गुरुवार, 20 मार्च 2014

सरहदें



सारी हदें तोड़ कर खीचीं, मिलकर सबने ख़ूब सरहदें
हर सरहद को तोड़-तोड़ कर, फिर-फिर खीचीं नई सरहदें ॥
मिली तसल्ली न बाँटकर भी, लगे खीचने और सरहदें
जाति-धर्म, शहर-ओ-सूबे, दिल-दिमाग में नई सरहदें ॥ 
अभी छिपी हैं आड़ी-तिरछी, न जाने कितनी और सरहदें
अपने ही बनते गये लुटेरे, खीच रहे नित नई सरहदें ॥ 
पाक गया बंगाल गया, कश्मीर में मिट ना सकीं सरहदें
सरहद पर भी खिचती रहतीं, रोज़-रोज़ कुछ नई सरहदें ॥ 
छोटे दिल वालों का मक़सद रहो खीचते सदा सरहदें
प्यार में सरहद, काम में सरहद, घर-घर खीचो नई सरहदें ॥ 

3 टिप्‍पणियां:

  1. प्रशंसनीय प्रस्तुति । मर्म-स्पर्शी रचना ।

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    1. धन्यवाद ! शकुंतला जी! आपका प्रोफ़ाइल देखा । मेरा आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया संस्कृत में ही टिप्पणियाँ लिखें ...हमें कुछ सीखने का अवसर मिलेगा । अभी पिछले माह कानपुर गया था ...एक विवाह में । कुछ लोग संस्कृत में बात कर रहे थे । अच्छा लगा यह सब देखकर ...बाद में पत चला कि वे लोग सभी से संस्कृत में ही बात करते हैं ।

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ब्लॉग-बुलेटिन का बसंती चोला - 800 वीं पोस्ट मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.