सोमवार, 21 जुलाई 2014

अ मैन-ईटर ....इन साइड द पैलेस ऑफ़ किंग हिज़ हाईनेस महाराजा भानुप्रताप देव( अ रियल स्टोरी ऑफ़ अरली ट्वेंटीथ सेंचुरी )

 

   इससे पहले भी वह कई बार सफल आक्रमण कर चुकी थी । कांकेर राज्य की सेना का बारम्बार पराजय का मुँह देखना महाराजा भानुप्रताप देव के लिए लज्जा का कारण बन चुका था । सत्रह .....सत्रह निर्दोष लोगों की हत्या हो चुकी थी और उसे पकड़ने के सारे उपाय निष्फल होते जा रहे थे । यह राज्य की आंतरिक समस्या थी, इस बारे में ब्रितानिया सरकार से सहयोग लेना अपने को अपनी ही दृष्टि में गिराना था ।
    
       एक और भी कारण था कि महाराजा कांकेर ब्रितानिया सरकार से इस बारे में कोई चर्चा नहीं करना चाहते थे । उन्हें अच्छी तरह मालुम था कि ब्रितानिया सरकार उस नरभक्षी को मार देगी । जबकि महाराजा इस बात के विरुद्ध थे । उन्हें प्रतीक्षा थी उस दिन की जब महल के बगीचे में बनी बघवा खोली एक बार फिर आबाद होगी।
     लगभग दो सप्ताह पहले ही उस नरभक्षी बाघिन को दुधावा के आसपास देखा गया था जब उसने एक किशोर को अपना भोजन बना डाला । इस बार उसे पकड़ने की रणनीति स्वयं महाराजा ने बनायी । वे आश्वस्त थे कि उसे जीवित ही पकड़ लिया जायेगा, जबकि राजसैनिक उसे जीवित या मृत किसी भी स्थिति में देखने के लिए व्यग्र थे।
उस दिन एक वनवासी ने महल के सैनिक को समाचार दिया कि कुख्यात  नरभक्षी बाघिन को कुम्हान खार गाँव के आसपास के जंगल में देखा गया है । महाराजा ने सैनिकों को तैयार किया और कुम्हान खार की ओर कूच कर दिया ।
दो दिन हो चुके थे और बाघिन जैसे अदृश्य हो गयी थी, उसका कहीं कोई  पता नहीं चल रहा था । वह “तुम डाल-डाल हम पात-पात” वाली नीति अपनाये हुयी थी । महाराजा ने अपने सैनिकों और कुशल शिकारियों को रात में भी सजग रहने का आदेश दे दिया था ।


मचान पर बैठे सुकालू की पूरी देह को मच्छरों ने दावत की बड़ी सी परात में सजा पकवान  समझकर खूब मनमानी की । मच्छर अपने-अपने रिश्तेदारों के साथ दावत उड़ा कर प्रसन्न  होते रहे और सुकालू दम साधे बैठे रहने को विवश था ...नेक भी हलचल हुयी नहीं कि पूरा अभियान फुस्स ! 

