शनिवार, 5 दिसंबर 2015

क्या हमारी आशंकायें निर्मूल हैं ?



जब तुम कहते हो कि ज़रा-ज़रा सी बात पर तुमसे अपनी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण देने की अपेक्षा की जाती है तो हम पूछते हैं कि संदेह का यह वातावरण निर्मित ही क्यों और कैसे हुआ ? हमारे सन्देह के घेरे में पारसी, जैन, बौद्ध और सिख क्यों नहीं हैं ? क्या यह सच नहीं है कि भारत की तबाही का एक बहुत बड़ा कारण वह समुदाय है जो अपने हर सिद्धांत क्रूरतापूर्वक दूसरों पर थोपने का अभ्यस्त रहा है ?  
भारत के राजा-महाराजा आपस में एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते रहे हैं किंतु ऐसा कोई इतिहास नहीं मिलता कि भारत ने अपनी सीमाओं से आगे बढ़कर कभी किसी पर आक्रमण किया हो । भारत में धार्मिक पुनर्जागरण एवं मत-मतांतरों का इतिहास मिलता है किंतु सनातन धर्मियों, जैनों, बौद्धों और सिखों द्वारा अन्य धर्मावलम्बियों के धर्मांतरण का कोई इतिहास नहीं मिलता ।
उपलब्ध इतिहास इस बात का साक्षी है कि आर्यावर्त की सीमाओं पर लगभग पूरे विश्व द्वारा बारम्बार आक्रमण किये जाते रहे हैं । भारत की थलसीमायें ही नहीं बल्कि जलसीमायें भी विदेशियों से आक्रांत होती रही हैं । मंगोलिया हो या उज़्बेकिस्तान, बैक्ट्रिया हो या ईरान, ग्रीस हो या पुर्तगाल, डच, स्पेन, फ़्रांस और इंग्लैण्ड जैसे अन्य योरोपीय देश सभी ने भारत की धरती को बारम्बार आक्रांत किया है और भारतीयों पर अमानवीय अत्याचार किये हैं । क्या कभी भारत ने इन देशों पर प्रतिआक्रमण किया ?
हमने न जाने कितनी बार और कितने विदेशियों दारा बर्बरतापूर्वक अपनी मातृशक्तियों के अपहरण और बलात्कार का दंश झेला है । आज हमारे रक्त में यवन, शक, हूण, मंगोल, ग्रीक, अरबी, ब्रिटिश .....पता नहीं कितनी बर्बर जातियों का रक्त सम्मिलित है । और फिर भी तुम कहते हो कि हम असहिष्णु हैं !
कलियुग के प्रभाव से सनातन धर्म के अनुयायियों में जब सामाजिक विकृतियाँ पनपने लगीं तो जैन, बौद्ध और सिख धर्मों का नवनिर्माण हुआ किंतु धर्म को लेकर आपस में कभी किसी ने रक्तपात नहीं किया । भारत में एक-दो नहीं छह दर्शन अस्तित्व में आये और सभी को बड़े आदर के साथ स्वीकार किया गया । जगत्गुरु शंकराचार्य, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुषों ने समय-समय पर धार्मिक जागरण के कार्य किये किंतु कभी किसी को धर्मांतरण के लिये प्रेरित तक नहीं किया ।
भारत से बाहर के लोग भारत पर आक्रमण कर न केवल भारत के लोगों को बारम्बार लूटते रहे बल्कि धर्मांतरण के लिये लूट, नरसंहार और बलात्कार जैसी जघन्य और क्रूर घटनाओं को अपना अस्त्र बनाते रहे । हम ऐसी विदेशी बर्बर सभ्यताओं को भी सहस्रों वर्ष तक सहते रहे, फिर भी तुम कहते हो कि हम असहिष्णु हैं ! 
विदेशी आयातित धर्मों ने भारत में क्रूरतापूर्वक अपना स्थान बनाया और देश खण्ड-खण्ड हो गया । हम अपने ही घर में शरणार्थी होने लगे, फिर भी तुम कहते हो कि हम असहिष्णु हैं !
निश्चित ही सूफ़ीवाद को उसकी पवित्रता के कारण हमने स्वीकारा, पारसियों को उनकी मानवीयता के कारण हमने स्वीकारा । हम कभी इनसे आतंकित नहीं हुये; सूफ़ियों ने भारत को भक्ति के रंग में रंगा तो पारसियों ने भारत की धरती से बेपनाह मोहब्बत की और हर दृष्टि से भारत को समृद्ध करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी । भारत की धरती ने इन्हें अपनी कोख के जाये जैसी ममता दी और सिर आँखों पर रखा । हम कभी इनके प्रति संशकित क्यों नहीं हुये ?
हमें नहीं पता कि तुम्हारे धर्म में ऐसा क्या है कि तुम विश्व में हर जगह अधिसंख्य होने का प्रयास करते हो फिर गान्धार, पाकिस्तान और बांगलादेश बन जाते हो ! सीरिया में तुम हर उस लड़की (और छोटे लड़कों)  से सामूहिक बलात्कार करते हो जो मुसलमान नहीं है और फिर उसे दास मण्डी में ले जाकर बेच देते हो । हमें नहीं पता कि आतंक का धर्म क्या होता है किंतु इतना अवश्य पता है कि पूरे विश्व को जिन लोगों ने तबाह करना शुरू किया है वे स्वयं को इस्लाम का अनुयायी कहते हैं । उनमें से आजतक किसी ने नहीं कहा कि वे यज़ीदी, ज़ेब्स या ज़ोरोस्ट्रियन हैं । जिस तरह तुमने कश्मीरी पण्डितों के साथ बर्बरता की और अपनी जनसंख्या बढ़ाने के लिये उन्हें बेघर करते रहे उसी तरह अब असम और पश्चिमी बंगाल में तुम अपनी जनसंख्या बढ़ाते जा रहे हो और स्थानीय लोगों को वहाँ से पलायन करने पर विवश करते जा रहे हो । पाकिस्तान और बांगलादेश के मूल हिन्दुओं की जनसंख्या निरंतर कम क्यों होती जा रही है, इस ज्वलंत प्रश्न का तुम्हारे पास कोई तार्किक उत्तर नहीं है । धर्म के आधार पर ही कश्मीर के पंडित क्रूरतापूर्वक बेघर कर दिये गये अन्यथा क्या कारण था कि आज वे अपने ही देश में शरणार्थी बन कर रहने को विवश हैं, फिर भी तुम कहते हो कि हम असहिष्णु हैं !
हमें पता है कि हम अपने जयचन्दों से हमेशा हारते रहे हैं । सुधीर कुलकर्णी, मणिशंकर अय्यर और खड़गे जैसे जयचन्द हमारी दुर्बलतायें हैं फिर भी हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह इन्हें सन्मति प्रदान करे । भले ही वे भारत के राजनैतिक और सांस्कृतिक कैंसर हैं किंतु वे भी हमारे ही अंग हैं इसलिये हमें उनसे भी प्यार है ।

