शनिवार, 28 जून 2014

आस्था से बंधा हूँ मैं


आस्था के दीपक की लौ से झुलसती 
एक पूज्य वृक्ष की 
त्वचा  


आस्था तुम्हारी
इतनी बन्धनकारी होगी
पता न था ।
ये धर्म
इतना निर्दयी होगा
पता न था ।
चाँद-तारों पर जाने वाले
मेरी जड़ों से यूँ लिपट जायेंगे
पता न था ।  
अंतरीक्ष को नापने वाले
मुझे यूँ बन्दी बना लेंगे
पता न था ।
ए आदमी नामक प्राणी !
तुम मुक्त हो
कुछ भी करने के लिए
पर
शेष धरती
मुक्त नहीं है तुमसे
पता न था ।
वरना क्या मैं
पैदा होता
यूँ पेड़ बनकर ! 

शनिवार, 21 जून 2014

Raga Megha (Rain-Melody) by Amar Nath. Maharishi Gandharva Veda

कटहल जैसा


कटहल जैसा रूप सजाये
सेही के देखो दलबल निकले ।
गहरे हैं ये, माना जिनको
वे ही सबसे छिछले निकले ॥
उमड़-घुमड़ कर ताव दिखाते
बादल भी तो छूँछे निकले ।
दीपों का ठेका लिया जिन्होंने
वे ही दीप बुझाने निकले ॥
जिनको हमने समझा अपना
वे भी तो बेगाने निकले ।
सुर की समझ नहीं है जिनको

 वे ही राग सुनाने निकले ॥

बुधवार, 18 जून 2014

वैराग्य के वृक्ष में राग के पुष्प



देवभूमि ने मुझे सदा ही सम्मोहित किया है .....अपने आकर्षण में आबद्ध किया है । यहाँ जब भी आता हूँ, मन दैवीय ऊर्जा से भर उठता है । 

कालपा में दोपहर हो रही थी ।  शरीर पर पड़ती धूप को शीतल हवा ने दयनीय बना दिया था इसलिए आते-जाते स्थानीय लोग ऊनी कपड़ों में लिपटे दिखायी दे रहे थे । बाहर से आने वाले पर्यटक जहाँ-तहाँ होटलों के लॉन में कुर्सियाँ लगाये बैठे थे । उफ़्फ़ ! यहाँ भी होटल ! मुझे एकांत चाहिये था ......चंचल मन मौन प्रकृति से बातें करने को विकल हो रहा था । मैंने एक पगडण्डी पकड़ी और चल पड़ा .......   

सुना है, जिसे वैराग्य हो गया हो संसार से, उसके लिए देवभूमि हिमालय 
सर्वथा उपयुक्त स्थान है ........। 
तपस्या के लिए, कदाचित इसीलिए पूरे भारत के साधु-संत अपने विदेशी शिष्यों के साथ इसी हिमालय में शरण पाते हैं । 

छत्तीसगढ़ के दण्डकारण्य से जब प्रस्थान किया था हिमालय के लिए तो मन में संसार के प्रति वितृष्णा और वैराग्य के भाव थे । यह वही दण्डकारण्य क्षेत्र है जो त्रेतायुग में लंकाधिपति रावण का उपनिवेश था और जहाँ अवध कुमार श्रीराम को अपने प्रवास के अनंतर युद्ध के लिये सैन्य संगठन करना पड़ा था ।

उस दिन, मैं देवदारु के नीचे, सूख कर झड़ गयी पत्तियों के प्राकृतिक गद्दे पर बैठा था । दूर-दूर तक जैव विविधता के मनोहारी दृष्यों का सम्मोहन चुम्बक बन कर बिखर रहा था और उस शांत वातावरण में अद्भुत् हिमालयी राग छिड़ा हुआ था कि तभी मनोद्वन्द्व प्रारम्भ हो गया - क्या वास्तव में मुझे तात्कालिक वैराग्य हुआ था ? यदि हाँ, तो वैराग्य के वृक्ष में ये राग के पुष्प क्यों ? 

         वास्तव में, वैराग्य एक सापेक्ष शब्द है जो कभी भी अपने पूर्ण आदर्शरूप में घटित नहीं हो पाता । सांसारिक विकर्षणजन्य वैराग्य सदा ही अपने पूरक की खोज में बना रहता है । सांसारिक छलों से आहत मन एक पारदर्शी आश्रय की खोज में भटकता है ....जिसे हम वैराग्य कह देते हैं । वास्तव में यह पारदर्शी आश्रय ही मन में एक अद्भुत राग उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी है । रंग-रंग के पुष्प, हरी-भरी घाटियाँ, हिमाच्छादित पर्वत शिखर, दूर-दूर तक अपना साम्राज्य फैलाये एकांत ...कौन साधक आकर्षित नहीं होता होगा !      

