रविवार, 27 अप्रैल 2014

अरुन्धती जी ! इसमें सही क्या है?



“मुझे हर उस इंसान और विचारधारा पर गर्व है जो ग़रीब आदिवासियों के हक़ में अपनी आवाज़ बुलन्द करता है । यदि नक्सली ऐसा करते हैं तो इसमें क्या ग़लत है?”
यह वक्तव्य लेखिका अरुंधती राय ने लगभग एक वर्ष पूर्व उस वक़्त दिया था जब आशीष महर्षि ने उनसे जानना चाहा था कि वे आख़िर क्यों नक्सलवाद और नक्सलियों को बड़े रूमानी अंदाज़ में पेश किया करती हैं ।
एक समय था जब नक्सलियों ने रॉबिन हुड जैसी अपनी रोमांचक छवि बनाने में सफलता पा ली थी और व्यवस्था में बदलाव लाने के पक्षधर पढ़े-लिखे युवकों के मन में अपनी घुसपैठ बना कर उनके अपरिपक्व विचारों को हैक कर लिया था । फिर वह समय भी आया जब नक्सली विचारधारा के प्रणेता सान्याल मोशाय को नक्सली आंदोलन के पथभृष्ट हो जाने के कारण आत्महत्या कर लेनी पड़ी । और आज, जबकि “नक्सलवाद” एक नाम भर शेष रह गया है, उत्तर के पड़ोसी देश की उग्र और विस्तारवादी विचारधारा से सजे-धजे माओवादियों ने उस नाम को ओढ़ कर अरुन्धती जैसे विचारकों को परीक्षणशून्य कर दिया है ।
मैं स्पष्ट तौर पर भारत में आयातित माओवादी विचारधारा का विरोधी रहा हूँ । अरुन्धती जिसे रोमांच कहती हैं वह चीनी विस्तारवाद का एक हिस्सा है । अरुन्धती जिसे “गरीब आदिवासियों के हक़ में आवाज़ बुलन्द” करना कहती हैं वह वस्तुतः भारतीय प्रशासनिक दुर्बलताओं की आड़ में चीन की हुंकार है ।
बस्तर के संदर्भ में नक्सलवाद का चेहरा देखें तो वहाँ माओवादी हिंसा अपना तांडव करती दिखायी देती है । नेपाल से लेकर बस्तर के दक्षिणी छोर तक एक लाल गलियारा विकसित किया जा रहा है जिसकी जड़ें चीन में हैं और वहाँ के हुक्मरानों से सींची जा रही हैं । बस्तर में हुयी माओवादी हिंसाओं के समय घटना स्थल से पाये गये हथियारों पर “चीन निर्मित” लिखा हुआ पाया जाना इसका अकाट्य प्रमाण है ।
क्या अरुन्धती जी बता सकती हैं कि देश के अंदरूनी मामलों के समाधान के लिए विदेशी सहायता का अर्थ क्या होता है, विशेषकर तब जबकि ऐसी सहायता हिंसक और केवल हिंसक ही हो ? क्या भारत की सम्प्रभुता इतनी खोखली और अस्तित्वहीन हो गयी है कि भारत के अन्दरूनी मामलों में विदेशी हस्तक्षेप आवश्यक हो गया है ? क्या भारत अपने राजनैतिक चिंतन और विचारों से इतना दुर्बल हो गया है कि उसके राज्यों को अपनी समस्यायों के समाधान के लिए माओवाद का अवलम्ब लेना पड़ेगा ?