       तीसरे दिन मुंह अंधेरे ही तालाब के पास बाघिन को पानी पीते हुये देखा गया । शिकारियों ने अचेत करने वाले तीर धनुष पर चढ़ा लिए । वे अभी निशाना साध  ही रहे थे कि चालाक बाघिन ने पानी में छलांग लगा दी । धनुष की कमानें खिंचीं और  तीरों की बौछार से पानी में बुडुक-बुडुक की आवाज़ें आने लगीं । लेकिन एक भी तीर बाघिन को नहीं लगा, वह जैसे अमर हो कर धरती पर आयी थी । शिकारियों का पूरा दल हाथ  झाड़कर रह गया ।
महाराजा ने धैर्य से काम लेने की समझाइश देते हुए अभियान सतत  चलाये रखने का आदेश दिया । मंगलू ने हाँका डालने का सुझाव दिया । पहले तो महाराजा इसके लिए तैयार नहीं हुये किंतु बाद में लोगों की निराशा और असंतोष को देखते हुए  चौथे दिन हाँका डालना निश्चित किया गया । जंगल को तीन ओर से घेर कर हाँका डाला गया। हाँका में दक्ष शिकारियों के साथ-साथ आसपास के ग्रामीण वनवासियों ने भी बड़े उत्साह से भाग लिया । बच्चों को इसमें सम्मिलित होने की अनुमति नहीं थी फिर भी बच्चे कहाँ मानने वाले ! भीड़ के साथ वे भी चिल्लाने लगे । चतुर बाघिन तीन ओर से घिर चुकी थी, बच कर भागने के लिए केवल एक मार्ग ही शेष था ....जिधर तीर कमान और बन्दूक लिए लोग पहले से ही मोर्चा संभाले हुए थे । अचानक बाघिन को दौड़ते हुये देखा गया, भीड़
में उत्साह का संचार हुआ और बच्चे ख़ुशी में गला फाड़-फाड़ कर चिलाने लगे ।
“आज नहीं बच पायेगी ...बहुत छकाया है सबको”। - सबके मुंह से यही निकल रहा था । महाराजा चिंतित हो उठे ...कहीं अति उत्साह में लोग बाघिन की हत्या न कर दें । उन्होंने चिल्लाकर कहा – “ अचेत करने वाले तीर चलाना ....गोली हवा में चलाना ......बाघिन को गोली लगने न पाये ....”।
हवा में धाँय-धाँय की आवाज़ें गूँजने लगीं .....तीर-कमान वाले अपनी समस्त इन्द्रियों को सजग कर साँसें साधे बाघिन के समीप आने की प्रतीक्षा करने लगे ।
......और लोगों ने देखा कि भागती हुयी बाघिन बाँस के एक झुरमुट में घुस गयी । भीड़ समीप आने लगी ........झुरमुट को घेरने के लिए लोगों ने दौड़ लगा दी । बच्चे भी छोटे-छोटे डण्डे हाथ में उठाये उधर ही भागने लगे तो पैंसठ साल के बुच्चा ने लाठी लेकर सबको खदेड़ा ।
बाँस का घना झुरमुट भारी भीड़ की ग़िरफ़्त में था । लोगों का उत्साह अपने चरम पर पहुँच चुका था । महाराजा ने एक बार फिर सभी को चिल्लाकर सचेत किया कि कोई भी बाघिन पर गोली न चलाये । किंतु गोली तो दूर, किसी को तीर या लाठी तक  चलाने की भी आवश्यकता नहीं पड़ी ।
भीड़ ने पाया कि बाघिन एक बार फिर अपनी माया से अदृश्य हो चुकी थी । लोगों की निराशा की सीमा न रही । बुच्चा चिल्लाया – “ मैं तो पहले ही कहता था न  कि वह बाघिन नहीं कोई देव है, तभी तो सबके देखते-देखते बिला जाती है । पूजा करनी होगी, कुछ भेंट चढ़ानी होगी ...... वह कोई साधारण बाघिन नहीं है”।
भीड़ के भी आश्चर्य का ठिकाना न रहा ...सच ही तो ...देखते-देखते कहाँ बिला गयी बाघिन !

महाराजा भी हार मानने वाले नहीं थे, इस बार तो बघवा को पकड़ना ही है । नए सिरे से योजना बनी, एक बकरे के पैर में दो-तीन स्थान पर घाव बनाकर उसमें नमक लगा दिया गया । लोग मचानों पर बैठ कर बाघिन की प्रतीक्षा करने लगे । नमक लगे घाव के कारण बकरा चिल्लाता रहा और बाघिन जंगल में कहीं मुस्कराती  रही। लोगों को विश्वास था कि इतने दिन की भूखी बाघिन बकरे के लालच में इस बार आयेगी अवश्य । लोग जागते रहे और रात गहरी होती रही । रात्रि का अंतिम प्रहर भी आ गया ....
अंततः, ठसका दिखाती हुयी वाघिन आयी । भूख से बेहाल हो कर आयी । भोजन के लालच में आयी, किंतु ..........
....किंतु चालाक बाघिन बकरे की ओर मुस्कराकर देखती हुयी आगे बढ़ती चली गयी । बकरा चिल्लाता रहा, गोया कह रहा हो – “अरे बाघिन जी ! मैं इधर हूँ ...कब से आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ । मनुष्य लोग आपको पकड़ने के लिए व्यग्र हो रहे हैं और आप हैं कि सबकी आशाओं पर पानी फेरती हुयी आगे चलती चली जा रही हैं । मुझे खाओ तो सही...मैं आपके पेट में जाकर गहरी नींद सोना चाहता हूँ”। 
बाघिन ने बकरे के रुदन पर कोई ध्यान नहीं दिया, जैसे कह रही हो-
“अबे उल्लू ! खीर को छोड़कर सत्तू तो तेरे जैसे ही मूढ़ मति खाते हैं”।
अंधेरा पलायन करने की तैयारी के बारे में विचार कर ही रहा था कि तभी एक किशोरी ने अपनी झोपड़ी के पीछे की झाड़ी में शौच की इच्छा से प्रवेश किया ।

अचानक किशोरी अपनी पूरी शक्ति से चिल्लाने लगी, पूरे जंगल में किशोरी की आर्त चीख  गूँज उठी । एक ऊँचे मचान पर बैठे महाराजा को इसकी आशा नहीं थी । यह चीख अप्रत्याशित थी .....पूरे अभियान में इस चीख के लिए कोई स्थान मुकर्रर नहीं किया गया था । महाराजा को विश्वास हो गया कि चालाक बाघिन ने अवसर देखकर किशोरी पर आक्रमण कर दिया है, उनके हाथ अपनी सुरक्षा के लिए ली गयी बन्दूक पर जा पड़े .....और एक
धमाके के साथ सब कुछ शांत हो गया ।