  
ऋणी हैं हम उस चितेरे के जिसने इस धरती को इतनी विविधता से चित्रित किया कि चित्र स्वयं वाद्ययंत्र बन झंकृत हो उठते हैं ।  


 शिमला का चीनी बंगला  
महाराजा पटियाला ने अपनी चीनी रानी के लिए बनवाया था । बंगले के उपवन में खड़ा है कत्थई रंग की पत्तियों वाला एक अमेरिकन फ़ाइकस जो धूप की तीव्रता के अनुसार रंग बदलता है । 


ख़ूबसूरत फूलों वाला ज़ैकेरेण्डा । 


हिमालय की एक चोटी पर पल-पल रूप बदलते बादलों का एक परिवार । उस दिन समय हमारे पास पर्याप्त  था 
इसलिए इनसे जी भर कर बातें करना अच्छा लगा । 


नैचुरली ग्रोन अनार । 
शिमला के मार्ग में घाटी में यत्र-तत्र उगे अनार के पेड़ों ने हिमालय की घाटियों को और भी ख़ूबसूरत बना दिया है ।  


      गहरे संतरी रंग की पुष्पमञ्जरी वाले इस वृक्ष से मैं परिचित नहीं हूँ ...लेकिन इससे क्या .......हमें तो इसकी मनोहारी पुष्पमञ्जरी से हालचाल पूछना है । 


प्रिय आत्मन ! 
इस सुन्दर वृक्ष का वानस्पतिक नाम आपको पता हो तो मुझे भी बताइयेगा ।लाल पुष्प से लदे इस वृक्ष की सुन्दरता देखते ही बनती है । 


साँझ हुयी तो सूरज ने अवसर देख अपने गालों से चीड़ और देवदारु की पत्तियों को हौले से छू भर दिया ।  चिर कुमार क्षितिज ने देखा तो लाज से लाल हो गया । 


 मैंने पूछा इस बैरागी से - तप के लिए चीवर उतारना इतना आवश्यक था क्या ? बैरागी चुप रहा ........मैं उत्तर पाने के लिए प्रतीक्षा करता रहा कि तभी साँझ घिर आयी .................और मुझे उत्तर मिल गया । 


यह प्रतिदिन का नियम है ...कि अदने से चीड़ की छोटी-छोटी पत्तियों के गुच्छे भोर होते ही पूरे गर्व से अपना सिर उठा कर हिमालय से हालचाल पूछने लगते हैं ....
"कहिए ! मिस्टर ग्रेट हिमालय, कल की रात कैसी कटी ? अधिक ठंड तो नहीं लगी ?" 
अपनी बिखरी जटाओं को कुछ और बिखेरते हुये हिमालय सिर्फ़ मुस्कराता भर है ....और हिमनद बह निकलते हैं । 


हिमालय की वादियों में बसपा नदी की गोद में बसे एक गाँव में 
पुष्पित सेव का बगीचा । 
मन हुआ कि बस से उतर कर एक-दो दिन के लिए यहीं रुक जाऊँ । समय के बन्धन ने रुकने से मना किया तो उतर नहीं सका इसलिए मुझे अपनी स्मृति के एक कोने में लिखना पड़ा -  "अगली बार यहाँ आकर ठहरना है ।" 


  
ख़ूबसूरत मेपल । 
काश ! मार्ग के दोनो ओर मेपल की कतारें होतीं .....

                 
        इस पुष्प के चित्र के लिए मुझे एक ख़तरनाक ऊँचाई पर चढ़ना पड़ा ।


पुष्प से अपने हिस्से का पराग माँगने आयी मधुमक्खी ! 

              पुष्प ने भी इठलाते हुये बड़ी उदारता से कहा - 
                       "ले लो न ! जितना चाहिये हो ।" 

नन्हीं कलियों ने इस सम्वाद को सुना और अपने पारिवारिक संस्कार को                                        गाँठ बाँधकर रख लिया ।  


हिमालय में भ्रमण करते समय, पत्थरों के बीच-बीच में उगे इस पादप की पत्तियों से सावधान ! इसके दंश के कारण स्थानीय लोग इसे बिच्छूबूटी कहते हैं । आप तनिक भी असावधान हुये नहीं कि इसकी पत्तियाँ आपको दंश देने में विलम्ब नहीं करेंगी  


 पशुओं का स्वदिष्ट भोजन । मैंने भी चखकर देखा ....
सचमुच ! पत्तियाँ  स्वादिष्ट हैं । 


एक फ़ोडर यह भी ..... 


