रविवार, 12 मई 2013

माओवाद की पोषक व्यवस्थायें

    
      भारत में माओ त्से तुंग है,स्टालिन है, लेनिन है, ओसामा है, अरिस्टोटल है, फ़्रायड है .......। भारत विचारों को आयात करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश है। भारत में संविधान से लेकर बच्चों के खिलौनों, दीपावली के पटाखों और रक्षाबन्धन पर भाइयों की कलाइयों पर बांधने की राखियों तक के लिये विदेशी दीवानापन अद्भुत् है। यह स्वतंत्र देश आज भी विदेशों पर निर्भर है। क्यों ? ......क्या भारत चिंतकों और विचारकों से शून्य देश है? क्या भारत के लिये विदेशी चिंतन और विचार इतने अपरिहार्य हो चुके हैं? क्या कृष्ण,विदुर, विक्रमादित्य, चाणक्य, बुद्ध, महावीर आदि अप्रासंगिक हो चुके हैं?
      हम बस्तर की बात कर रहे हैं...और बस्तर ही क्यों .... भारत के उन सभी क्षेत्रों की भी कर रहे हैं जो विदेशी कूटनीतिक हिंसा के कारण आंतरिक गुरिल्ला युद्ध के शिकार होने के लिये विवश हैं....और सरकार असहाय है।
आज भारत की जनता यह जानना चाहती है कि तेलुगु मिश्रित टूटी-फूटी हिन्दी में छत्तीसगढ़ के वनाच्छादित दुर्गम अंचलों में शोषण के विरुद्ध किशोरवय बालकों-बालिकाओं की छापामार हिंसक सेना तैयार करने वाले चीन क्रीत भारतीय दासों के लिये उर्वरक भूमि तैयार करने वाले लोग कौन हैं?
भारत की केन्द्र सरकार प्रति वर्ष करोड़ों की धन राशि नक्सलवाद, जो कि शनैः-शनैः माओवाद में परिवर्तित हो चुका है, के उन्मूलन के लिये राज्य सरकारों को प्रदान करती है। इस राशि का कोई ऑडिट नहीं होता। जिस देश में प्रति मिनट देश को लूटने की साजिशें कर्णधारों द्वारा रची जाती हों वहाँ इस राशि का कितना सदुपयोग अपने निर्धारित उद्देश्य के लिये किया जाता होगा यह सहज अनुमान योग्य है। देश का मूल्यवान धन उस समस्या के लिये व्यय किया जा रहा है जो समाधान के स्थान पर निरंतर बढ़ती जा रही है। यह दशा और दिशा किस स्थिति की ओर इंगित करती है? देश को किस परिणाम की आशा दिलायी जा रही है?
बस्तर के दुर्गम वनांचलों में आयातित माओवाद नें नक्सलवाद के जनक कनु सान्याल को आत्महत्या करने पर विवश करने के बाद अपनी जड़ें दृढ़ता के साथ विस्तारित कर ली हैं। नक्सलवाद मर चुका है,उसकी लाश पर पराश्रयी माओवाद ने अधिकार कर लिया है। पर मैं एक प्रश्न पूछता हूँ कि भारत की मिट्टी कैसी है जहाँ के लोगों को विदेशी व्यक्तियों, विदेशी विचारों,विदेशी शासकों, विदेशी भाषाओं, विदेशी औषधियों, विदेशी तंत्रों, विदेशी आयुधों,विदेशी संगीत, विदेशी परम्पराओं ....से इतना प्रेम है? भारतीयों को भारतीय चीजों से इतना वैराग्य क्यों है? क्या भारतीयों की अभारतीयता इन सबके लिये उत्तरदायी नहीं है?
