शनिवार, 10 मई 2014

बूँद-बूँद अहसास


काव्य संग्रह - “बूँद-बूँद अहसास
कवियित्री – डॉक्टर श्रीमती मालिनी गौतम
प्रकाशन - अयन प्रकाशन , महरौली, नई दिल्लीमूल्य - रु.70.00 मात्र

डॉक्टर मालिनी गौतम के काव्य संग्रह “बूँद-बूँद अहसास” में उनकी कुल चालीस रचनाओं का संग्रह किया गया है । एक जिज्ञासु और सजग प्रहरी की तरह मालिनी जी ने अपने आसपास के परिवेश को खंगालते और उस पर नज़र रखते हुये अपनी लेखनी को तूलिका की तरह चलाया है । इस तूलिका से बने शब्दचित्र कभी हमें भावुक करते हैं तो कभी विचारों को उद्वेलित भी । वास्तव में किसी भी रचना, विशेषकर कविता का अंतिम उद्देश्य अपने निर्दुष्ट संदेश के साथ निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचना और फिर लोक कल्याणकारी मूर्त रूप लेना ही होता है । कविता केवल मनोरंजन ही नहीं है, बल्कि यदि वह हमें झकझोरती है, उद्वेलित करती है, किसी रचनात्मक परिवर्तन के लिए बाध्य करती है या समाज को कोई दिशा देने में समर्थ हो पाती है और अंत में “सर्वे भवंतु सुखिनः” के आप्त संदेश को साकार करने की दिशा में अपना किंचित भी योगदान दे पाती है तो हमें लगता है कि रचनाकार की अभिव्यक्ति सार्थक हो रही है ।  कविता का उद्देश्य यदि केवल मनोरंजन ही होगा तो कविता कालजयी नहीं हो सकेगी । आख़िर रीतिकाल की कविताओं ने समाज को दिया ही क्या है ? मालिनी जी दीनबन्धु की तरह स्वयं को भीड़ का एक भाग मानते हुये पाँव से लेकर क्षितिज तक कुछ खोजने का प्रयास करती प्रतीत होती हैं ।

किसी रचनाकार की संवेदनशीलता का ही परिणाम है कि वह अपने आसपास के उस परिवेश से आंदोलित रहता है जिसमें अभावों, वंचनाओं और विवशताओं के पर्वतों से झरती पीड़ा की उष्ण जलधारा के छींटे उनके मन को झुलसाते रहते हों । कविता “वज़ूद” इसकी साक्षी है ।  मालिनी की सजग दृष्टि चारो ओर कुछ तलाशती रहती है । समाज की निर्मम मान्यतायें (नक़ाब), समर्थ रचित विद्रूप (बचपन), विवश सम्बन्धों के (टापू), निर्लज्ज स्वार्थों से उपजी नपुंसकता (दुधारू गाय) और टूटे सम्बन्धों की पीड़ा के (निशान) उन्हें व्यथित करते हैं ।

डॉ. मालिनी जी की कविताओं में संवेदना है, संस्कार है, प्रेम है, पीड़ा है, निराशा है, आशा है, संघर्ष है ... जीवन के इतने सारे रंग ... और यह सब संजो लिया है उन्होंने अपनी एक ही कविता “ज़िंदगी एक – अनुभूतियाँ अनेक” में । अनुभूतियाँ, मालिनी जी के साथ स्मृति बनकर आँख-मिचौली खेलती हैं, वे कभी भी प्रकट हो जाती हैं ....फिर ज़ल्दी वापस न जाने के लिए – “धूप में लिपटी कितनी परछाइयाँ / दबे पाँव पसर जाती हैं / याद/ चली आती है ....../ बिन बुलाये मेहमान की तरह ।”  

यादें तो मेहमान बन कर आ भी जाती हैं किंतु कई बार हमारे अपने ही अज़नबी बन जाते हैं, पास रहकर भी पास नहीं हो पाते । स्री की यह पीड़ा एक व्यापक तथ्य है ...देश-काल-वातावरण से परे एक सार्वभौमिक सत्य है । किसी ‘नबी’ के ‘अज़नबी’ बनने की पीड़ा कितनी सालती है, पुरुष की यह स्वार्थपरता स्त्री से बेहतर भला और कौन जान सकता है ! स्त्री की पीड़ा को बड़ी ख़ामोशी से चित्रित करते हुये मालिनी जी ने बंदी भावों को मुक्त कर प्रकट प्रश्न के रूप में अप्रकट उत्तर दिया है – “अपने क्रोध के ज्वार में तुम ख़ुद/ पिघलकर बन गये भाप/ मेरे दो बूँद आँसू/ तुम्हें ठंडा करते भी तो कैसे ...?” अपनी एक और कविता “किनारे” के माध्यम से उन्होंने स्त्री के अभिषप्त अस्तित्व को रेखांकित करने का सफल प्रयास किया है । सच ही तो, नदी के किनारे अभिषप्त हैं, नदी के समानांतर अपनी यात्रा करते रहने के लिए । किनारों का मिलन नदी की मृत्यु है । नदी का अस्तित्व किनारों के बिछोह से ही अपना विस्तार पाता है ।

