रविवार, 5 मई 2013

बहुत हुआ, अब हम जीना चाहते हैं....


काष्ठ्लेख .....

कला की इस विधा को जिलाजेल कांकेर के बन्दीगृह में सीखते हैं विचाराधीन बन्दी

....कि मुक्त होने के बाद पुनर्वास में होगी सुविधा।

किंतु सपनों को यथार्थ में बदलना इतना  सरल है क्या?


 

तीन साल से भी अधिक समय तक जेल में विचाराधीन बन्दी के रूप में रहने के बाद निर्दोष मुक्त हुये किंतु नक्सली होने का प्रमाणपत्र लेकर निकले समारू  ने सोचा था कि वह अपने सिर पर लगे इस कलंक को अपनी कला साधना से धो डालेगा ....

 

अपने गाँव भैंसासुर वापस आकर बिना किसी  सहयोग के उसने अपने पुनर्वास के लिये स्वयं ही प्रयत्न करने शुरू कर दिये

 
 

.... किंतु किसी निरक्षर और निर्धन आदिवासी के सिर पर लगे नक्सली नामक कलंक से यूँ मुक्त होना सरल नहीं है । सीमा सुरक्षा बल के जवानों को जब भी किसी वारदात की तहकीकात की ज़रूरत होती है वे आदिवासी गाँवों से कुछ लोगों को उठा लाते हैं ...

और फिर शुरू होती है उनकी "तहकीकात" ।

कोई चीखता है कि उसे कुछ नहीं पता ...कोई गिड़गिड़ाता है कि अब वह सुधर गया है और इस बार उसने माओवादियों के कहने पर किसी वारदात में कोई सहभागिता नहीं की है .....

पर फोर्स के अपने तरीके होते हैं ...अपनी संहिता होती है।  समारू को छह दिन तक चौकी में रखा गया फिर छोड़ दिया गया। वह लंगड़ाते हुये चलकर वापस घर आ गया। लंगड़ी व्यवस्था में उसका लंगड़ाना कोई अनोखी बात नहीं है।  

 
 

उस दिन जब मैं अंतागढ़ से किसकोड़ो के लिये निकलने ही वाला था कि एक ग्रामीण ने आकर अनुरोध किया कि मैं उसकी वृद्धा माँ को एक बार देख लूँ ...वह चल फिर नहीं सकती ...और उसके गाँव में चिकित्सा सुविधायें नहीं हैं। उसका गाँव वहाँ से दूर था, मेरी अनिच्छा देख उसने फिर कहा कि उसके गाँव में कुछ और भी रुग्ण हैं। किंचित असमंजस के बाद मुझे उसके गांव के लिये रुख करना ही पड़ा। उसके गाँव भैंसासुर में जब मैं रोगियों को देखकर वापस जाने का उपक्रम करने लगा तभी एक युवक ने आगे बढ़कर कुछ सकुचाते हुये मुझसे ताकत की दवा लिख देने को कहा। गाँव के लोगों द्वारा ताकत की दवा माँगना सामान्य बात है। किंतु मैंने देखा वह किंचित लंगड़ा रहा था।  धीरे-धीरे पता लगा कि उसे सीमा सुरक्षा बल के द्वारा इण्टेरोगेशन के दौरान मारा पीटा गया था।

मुझे लगा कि मुझे उससे और गाँव वालों से बात करनी चाहिये। थोड़ी बहुत ना-नुकुर के बाद उसने बताना शुरू किया कि आदिवासी लोग माओवादियों और पुलिस के बीच पिसने के लिये विवश हैं। वह चाहता है कि उसका पुनर्वास किया जाय, भले ही पुलिस की निगरानी में ही हो जिससे वह रोज-रोज की मार-पीट से बच सके। किंतु माओवादियों के इन विवश अनुयायियों के पुनर्वास के लिये किसी के पास कोई योजना नहीं है।

सरकारें आतंकवाद का ख़ात्मा चाहती हैं .....किंतु बिना किसी वैकल्पिक और रचनात्मक योजना के। स्वभाव से शांत आदिवासी अब अशांत हो उठा है। वह माओवादियों से मुक्त होना चाहता है ...और पुलिस एवं सीमा सुरक्षा बलों से भी। उसे माओ त्से तुंग के बारे में कुछ नहीं पता, दुनिया के नक्शे में चीन कहाँ है उसे नहीं पता, चीन की विस्तारवादी नीतियों के बारे में उसे नहीं पता। उसे तो कुछ लोग हुक्म देते हैं जिसकी अवहेलना की शक्ति उसमें नहीं होती।

मैंने पूछा - क्या तुम्हें अपने लिये अस्पताल और अपने बच्चों के लिये स्कूल नहीं चाहिये? आवागमन के लिये सुविधाजनक सड़कें नहीं चाहिये ? सबका समवेत स्वर में एक ही उत्तर था कि उन्हें वह सब कुछ चाहिये जो दूसरे गाँवों में है।   

प्रश्न उठता है कि तब वे कौन लोग हैं जो विध्वंसात्मक कार्यवाहियों और बम विस्फोट की दुर्दांत वारदातों में शामिल होते हैं?

