी राष्ट्रीयता। स्वयं तो वह सर्वांग सोनागाछी थी ही।

बस, इतना ही परिचय है उस पीले सलवार-कुर्ते वाली, चुप-चुप और खोयी-खोयी रहने वाली युवती का। कॉपी-पुस्तकों की दुनिया में रमा और माँ-बाप के लाड़-दुलार में पला बचपन न जाने कब धर्म की छीना-झपटी में नोच-नोच कर तार-तार किया जा चुका था । और जब उसने होश संभाला तो पता चला कि वह तो न जाने कब की किशोरी हुये बिना ही औरत बन चुकी थी। अब तो वह सपने भी देखने लायक नहीं रह गयी थी। उसका वर्तमान ....उसका भविष्य ...उसके सपने ...सब कुछ हिन्द महासागर की अथाह गहरायी में समाधि ले चुका था.... किसी वैभव शाली टूटे जहाज की तरह। समाज में प्रतिदिन न जाने कितने ऐसे वैभवशाली टाइटेनिक टूटते और जलसमाधि लेते रहते होंगे, इसका तो लेखा-जोखा रखने की भी आवश्यकता नहीं समझी गयी कभी। धर्म के नाम पर हुयी हिंसायें कितना अधार्मिक कृत्य करती हैं ....एक मासूम के सपनों को कितनी निर्दयता से तबाह कर दिया गया था। इस भयानक उत्पीड़न पर मानवाधिकार आयोगों को भी समय नहीं मिलता ... कि वे तनिक भी चिंतन कर सकें कभी।

  मेरे और नन्दिता के बीच पसरी भाषायी दुर्बोधता से उत्पन्न हुयी संवादहीनता और भी कष्टकारी थी। मैंने तरुणी से निवेदन किया –“क्या जीवनयापन का कोई और उपाय नहीं हो सकता ?”

  उसने कहा – “निर्दयी परिस्थितियों के चक्रवातों में फंसी कोई लड़की जिसे बलात झोंक दिया गया हो दरिन्दों की कामभट्टी में, और क्या उपाय कर सकती है जीवन यापन का ?  और हो भी कोई उपाय तब भी उसमें जीवन के प्रति मोह ही कितना बच पाता है ? कौन सा आकर्षण शेष रह पाता है उसके जीवन में जिसके लिये वह कोई अन्य उपाय करे ? अनाथ लड़की तो कहीं भी सुरक्षित नहीं होती, आपके समाज में तो और भी नहीं । पुरुष के नेत्रों की परिधानभेदी सूक्ष्म किरणें हर क्षण पीछा करती रहती हैं उसका । जानते हो, अनाथ लड़की तो केवल मांस भर होती है, बस ....और कुछ नहीं ।“

  तरुणी ने झकझोर कर रख दिया था मुझे । मैंने हाथ जोड़कर कहा – “आपके रूप में समाज ने बहुत कुछ खोया है । काश ! मैं कुछ भी दुःख बाँट सकता आपका । जिस सभ्य समाज ने जन्म दिया है सोनागाछी को, उसके उद्धार का भी पूरा उत्तरदायित्व उसी पर है । आपके अनंत दुःखों के कारणों के उत्तरदायित्व से बच कैसे सकते हैं हम ?”  

  तरुणी रूक्षता से तनिक मुस्कराकर बोली – “चलिये ! देह के अतिरिक्त भी कुछ “और” देखने का प्रयास तो किया आपने। हमारे लिये तो इतना सुख ही बहुत है।“  

  मैंने कहा – “फिर भी, विचार करके देखना, शायद बाहर आने का कोई मार्ग शेष हो । ...कभी मेरी आवश्यकता हो अवश्य याद करना ...शायद आपके कुछ काम आ सकूँ ...।”

  तरुणी ने बीच में ही हाथ जोड़कर कहा – “आप हमसे मिलने आयेंगे ....?”