दूर बैठकर रॉबिनहुडी रोमांच में खो जाना अच्छा लग सकता है किंतु यह रोमांच तब क़ाफ़ूर हो जाता है जब कोई एक बार सच्चे मन से बस्तर के हृदय में झाँककर देखने की चेष्टा करता है । बस्तर के अन्दरूनी हिस्से जहाँ सड़कें खोद डाली गयी हों, स्कूलों को डायनामाइट से उड़ा दिया गया हो, हर घर से एक व्यक्ति को माओवादी गतिविधियों का हिस्सा बनने का फ़रमान ज़ारी कर दिया गया हो, नाबालिग लड़कियों और लड़कों को बलात् उठाकर माओवादी ट्रेनिंग कैम्प्स में डाल दिया गया हो, महिला मिलिशिया के साथ स्वच्छन्द यौनाचार को अपना अधिकार मान लिया गया हो ....... माओवादियों की हिंसा को विकास के लिए जनान्दोलन का एक हिस्सा निरूपित करना हठ और केवल हठ ही हो सकता है । हम इस अनौचित्यपूर्ण हठ का विरोध करते हैं ।
माओवादी विचारधारा के रोमांच में खोयी अरुन्धती जी से हम जानना चाहते हैं कि वे देश को बतायें कि बस्तर को इस रोमांचपूर्ण हिंसा से अब तक मिला क्या है ? यूँ गणना के लिये उनके पास रटा-रटाया बहुत कुछ हो सकता है, जैसे कि - वे कहेंगी कि माओवादियों के कारण ही तेंदू पत्ता संग्रहण का भाव बढ़ाने और बोनस देने के लिए सरकारें विवश हुयी हैं, आदिवासियों को वनभूमि पट्टे देने के लिये सरकार को झुकना पड़ा .....आदि-आदि । किंतु यह मात्र एक अर्धसत्य भर है । आदिवासियों की शिक्षा, उनके स्वास्थ्य, उनके आवागमन के लिये सड़क आदि की व्यवस्था करने का हिंसक विरोध किस प्रकार के विकास का परिचायक हो सकता है? अरुन्धती जी पूछती हैं कि नक्सली गतिविधियों में गलत क्या है, मैं उनसे पूछता हूँ कि माओवादी बनाम नक्सली गतिविधियों में सही क्या है ?  
अरुन्धती जी ! चुनावों के समय हम आपको बस्तर के सुदूर गाँवों में आने के लिए आमंत्रित करते हैं । हमारा वादा है कि आपको अपने विचारों पर नए सिरे से चिंतन के लिये बाध्य होना पड़ेगा ।       
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शनिवार, 26 अप्रैल 2014

