शनिवार, 2 नवंबर 2013

बल्बावली


है निशा यह सजी, बल्ब भी हैं जले

पर बिना नेह-बाती दिशा ना मिले ।

 

है दिशा को छला आज फिर बल्ब ने लो

हुयीं धूमिल दिशायें, काँपती दीप की लौ ।

कुछ इस तरह बल्ब उनके जले

कि हो गयीं आज ओझल सारी दिशायें ।

रक्त का एक दीपक रखा द्वार पर

और इधर ही चलीं आज सारी हवायें ।

रौशनी की तरफ़ जो उठायीं निगाहें

लगीं बदली-बदली सी सारी फ़िज़ायें ।

अमावस की ही निशा क्यों सजे

चाँदनी रूपसी क्यों सिसकती रहे ।

भटकती दिशायें, सूर्य खण्डित हुये

पग बढ़ाती अमावस बिहंसते हुये ।

रात काली सदा मान पाती रही

और पूनम को होली जलती रही ।

नेह-बाती बिना बल्ब इतने जले

ढक गयी है धरा बल्बों के तले ।

 

नेह किसने चुराया, कहाँ बाती छिपायी

कहाँ गंध सोंधी दियों की हिरायी ।

मेंहदी लगे हाथ से कोई परस दे

आके रूठे दिये को कोई तो मनाये ।

दे ओट आँचल की ममता उड़ेले

जब कोई रूठा दिया टिमटिमाये ।

मुझे माटी का ही दिया चाहिये

नेह-ममता भरा ही हिया चाहिये ।

दीप हो एक ही पर वो ऐसा जले

काँप जाये अँधेरा सदा को टले ।