  मैंने स्वीकृति में सिर हिला दिया।

  चलते-चलते मैंने हाथ जोड़कर नन्दिता को भी नमस्कार किया। इस पर उसका आश्चर्य से मुँह खुला रह गया। अभी तक पाषाण बनी रही नन्दिता अनायास ही आश्चर्य और अप्रतिम सुखानुभूति से अभिभूत हो उठी। संभवतः उसे किसी नागरिक से इस आदर की आशा न रही होगी। एक ही क्षण में उसने न जाने क्या पा लिया था ....कदाचित कोई बड़ी अमूल्य निधि, जिसे वह संजो नहीं पा रही थी। प्रति नमस्कार में उसने भी हाथ जोड़कर अपाने माथे से लगा लिये। दुःखों के अथाह सागर में उसे मानो एक बूंद मीठे पानी की मिल गयी हो । उसकी आँखें बन्द थीं और चेहरे पर थी एक असीम सुखानुभूति । इन क्षणों को वह पूरी तरह आत्मसात कर लेना चाह रही थी।

  जब हम चारो ओर से बरसने वाली नफ़रत के अभ्यस्त हो जाते हैं तो नफ़रत की यह आग तो बर्दाश्त हो जाती है पर प्रेम की एक बूंद भी कभी संयोग से टपक पड़े तो बर्दाश्त नहीं होती । मैंने देखा, नन्दिता के दोनो दीर्घ और निर्मल नयनों के स्थान पर अनवरत बहने वाले दो झरने बन गये थे ।

  यद्यपि भाषा के अवरोध का अब कोई अर्थ नहीं रह गया था तथापि मेरे लिये अब और वहाँ खड़े रहना संभव नहीं था। मन ही मन मैंने स्तुति की – “या देवी नारी शरीरेषु विवशता रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।“

                                                               ॥ समाप्त ॥

    

मंगलवार, 12 जून 2012

सोनागाछी .

च्चीस अगस्त को मुम्बई के गेटवे ऑफ़ इण्डिया और झवेरी बाज़ार में उग्रवादियों द्वारा दो भयानक बम विस्फ़ोट किये गये । मुम्बई भ्रमण के लिये आये पाठक जी विस्फ़ोट से कुछ ही मिनट पहले गेटवे ऑफ़ इण्डिया से होकर निकले थे। मृत्यु और जीवन के बीच समय की एक क्षीण रेखा को पार कर वे विजयी हो चुके थे पर यह विजय उन्हें प्रसन्नता नहीं दिला सकी। धमाके की आवाज़ सुनकर वे वापस पलटे। क्षत-विक्षत शवों और रक्तरंजित घायलों को देख भावुक हृदय पाठक जी वहीं रो पड़े। अनायास ही उन्हें पत्नी और बच्चों की स्मृति ने आ घेरा।

  इस भीषण आतंकी घटना के पश्चात् उनके जीवन में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुये। एक तो यह कि वे अब नियमित रूप से पूजा-पाठ करने लगे थे और दूसरा यह कि उन्होंने नियमित दैनन्दिनी लेखन को अपना मित्र बना लिया। आतंकवादी घटना ने उन्हें जीवन के प्रति संवेदनशील बना दिया था। समाज की हर छोटी-बड़ी घटना का वे सूक्ष्मावलोकन करते और फिर अपने तरीके से उसका विश्लेषण करते। रात में जब वे उस विश्लेषण को शब्दों के परिधान से सुसज्जित करते तो उनकी दैनन्दिनी में वह घटना एक कहानी बन जाती।

 अभी कुछ दिन पहले वे अपने नगर के एक परिचित सेठ के साथ उनके व्यापारिक कार्य में सहयोग करने कोलकाता गये थे। वहाँ से लौटते ही वे लिखने के लिये अधीर हो उठे, स्नान व भोजन से निवृत्त होकर जब वे बैठे तो जो कहानी कागज पर उतरी वह कुछ इस प्रकार थी-

दिनांक- 09-09-2003, कोलकाता। होटल नीरानन्द से नीचे उतरकर सेठ धरमचन्द ने टैक्सी चालक को आदेश दिया- “के.सी. दास की दुकान।“

टैक्सी में बैठते-बैठते सेठ जी ने अपने ज्ञान को प्रकट किया, बोले- “दुनिया में रसगुल्ले की खोज सबसे पहले इसी दुकान में हुयी थी।“

थोड़ी ही देर में टैक्सी के.सी. दास की दुकान के सामने खड़ी थी। दुकान में पहुँचते ही सेठ जी ने कूपन ख़रीदा और नौकर से फ़रमाया – “दो जगे रसगुल्ला और सन्देस लिआ।“

हम दुकान के ऊपरी हिस्से में चले गये, वहाँ मुश्किल से सात-आठ मेजों के लिये ही स्थान था। हम लोग पीछे की अंतिम मेज पर पहुँचे। मुझे रसगुल्लों से अधिक उन चित्रों ने आकर्षित किया जो कलाप्रेमी हलवायी ने दीवाल पर एक पंक्ति में टाँग कर सजा रखे थे। हलवायी की कलात्मक अभिरुचि प्रशंसनीय थी। ये आधुनिक पेंटिंग्स थीं और शायद महंगी भी। मैं उठकर एक पेंटिंग के समीप गया, अभी देख ही रहा था कि सेठ जी ने पुकारा- "पाठक जी !"

