मंगलवार, 26 मार्च 2013

फागुन मोरे आँगना


 

संवरी संवरी साँवरी

लरज लजीली बोली,

सुन सखी प्यारी मोरी

चुपके से बात री!

कहीं पाप हो ना जाए, मुझसे आज री!

 

सुन सखी, मोरे बड़े भाग री!

फागुन मोरे आँगना

हुलस उठे मोरे कांगना।

गोरी मोरो गबरीलो साजना

आयो री आयो री, आज री।

 

तन थिरके मन गाये ऐसो

सा-रे-ग-म-प-ध-नी में

सुर ना समाये री!

लागें मोरे बंद सारे, आज छंद-छंद री!

रँगी रंग के बिना ही, अंग-अंग आज री!!

 

तन मोरा उपवन, मन में है लाज री!

फूले फूल हठीले

घोले पवन सुगंध

कहाँ मैं छिपाने जाऊँ, मीठा-मीठा मकरंद

मधु के बहाने भँवरा, छुये मोरा गात री!

 

मन के पखेरू ने

खोले आज पंख री!

नापने चली मैं सारा, आज आकाश ही

अभी तो होने दो गहरी, थोड़ी और रात री!

आयेगा लगाने चंदा, थोड़ी-थोड़ी आग री!

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर ..
    कोमल अभिव्यक्ति...

    सादर
    अनु

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  2. एकदम फागुन में आपका ई कबिता आग लगा रहा है डॉक्टर साहेब!! सच पूछिए त कोनो संगीत का जानकार आदमी के लिए इसको धुन में ढाल देना कोनो नसा का असर पैदा करेगा!! होली का बहुत बहुत बधाई!!

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  3. अनु जी! सलिल भइया जी! सुज्ञ जी! ब्लॉग बुलेटिन जी! सभी को नमस्कार ! सभी को होली की मंगलकामनायें। सलिल भइया जी! यह गीत ही है, गोष्ठी/सम्मेलन में गाने का प्रयास करता हूँ पर गवइया नहीं हूँ। आपने ठीक कहा- इसे अच्छी धुन में सजाया जा सकता है। यह जिम्मा आप ले लीजिये! आजकल कार्याधिक्यता के कारण ब्लॉग पर आना बहुत कम हो गया है, अतः सभी से अनुरोध है कि अन्यथा न लिया जाय।

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  4. बहुत अच्छा गीत है कौशलेन्द्र जी......वैसे होली पर आपके सुर हमेशा ही निराले होते हैं.....

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.