 निश्चित ही, इनमें से कोई भी चीन का वाशिन्दा नहीं है। नासमझ भारतीय ही चीनी षड्यंत्रों में शमिल होकर चीनी उद्देश्यों की पूर्ति के साधन बन रहे हैं। माओवादी क्रूरता की जिन सारी हदों को पार कर नृशंस हत्यायें करते हैं उसके आगे पुलिस की प्रताड़ना तो कुछ भी नहीं है। किंतु इस तुलनात्मक तथ्य से किसी भी उत्पीड़न को तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता। 

उधर बीजिंग ख़ुश है कि भारत के लोग आपस में ही एक-दूसरे को काट-मार रहे हैं और वह अपनी धूर्त चालों में सफल हो रहा है।  

 
 

आदिवासी महत्वाकांक्षी नहीं होते ..प्रकृति ने उन्हें जितना ...जो कुछ दिया है वे उतने में ही संतुष्ट हैं, किंतु माओवाद के प्रेत ने उनका सुख-चैन हर लिया है।

 
 

जंगल-ज़मीन और नदियों के गीत गाने वाला आदिवासी ...प्रकृति की पूजा करने वाला आदिवासी  

आज अपना सबकुछ खोता जा रहा है। जंगल ख़त्म हो रहे हैं ...नदियाँ सूख रही हैं .....और आदिवासी भयानक विस्फोटों के षड्यंत्रों में फंसा ख़ुद को असहाय महसूस कर रहा है।

 
 

इस त्रासदी को एक भिन्न दृष्टि से देखने और उसका समाधान तलाशने की आवश्यकता है।

इस त्रासदी से जंगल कितने ग़मज़दा हैं और पहाड़ कितने उदास !!!

 
 

2 टिप्‍पणियां:

  1. डॉक्टर साहब! आपने जिस संजीदगी इस विषय को छुआ है वह सराहनीय है.. शायद इसका कारण यह है कि आपने स्वयं उस दर्द को महसूस किया है.. नहीं तो यह विषय इतना अस्पृश्य माना जाता है कि लोग कलम से छूने में भी हिचकिचाते हैं!! रचना सोचने पर मजबूर करती है.. साधुवाद!!

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    1. इस उत्साहवर्धन के लिये बहुत-बहुत आभार आपका सलिल भइया जी! यह विषय वास्तव में अघोषित रूप से अस्पृष्य बन चुका है। किंतु कैंसर की उपेक्षा करने से उसकी चिकित्सा के सारे द्वार बन्द हो जाते हैं। माओवादी/ नक्सली यदि देश की सुरक्षा के लिये खतरा हैं तो उसका सृजनात्मक समाधान खोजा जाना चाहिये। यह माओवाद निर्धन और अशिक्षित क्षेत्रों में ही क्यों है? यह चिंता और चिंतन का विषय है। आदिवासी बस्तर में माओवादियों के हाथ का हथियार बना दिया गया है। बलात बना हुआ माओवादी, अज्ञानता के कारण बना माओवादी, उनसे हमारी दूरी के कारण बना हुआ माओवादी, परिस्थिति विशेष के कारण बना हुआ माओवादी ... अब मुक्ति चाहता है। वे जीना भर चाहते हैं, अपने परिवार के लिये दो जून के भात का जुगाड़ हो जाय बस...यही उनकी मंजिल रह गयी है। हिंसा की उत्तेजना दीर्घकालीन नहीं हुआ करती (यद्यपि उसका प्रभाव दीर्घकालीन हुआ करता है) वह अहिंसा ही है जो मनुष्य को दीर्घकालीन सुख और शांति दे सकने में समर्थ है। चीन के मंसूबे तोड़ने के लिये आदिवासियों का ईमानदारी से किया गया पुनर्वास ही श्रेष्ठ उपाय है जिसकी दिशा में सोचा तक नहीं जा रहा है।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.