सोमवार, 24 नवंबर 2014

ईश्वर-मनुष्य-ईश्वर



जब जीवन का आधार ही जीवन के अंत का कारण बन जाय तो आश्चर्य और भय होना स्वाभाविक है ।

मनुष्य जीवन के प्राणाधार वायु, जल और आग जब-जब विकराल रूप धारण कर उसके अस्तित्व के लिये संकट बने तब-तब आदिम मनुष्य को अपनी क्षुद्रता और असहायता का भान होता रहा ।
मनुष्य की शक्तियाँ प्रकृति की इन महाशक्तियों के सामने कभी ठहर नहीं सकीं, अंततः उसे प्रकृति की इन अजेय शक्तियों के आगे नतमस्तक होना पड़ा । अब वायु उसके लिए पवनदेव थे, जल वरुणदेव और आग अग्निदेव । धीरे-धीरे प्रकृति की सभी शक्तियाँ देवरूप में स्वीकार कर ली गयीं और इन शक्तियों का नियंता निराकार ईश्वर के रूप में । मनुष्य सभ्यता के इतिहास में इससे बड़ी खोज आज तक नहीं हुयी ।
प्रकृति के निरंतर साहचर्य, अनुभवों और असहायता ने मनुष्य के चिंतन की धारा को दृष्ट-तत्व से अदृष्ट-तत्व की ओर मोड़ दिया । अब तक सूक्ष्म में विराट तत्व के दर्शन ने मनुष्य को अचम्भित और अभिभूत कर दिया था । वह भीड़ से पृथक एक विशिष्ट चिंतक बन गया ।

एक दिन किसी ने पूछा, क्या कर रहे हो ? उसने उत्तर दिया - सूक्ष्म की साधना ।

भीड़ को यह उत्तर अनोखा लगा, उसने तुरंत निर्णय कर लिया कि वह व्यक्ति कुछ विशिष्ट है । लोगों ने उसे चारो ओर से घेर लिया और सूक्ष्म की साधना की व्याख्या करने का अनुरोध किया ।
विशिष्ट व्यक्ति ने ब्रह्माण्ड की सृष्टि और प्रलय की तात्विक व्याख्या की । उसने बताया कि किस तरह अदृष्ट शक्ति ब्रह्माण्ड के रूप में प्रकट होती है और फिर वही स्थूल ब्रह्माण्ड पुनः उस महाशक्ति में लीन हो कर अदृष्य हो जाता है ।
संवाद और अभिव्यक्ति की सरलता के लिए उस शक्ति को नाम दिया गया – “ईश्वर” ।
भीड़ को उस विशिष्ट व्यक्ति की बातें बड़ी रहस्यमयी लगीं । यह रहस्य बोधगम्य न होते हुये भी अचम्भित करने वाला था । उसकी बातों में दिव्यता थी, सम्मोहन था ।
भीड़ ने अनुरोध किया कि वे ब्रह्माण्ड के उस अद्भुत रचयिता और नियंता के दर्शन करना चाहते हैं । विशिष्ट व्यक्ति के बारम्बार यह कहने पर भी, कि ईश्वर निराकार, निर्गुण, अखण्ड, अजन्मा और अमर है इसलिए अदृष्टव्य है, भीड़ हठ करती ही रही । तब विशिष्ट व्यक्ति ने भीड़ से तत्व साधना में प्रवृत्त होने को कहा ।
भीड़ ने निराकार शक्ति के चिंतन का प्रयास किया किंतु सफल नहीं हो सकी । उसकी कल्पना में शून्य निराकार नहीं हो सका । भीड़ को देखने में रुचि थी, प्रमाण में रुचि थी । उसने निराकार को साकार करने का हठ किया और कुछ प्रतीक बना डाले । भीड़ ने अजन्मा को जन्म दे दिया, निराकार को साकार कर डाला । भीड़ की कल्पना में ईश्वर कुछ उसके जैसा और कुछ विशिष्ट था ।
निराकार को भीड़ ने साकार कर दिया, नाम रखा ब्रह्म ।
सर्वशक्तिमान निराकार ईश्वर की साकार रचना करके भीड़ अपनी उपलब्धि पर आत्ममुग्ध तो थी किंतु संतुष्ट नहीं । उसने निराकार को फिर एक रूप दिया, नाम रखा विष्णु । भीड़ अभी भी संतुष्ट नहीं थी । उसने निराकार को एक रूप और दिया, नाम रखा शिव ।
रहस्य के प्रति भीड़ की भूख बढ़ती जा रही थी । उसने निराकार को कई रूप दे दिये । मनभावन ईश्वर की रचना करते समय भीड़ ने अपनी कल्पना को सुन्दर रंगों से सजाने में कोई संकोच नहीं किया । सुन्दर रूप, सुन्दर वस्त्र, सुन्दर भोजन, सुन्दर आवास .....सब कुछ सुन्दर ही सुन्दर । सौन्दर्य में कृपणता कैसी ! भीड़ का ईश्वर एक अलौकिक मानवाकृति के रूप में प्रकट हुआ और अपने जन्मदाता को भाँति-भाँति से लुभाने लगा ।  