आकर देखा, मेज़ पर मिठाई लग चुकी थी। मैंने उन्हें अब और प्रतीक्षा कराना उचित नहीं समझा।

वहाँ से निकलकर गाड़ी में बैठते ही ड्रायवर ने पूछा-"अब कहाँ?”

सेठ जी बोले- "धरमतल्ला चल ......नहीं, पहले सियालदह....। भोजन वहीं जीमेंगे।"

रास्ते में हुगली के पुल से होकर जाते समय सेठ धरमचन्द ने अचानक प्रश्न किया- "पाठक जी ! आपने देखा, कलकत्ते में पति-पत्नी के बीच उमर का अंतर कितना है? बाप-बेटी जैसा नहीं लग रहा आपको?”

मैं चौंका, “अयँ ! .....मैने तो ध्यान नहीं दिया"

सेठ बोले- “तो आपने कल से आज तक कलकत्ते में देखा क्या?”

मुझे लगा- कोलकाता में देखने-समझने का यह भी एक विषय है। सचमुच, अभी तक आते-जाते किसी भी जोड़े पर मैंने लेश भी ध्यान नहीं दिया था। मनुष्यों की भीड़ से छलकते इस जंगल में किस-किस् पर ध्यान केन्द्रित किया जाय! मैं उनके प्रश्न का क्या उत्तर देता? यह तो अच्छा था कि बिहारी ड्रायवर बातचीत में बराबर हिस्सा ले रहा था। उसने इसके सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक...कई कारण गिनाये।

सेठ जी ने कहा- "सवाल जे नईं है कि उमर में इतना अंतर क्यों है, बाल्कि जे है कि इसका परिणाम क्या होगा? क्या इनका अपना दाम्पत्य जीवन और साथ ही समाज भी इसके दुष्प्रभावों से अछूता रह सकेगा कभी?”

ड्रायवर चुप रहा, मैं भी। फिर सेठे जी ने अपने जीवन के गूढ़तम अनुभवों के आलोक में इसके निश्चित परिणाम गिनाने प्रारम्भ किये। वे एक पक्षीय बोलते रहे, बीच-बीच में ड्रायवर हाँ में हाँ मिलाता रहा। मुझे इस विषय में कोई रुचि नहीं थी, सो चुप ही रहा।

सियालदह पहुँचकर ड्रायवर ने एक छोटे से भोजनालय के सामने गाड़ी रोक दी। वहाँ आसपास की गन्दगी से उठ रही दुर्गन्ध से सेठ जी कुपित हो गये, बोले -"यहाँ कौन जीम सकेगा? जल्दी ले चल यहाँ से।"

ड्रायवर ने पूछा- "तब और कहाँ?”

उत्तर मिला- "सोनागाछी।"

ड्रायवर ने एक खीझ भरी दृष्टि से उनकी ओर देखकर गाड़ी आगे बढ़ा दी।

   सोनागाछी मेरे लिये एक नितांत नया अनुभव सिद्ध हुआ। सभ्य और गणमान्य लोगों की दृष्टि में वह कोलकाता का सड़ा हुआ नासूर था, जीवित नारी अंगों का सड़ाँध मारता बाज़ार था, मरे हुये लोगों का ज़िन्दा मरघट था, पाप का कुण्ड था, समाज को नर्क में ढकेलने वाले पापियों का अड्डा था....और भी न जाने कितनी वर्ज्य विशेषतायें थीं सोनागाछी की ।

  पर सच कहूँ, मुझे तो वह नारी के फटे हुये और मैले-कुचैले अंग-वस्त्रों सा ही प्रतीत हुआ। सोनागाछी....फटा और गन्दा ....किंतु रंग-बिरंगा.......। रंग-बिरंगा तो इतना कि भद्रगण भी उसके आकर्षण में डूबने से स्वयं को बचा नहीं पाते। इतना गन्दा और त्यक्त्य होते हुये भी भीड़ से मुक्ति नहीं मिलती उसे, वहाँ तो बलबलाये समाज से निकलकर छलकती रहती है भीड़ ....दिन-रात। इसीलिये तो सोनागाछी अपने जन्म से ही पीड़ित है अनिद्रा के रोग से।