खरपतवार की तरह जहाँ-तहाँ उगी भाँग ।  


आगे बढ़ने से पहले खाते हैं कुछ ताजी चेरी और रसीली खुमानी 


मैदानों में घर बनाना जितना आसान है, पहाड़ों में उतना ही दुष्कर । पूरे पर्वत पर बिखरे हुये घरों वाले गाँव के लोगों की ज़िन्दगी भी उतनी ही दुष्कर होती है किंतु पहाड़ियों के परिश्रमी स्वभाव ने सब कुछ सुगम और सुखमय बना दिया है । 


         टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियाँ .....और पुराना इण्डो-तिब्बत राजमार्ग । भारत और चीन के मध्य कभी घोड़ों और खच्चरों पर सामान लादे व्यापारियों के काफ़िले गुजरते थे यहाँ से । हो सकता है ह्वेनसांग भी इसी मार्ग से आये हों भारत, और सम्राट अशोक के पुत्र-पुत्री भी गये हों चीन ...इसी मार्ग से हो कर । 
  

         यह दुर्गम मार्ग न जाने कितनी घटनाओं का साक्षी रहा है । व्यापारियों और यात्रियों के चलते हुये क़ाफ़िले, थक कर सुस्ताते हुये क़ाफ़िले, क़ाफ़िलों को लूटते हुये लुटेरे क़ाफ़िले ......! 
         न जाने कितने रक्तपात ............और प्रणय सम्बन्धों का भी साक्षी रहा है यह पर्वतीय मार्ग । प्रेमी की वंशी की स्वर लहरियाँ जब तिरती होंगी इन वादियों में तो कौन प्रेमिका दौड़ी नहीं चली आती होगी सारी बाधायें पार करती हुयी !  


किन्नर कैलाश पर्वत की चोटियों को अपने आगोश में लेती एक चंचल बदली। शिव यहाँ के कण-कण में हैं ......  
मैंने देखा है हिमालय में सर्वत्र फैली शिव की जटाओं को, जिनके हिलते ही पिघल उठता है हिम और बह उठती हैं गंगा, यमुना, सतलुज, चिनाव, रावी, स्पीति ..जैसी और कई नदियाँ ।   


        मैंने इस टहनी से पूछा - " यहाँ शिव जी कहाँ मिलेंगे ?" 
टहनी झूमकर बोली - " शिव तो यहाँ के कण-कण में व्याप्त हैं ...पहले अन्दर के पट तो खोलो ।


       शिव की जटाओं से मुक्त हो कर हिमालय की गोद से उतरती बसपा नदी ! अभी इसे बहुत लम्बी यात्रा करनी है इसलिए परिपूर्ण है ऊर्जा से । किंतु सावधान ! नदियों की ऊर्जा चुराने के लिए पूरा एक तंत्र विकसित हो चुका है । शिव कुपित हैं ...और उनके भक्त निर्भय । शिव अपनी उपेक्षा कब तक सह सकेंगे ?   


हिमालय को बचाना है तो शिव को प्रसन्न करना ही होगा । 
शिव को प्रसन्न करना है तो वृक्षों को बचाना ही होगा । 
वृक्षों को बचाना है तो नदियों को बचाना ही होगा । 

तो चलिए ...क्यों न हम प्रकृति की उपासना प्रारम्भ करें ! 

मंगलवार, 17 जून 2014

ईश्वर का चित्र उतारने वाला कैमरा


हिमांचल के एक छोटे से शहर ज्वाला देवी में है "ज्वाला देवी" का मन्दिर जिसका प्रबन्धन करते हैं नाथ सम्प्रदाय के बाबा ...आमतौर पर इन्हें कनफट्टा बाबा के नाम से जाना जाता है । मन्दिर के अन्दर कुछ स्थानों पर धरती से ज्वालायें निकलती हैं । अनवरत निकलने वाली इन ज्वालाओं के कारण इस स्थान को, शक्ति का प्रतीक मानते हुए, पवित्र और अलौकिकशक्ति सम्पन्न स्वीकारते हुए पूजा जाने लगा । स्थानीय पुजारियों द्वारा मुझे बताया गया कि तमाम शोध के पश्चात् भी इन ज्वालाओं के स्रोत का पता नहीं चल सका है । जलती हुई ज्वाला के नीचे जल कुण्ड हैं जिनका जल शीतल है । यह मन्दिर अपनी इन्हीं अलौकिकताओं के कारण जनश्रद्धा का केन्द्र बन गया है । किंतु .......... 