निर्धन और अशिक्षित या अर्धशिक्षित वनवासियों के मन की रिक्त पड़ी भूमि में माओवाद के बीज बोने वाले लोग चीन से नहीं आये, वे चीन क्रीत चीन के भारतीय दास हैं जो भारत में चीन के लिए कार्य करते हैं। हाँ-हाँ ....भारतीय दास, दास प्रथा भारत से अभी तक समाप्त कहाँ हुयी है!
क्या यह बताने की आवश्यकता रह गयी है कि हमारी व्यवस्था के लिये उत्तरदायी लोग ही देशव्यापी अव्यवस्थाओं के जनक बन चुके हैं, शासन तंत्र की प्रत्येक कड़ी भ्रष्टाचार और शोषण का पोषण कर रही है और यह अराजक स्थिति ही माओवाद के लिये उर्वरक का काम करती है।
माओवाद के क्रीत भारतीय दास जब 12 वर्ष के वनवासी बालक-बालिकाओं को उनके आसपास की शोषणपूर्ण स्थितियों का समाधान बन्दूक की गोली से बरसाने का आश्वासन देते हैं तो उसके ऊपर अविश्वास करने का उनके पास कोई कारण नहीं होता। भारत की स्वतंत्रता के इतने दशकों के बाद भी भारत के कर्णधार भारतीयों को स्वतंत्र देश के नागरिक होने की अनुभूति करा पाने में असफल रहे हैं। स्वतंत्रता के साथ ही भारत के लोगों ने देश के टुकड़े होते देखे, धार्मिक उन्माद में रक्तपात होते देखा, कश्मीर को हड़पे जाते देखा, चीन के हाथों अपनी लज्जास्पद पराजय देखी, आर्थिक अपराधियों और हत्यारों से भरी संसद को देखा,भ्रष्टाचार को नित नयी ऊँचाइयाँ छूते देखा, धार्मिक दंगे देखे, घरों के भीतर भी स्त्रियों को असुरक्षित देखा, घर के बाहर खेलती बच्चियों के साथ बलात्कार होते देखा, अपराधियों को संरक्षण पाते देखा, ईमानदारों को बेइज्जत होते देखा, न्याय को बिकते देखा, जो वर्ज्य है देखने के लिये वह सब भी देखा ......और अब देखने की इस प्रक्रिया को परम्परा में बदलते हुये पूरी दुनिया देख रही है।
सर्वविदित है कि माओवादी प्रेत वनवासियों के पास बड़ी सुगमता से पहुँच जाते हैं, उन्हें अपना बना लेते हैं,उनसे अपनी इच्छा के अनुकूल कार्य करवा लेते हैं, उन्हें अपने ही वनवासी बन्धुओं का रक्त बड़ी निर्ममता के साथ बहा देने के लिये तैयार कर लेते हैं, उन्हें स्कूल की इमारतें ढहा देने और सड़कें खोद डालने के लिये मना लेते हैं। आश्चर्य है, वनवासियों तक पहुँचने की यह सुगमता भारत सरकार के कर्णधारों, नुमाइन्दों, मानवाधिकारवादियों और स्वयंसेवी संस्थाओं के समर्पित देशभक्तों के लिये दुर्गम क्यों है? विदेशियों के छक्के छुड़ा देने वाले वनवासी गुण्डाधुर और गेंद सिंह जैसे महानायकों के बस्तर में राष्ट्रवाद की अलख क्यों बुझ गयी?