आकार और विकार के समवाय सम्बन्ध को भीड़ ने नकार दिया था इसलिये साकार ईश्वर शनैः शनैः विकारग्रस्त होने लगा ।
अब भीड़ के लिए उसके द्वारा रचित ईश्वर भी भीड़ जैसा ही हो गया था । जो विशिष्ट था वह सामान्य हो गया ...ठीक मनुष्य के जैसा ही ।
ईश्वर को मनुष्य बनाने के खेल में भीड़ आनन्दित हो उठी ...फिर एक दिन आनन्दातिरेक में उसने अपने बीच के एक व्यक्ति को ही ईश्वर बना दिया । भीड़ का एक व्यक्ति ईश्वर बन कर रोमांचित हो उठा ।

विक्रम संवत 2071 तक भारत की भीड़ ने कई व्यक्तियों को ईश्वर बना दिया । भीड़ रचित ईश्वर एक से अनेक हो गये हैं और भारत की लोकतांत्रिक सत्ता को चुनौती देने लगे हैं ।
भीड़ अपने ईश्वर से पीड़ित होने लगी है । उसका आर्थिक, शारीरिक और मानसिक शोषण होने लगा है । भीड़ अब कई वर्गों में विभक्त हो गयी है । एक वर्ग पीड़ित है इसलिए न्याय की माँग करता है, एक वर्ग इस विकृत खेल से रोमांचित है इसलिए इस खेल को प्रोत्साहित करता है, एक वर्ग मूक दर्शक है इसलिए वह कोई प्रतिक्रिया नहीं करता ।
एक वर्ग ऐसा भी है जो इस खेल से चिंतित है, वह प्रतिक्रिया भी करता है किंतु उसकी प्रतिक्रिया ध्वनित नहीं हो पाती । इस खेल को प्रोत्साहित करने वाले वर्ग को प्रतिक्रियायें अच्छी नहीं लगतीं इसलिए वह हर प्रतिक्रिया की हत्या कर देता है ।  

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

मृगमरीचिका


            मरीचिका अब राज्य में नहीं रहती । उसने अपना विस्तृत राज्य स्थापित कर लिया है । मरीचिका का विस्तार हो गया है, राज्य उसमें डूब चुका है ।
सबके देखते-देखते राजाओं ने मृग की नाभि से कस्तूरी का अपहरण कर लिया ।
मृगों का होना मृगों के लिये बहुत अर्थ नहीं रखता । उनका होना राजा के लिये बहुत अर्थवान होता है । राजा के ऐश्वर्य .....उसकी प्रभुता .....उसकी समृद्धि ...उसके अस्तित्व के लिये मृगों का होना अनिवार्य है । मृग ही तो राजा के अर्थशास्त्र और अस्तित्व की नींव होते हैं । तथापि .......  
तथापि इतिहास के किसी भी पृष्ठ पर यह कहीं नहीं लिखा जायेगा कि रेगिस्तान में प्यास से भटक रहे कस्तूरीविहीन मृग बारबार मरीचिका से छले जाते रहे हैं ।
तृषित मृग शोषित, पीड़ित, वंचित और दीन-हीन हैं । वे भीरु और असंगठित भी हैं । उनकी समस्यायें उस कृष्ण विवर की तरह हैं जिसमें जाकर सब कुछ समा जाता है ......समा जाती हैं उनकी याचनायें, उनकी प्रतीक्षायें, उनकी आशायें, उनकी प्रार्थनायें .......और उनके अस्तित्व भी ।  
तृषित मृग के असीम दुःख की विवशता समुद्र की उन उद्दाम लहरों की तरह है जो हाहाकार से भरी और तटीय सीमाओं से घिरी है, ये विवश लहरें उछलती हैं फिर पछाड़ खाकर सागर के किनारों और पत्थरों से टकराकर स्वयं को ही घायल कर लेती हैं ।
तृषित मृग भटकते हैं । आश्वासन उसे अपनी ओर खीचते हैं । वे आश्वासनों के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करते हैं । उनकी प्रतीक्षायें कभी समाप्त नहीं होतीं ।
वे प्रार्थना करते हैं, अनुनय-विनय करते हैं, गिड़गिड़ाते हैं .....और निराश होते हैं ।
वे कुव्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करना चाहते हैं किंतु कोई उनके नेतृत्व के लिए आगे नहीं आता ।  
वे संगठित और सुनियोजित नहीं हो पाते इसलिए कुचल दिये जाते हैं ।
रेगिस्तान में कुछ धूर्त भेड़िये भी हैं । राजा ने सभी धूर्त भेड़ियों को संरक्षण दे दिया है ।
राजा अपंग और नपुंसक है इसलिए राज्य में अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये भेड़ियों का आशीर्वाद पाना उसे आवश्यक लगता है ।
धूर्त भेड़िये कुछ गुप्त किंतु अघोषित और अलिखित समझौतों की नीव पर नपुंसक राजाओं को आशीर्वाद दे दिया करते हैं ......यह एक प्रच्छन्न राजनैतिक परम्परा है ।
तिलकधारी भेड़िये अब जंगलों में नहीं, किलों में रहते हैं । किलों में सेना होती है । सेना को अपना चारा लाने की स्वतंत्रता होती है ।
किसी अवतार की प्रतीक्षा में भटक रहे मृगों को, न जाने क्यों भेड़ियों के किले बहुत आकर्षित करते हैं ।
थके-हारे, निराश और दीन-हीन मृग भूख और प्यास से तड़प रहे हैं । राजा ने उनकी नाभि की कस्तूरी पहले ही निकाल कर तस्करों को बेच दी है । विवश और तृषित मृग भेड़ियों के जाल में फसते रहने के लिये अभिषप्त हैं ...अन्य विकल्पों को देखने और समझने की शक्ति भी उनसे छीन ली गयी है । उनके दुःखों की भारी गठरी हर बार और भी भारी ही होती रही है ।