 .... किंतु यह कि वहाँ आने वाले या वहाँ रहने वाले सभी लोग मुझे श्रद्धालु नहीं लगे । जैसा कि हमारे मन्दिरों का परिवेश है ....विविधताओं और विरोधाभासों से भरा हुआ .....अनैतिक व्यापार, ठगी, चालाकी ...आदि मानवीय दुर्बलतायें जैसे इन स्थानों में उमड़ पड़ती हैं । हमारी इन्हीं दुर्बलताओं ने इन पवित्र स्थानों की divinity को ग्रहण लगा दिया है ।    


  मन्दिर आने वाले दर्शनार्थियों को अपनी दुकान की ओर आकर्षित करता हुआ एक स्थानीय व्यापारी ।  


 भव्यता या दैवत्व ....हमारे आकर्षण का कारण क्या है ?  


भव्य ..... 


 ....और भव्य 


........ और इस भव्यता से सम्मोहित दर्शनार्थी अपनी साक्षी के लिए एक-दूसरे का फ़ोटो उतारने में अधिक रुचि लेते दिखे ।  


दर्शनार्थियों की पंक्तिबद्ध भीड़ ....अनुकरणीय है ऐसा धैर्य । 


 .... मानवीय दुर्बलताओं के शिकार हो चुके दैवीय स्थल कितने दैवीय ?  देखिये एक चेतावनी .....


...यह अच्छा लगा मुझे ....मन को सुकून देने वाला । 
स्थूल आकृतियों की अपेक्षा सूक्ष्म ध्वनि तरंगें कहीं अधिक दैवीय लगीं मुझे । 


प्राणिमात्र के प्रति जीने का समानाधिकार, श्रद्धा और आदर का पवित्र संदेश देने वाले सनातन धर्म के अनुयायियों के देश में शक्ति का प्रतीक सिंह पूज्य है ...और ...............गौमाता है निर्मम हिंसा की शिकार । 


पारम्परिक परिधान (लहंगा-चुनरी) में कुछ ख़रीदती हुई एक युवती  



मन्दिर के मार्ग में जड़ी-बूटी और मसाले बेचती हुई एक हिमांचली युवती । सफ़ेद बोरी के पास लकड़ी की पेटी के ऊपर रखा सबसे बड़ा वाला ढ़ेर अखरोट की छाल का है । स्थानीय लोग दातून के लिए इसका उपयोग करते हैं । 


मन्दिर में सीढ़ियों के पास एक ऊँचे स्थान पर विराजमान थे एक युवा कनफट्टा बाबा । उम्र होगी लगभग 22-23 वर्ष । कान के पिन्ना बीच में फटे  हुये .... बड़े-बड़े काष्ठ कुण्डल से विभूषित । मैंने जैसे ही युवा बाबा का फ़ोटो लेना चाहा, वे बिगड़ गये । डाँटते हुये बोले - "कैमरा बन्द कर ....बन्द कर कैमरा । ईश्वर का फ़ोटो तो कोई लेता नहीं ...चला है मेरा फ़ोटो लेने । मेरे फ़ोटो का क्या करेगा ...लेना है तो ईश्वर का फ़ोटो ले ।" 
मैंने तुरंत कैमरा बन्द कर थैले में रख लिया । हाथ जोड़कर अपराधी मुद्रा में बाबा के सामने जा कर खड़ा हो गया । जब युवा बाबा का क्रोध शांत हुआ तो उनसे पूछा -  "बाबा जी ! जो अमूर्त, अनादि, अनन्त और अखण्ड ...है ऐसे निराकार ईश्वर का फ़ोटो लेना है मुझे ...कहाँ मिलेगा ...बताइये ....बड़ी कृपा होगी । .......और हाँ ! मेरे इस कैमरे में वह शक्ति भी नहीं कि उसका फ़ोटो ले सके ....कोई अच्छी सी दुकान बताइये जहाँ से ऐसा कैमरा ख़रीद सकूँ ।" 

युवा संत का उत्तर था - " अभी तुझे ज्ञान नहीं है । मेरे गुरु ने जो ज्ञान दिया है पहले उसे सीख ।" 

मुझे लगा कि युवा संत के आदेश का पालन करना चाहिये । अस्तु, मैं तो चला युवा संत के गुरु को खोजने ...ज्ञान जो लेना है । फिर एक उपयुक्त कैमरा लेना है जो निराकार ब्रह्म का फ़ोटो ले सके .....और अंत में ईश्वर का फ़ोटो भी लेना है ।     

शनिवार, 14 जून 2014

धैर्य, पराक्रम और पुरुषार्थ के जीवंत उदाहरण मिलते हैं यहाँ ...