30 वर्ष का भीमा माओवादी है, वह नक्सलवाद और माओवाद को एक-दूसरे का पर्याय मानता है। उसने कभी माओ त्से तुंग का नाम नहीं सुना, उसे माओवाद के बारे में कुछ नहीं पता, दुनिया के नक्शे में चीन कहाँ है उसे नहीं पता,चीनियों के ख़ौफ़नाक मंसूबों के बारे में उसे नहीं पता, वे जिस रास्ते पर चल रहे हैं वह उन्हें कहाँ ले जायेगा उन्हें नहीं पता। उन्हें कुछ नहीं पता ....सिवाय इसके कि माओवादी प्रेतों के इशारों पर उन्हें कितनों का रक्त बहाना है और भारत की कितनी सम्पत्ति नष्ट कर देनी है।
जिसे दुनिया जहान के बारे में कुछ नहीं पता वह ख़ूंख़ार अपराधी के रूप में जाना जाता है, पुलिस उसकी तलाश में रहती है, मुठभेड़ें होती हैं, विस्फोट होते हैं, हत्यायें होती हैं, घर-परिवार तबाह होते हैं। मौत दोनो के हिस्से में है माओवादी वनवासियों के भी और पुलिस या सेना के जवानों के भी। भारत में होने वाली नृशंस मौतों का पूरा हिसाब चीन के बही खातों में है। बस्तर के माओवादियों के पास से पाये गये आयुधों पर चीन की मोहर का होना भारत के भीतर चीन के युद्ध को प्रमाणित करता है। भारत के भीतर चीन का छापामार गुरिल्ला युद्ध जारी है ......भारतीय मर रहे हैं ....कभी अपराधी बनकर, कभी सेना या पुलिस के जवान बनकर, हर हाल में मौत भारतीय की हो रही है। भारत की यह कैसी सुरक्षा नीति है?
भारत के भीतर धधक रही माओवादी लपटों की ऊष्मा बीज़िंग तक पहुँचती है, भारत की असफलता से उत्साहित होकर ही चीन के साहस को लद्दाख और अरुणांचल प्रदेश में भारत की भूमि को हड़पने के रूप में पूरी दुनिया देख रही है। भारत अपने को एक सम्प्रभुता सम्पन्न और सबल राष्ट्र प्रमाणित कर पाने में असफल रहा है।
इस दुर्बल राष्ट्र का एक चित्र यह भी है, ध्यान से देखिये इस चित्र को -
वह जंगल में घूम रहा था...बिना पूरे कपड़े पहने .....बिना किसी चिंता के ...अपनी मस्ती में था। वह अकिंचन था, खाली था और कच्ची मिट्टी था। कच्ची मिट्टी को अकेला देख कर माओवादी प्रेत उसके पास पहुँचा, उसके सामने एक गिलास रखा और फिर उसे ज़हरीली शराब से भर कर उसके हाथ में थमा दिया। कच्ची मिट्टी के खाली हाथ में पहली बार किसी ने कुछ भरकर थमाया था,वह अभिभूत हो गया उसने झट से वह ज़हरीली शराब अपने जेहन में उतार ली। धीरे-धीरे वह उसका अभ्यस्त होता गया ....तब बहुत बाद में तथाकथित शरीफ़ों ने चिल्लाना शुरू किया- ये अपराधी हैं ...इन्हें पकड़ो ...इन्हें सजा दो .......।ये शरीफ़ लोग शराब से नफरत करते थे, वह बात अलग है कि ये शरीफ़ ज़िन्दा इंसानों का ख़ून पीने के शौकीन थे। शरीफ़ अभी भी चिल्ला रहे हैं कि उनके पास ज्ञानामृत से भरा हुआ पूरा एक कमण्डल है,ये दुष्ट वनवासी इसकी एक बून्द भी चख लें तो इनका उद्धार हो जाय पर ये नालायक इसे पीना ही नहीं चाहते इसलिये इन दरिन्दों को मौत की सजा दी जानी चाहिये।