क्या पाइएगा


देकर पता वो
अन्धी गली का,
कहते हैं मुझसे
ज़रूर आइयेगा ।
पहुँचने से पहले
द्वारे पे उनके,
है पूछा उन्होंने
कि कब जाइएगा । 

वादों के व्यञ्जन
चोटों की चटनी
लिए पूछते हैं
क्या खाइएगा ।
इतनी बदहाली दी
इतनी दीं ज़िल्लतें
इनसे भी बदतर
क्या दीजिएगा ।   
 

परिभाषा
पिटारों में क़ैद उनके,
अब शब्दकोषों में
क्या पाइएगा ।
मिले झोपड़ी में
महामात्य कोई,
नेक सम्राट कोई
तभी पाइएगा । 

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

कौन है पिछड़ा ?

चुनाव के राजनीतिक मौसम में भारत के राजनीतिज्ञों, तथाकथित बुद्धिजीवियों और समाचार माध्यमों के बीच चर्चा का एक प्रिय (किंतु भ्रामक) विषय हुआ करता है - “पिछड़ापन” । एक सुनियोजित भ्रम को निरंतर तराशे जाने का षड्यंत्र स्थापित किया जा चुका है । स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् तथाकथित अल्पसंख्यक वर्गों को स्वप्न बेचे जाने का क्रम प्रारम्भ हुआ जो अभी तक चल रहा है । लोगों ने बड़ी ललक से अपना बहुमूल्य “मत” देकर सपनों को ख़रीदा, वर्षों तक उसे अपनी आँखों में रखकर सींचा .....किंतु सपनों से अंकुर नहीं निकले । वे ठगे जाते रहे, सपनों के बीज बाँझ थे वे कभी नहीं उगे ।
भुने हुए चने कभी नहीं उगते –भारत को अभी यह सीखना होगा ।
सपने बेचे जाने का यह व्यापार पिछले छह दशक से भी अधिक समय से चल रहा है । हम यह नहीं कहेंगे कि देश के साथ कोई वञ्चना की गयी, वञ्चना एक-दो बार होती है बारम्बार नहीं होती । ख़रीददार यदि सजग नहीं है तो उसके ठगे जाने की सम्भावनायें असीमित हो जाती हैं । तथापि सत्य यह भी है कि हमारी सजगता को कुन्द करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से हमारे चिंतन और विश्लेषण की धरती पर अम्ल छिड़का जाता रहा है । लोकतंत्र के चालाक व्यापारियों ने सपने बेचने के साथ-साथ हमारे मन-मस्तिष्क में “पिछड़ापन ” और “अल्पसंख्यक” जैसे अम्लीय शब्द भी ठूँस दिये । इन शब्दों ने हमारे मस्तिष्क की उर्वरता को नष्ट करना शुरू कर दिया जिसके परिणामस्वरूप इन भ्रामक शब्दों ने एक छद्मरूप ही धारण कर लिया है ।
हम जानना चाहते हैं कि स्वाधीन भारत के सातवें दशक में कौन है “पिछड़ा” ? कौन है “अल्पसंख्यक” ?
जब मैं कहता हूँ कि सूरजमुखी के फूल का रंग पीला है तो सबको यह विश्वास हो जाता है कि सूरजमुखी के फूल में पीला रंग है, उसकी पंखुड़ियों को प्रकृति के द्वारा पीले रंग से रंगा गया है । किसी को मेरे कथन की विश्वसनीयता पर संदेह नहीं होता किंतु यही बात यदि किसी भौतिकशास्त्री से कही जाय तो सूरजमुखी के फूल का नाम सुनते ही जो चित्र उसके मन में निर्मित होगा उसमें छह रंग तो होंगे पर पीला रंग नहीं होगा । भौतिक शास्त्री एक तत्ववेत्ता है, उसे वास्तविकता पता है कि किसी फूल का रंग वह नहीं होता जो हमें दिखायी देता है बल्कि वह होता है जो वह पुष्प अवशोषित करता है । किसी पुष्प का जो रंग हमें दिखायी देता है वह तो उस पुष्प के द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया है, उसे वापस कर दिया गया है । हमारी आँख़ें जो रंग देख पाती हैं वह पुष्प के द्वारा वापस किया हुआ रंग है । जो पुष्प के द्वारा स्वीकार किया गया है वह तो समाहित हो गया पुष्प में, जो रंग पुष्प के अन्दर है वह किसी को दिखायी नहीं देता, उसे तो बस तत्वज्ञानी ही देख पाते हैं । कहने का आशय यह है कि किसी बात को कहने और उसे समझाने के तरीके में सोद्देश्य भिन्नता हो सकती है । आज की छद्मराजनीति का यही मूल है । जब हम ‘अल्पसंख्यक’ और ‘पिछड़ा’ जैसे शब्दों को उछालते हैं तो उसका उद्देश्य लोककल्याणकारी नहीं होता ।  