  सभ्य गणमान्य, जिन्हें दिन में किसी के द्वारा स्वयं के पहचाने जाने का भय़ रहता है, रात के अन्धेरे में छलकते रहते हैं वहाँ। सोनागाछी को जागना पड़ता है तब....भूखे पेट के लिये। किंतु दूर से आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों, व्यापारियों एवम् उत्तर-प्रदेश और बिहार से आये श्रमिकों को अपने पहचाने जाने का भय नहीं होता। पहचान छिपी रहे तो सोनागाछी का हर ग्राहक भद्र और गणमान्य ही बना रहता है। इसीलिये कुछ लोग तो निर्भय हो दिन में भी वहाँ जाने से संकोच नहीं करते। रात का थका-निचुड़ा सोनागाछी दिन में भी सो नहीं पाता तब....पेट के लिये, स्पन्दित होता रहता है अहार्निश ....बिना किसी परिवाद के।

  व्यस्त कोलकाता के जीवित रहने में सोनागाछी के इस स्पन्दन की भी एक अस्वीकृत सहभागिता है। कोलकाता को जीवन देने वाले थके-हारे श्रमिकों, भ्रमण पर आये पर्यटकों, पाप कर्म से धनवान बने मनचलों, अपने शरीर की पाशविक शक्ति के बल पर भयादोहन एवं स्थानीय आतंक से अपनी जीविका चलाने वाले बलवान मानुषों और यहाँ तक कि बड़े-बड़े सरस्वतीपुत्रों एवं लक्ष्मीपतियों तक को जीवन की ऊर्जा प्राप्त होती है यहाँ की सड़ी हुयी खाद की ऊर्जा से। भद्रजनों को जीवन की एकरसता से मुक्ति मिलती है यहाँ आकर। सरकारी नौकरी में पदोन्नति का कच्चा "माल" मिलता है यहाँ की मण्डी में। और कभी-कभी व्यापारिक समझौतों पर ठप्पा भी लगता है यहीं की ऊर्जा से प्रेरणा पाकर।

  अपने पेट की भूख मिटाने के लिये यहाँ आकर शरणागत हुयी किसी स्त्री का शरीर न जाने कितने पुरुषों की भूख मिटाने का साधन बन जाता है....धरती की तरह। भूख,जो शरीर से शांत होती है....। भूख, जो रोटी से शांत होती है...। इस भूख को मिटाने वालों में हैं असंख्य ग्राहक। इस भूख को मिटाने वालों में हैं इंसानियत के निर्दयी दलाल, व्यवस्था को अव्यवस्थित बनाये रखने में व्यस्त रहने वाली पुलिस, अवसर मिलते ही देश को बेच देने में भी संकोच न करने वाले राजनेता, धनलोलुप चिकित्सक और अवसरवादी ब्यूटीपार्लर्स भी। ये सब सोनागाछी के सहव्यवसायी हैं ...घात लगाकर बैठे हुये। सोनागाछी इन्हें भी पोषण देता है। इतने-इतने परिवारों को पालने की क्षमता रखने वाला सोनागाछी सड़ा नासूर या ज़िन्दा मरघट कैसे हो सकता है भला ! वह तो जीवित है, अहर्निश स्पन्दनशील है....अपनी तिरस्कृत और अनादृत शक्ति से भी स्पन्दित।

  सेठ धरमचन्द जीवन के सत्तावन वसंत देख चुके थे और इतनी ही बरसातें भी। वे आज भी बरसात में आग लगा देने की अदम्य चाहत से सराबोर थे।

  मुख्य मार्ग से अन्दर की ओर मुड़ते ही टैक्सी धीमी हो गयी। मैने देखा, सड़क पर सोनागाछियाँ थीं ...उनके दलाल थे। सोनागाछियाँ घरों के अन्दर भी थीं और घरों के बाहर भी, छज्जों से झाँकती हुयीं भी थीं और ज़िन्दगी की डोर से लटकती हुयीं भी। भाँति-भाँति की सोनागाछियाँ ...बाला, किशोरी, यौवना, तरुणी....सभी वयस की...अपने स्वर्णगात को मिट्टी बनाने न जाने कहाँ-कहाँ से आकर यहाँ डेरा जमाये हुयी थीं। अपनी जड़ों को निर्ममता से काटकर फेक चुकीं ये सोनागाछियाँ न जाने किस पुष्प-पल्लव की आशा के स्वप्न में जी रही थीं।