ये इतने शरीफ़ हैं कि कभी किसी कच्ची मिट्टी के पास नहीं जाते अपने कमण्डल का ज्ञानामृत पिलाने किंतु जब कोई ज़हरीली शराब पीने लगता है तो धरती आसमान एक कर देते हैं। कच्ची मिट्टी को यदि किसी ने पहले-पहले दूध का गिलास पेश किया होता तो क्या आज उसे शराब की यह लत लगी होती?आज भी कोई शरीफ़ उन्हें दूध पिलाना नहीं चाहता, उन्हें शराब पीने के अपराध में सूली पर चढ़ा देना चाहता है। माओवादी समस्या का क्या यही एक मात्र समाधान है?
माओवादी समस्या ने बस्तर के जनजीवन को छिन्न-भिन्न कर दिया है। बस्तर के लोगों को शोषण से मुक्ति का सपना दिखाने वाले माओवादियों ने बस्तर में अपने पैर जमा लेने के बाद अब बस्तर के लोगों का शोषण करना शुरू कर दिया है। वैचारिक, मानसिक और आर्थिक शोषण तो उन्होंने पहले ही शुरू कर दिया था अब दैहिक शोषण भी शुरू किया जा चुका है। मलहम लगाने का वादा किया था,घावों में बारूद भर कर चल दिये।
तब वह पूरी तरह किशोर भी नहीं हो पाया था जब उसके हाथों में कलम के स्थान पर बन्दूक थमा दी गयी थी ( मजे की बात यह भी है कि कलम थमाने वाले तब कहाँ सो रहे थे जब कोई उन्हें बन्दूक थमा रहा था?) अब वह जवान हो चुका है ..शरीर से भी और मन से भी। जब सीनियर्स उसे उठाकर लाये थे तब वह भी बच्ची ही थी। न जाने कितनी बार उनकी शारीरिक क्षुधा की तृप्ति का साधन बनती रही थी। पर अब, जब कि दोनो माओवादी जवान हो चुके हैं दोनो ने एक-दूसरे को अपना हृदय समर्पित कर दिया। मन सपनों के पंख लगाकर उड़ चला, किंतु जेल की सख़्त दीवारों से भी सख़्त माओवाद की खुली जेल की अदृष्य दीवालों को लांघ पाना उनके लिए असम्भव है। मृत्यु उनके सामने है। एक ही उपाय उनकी समझ में आता है, वे सामान्य धारा में लौटना चाहते हैं, किंतु यह भी निरापद नहीं है। मृत्यु और वादा ख़िलाफ़ी यहाँ भी है। यह जोड़ा चाहता है कि उनका पुनर्वास हो, सरकार और पुलिस के संरक्षण में हो, वे जीना चाहते हैं पर करोड़ों रुपये व्यय करने वाली सरकार के पास उनके पुनर्वास की कोई ठोस योजना नहीं है। यह कैसी व्यवस्था है?
देश के समक्ष एक ज्वलंत प्रश्न है, क्या भारत के भीतर हो रहे इस चीनी कूटयुद्ध से भारतीयों की रक्षा नहीं की जानी चाहिये ? क्या बस्तर के नक्सलियों बनाम माओवादियों का ईमानदारी से पुनर्वास नहीं किया जाना चाहिये ? क्या इस हिंसा का कोई अहिंसक समाधान नहीं निकल सकता ?
माओवादी हिंसा में धधक रहे बस्तर को ....और भारत के ऐसे ही अन्य अतिसंवेदनशील क्षेत्रों को लालफीताशाही के भ्रष्टाचार से मुक्त करके ही माओवादियों को अब तक उपलब्ध करायी जाती रही प्राणशक्ति का पतन संभव है। पूरा भारत तो लुट ही रहा है, क्या इतने बड़े देश में जरा-जरा से इन जल रहे क्षेत्रों पर भी रहम नहीं की जा सकती ? हे महालुटेरो ! बस्तर को अब तो मुक्त करो।
 