हिमांचल ने पग-पग पर प्रभावित किया है मुझे । यहाँ कठिनाइयों से जूझता पुरुषार्थ है, मुस्कुराता हुआ जीवन है, धैर्य है ....और है उद्दाम जिजीविषा । प्रकृति ने हिमांचल को दुर्गमता दी है तो देवत्व भी दिया है ..और अप्रतिम सौन्दर्य भी ।   


...... तुमने दी आवाज़ लो मैं आ गया 
.................. लो पर्वतों को चीर कर मैं आ गया ..... 



गर्वीले पर्वत के वक्ष को चीर कर बनाया गया इण्डो तिब्बत राजमार्ग । 



पहाड़ पर समतल भूमि का एक टुकड़ा मिल पाना कितना मुश्किल है ! भूमि के बेहतर उपयोग का एक नमूना । 


हंसी-खेल नहीं है पहाड़ पर आशियाना बनाना । 


कितने मोड़ ! कितने अवरोध !! फिर भी दृढ़ संकल्प से चल निकली पहाड़ पर अपनी रेल ! 


        ये हैं सराह गाँव के बच्चे - बड़के को बॉटनी अच्छी लगती है लेकिन बनना चाहते हैं इंजीनियर ।  मझले को मैथ्स अच्छा लगता है, ये पुलिस ऑफ़ीसर बनना चाहते हैं । छोटके को कम्प्यूटर इंजीनियर नहीं बल्कि कम्प्यूटर ही बनना है । बड़की है स्नेहा, इन्हें अंग़्रेज़ी अच्छी लगती है और ये टीचर बनना चाहती हैं । छुटकी को सारे विषय अच्छे लगते हैं लेकिन ये कुछ भी नहीं बनना चाहती । अच्छा लगा यह देख कर कि हिमाँचल के गाँवों में भी बच्चे शिक्षा और अपने भविष्य के प्रति कितने जागरूक हैं । ये बच्चे हमें अपने घर ले गये, चलते समय दोबारा फिर आने का वायदा ले कर ही आने दिया गया हमें । 



रेकॉंग पिओ के मार्ग में जल विद्युत परियोजना । 


कठोर पर्वतों से दो-दो हाथ करते हिमांचलियों के दृढ़ संकल्प के ऐसे उदाहरण पूरे हिमांचल में सर्वत्र बिखरे पड़े हैं । 


हिमालय के पत्थरों को फोड़कर बनायी जा रही जल विद्युत परियोजना 



चाय बागान की सैर ....लेकिन यह आसाम नहीं शिमला है । 


केवल ऊपर की कोमल दो पत्तियाँ ही पर्याप्त हैं आपकी चाय के बेहतीन स्वाद के लिए । 



चाय के फल । 


 चाय के कुदरती बगीचे । 


C.P.R.I. यानी central potato research institute Shimla.
यह शोध संस्थान कुफ़री में है जहाँ हिमांचल और अन्य प्रांतों की आब-ओ-हवा के लिए उपयुक्त आलू की विभिन्न किस्मों की उन्नत किस्में तैयार की जाती हैं । कुफ़री हिमसोना नामक आलू की एक किस्म इस खेत की देन है । यह एक लो-शुगर-कंटेन (100 mg per 100 gram of fresh potato weight) वाले आलू की किस्म है जो मधुमेहियों के लिए उपयुक्त है । इस आलू से बेहतरीन सफ़ेद चिप्स भी तैयार होते हैं इसलिए इसका भाव भी थोड़ा अधिक ही रहता है ।  


हिमांचल में समतल भूमि नहीं है तो क्या ...दृढ़ संकल्प तो है । पर्वतीय कृषि में निपुण हैं यहाँ के लोग । 


हिमांचल में मानव बस्तियाँ । घर पर्वत की चोटी पर हैं , पर्वत की बाहों में हैं, पर्वत के वक्ष-उदर और पैरों में भी हैं .....जीवन की कठिनाइयों ने हार मान ली है इन हिमांचलियों से ।     


हिमांचल के चप्पे-चप्पे में मुस्कुराता है जीवन । ये सैनिक नहीं हैं फिर भी भारत की उत्तरी सीमा के रक्षक हैं यहाँ के नागरिक । सोचिए, यदि दुर्गमता के कारण ये क्षेत्र जनविहीन होते तो क्या अब तक चीन ने इसे हथिया नहीं लिया होता ! और फिर ...हमें खुमानी, चिलगोजा, सेव, आड़ू .....ये सब कौन देता !