  मैंने दिन के उजाले में साफ-साफ देखा, सड़क पर ही निर्लज्ज अंग प्रदर्शन और मोलभाव। मांसल स्पर्श, भोग, भावना, विवशता, नैतिकता, मानवता...सब का मोलभाव। स्वर्णगात धन की वर्षा करता था..स्वर्णगाछ बनकर, विनिमय में लक्ष्मी का निर्लज्ज और पाषाणी प्रयोग।

  मानव शरीर की मण्डी ...सोनागाछी....माटीगाछी....। यहाँ आकर तो अश्लीलता को भी अपनी परिभाषा नये सिरे से गढ़नी होगी।





  टैक्सी के धीमी होते ही रूप के कई दलालों ने आकर घेर लिया। उन्होंने खींसें निपोर दीं। एक बिहारी ने पूछा- “क्या चाहिये सेठ ?”

“चाइनीज़ मिलेगी ?”

“मिलेगी"

“.....और गोवानी?”

“सब मिलेगी, गाड़ी से नीचे तो आइये।"

“भाव बोल ...!" - सेठ जी ने उसी तरह पूछा जैसे कि वे प्रायः शहद, शतावरी, सफ़ेद मूसली या विडंग ख़रीदते समय पूछा करते हैं।

दलाल ने कहा - “ऐसे कैसे सेठ....! अन्दर आइये, माल देखिये, पसन्द कीजिये ....भाव तो तभिये न होगा।" ...अपने व्यापार में वह भी पारंगत था।

“ठीक है, खाना खाकर एक घण्टे में आयेंगे अभी।" -सेठ ने आश्वासन दिया।

“आइयेगा ज़रूर ....दिल खुश कर देंगे आपका।

मैने देखा, एक साँवली सी युवती जो जो केवल अधोवस्त्रों में थी, मेरी ओर इस तरह देख रही थी जैसे कि मिन्नतें कर रही हो। वह दलालों की भीड़ से अलग सड़क के एक ओर खड़ी थी...चुपचाप। मैने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी पर उसकी बोलती आँखों और उदास चेहरे को पढ़ने की एक बार चेष्टा अवश्य की। इतने में गाड़ी आगे बढ़ गयी। युवती ललचायी दृष्टि से देखती रही।

गाड़ी दूसरी गली में मुड़कर वाप मुख्य मार्ग पर आ गयी। ड्रायवर ने पूछा- ”अब किधर?”

उत्तर मिला- "बहू बाजार चल।"                                                                       

                                                                // 2 //

 

   दिनांक 10-09-2003, आज मैंने सेठ जी को होटल में ही विश्राम करने की सलाह दी जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। यह मेरे लिये एक तरह से मुक्ति का सुअवसर था। कुछ पल चैन से साँस लेने के लोभ में मैं होटल छोड़कर बाहर खुली हवा में आ गया। प्रातः काल समाचार पत्र से पता चल गया था कि कोलकाता में इन दिनों मैदान में राष्ट्रीय पुस्तक मेला लगा हुआ था। भारत के किसी भी महानगर का यह सबसे बड़ा मैदान है, सुविख्यातईडेन गार्डेन इसी मैदान के बीच में है। टैक्सी पकड़कर मैदान पहुँचा और विशाल पुस्तक मेला देखकर मन प्रसन्न हो गया।

 

  पुस्तकें ख़रीदकर अभी चलने को ही था कि तभी किसी परिचित से चेहरे की एक झलक दिखायी दी। वह एक बंग्ला पुस्तक उलट-पुलट रही थी। मुझे आश्चर्य हुआ, यहाँ कोलकाता में कौन परिचित हो सकता है मेरा, ध्यान से देखा, पीले सलवार-कुर्ते में बड़ी-बड़ी आँखों वाली एक साँवली युवती, साथ में थी कोई गोरी तरुणी, बंग्ला साड़ी में। सोचने लगा, कौन हैं ये लोग ? कहीं देखा तो है। मैं अभी अपनी उधेड़बुन था कि तभी पीले सलवार-कुर्ते वाली युवती की दृष्टि मुझ पर पड़ी। वह हड़बड़ाकर पुस्तक वहीं छोड़ बाहर निकलने का उपक्रम करने लगी। अचानक याद आ गया, अरे यह तो वही है, कल वाली.... सोनागाछी.... माटीगाछी।सलीके के परिधान में पहचान में ही नहीं आ रही थी। मैं तुरंत आगे बढ़कर उसके सामने आ गया, बोला –“सुनिये !”

