बुधवार, 31 दिसंबर 2014

रॉबर्ट हूबर की दृष्टि में भारत



राजमहल पहुँचते-पहुँचते रात हो गयी थी। ख़ास महल के बरामदे में सोफ़े पर बैठा एक युवक मॉस्क्यूटो स्लाटर लिए बड़ी तल्लीनता से मच्छर मार रहा था । प्रोटीन के जलने की विशिष्ट गन्ध पूरे बरामदे में फैल रही थी । पच्चीस साल का यह युवक इन दिनों अपने पिता मिस्टर रॉबर्ट हूबर के साथ भारत भ्रमण के एक पड़ाव पर है । ज़र्मनी निवासी रॉबर्ट हूबर पिछले लगभग पच्चीस साल से भारत आते रहे हैं ।

दिल्ली की ठिठुरन को कुछ दिन प्रतीक्षा करने के लिये कहकर बड़े महाराजा यानी आदित्य प्रताप सिंह देव जी शीतकालीन छुट्टियाँ बिताने अपने घर कांकेर आये हुये हैं । साल में बहुत कम ऐसा होता है कि राजमहल के सभी लोग कुछ दिन एक साथ रहें । तीनों भाइयों के अलग-अलग क्षेत्रों और रुचियों के बाद भी मेरे साथ सभी का अच्छा तालमेल बैठता है इसलिये जब सभी लोग एक साथ होते हैं तो किसी न किसी बहाने मुझे भी याद किया जाता है । विशेषकर ज़ॉली बाबा को मेरी अनुपस्थिति खलती है ।
मिस्टर रॉबर्ट महल के पिछवाड़े बनी कॉटेज़ में से एक में ठहरे हुये थे । जिस समय ज़ॉली बाबा मुझे और अजय को लेकर कॉटेज़ में पहुँचे उस समय मिस्टर रॉबर्ट बाहर बरामदे में अकेले बैठे जाम की चुस्कियाँ ले रहे थे । परिचय की औपचारिकता के बाद चर्चा शुरू हुयी । मैंने पूछा, उन्हें कांकेर कैसा लगा ? उत्तर में मिस्टर रॉबर्ट शुरू हो गये ...
1-    अब मुझे कांकेर अच्छा नहीं लगता । यहाँ सड़कों पर भीड़ बढ़ गयी है और वाहनों के शोर ने वादी की शांति का अपहरण कर लिया है । .......पिछले मात्र तीन दशकों में ही छत्तीसगढ़ ने आधुनिक विकास के नाम पर अपना वह सब कुछ खो दिया है जो कभी विदेशियों के लिये आकर्षण का केन्द्र हुआ करता था । ........हमें छत्तीसगढ़ की संस्कृति आकर्षित करती है किंतु अब वह अपने स्वाभाविक रूप में कहीं दिखायी नहीं पड़ती । हमने छत्तीसगढ़ के बैगाओं को देखा है, पहले भी ........और आज भी । वे अपनी मौलिकता खोते जा रहे हैं । ...और छत्तीसगढ़ ही नहीं, कर्नाटक के हम्पी में भी अब वह बात नहीं रही । वनवासियों की संस्कृति पर शहरी संस्कृति का अंधेरा साया पड़ गया है । पहनावा, भाषा, खाना-पीना, सोच .....सब कुछ तेज़ी से बदलता जा रहा है । इस तरह आप वनवासी संस्कृति को जीवित कैसे रख सकेंगे ?
2-    मुझे यह समझ में नहीं आता कि स्कूलों में गणवेश की क्या आवश्यकता है ? विद्यार्थियों को अपने पारम्परिक पहनावे में ही आना चाहिये तभी तो वे सब आपस में एक-दूसरे की परम्पराओं को सीख सकेंगे ।
1-    कांकेर का सरकारी अस्पताल अच्छा नहीं है ।  ज़र्मनी में नागरिकों के स्वास्थ्य के लिये वहाँ की सरकारें गम्भीर हैं और ईमानदारी से अपने दायित्व का निर्वहन करती हैं । भारत में निजी अस्पताल और स्कूल अच्छे हैं जबकि सरकारी अस्पतालों और स्कूलों को अच्छा होना चाहिये । यहाँ ऐसा क्यों है ? फिर सरकारें करती क्या हैं ?
2-    भारत में राजनीति की स्थिति भी अच्छी नहीं है । अधिकांश लोग भ्रष्ट हैं, सरपंच से लेकर एम.एल.ए. और एम.पी. तक .....जनता की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं है ।
3-    ज्योतिषीय गणनाओं के अनुसार कलियुग अब अपनी समाप्ति की ओर है, हमें सतयुग के स्वागत के लिये तैयार रहना होगा ।

मैंने मिस्टर रॉबर्ट की बातों को ध्यान से सुना । रॉबर्ट का युवा बेटा वार्ता के बीच में ही आकर गोष्ठी में सम्मिलित हो गया था । वह एक शांत युवक था, पूरी वार्ता में वह बिल्कुल चुप रहा । आम ज़र्मन लोगों की तरह उसकी त्वचा का रंग लाल नहीं था इसलिये वह बहुत कुछ भारतीय जैसा ही लग रहा था । हाँ ! उसकी लम्बाई ज़रूर पारम्परिक थी जो मुझे हमेशा ही अच्छी लगती है ।

जिस समय मिस्टर रॉबर्ट वनवासियों की वेशभूषा की बात कर रहे थे मुझे राजीव रंजन प्रसाद जी का गुस्सा याद आ गया । राजीव जी बस्तर के निवासी हैं और उन्हें बस्तर आने वाले उन लोगों से सख़्त नाराज़गी है जो वनवासी लड़कियों की नग्न देह में वनवासी संस्कृति की तलाश के लिये लालायित रहते हैं और उन्हें किसी नदी या तालाब में स्नान करते हुये शूट करने के लिये पेड़ों की आड़ में छिपने की अपनी शहरी संस्कृति में कोई दोष नहीं देखते ।

मिस्टर रॉबर्ट हूबर और राजीव रंजन जी दोनो ही वनवासियों के प्रति चिंतित नज़र आते हैं । विकास और वनवासी संस्कृति की मौलिकता उनकी चिंता के विषय हैं । यह एक गम्भीर विषय है जिस पर मैं पृथक से एक लेख लिखना चाहूँगा ।

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और हाँ ! मिस्टर रॉबर्ट एक बहुत अच्छे फ़ोटोग्राफर हैं । वे भारत और भारत के गाँवों को बहुत निकटता से देखने का प्रयास करते हैं । इस बार उनके पास एक ड्रोन कैमरा था जिसका प्रदर्शन वे मेरे वहाँ पहुँचने से पहले महाराजा साहब और अजय के सामने कर चुके थे । उन्होंने इसी ड्रोन कैमरे से गुजरात की खाड़ी को बड़ी कुशलता से शूट किया है ।

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