7 टिप्‍पणियां:

  1. हिंसक विचार और घातक हथियार, दोनों के सौदागर निश्चिंत हैं। वैसे चे ग्वेवारा का नाम भी काफी बेचा जाता है ...

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  2. विचारोत्तेजक और चिंताजनक आलेख और हालात .......देश को हर स्तर पर कमज़ोर करने की हरसंभव
    कोशिश का ही हिस्सा है यह सब ....!!!

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  3. यथार्थ निरूपित करता आलेख, आभार!!

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  4. पंकज चतुर्वेदी जी अच्छे विचारक हैं। उनसे "चेहरे की किताब" पर इस आलेख के विषय में हुयी वार्ता प्रस्तुत है-

    Pankaj Chaturvedi :- कौशलेन्द्र जी एक तो कानू सान्याल का नाक्सालवाद आयातित विचार नहीं था, नाक्साल्बादी भी हिन्दुस्तान में ही हे और वहा हुआ जमींदारी का विरोध भी हिन्दुस्तानी और निहायत भदेस आवाज़ था. बस्तर में नाक्सालवाद में भले ही कुछ हिंसा को आप अवाव्हारिक कह दें ,लेकिन इसी माओवाद ने उन "आयातित"' व्यापारियों को जल, जंगल जमीं पर कब्जा अकरने, खदानों के शोषण से रोकने, जन्जातियुओं को निरापद आवास देने का काम किया हे, एक बात जान ले यदि जंगल में "दादा: का डर नहीं होता तो समूचे बस्तर में अब तक एक जंगल और एक आदिवासी नहीं दिखता. आपका आलेख वैचारिक उत्तेजना पर श्रेष्ठ हे लेकिन तथ्यों पर कमजोर हे. सरकार में बैठे लोगो ने जब जब शांतिपूर्ण समाधान की बात हुई, धोखा दिया हे, आंध्र में आज़ाद की ह्त्या, जंगल महल में छत्रधर महतो को किस तरह धोखा दे कर मारा , उसके बाद कोई उन पर भरोसा करे

    कौशलेन्द्रम कुक्कू :- बिल्कुल ठीक! नक्सलबाड़ी भारत में ही है, और वहाँ ज़मींदारी शोषण के विरोध में स्थानीय लोगों में उपजी न्यायपूर्ण प्रतिक्रिया का विराट एवं संगठित रूप ही नक्सलवाद के नाम से जाना गया। यह शुद्ध रूप से भारतीय प्रतिक्रिया थी ...भारतीय विचारों और आवश्यकताओं से पोषित। पर दूसरा पक्ष यह भी है कि इसके जनक कनु सान्याल अपने जीवन के अंतिम समय में इस आन्दोलन के विरोधी हो गये थे, कारण था अन्दोलन का अपने लक्ष्य से भटक जाना। आज नक्सलवाद समाप्त हो चुका है, माओवाद ने नक्सलवाद की हत्या कर दी है। जहाँ तक इन अल्ट्राज के द्वारा सुधार कार्यों की बात है तो सड़कों को काटना, सड़कें न बनने देना, स्कूलों को उड़ा देना आदि किस प्रकार के सुधार का द्योतक है? यह बात सच है कि सरकार और उसके अधिकारियों ने आदिवासियों के साथ न्याय नहीं किया, किंतु यह भी सच है कि माओवाद ने भी बस्तर का कोई कल्याण नहीं किया है। सड़क जाम करने के लिये आये दिन पेड़ काट कर सड़क पर डाल देने वाले माओवादी जंगल की रक्षा किस प्रकार कर रहे हैं? एक बात स्पष्ट है कि आदिवासी छला जा रहा है और इस पाप में हर किसी की सहभागिता है। हिंसा किसी भी समस्या का स्थायी समाधान नहीं है।

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  5. Pankaj Chaturvedi :- यदि आप सडक निर्माण के पीछे जंगल व प्रक़ति का अधिक देाहन करने की मंशा, अधिक से अधिक आदिवासियों को उजाडद्यने के दर्द को महसूस करते हैं, सलवा जुडूम व पुलिस की ऩशंसता से असहमत है तो जाहिर है कि आपको नक्‍सल आंदोलन में आई विक़तियों पर बोलने का भरपूर हक है , लेकिन मूल निवासियों के संरचण के एकमात्र निषेध को सिरे से बेकार कहना अतार्किक होगा।