  वे दोनो अनसुनी कर आगे बढ़ गयीं। ऐसी स्त्री के दो रूप देखकर आश्चर्य हुआ मुझे। किंतु इससे इतना तो स्पष्ट हो ही चुका था कि स्त्री कितनी भी निर्लज्ज क्यों न हो जाय, समाज में भद्र दिखने और नार्योचित सम्मान पाने की चाह उसके अंतस में बनी ही रहती है।

  मैंने गौर किया, सोनागाछी तो यह आज लग रही है, पीले सलवार-कुर्ते में ..... स्वर्णगात सी .... कंचन कामिनी। कल तो माटीगाछी थी यह। मैं तेजी से आगे आकर उन दोनो का रास्ता छेकता हुआ बोला – “सुनिये तो, मुझे कुछ काम है आपसे....।“

साथ की तरुणी बोली –“क्या है ?”

मैंने कहा – “यहाँ नहीं, यदि आपकी ख़रीदारी हो गयी हो तो मेले से बाहर चलें ?”

तरुणी ने कुछ सोचकार सहमति में सिर हिलाकर अनुमति दी। सोनागाछीचुप ही रही।

सड़क पार करके हम लोग विशाल मैदान के किनारे-किनारे चलने लगे। थोड़ी देर बाद सोनागाछी की ओर संकेत करते हुये मैंने तरुणी से कहा- “मुझे इनसे कुछ बात करनी है।“

सोनागाछी फिर भी चुप थी। मैंने उसे लक्ष्य कर कहा- “रोज कितना कमा लेती हैं आप ?”

कहना तो बहुत कुछ चाहता था पर समझ नहीं पा रहा था कि शुरू कहाँ से करूँ। वह चुप रही। कल से अभी, इस क्षण तक उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं सुना था मैंने। सोचा, कहीं गूँगी तो नहीं ! वह कभी मेरी ओर देखती कभी आकाश की ओर अनंत में।

साथ की तरुणी ने बताया- “यह हिंदी नहीं जानती।“

फिर किंचित रुककर उसने मुझसे पूछा – “आप कबसे जानते हैं इसे ?”

मैंने कुछ सकुचाते हुये उत्तर दिया – “बस कल से ही।“

तरुणी ने विनय के स्वर में कहा – “हमें जाने दीजिये, घर पहुँचना है जल्दी।“

मैंने कटाक्ष किया – “घर ! आपका भी घर होता है ? अच्छा छोड़िये, यह बताइये ये कौन सी भाषा जानती है ?”

“बांग्ला।“

“ओह ! तब तो मुश्किल है, मैं बांग्ला नहीं जानता।“

“तब जाने दीजिये हमें।"

“नहीं, मुझे जानना है इनसे। ..........................कितनी ज़रूरतें हैं इनकी ? पूरी हो जाती हैं सब ....इस तरह ?”

“क्या करेंगे जानकर ? ब्याह करेंगे ? हमारी किस्मत बदलेंगे ? दया करेंगे हम पर ? .....आप जाइये बाबू ! सोनागाछीको अपनी किस्मत पर जीने दीजिये।“

मैंने कहा – “नहीं, कर तो मैं कुछ भी नहीं सकूँगा किंतु सोना को माटी होते देख दुःख तो होता ही है न!”

तरुणी कुछ झल्ला कर बोली – “तब क्या करें कि सोना माटी होने से बच जाये ? पुरुष की सहानुभूति में भी कोई न कोई स्वार्थ छिपा रहता है, सोना को माटी बनाने की ज़िद में पीछे कौन है भला ?” तरुणी ने एक ही झटके में निरुत्तर कर दिया मुझे।

हम बातें करते हुये आगे बढ़ रहे थे । सामने पेड़ के नीचे एक आदमी डाभ बेच रहा था। मैंने तरुणी को डाभ पीने के लिये आमंत्रित किया पर वह मुझसे पीछ छुड़ाने के लिये बेचैन सी दिखी। बहुत अनुरोध करने पर ही तैयार हुयी। पास पहुँचकर मैंने उससे तीन डाभ तैयार करने को कहा। तीनो लोग चुप थे, तरुणी कुछ खिन्न सी थी और सोनागाछीनिर्विकार।