यह सर्वविदित है कि भारत की धरती पर विभिन्न जातियों और धर्मों के लोगों का शासन रहा है । भारत के लोग दीर्घ काल तक पराधीन बने रहे । पराधीनता के इस दीर्घ काल में भारतीयों का विकास सम्भव नहीं था ...विकास नहीं हुआ । पूरे भारत के लोग विकास की प्रतिस्पर्धा में शेष विश्व से पिछड़ते चले गये क्योंकि अवसरों की अनुपलब्धता सभी पराधीन भारतीयों के लिए एक समान थी । चन्द अवसरवादियों और देशद्रोहियों के अतिरिक्त आम भारतीय विकास नहीं कर सका । इसलिए यदि ‘पिछड़े’ लोगों को चिन्हित करना है तो सत्ताधीशों, व्यापारियों और उद्योगपतियों के अतिरिक्त पूरे भारत को चिन्हित करना होगा ।
मैं यह नहीं समझ पाया हूँ कि सामाजिक समानता और विकास की चिंता (?) के समय हमारे विद्वान राजनीतिज्ञों द्वारा अवसरों की अनुपलब्धता के आधार पर ‘वंचित’ शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया गया ? और यदि ‘पिछड़ा’ शब्द से इतना ही मोह था तो उसे वर्ग और जाति का चोला क्यों पहना दिया गया ? क्या भारत में कोई भी धर्मावलम्बी है ऐसा जो कह सके कि उसके धर्म को मानने वालों में एक भी व्यक्ति ‘वञ्चित’ नहीं है या विकास में पीछे नहीं है ? क्या भारत में कोई भी जाति ऐसी है जो कह सके कि उसकी जाति में एक भी व्यक्ति ‘वञ्चित’ नहीं है या विकास में पीछे नहीं है ? इन सारी चर्चाओं के समय सवर्णों की स्थिति के बारे चर्चा नहीं की जाती । बिना किसी संधान और प्रमाण के यह माना जाता रहा है कि सवर्ण विकसित हो चुके हैं और अब उन्हें आगे विकसित होने की कोई आवश्यकता नहीं है । यह पक्षपात पूर्ण कुविचार वर्गभेद और सामाजिक विषमता को कैसे समाप्त कर सकेगा यह मैं आज तक समझ नहीं सका हूँ । वर्गविशेष को योग्यता और पात्रता में शिथिलता के साथ प्रश्रय देना वर्गभेद का एक अंतहीन चक्र है जिसमें कभी एक ऊपर होगा तो कभी दूसरा ।    
स्वाधीनता के बाद विकास के विषय पर समग्र समाज की बात कभी क्यों नहीं की गयी, यह विचारणीय विषय है ।  बड़ी धूर्तता से खण्डित समाज की बात की जाती रही और समाज में खाइयाँ खोदी जाती रहीं । मुझे किसी ने बताया है कि भारत में एक मात्र बिल्हौर संसदीय क्षेत्र ही ब्राह्मणबहुल है, किंतु वहाँ के ब्राह्मण भी विकास में अन्य लोगों की तरह ही पीछे हैं । उनके लिए कभी नहीं सोचा गया कि उन्हें भी पिछड़ा घोषित किया जाय । क्यों, क्या कोई सवर्ण विकास में पीछे नहीं हो सकता ?  राजधर्म तो बिना किसी भेदभाव के हर नागरिक को समान अवसर उपलब्ध कराने के लिये राजा को प्रतिबद्ध करता है ।  
यद्यपि आर्यावर्त में कभी वर्गआधारित राजसत्तायें नहीं रहीं, यह तो कुशल नेतृत्व की योग्यता के आधार पर तय होता था कि सत्तानायक कौन होगा । किंतु जब सत्तानायक की बात आती है तो प्रायः ब्राह्मण इस योग्यता में खरे नहीं उतर सके । सच तो यह है कि बहुत कम ब्राह्मण राजा बने हैं । भारत की ब्राह्मणेतर जातियों के लोग ही प्रायः राजा हुये हैं या राजसत्ता में मुख्य भूमिका निभाते रहे हैं । अब एक स्वाभाविक सा प्रश्न यह उठता है कि जिनके हाथो में सत्ता रही उनके लोग भी विकास में पीछे क्यों रह गये ? एक दीर्घ अवधि तक भारत पर मुसलमानों का शासन रहा, फिर भी आज मुसलमान पिछड़े हुये क्यों हैं ? वे कौन लोग हैं जो मुसलमानों के सत्ता में होते हुये भी मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी हैं ? हम उस समुदाय को पिछड़ा कैसे कह सकते हैं जिसके लोग भारत के राष्ट्रपति रह चुके हों और जो पूरे भारत के लिए सम्मान के पात्र हों ? पिछड़ेपन की छद्म परिभाषा को ...अल्पसंख्यक की छद्म परिभाषा को निरस्त करना होगा । नयी परिभाषायें ही देश को नयी दिशा में ले जा सकेंगी जिसके लिए देश के नागरिक प्रतीक्षारत हैं ।