सबको गोली न चलाने के लिए कहते रहने वाले महाराजा ने एक लड़की की चीख से व्यथित हो आवाज़ की दिशा में अंधेरे में गोली चला दी थी । लड़की की चीख शांत होते ही महाराजा सन्न रह गये । अचानक उनकी समस्त इन्द्रियाँ अपनी सम्पूर्ण क्षमता और तीव्रता से कार्य करने लगीं । उन्हें अपराध बोध ने घेर लिया ........बाघिन तो पकड़ नहीं सके, एक लड़की का जान और चली गयी । महाराजा के दुःख और आत्मग्लानि की सीमा नहीं रही । वे मचान से कूद कर झाड़ी की ओर भागे ....अन्य लोग भी भागे । 
  झाड़ी के पास पहुँच कर भीमा ने फूस जलाकर प्रकाश किया । सबने देखा कि बाघिन ने लड़की को पूरी तरह दबोच रखा है, लड़की अचेत है और बाघिन निश्चल । सबको आश्चर्य हुआ .....बाघिन निश्चल  क्यों है !
लोगों ने देखा कि बाघिन के कन्धे के पास से रक्त की तीव्र फुहार फूट रही थी, यानी वह भी घायल हुयी थी, सबने मिलकर उस विशालकाय नरभक्षी बाघिन को लड़की की अचेत देह के ऊपर से हटाया । बाघिन उस किशोरी की एक भुजा पूरी तरह अपने पेट में सुरक्षित रख चुकी थी ।
   अब तक सब कुछ स्पष्ट हो चुका था । बाघिन पकड़ी गयी ........किंतु.......
    महाराजा की आँखें बरस उठीं, पता नहीं ......... लड़की के प्राण बच जाने की प्रसन्नता में या बाघिन के मारे जाने के दुःख में ।
   किशोरी का प्रारम्भिक उपचार घटनास्थल पर स्वयं महाराजा ने किया और फिर उसे अपनी गाड़ी से अस्पताल पहुँचाया ।
  अगले दिन महाराजा महल के अपने कक्ष में ही बने रहे ...बाहर नहीं निकले, भोजन भी नहीं किया । वे आत्मग्लानि से व्यथित थे । वन्यप्राणियों के अधिकारों के लिए चिंतित रहने वाले महाराजा के हाथों से ही एक वन्य पशु की हत्या हो गयी थी । बघवा खोली को भी इस बार निराश होना पड़ा ।
  पूरे दिन महल में लोगों का तांता लगा रहा, लोग नरभक्षी बाघिन को देखने के लिए महल में उमड़े पड़ रहे थे । सूरज ढलते ही महाराजा ने घोषणा की – “यह बाघिन हमारे साथ रहेगी, यहीं .......हमारे महल में इसके रहने की व्यवस्था की जाय”।

  नरभक्षी बाघिन महाराजा के कक्ष में आज भी अपनी पूरी शान के साथ खड़ी है । मैंने गौर किया, महाराजा भानुप्रताप देव के पौत्र जॉली बाबा नरभक्षी बाघिन की कहानी सुनाते-सुनाते बीच में एक-दो बार भावुक हो उठे थे । 
  बाहर वारिश तेज़ होने लगी थी, महल की खिड़की में लगी लोहे की छड़ से पानी की बूँदें अठखेलियाँ कर रही थीं । मुझे पानी की बूँदों को अपने कैमरे में क़ैद करना अच्छा लगता है । मैंने ज़ॉली बाबा से पूछा – “मैं इन बूदों को क़ैद कर लूँ ?” वे मुस्करा उठे – “आपको कभी मना
किया है ?”
  आज के कार्यक्रम में प्रोजेक्टर पर मुझे वन्यजीवन से सम्बन्धित कुछ और भी देखना था...”सम एक्सक्ल्यूसिव”। इस बीच जॉली बाबा की नन्हीं बेटी यानी राजकुमारी जया तीन बार आकर वापस जा चुकी थी । शायद उसे अपने पिता के साथ खेलना था । बाहर अंधेरा घिर रहा था, मैंने जॉली बाबा से विदा ली । 
  महल से बाहर निकला तो छाता छल करने पर आमादा था और वारिश थी कि आज कोई कसर नहीं छोड़ने पर आमादा थी । मैं ख़ुश था...महल मेरे कैमरे में क़ैद जो था। 


      और हाँ ! कांकेर के लोगों ने अभी पाँच बरस पहले तक हर दशहरा पर एक हाथ वाली किसी वृद्धा को महल में आकर पुष्प चढ़ाते देखा है ।

 नरभक्षी बाघिन राजमहल में आज भी शान से खड़ी है । 

कांकेर राजमहल के इस कक्ष में 

शानदार आशियाना है नरभक्षी बाघिन का ।  

महल के पुस्तकालय की खिड़की 

जहाँ पानी की बूँदों ने अठखेलियाँ करनी शुरू कर दीं ।    

शतावरी की नाज़ुक लता पर अपनी सहेलियों के साथ झूला झूलतीं 

पानी की बूँदें ...

2 टिप्‍पणियां:

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