जब तक डाभ तैयार होता हमने कुछ और जानने की गरज़ से पेड़ की छाया में एक ओर खड़े होकर बातें करना शुरू किया। तरुणी ने बताया कि सोनागाछीबांग्ला के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं समझ पाती थी। हिन्दी उसके लिये दुर्बोध भाषा थी ।

डाभ का पानी पीकर हम फिर पैदल ही आगे बढ़े। इस बीच तरुणी कुछ सहज हो गयी थी और मेरे प्रति आश्वस्त भी । तब उसने बताया कि नन्दिता, जिसे मैं बारम्बारसोनागाछी (सोने के पेड़ पर चढ़ने वाली) सम्बोधितकर रहा हूँ, मूलतः बांग्ला देश की है । उसके दादा, परदादा और लकड़ दादा ...पीढ़ियों से चटगाँव के पास किसी गाँव के रहने वाले थे । सदियों से वे हिन्दुस्तानीथे। विभाजन के पश्चात् भी उनका परिवार उसी गाँव में रहा किंतु अब वे हिन्दुस्तानी न रहकर पाकिस्तानी हो गये थे । उनका परिवार मुक्ति-युद्ध के पश्चात् भी वहीं रहता रहा, अपने गाँव के पैतृक घर में ....अपने पूर्वजों की धरती पर । उनकी नागरिकता, उनकी पहचान एक बार फिर बदली । इस बार वे पाकिस्तानी से बांग्लादेशीहो गये थे । फिर हुये जातीय दंगे ...धार्मिक उन्माद ... मारकाट, लूट, अपहरण और पलायन ...। वहाँ से पलायन करके भारत आने वाले अब मूल हिन्दुस्तानी नहीं वरन् विदेशी और शरणार्थीहो गये थे । उन्नीस सौ छियालीस में चटगाँव के जो परिवार भारतीय थे, अब भारत की धरती में भी विदेशी और शरणार्थी थे ।

किंतु नन्दिता तो यहाँ पलायन करके नहीं आयी थी। उसके माँ-बाप को बांग्लादेशमें हिन्दू होने का दण्ड भोगना पड़ा । वे जातीय दंगों में मारे गये । नन्हीं नन्दिता किसी तरह अपहरणकर्ताओंके हाथ लगकर न जाने कितने घरों का दानी-पानी अपने उदर में डालती, सीमापार गाँव-गाँव डोलती अंततः कोलकाता की मानुष-मंडी में लाकर बेच दी गयी थी । उसकी अब कोई जाति नहीं थी, कोई धर्म नहीं था, कोई राष्ट्रीयता नहीं थी । अब वह थी निर्दयी पुरुष के लिये मात्र एक सोने का गाछ भर जो दिन-रात जब चाहो हिलाने से सोना देती थी ...सिर्फ़ सोना ...। सोनागाछी अब उसकी जाति थी, सोनागाछीही धर्म और सोनागाछी ही उसकी राष्ट्रीयता। स्वयं तो वह सर्वांग सोनागाछी थी ही।

  बस, इतना ही परिचय है उस पीले सलवार-कुर्ते वाली, चुप-चुप और खोयी-खोयी रहने वाली युवती का। कॉपी-पुस्तकों की दुनिया में रमा और माँ-बाप के लाड़-दुलार में पला बचपन न जाने कब धर्म की छीना-झपटी में नोच-नोच कर तार-तार किया जा चुका था । और जब उसने होश संभाला तो पता चला कि वह तो न जाने कब की किशोरी हुये बिना ही औरत बन चुकी थी। अब तो वह सपने भी देखने लायक नहीं रह गयी थी। उसका वर्तमान ....उसका भविष्य ...उसके सपने ...सब कुछ हिन्द महासागर की अथाह गहरायी में समाधि ले चुका था.... किसी वैभव शाली टूटे जहाज की तरह। समाज में प्रतिदिनन जाने कितने ऐसे वैभवशालीटाइटेनिक टूटते और जलसमाधि लेते रहते होंगे, इसका तो लेखा-जोखा रखने की भी आवश्यकता नहीं समझी गयी कभी। धर्म के नाम पर हुयी हिंसायें कितना अधार्मिक कृत्य करती हैं ....एक मासूम के सपनों को कितनी निर्दयता से तबाह कर दिया गया था। इस भयानक उत्पीड़न पर मानवाधिकार आयोगों को भी समय नहीं मिलता ... कि वे तनिक भी चिंतन कर सकें कभी।

मेरे और नन्दिता के बीच पसरी भाषायी दुर्बोधतासे उत्पन्न हुयी संवादहीनता और भी कष्टकारी थी। मैंने तरुणी से निवेदन किया –“क्या जीवनयापन का कोई और उपाय नहीं हो सकता ?”