और हाँ ! सावधान ! परिभाषाओं की सारी शुभता को बन्दी बना लेने वाले धूर्त भेड़ियों ने निष्प्राण हुये शब्दों का चीवर बना कर ओढ़ लिया है । 

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

संत का स्वाङ्ग – राक्षस की विवशता


          सीता के अपहरण के लिये रावण को संत का स्वाङ्ग करने के लिये विवश होना पड़ा था । लंकाधिपति रावण ने अपनी इस असांस्कृतिक विरासत से लंका को तो मुक्त रखा किंतु भारत को यह विरासत दे गया । अपनी इस निकृष्ट विरासत के माध्यम से दशानन रावण राम के वंशजों से आज भी बदला ले रहा है । रावण की आत्मा यह सब देख-देख कर अट्टहास कर रही है, कलियुग में राम के वंशजों ने राम की मर्यादा को धता बताते हुये रावण की विरासत को स्वीकार कर लिया है ।

           अब भारत के आधुनिक इतिहास में लिखा जायेगा – “ .........धीरे-धीर यह परम्परा भारतीय समाज में लोकप्रिय होती गयी और इक्कीसवीं शताब्दी के द्वितीय दशक में तो भारत के कई राक्षसों ने संतों के स्वाङ्ग को बड़ी सहजता से अपना लिया था । भारत का लोकतंत्र इन राक्षसों के आगे नतमस्तक था । आपराधिक मानसिकता वाले लोगों के एक बड़े वर्ग में “बाबाओं” का स्थान ईश्वर से भी ऊपर स्वीकार कर लिया गया था” ।       

         नौकरी से टर्मिनेट किया जा चुका, लगभग 22 महीने जेल में रह चुका, एक संगठित गुण्डा संत का चोला ओढ़कर धर्म के नाम पर अपराध किये जा रहा है । सारी दुनिया इतने दिनों से तमाशा देख रही है । दूरदर्शन में दिखाये जा रहे विज़ुअल्स से सब कुछ स्पष्ट और प्रमाणित हो चुका है कि रामपाल नामक एक अपराधी धर्म और जनता को ढाल बनाकर सरकार पर अपना आतंक कायम रखने में कामयाब हुआ है । चाहे-अनचाहे शातिर अपराधियों को एक संदेश पहुँचा दिया गया है कि धर्म की ढाल उन्हें अभेद्य कवच उपलब्ध कराती है जिसके आगे लोकतंत्र भी गिड़गिड़ाने के लिये विवश हो जाता है ।
        