समय करवट ले चुका है, अब स्त्री भी आक्रोशित होती है, उसका मन वर्जनाओं को तोड़ने के लिए आन्दोलित होता है । मौन उत्तर दे-दे कर थक चुकी स्त्री जब करवट लेती है तो पुरुष के वर्चस्व को तोड़ते हुये अपने हिस्से का स्वर्णमृग मारने की घोषणा भी करती है । डॉक्टर मालिनी की कविता “स्वर्णमृग” और “बेशरम के पौधे” में ऐसी ही एक स्त्री करवट लेती दिखायी देती है । 
डॉक्टर मालिनी ने नित्य जीवन व्यापार की विभिन्न अनुभूतियों को शब्दों के परिधान में सुसज्जित कर ध्वनि उत्पन्न करने का प्रयास किया है । माँ के भीतर ख़ुद को भी टटोलने का प्रयास करती कवियित्री की “माँ” को हर पल ठगे जाने की अनुभूति होती है । किन्तु वही माँ जब अपने नवजात की “परवरिश” का साहस नहीं कर पाती और निर्दोष नवजात का निर्मम और अमानवीय परित्याग करती है तो सारा समाज एक साथ कटघरे में खडा दिखायी देता है । आज, जबकि नई पीढ़ी के लोग वृद्ध हो गये स्वजनों को वृद्धाश्रम का रास्ता दिखाने लगे हैं, हृदय को स्पर्श कर लेने वाली “एक पाती जीवनदात्री के नाम” लिखकर मालिनी जी ने रिश्तों के भारतीय संस्कारों को स्थापित करने का प्रशंसनीय प्रयास किया है ।

कविता “बेबसी” में मृत्यु को बहुत सहजता के साथ स्वीकारते हुये मालिनी के भोलेभाले तर्क मन को गुदगुदाते हैं - “जन्म और मृत्यु दोनो पर / नहीं होता उसका कोई बस / वह जन्म लेता है / और क्योंकि मौत नहीं आती इसलिए / विवश हो जाता है / जीने के लिए / ........../ और एक दिन क्योंकि / अब और जी नहीं सकता / इसलिए मर जाता है।”  

सम्प्रेषण की सुबोधता बनाये रखने के लिए कवियित्री ने बरसाती भाषा (जिसमें विभिन्न भाषाओं के प्रचलित शब्दों से परहेज़ किया जा सकना सम्भव नहीं होता ) और बोलचाल के सहज शिल्प को स्वीकार किया है । यही कारण है कि मालिनी की कवितायें अपने लक्ष्य तक पहुँच सकने में समर्थ हो सकी हैं । यूँ व्यक्तिगत रूप से मैं भाषा की शुद्धता का पक्षधर रहा हूँ फिर भले ही वह लोगों को क्लिष्ट क्यों न प्रतीत हो । भाषा के विषय में मेरा स्पष्ट मत है कि यदि गंगा जी के दिव्य जल का लाभ लेना है तो उसमें हिमालय के हिमनदों के अतिरिक्त किसी बाह्य स्रोत से आये हुये जल का मिश्रण वर्ज्य होना ही चाहिए । भाव के साथ भाषा की प्राञ्जलता साहित्य की अपेक्षित आवश्यकता होती है ।

एक और प्रखर काव्य संग्रह की प्रतीक्षा के साथ “बूँद-बूँद अहसास” के लिए डॉक्टर श्रीमती मालिनी गौतम जी को मंगल कामनायें । 

सोमवार, 5 मई 2014

देवी-देवता .... भगवान और ईश्वर


प्रसंग भारत का है जहाँ करोड़ों देवी-देवताओं का अस्तित्व में होना बताया जाता रहा है । यह सुस्थापित धारणा है कि देवता शक्ति और प्रभुता से सम्पन्न होते हैं ...उनको प्रसन्न कर लेने से बहुत कुछ पाया जा सकता है । किंतु यह भी एक सुस्थापित तथ्य है कि देवताओं को प्रसन्न कर पाना सरल नहीं है । मनोवांछित वरदान पाने के लिए किसी कार्यालय के लिपिक से लेकर प्रधानमंत्री तक किसी को भी प्रसन्न कर पाना कठिन तपस्या से ही सम्भव हो पाता है – यह आम भारतीय की धारणा है जो उसके निरंतर अनुभवों का परिणाम है ।  

भारत ... यानी एक ऐसा देश है जहाँ चार युगों के अस्तित्व के बारे में लोगों का विश्वास अटल है । अभी तो इक्कीसवीं सदी में लोग कलियुग से त्रस्त हैं और सतयुग की बड़ी अधीरता से प्रतीक्षा कर रहे हैं । इस सारे चिंतन के बीच हमें यह भी ध्यान रखना है कि पश्चिमी समाज को सम्बल देने वाले दो तत्व हैं –एक गॉड और दूसरा किंग (या मिस्टर प्रेसीडेण्ट ) । भारतीय समाज को सम्बल देने वाले कई तत्व हैं – भइया जी, माननीय महोदय जी, आदरणीय सेठ जी, बजरंगबली जी, राधे-राधे ...........और अंत में ऊपर वाला ।   