उसने कहा – “निर्दयी परिस्थितियों के चक्रवातोंमें फंसी कोई लड़की जिसे बलात झोंक दिया गया हो दरिन्दोंकी कामभट्टीमें, और क्या उपाय कर सकती है जीवन यापन का ? और हो भी कोई उपाय तब भी उसमें जीवन के प्रति मोह ही कितना बच पाता है ? कौन सा आकर्षण शेष रह पाता है उसके जीवन में जिसके लिये वह कोई अन्य उपाय करे ? अनाथ लड़की तो कहीं भी सुरक्षितनहीं होती, आपके समाज में तो और भी नहीं । पुरुष के नेत्रों की परिधानभेदी सूक्ष्म किरणें हर क्षण पीछा करती रहती हैं उसका । जानते हो, अनाथ लड़की तो केवल मांस भर होती है, बस ....और कुछ नहीं ।“

तरुणी ने झकझोर कर रख दिया था मुझे । मैंने हाथ जोड़कर कहा – “आपके रूप में समाज ने बहुत कुछ खोया है । काश ! मैं कुछ भी दुःख बाँट सकता आपका । जिस सभ्य समाज ने जन्म दिया है सोनागाछी को, उसके उद्धार का भी पूरा उत्तरदायित्व उसी पर है । आपके अनंत दुःखों के कारणों के उत्तरदायित्व से बच कैसे सकते हैं हम ?”

तरुणी रूक्षता से तनिक मुस्कराकरबोली – “चलिये ! देह के अतिरिक्त भी कुछ “और” देखने का प्रयास तो किया आपने। हमारे लिये तो इतना सुख ही बहुत है।“

मैंने कहा – “फिर भी, विचार करके देखना, शायद बाहर आने का कोई मार्ग शेष हो । ...कभी मेरी आवश्यकता हो अवश्य याद करना ...शायद आपके कुछ काम आ सकूँ ...।”

तरुणी ने बीच में ही हाथ जोड़कर कहा – “आप हमसे मिलने आयेंगे ....?”

मैंने स्वीकृतिमें सिर हिला दिया।

चलते-चलते मैंने हाथ जोड़कर नन्दिता को भी नमस्कार किया। इस पर उसका आश्चर्य से मुँह खुला रह गया। अभी तक पाषाण बनी रही नन्दिता अनायास ही आश्चर्य और अप्रतिम सुखानुभूति से अभिभूत हो उठी। संभवतः उसे किसी नागरिक से इस आदर की आशा न रही होगी। एक ही क्षण में उसने न जाने क्या पा लिया था ....कदाचित कोई बड़ी अमूल्य निधि, जिसे वह संजो नहीं पा रही थी। प्रति नमस्कार में उसने भी हाथ जोड़कर अपाने माथे से लगा लिये। दुःखों के अथाह सागर में उसे मानो एक बूंद मीठे पानी की मिल गयी हो । उसकी आँखें बन्द थीं और चेहरे पर थी एक असीम सुखानुभूति । इन क्षणों को वह पूरी तरह आत्मसात कर लेना चाह रही थी।

जब हम चारो ओर से बरसने वाली नफ़रत के अभ्यस्त हो जाते हैं तो नफ़रत की यह आग तो बर्दाश्तहो जाती है पर प्रेम की एक बूंद भी कभी संयोग से टपक पड़े तो बर्दाश्त नहीं होती । मैंने देखा, नन्दिता के दोनो दीर्घ और निर्मल नयनों के स्थान पर अनवरत बहने वाले दो झरने बन गये थे ।

यद्यपि भाषा के अवरोध का अब कोई अर्थ नहीं रह गया था तथापि मेरे लिये अब और वहाँ खड़े रहना संभव नहीं था। मन ही मन मैंने स्तुति की – “या देवी नारी शरीरेषु विवशता रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यैनमो नमः ।“

 

                                                           ॥ समाप्त ॥