    कौशलेन्द्रम कुक्कू :- संचार के साधनों से जीवन सरल भी होता है और अपराधों की आयी बाढ़ के कारण जटिल भी। यह समाज और सरकार का उत्तरदायित्व है कि आधुनिक साधनों का सम्यक और युक्तियुक्त उपयोग करे अन्यथा विकास का हर साधन विनाश की ओर ही जाता है। प्रश्न यह है कि माओवादियों की मंशा है क्या? क्या वे प्रकृति के अविवेकपूर्ण दोहन का सैद्धांतिक विरोध करते हैं? यदि हाँ तो मैं असहमत हूँ, क्योंकि वे अपने हित साधन के लिये विरोध करते हैं। मैं एक प्रश्न पूछता हूँ .... जंगल माफ़िया के किसी भी अलम्बरदार या किसी भ्रष्ट व्यापारी या राजनेता, या घूसखोर अधिकारी की आज तक माओवादियों ने हत्या क्यों नहीं की? क्यों आम पुलिस वाला मारा जाता है या फिर कोई गरीब आदिवासी मारा जाता है? क्या वास्तव में माओवादी भ्र्ष्टाचार के विरोधी हैं? मुझे स्मरण है एक बार शायद नवाभारत टाइम्स या दैनिक भास्कर अख़बार में माओवादी नेताओं की उनके नाम सहित उनकी अकूत सम्पत्ति का विवरण प्रकाशित हुआ था। उनकी कमाई का स्रोत उगाही बताया गया था। किसी माओवादी ने उस अख़बार की ख़बर का खण्डन नहीं किया। हो सकता है माओवादियों ने आदिवासियों का किंचित भला भी किया हो किंतु यह उनका स्वभाव नहीं, रणनीति का एक भाग है। पुलिस-माओवादी मुठभेड़ों में चीनी हथियार बरामद हुये हैं। क्या यह कोई शुभ संकेत है? आज के सन्दर्भ में मैं नक्सलवाद के स्थान पर माओवाद शब्द को अधिक उपयुक्त मानता हूँ क्योंकि यही सच है। मैं पुलिस की बर्बरता का सख़्त विरोधी हूँ किंतु इसके लिये हमें चीनी सहयोग की आवश्यकता नहीं है। यह काम भारत की जनता का है ...उसे ही करना चाहिये।

    Pankaj Chaturvedi :- जिन अखबारों की खबरों का जिक्र आप कर रहे हैं वे पूंजीपतियों के हैं और वे हर समय पुलिस के पक्ष को छापते हैं, पुलिस की अधिकांश कहानियां झूठी होती है आप तो वहां बहतु करीब हैं जरा जा कर देखें पुलिस , पटवारी किस तरह शारीरिक मानसिक शोषण कर रहा है जब नक्‍सली उस पर निरोध बनता है तो पुलिस इसी तरह की झूठी खबरें फैलाती हैं ताकि जनमानस में उनकी विपरीत छबि बने और वे मनमाने तरीके से अत्‍याचार करते रहेां चीना हथियार किसने देखें केवल पुलिस से लूटे असलहा या देशी हथियारों के बल पर पूरा मूवमेंट चल रहा है | वहां तो एक गोली चलाने पर सोचना पडता है जबकि खाकी के पास चलाने को और बेचने को अकूत हैा

    कौशलेन्द्रम कुक्कू :- पुलिस की ज़्यादती से मैं असहमत नहीं हूँ। पुलिस की भूमिका प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती। किंतु सूत्रधार कोई और है जो पर्दे के पीछे है। चिकित्सक होने के नाते हमारे पास पुलिस वाले भी आते हैं, हथकड़ी पहने नक्सली और दोषमुक्त हुये स्वतंत्र नक्सली भी। हम आये दिन हॉस्पिटल में मनुष्य की नृशंसता के दर्शन करते रहते हैं। अक्सर बिना किसी सम्वाद के भी हमें इनके मनोभावों को पढ़ने का अवसर मिलता रहता है। इनकी चोटें बहुत कुछ बयान करती हैं और क्षत-विक्षत लाशें बहुत कुछ चीख-चीख कर गवाही देती हैं। हम इन दोनों के सिद्धांतों और कार्यप्रणाली के विरोधी हैं, वहीं इन दोनों पक्षों में आहत और पीड़ित हुये लोगों के समर्थक भी। हम इतना ही जानते हैं कि सभ्य समाज में हिंसा का कोई स्थान नहीं होना चाहिये।

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  6. Pankaj Chaturvedi उवाच - "डाक्‍टर साहब सहमति है कि सभय समाज में हिंसा का स्‍थान नहीं होना चाहिए, लेकिन देखें तो सचूमी आधुनिक सभ्‍यता हिंसा से उपजी है | यह तय है कि असली बदलाव के लिए बंदूक जरूरी है | गांधी का अहिंसा आंदोलन बेहद खोखला व छदम था तभी आजादी की घोषणा होते ही समूचे उपमहाद्वीप में हिंसा, हत्‍या लूट की आंध्‍ी आ गई थी।"