        वैचारिक प्रदूषण फैलाने वाले एक दुष्ट अपराधी को मीडिया अभी भी “संत” संबोधित कर रहा है जिसका मैं विरोध करता हूँ । हरियाणा के डी.जी.पी. ने साहस करके रामपाल को अभियुक्त संबोधित किया है जो प्रशंसनीय है । दूसरी ओर डी.जी.पी. ने कहा है कि वे नहीं चाहते कि निर्दोषों को किसी प्रकार की क्षति हो । वे एक गुण्डे के समर्थकों को निर्दोष मानते हैं, वे गुण्डे जो पुलिस पर पेट्रोल बम फेक रहे हैं और पुलिस वालों पर गोली चला रहे हैं । कदाचित, डी.जी.पी. के अनुसार पुलिस वाले निर्दोषों की श्रेणी में नहीं आते ।
        हरियाणा पुलिस एक अपराधी को सम्मन तामील नहीं करवा सकी । हरियाणा पुलिस अपराधी के सहयोगियों को लाठी लेकर मार्च करते हुये देखती रहती है । हरियाणा पुलिस के सामने अपराधी के अड्डे में लोगों की भीड़ एकत्र होती रहती है और अस्लाहों का एकत्रीकरण होता रहता है । हरियाणा पुलिस ख़ामोश रहकर तमाशा देखती रहती है किंतु इसी तमाशे को पूरी दुनिया को दिखाने के लिये जब “चौथा स्तम्भ” अपने धर्म का पालन करता है तो पुलिस बर्बरतापूर्वक उन पर टूट पड़ती है । वह पुलिस, जो इतने दिनों से एक अपराधी की माँद में नहीं घुस पा रही थी, अपराधी के सहयोगियों के सामने विवश थी, अचानक सक्रिय हो जाती है और निर्दोष लोगों पर टूट पड़ती है । उसी पुलिस के डी.जी.पी. महोदय अपराधी रामपाल के गुण्डों को निर्दोष मानते हैं और मीडियाकर्मियों को अपराधी, ...तभी तो चौथे स्तम्भ पर पुलिस ने आज हिंसक आक्रमण कर दिया या यूँ कहिये कि सैन्य कार्यवाही की है ।
यह कैसा लोकतंत्र है जहाँ अपराधियों के आगे सारा तंत्र नाक रगड़ता सा प्रतीत होता है और उसका मूल्य चुकाने के लिये अपना नैतिक धर्म निभाने वालों को हिंसा का शिकार होना पड़ता है ?
किसी स्थान विशेष में अशांति फैलने की आशंका होने पर स्थानीय प्रशासन द्वारा प्रतिबन्धात्मक कार्यवाही किये जाने का प्रावधान है । रामपाल के मामले में उसके सहयोगी ( मैं उन्हें अनुयायी कहने की धृष्टता नहीं कर सकता) एक स्थान पर एकत्र होते रहे, किलाबन्दी करते रहे और प्रशासन अपंग बना रहा । अर्थात् समस्या उत्पन्न होती रही, स्थिति अनियंत्रित होती रही, रामपाल के कमाण्डो लाठी लेकर मार्च करते रहे, गुण्डों की सेना पुलिस और प्रशासन के सामने अपना शक्ति प्रदर्शन करती रही और पूरा देश लोकतंत्र को असहाय होता देखता रहा ।
भारत में “धर्म” का छद्म आवरण गुण्डों की ढाल बनता जा रहा है । इक्कीसवीं शताब्दी की भारतीय जनता धर्म और धर्म के आवरण में अंतर कर पाने में असमर्थ है । हम भारतीय लोग धर्म, आध्यात्म, आदर्श, मर्यादा, विकास, उन्नति, समानता आदि शब्दों के साथ खिलवाड़ करने के अभ्यस्त हो चुके हैं । राक्षसवाद से ग्रस्त भारत की बौद्धिक प्रतिभाओं के पलायन को, भला कौन सी शक्ति रोक सकेगी ?

भारत की जनता यदि चिटफण्ड कम्पनियों के जाल में बारबार फसती रहती है, बाहुबलियों और अपराधी नेताओं के पक्ष में मतदान करती है, किसी अपराधी नेता को न्यायालय से होने वाली सजा का विरोध करने के लिये आत्मदाह और आन्दोलनों पर उतारू हो जाती है, बाबाओं को ईश्वर मानने लगती है, गुण्डा और संत में अंतर कर पाने में असमर्थ रहती है, अधार्मिक कृत्यों को धर्म मानती है, व्यक्ति विशेष को ईश्वर से श्रेष्ठ प्रतिपादित करती है, किसी अपराधी को बचाने के लिये ढाल बनकर सामने आ जाती है, आत्मा-परमात्मा की बातें करने वाली पाखण्डी भीड़ क्रूर हिंसा पर उतारू हो जाती है तो यह मान लेना चाहिये कि समाज का एक बड़ा वर्ग लोकतांत्रिक मर्यादाओं में विश्वास नहीं रखता । यह विशाल वर्ग एक असभ्य कबीला है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये चुनौती है । आसाराम, नारायण साई और रामपाल जैसे अपराधियों ने न केवल भारतीय समाज का बहुत बड़ा अहित किया है अपितु “सनातन धर्म” के नाम को भी कलंकित किया है । जब-जब ऐसे वञ्चकों और पापियों का प्रभाव बढ़ा है तब-तब धर्म “अफ़ीम” बनती रही है और समाज अधिक से अधिक विकृत और विचलित होता रहा है ।