भारतीय़ मनीषियों ने मनुष्य की मौलिक वृत्तियों को तीन गणों – देव,मनुष्य और राक्षस में वर्गीकृत करते हुये उनके व्यवहार को समझने का प्रयास किया । हमारा समाजव्यवहार हमारे चरित्र को ऊर्ध्व या अधोगति की ओर ले जाता है । “दैव चरित्र” ऊर्ध्व गति की वह चरम परिणति है जहाँ से अब और ऊपर नहीं जाया जा सकता प्रत्युत जहाँ से अधोगति की सम्भावनायें प्रबल हो जाती हैं । पर्वत की चोटी से आगे रास्ता ढलान से होकर ही जाता है । “राक्षसचरित्र” अधोगति की वह चरम स्थिति है जहाँ से केवल ऊर्ध्व दिशा की ओर ही जाया जा सकता है । मनुष्य चरित्रके साथ ऊर्ध्व और अधो दोनो गतियों की सम्भावनायें हैं । किंतु इनमें से किसी भी एक दिशा की ओर प्रेरित करने वाले प्रेरक तत्वों की उपलब्धता, उन्हें ग्रहण करने की क्षमता और उस क्षमता को परिणामगामी बनाने वाली दृढ़ता उस मनुष्य की दिशा तय करती है ।   
पुराणों और इतिहासों ने हमें बताया कि आर्यावर्त के समाज को उग्रवाद और हिंसा से प्रायः पीड़ित रहना पड़ा है। पहले हम इसका कारण राक्षसवाद को मानते थे आज इसका कारण उग्रवाद को मानते हैं, सभी अतिवादी और हिंसक लोग इसके लिए उत्तरदायी हैं । राक्षस हमारे चारो ओर हैं ...राक्षस हमारे अन्दर भी हैं ।
भारत में एक वर्ग ऐसा भी सदा से ही रहा है जो अवसरवादी और सुविधाभोगी रहा है, पहले हम इसका कारण देववाद को मानते थे आज इसका कारण पूँजीवाद है । सभी अवसरवादी, उद्योगपति, ब्यूरोक्रेट्स, नेता,अभिनेता ...आदि इस देववाद के लिए उत्तरदायी हैं । देवता हमारे गाँव में भी हैं और गाँव से लेकर दिल्ली तक भी ।
देवता और राक्षस या अवसरवादी और उग्रवादी भारतीय समाज के दो ध्रुव हैं । शेष भारतीय समाज इन दोनो ध्रुवों के बीच कभी डोलता दिखायी देता है तो कभी पिसता हुआ दिखायी देता है । शेष भारतीय समाज का चरित्र ही “मनुष्य चरित्र” है जो निरंतर देव या राक्षस बनने के प्रयास में संघर्षरत दिखायी देता है ।
  भारत में देवता सम्मानित हैं, नेता-अभिनेता और उद्योगपति सम्मानित हैं । वे सम्मानित हैं जो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं, सुविधाभोगी हैं, अवसरवादी हैं और किसी भी तरह शक्ति के शीर्ष पर बैठे हुये हैं ।   

भगवान राम, भगवान कृष्ण, भगवान महावीर और भगवान बुद्ध इस देव कोटि से अलग हैं। देवताओं वाला कोई चरित्र उनमें दिखायी नहीं देता। उनका सारा जीवन मूल्यों की स्थापना के संघर्ष में लगा रहा । उनका चरित्र स्तुत्य और प्रदर्शक होने के बाद भी आम मनुष्य के लिए अनुकरणीय नहीं हो सका । अनुकरणीय होने के बाद भी अनुकरणीय नहीं हो सका । आम मनुष्य की यही दुर्बलता है कि वह जिसकी स्तुति करता है उसका अनुकरण नहीं कर पाता । अनुकरण कर पाता तो वह भगवान न हो गया होता !

इन  सब शक्तियों के बाद फिर ईश्वर भी है । भारतीय चिंतन जब सूक्ष्म तत्व की ओर बढ़ता है तो वह राक्षस, मनुष्य, देव और भगवान – इन सबसे परे जाकर चराचर जगत के नियंता ईश्वर को अंतिम सत्य स्वीकार कर सारी लौकिक वृत्तियों से मुक्त हो जाता है ।

मैं प्रायः सोचता हूँ, भारतीय आध्यात्मिक चिंतन का कमल, विकारों-विसंगतियों और विरोधाभासों के कीचड़ में ही क्यों खिल सका ! समाधान भी मुझे इसी जिज्ञासा में मिला – कमल कीचड़ के अतिरिक्त और खिल भी कहाँ सकता है ?