    कौशलेन्द्रम कुक्कू उवाच - "चतुर्वेदी जी! वर्तमान आधुनिक समाज को मैं सभ्य समाज नहीं मानता। यह कई प्रकार की हिंसाओं से परिपूर्ण है। तात्कालिक क्रांति के लिये हिंसा की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता किंतु क्रांति के दीर्घकालिक प्रभाव के लिये उसका अहिंसक होना आवश्यक है। भारतीय वाङमय में सतयुग की आयु सर्वाधिक और कलियुग की आयु सबसे न्यून मानी गयी है। कलियुग में हिंसा प्रधान है और सतयुग में प्रेम प्रधान है। गांधी जी की कई बातों से मैं भी सहमत नहीं हूँ, विशेषकर यशपाल की पुस्तक "गांधीवाद की शव परीक्षा" पढ़ने के बाद से। गांधी कुछ लोगों के लिये एक साधन मात्र बनकर रह गये थे। गांधी की हत्या तो उनके जीते जी उनके तथाकथित भक्तों ने कर डाली थी। गांधी यदि अपने शरीर के साथ जीवित रहते तो सम्भव है कि उन्हें भी कनु सान्याल की तरह अपने शरीर के लिये कोई हिंसक कदम उठाना पड़ता। ख़ैर! स्वतंत्रता की घोषणा के साथ ही भारत में हिंसा और पशुता की जो बाढ़ आयी वह हम भारतीयों के दोहरे चरित्र का ज्वलंत प्रमाण है। अहिंसा का पुजारी हिंसा को रोक पाने में सफल नहीं हो सका। क्योंकि उनके कई निर्णय ऐतिहासिक त्रुटियों से पूर्ण और अदूरदर्शी थे। हम भारतीयों के स्वभाव में अतिवाद जल में नमक की तरह घुला हुआ है। जब हम आदर्शों की बात करते हैं तब उसकी पृष्ठभूमि में आध्यात्मिक चिंतन प्रभावी रहता है, व्यावहारिक धरातल पर आते ही हमारे भीतर से सामान्य मानवीयता भी लुप्त हो जाती है। यही कारण है कि जब हम अहिंसा की बात करते हैं तो निष्क्रियता का एक अतिवादी चित्र मन में उभरता है, जबकि अहिंसा का अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि हम अत्याचारों को मौन होकर सहते रहें। व्यक्तिगत लाभ के लिये की गयी हिंसा निन्दनीय है किंतु पूरे राष्ट्र के हित के लिये अत्याचार के विरोध में की गयी हिंसा अनुकरणीय है और योगेश्वर श्रीकृष्ण के द्वारा प्रशस्त भी । स्वतंत्रता के बाद सत्ता जिन हाथों में गयी वे हाथ कुशल और भारतीय समाज के लिये उपयुक्त नहीं थे। न्यायप्रिय शासन निश्चित ही कठोर होता है जिसके लिये भारतीय अभ्यस्त नहीं हैं। स्वतंत्रता के बाद भारत में आयी हिंसा, हत्या और लूट की आंधी अभी थमी कहाँ है? अनुशासन और न्याय व्यवस्था को सत्यनिष्ठ बनाने के लिये जिस कठोरता और दृढ़ता की आवश्यकता होती है उसे हिंसा की परिधि से दूर रखना होगा।"

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  7. बहुत तरह से वैचारिक हलचल को तेज़ कर दिया इस आलेख ने।

    टिप्पणियों में दी हुई बातचीत से भी काफी कुछ समझ में आया। देश की चिंता करने वाले देश के हर नागरिक की हर गतिविधि पर समीक्षात्मक नज़र बनाए रखते हैं। और इसका लाभ आमजन लेते हैं।

    इस आलेख से मेरी समझ यही बनी कि ... "जो भी भाषाभाषी, जाति-बिरादरी देश में प्रशासनिक और सामाजिक तौर पर उपेक्षित है उसे यथोचित मान-सम्मान और विकास के अवसर दिए जाने चाहिए।"

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.