हमें इन सारी बातों पर पुनः विचार करना होगा । हमें वर्षों के रचे छद्म को तोड़ कर सत्य को अनावृत करना होगा । वास्तविकता यह है कि हर धर्म और हर जाति में कुछ लोग समृद्ध हैं, कुछ लोग विकास में पीछे हैं, कुछ लोग बहुत पीछे हैं । भारत में प्रचलित सभी प्रमुख धर्मों और सभी जातियों के लोग उच्च पदों तक पहुँच कर कार्यरत हुये हैं, उनके समुदायों के लोग संत के रूप में पूज्य होते रहे हैं, वैज्ञानिक बने हैं, प्रबन्धक बने हैं ....राजनीतिज्ञ बने हैं ।  बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर आरक्षण की बैसाखियों पर चल कर आगे नहीं बढ़े । यह वही भारत है जहाँ शाक्य मुनि गौतम, कबीर, ज्योति बा फुले आदि समाज में सभी के लिए पूज्य और सम्मानित हुये हैं ।
भारत के लोगों को यह समझना होगा कि किसी भी जाति विशेष का विकास आरक्षण के आधार पर किया जा सकना सम्भव नहीं । विश्व के किसी भी देश में आरक्षण जैसा कोई कुविचार विकसित नहीं  हुआ ।  आरक्षण एक अप्राकृतिक सामाजिक अव्यवस्था है जो समाज में विषमता और बौद्धिक शोषण का आधार बन कर उभरी है । यह दुःख और चिंता का विषय है कि लोग आरक्षण की पात्रता के लिए नये-नये समुदायों को सम्मिलित करने के लिए माँग और आन्दोलन करते हैं । नये-नये अल्पसंख्यक पैदा हो रहे हैं, जबकि अबतक तो इन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में सम्मिलित हो जाना चाहिये था । ‘अल्पसंख्यक’ का यह विषैला विचारवृक्ष कब तक पल्लवित होता रहेगा ?
जब हम सामाजिक समानता और समरसता की बात करते हैं तो हर नागरिक के लिए एक जैसी राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता होनी चाहिये न कि समाज के किसी खण्ड विशेष के लिए पृथक नीति की ? जब हम वैश्विक स्तर पर बौद्धिक प्रतिस्पर्धा में सामने आते हैं तो हमें अपनी बौद्धिक दक्षता के प्रदर्शन की आवश्यकता होनी चाहिये न कि किसी बौद्धिक शिथिलता की ? विकास में किसी प्रकार की  शिथिलता का कोई स्थान नहीं होता, यह प्रकृति का विधान है इसका उल्लंघन भारतीय समाज के लिए अभिश्राप का कारण बन गया है ।

हमारे राजनेताओं के व्यक्तिगतहित खण्डितसमाज के खण्डितहितों के भ्रमजाल में सुरक्षित हैं । आज मुस्लिम हितों, दलित हितों, अनुसूचित जाति हितों, अनुसूचित जनजाति हितों की खण्डित चर्चा की जाती है । खण्डितहितों के विरोध को बड़ी धूर्तता से साम्प्रदायिक घोषित कर दिया गया है । समग्र भारतीयसमाज के हितों का चिंतन करने वाले राष्ट्रवादी विचारकों का अभाव सा हो गया है । सामाजिक विषमता के गर्तों को पाटने के नाम पर गर्तों को और भी गहरा करने काम कब तक चलता रहेगा? यह भारत प्रतीक्षा कर रहा है उस शुभ दिन की जब खण्डितहितों और खण्डितसमाज की नहीं बल्कि समग्र समाज को एक साथ लेकर चलने की चर्चा की जायेगी । हर भारतीय के लिए एक जैसे कानून होंगे, एक जैसे अवसर होंगे और विकास की एक स्वस्थ  प्रतिस्पर्धा को सुस्थापित किया जा सकेगा ।