अब यह मत कहना कि हम रसखान कवि, रहीम दास, अब्दुल हमीद और ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के योगदान की उपेक्षा कर रहे हैं या फ़िल्मों में भक्तिगीत गीत रचने और गाने वालों की उपेक्षा कर रहे हैं । ये वे लोग हैं जिन्होंने भारत की संस्कृति को अपनी आत्मा से अपनाया । उनके लिये धर्म से बड़ी है मानवता और फिर भारत की संस्कृति और सभ्यता जिसकी हम आपसे भी अपेक्षा करते हैं । एक बार अब्दुल हमीद और रसखान बनकर तो देखिये, यह देश तुम्हें भी सर-आँखों पर उठा लेगा ।

सोमवार, 30 नवंबर 2015

बदलते संदर्भों में बदलते जा रहे हैं अर्थ, हमें तय करनी होंगी अपनी सीमायें !


भारत के कुछ लोग आतंकियों को आतंकवादी नहीं मानते, कुछ लोग संविधान संशोधन का अधिकार केवल एक वंश की बपौती मानते हैं, कुछ लोग संविधान की व्याख्या अपने तरीके से करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं ।  

भारतीय संस्कृति में सहिष्णुता कभी एक सकारात्मक गुण हुआ करता था जो आज निरंकुश अपराध और अन्याय सहन करने की क्षमता से जुड़ गया है । भारत को निरंतर अपमानित किये जाने और राष्ट्रद्रोह की घटनाओं को चुपचाप सहन करते रहना सहिष्णुता का मापदण्ड मान लिया गया है ।
कश्मीर में भारतीय ध्वज जलाने और पाकिस्तान ज़िन्दाबाद के नारे लगाने की घटनाओं के साथ आतंकवादी घटनाओं की निरंतरता पर अंकुश नहीं लग पा रहा । पी.डी.पी. का तर्क है कि कश्मीर में भारत विरोधियों के विरुद्ध यदि कोई कार्यवाही की जायेगी तो पूरे कश्मीर के युवा विद्रोह पर उतर आयेंगे जिससे मुश्किलें और बढ़ जायेंगी । यह एक ऐसा कुतर्क है जो युद्ध को लड़े बिना ही हार जाने की घोषणा करता है ।
सत्तायें विधि और दण्ड के बिना अराजकता का कारण बनती हैं, अपराधी को दण्डित करने में यदि सत्ता को भय लगता है तो इसका सीधा सा अर्थ यह है कि सत्ता अघोषित रूप से विद्रोहियों के हाथों में सौंप दी गयी है । हम ऐसी औचित्यहीन सत्ता का विरोध करते हैं । क्या किसी सम्प्रभु देश की सत्ता को चुनौती देने वालों के विरुद्ध केवल भय के कारण कोई कार्यवाही नहीं की जानी चाहिये ? जब हम राष्ट्रद्रोहियों को दण्ड देने की बात करते हैं तो हम पर मनुवाद और भगवाकरण का आरोप लगाया जाना शुरू कर दिया जाता है । यह भारत ही है जहाँ के नागरिक पूरी स्वतंत्रता के साथ भारत की सम्प्रभुता को चुनौती दे सकते हैं, राष्ट्रीय ध्वज का बारम्बार अपमान कर सकते हैं, किसी शत्रुदेश का ध्वज लहरा सकते हैं, राष्ट्रद्रोहियों की शवयात्रा में हज़ारों की संख्या में सम्मिलित हो सकते हैं, सेना पर आक्रमण कर सकते हैं और अमरजवान ज्योति को अपने जूतों से रौंद सकते हैं । कश्मीर के युवाओं द्वारा विद्रोह कर दिये जाने के भय से भारत की सम्प्रभुता को निरंतर सहते रहना यदि विवशता है तो यह सत्ता की अक्षमता ही नहीं बल्कि सत्ता के औचित्य पर एक ज्वलंत प्रश्न भी है । जो राज्य या देश अपने नागरिकों को केवल एक समुदाय के भय के कारण सुरक्षा दे पाने में असमर्थ है तो ऐसे राज्य और ऐसी सत्ता की कोई आवश्यकता नहीं है ।

क्या क्रूरतापूर्वक किये जा रहे अत्याचारों को सहते रहना ही सहिष्णुता का मापदण्ड है ? क्या भारतीय संस्कृति की बात करना या हिन्दू अधिकारों के संरक्षण की बात करना भारत में अपराध है ? ये प्रश्न हैं जिनके उत्तर सत्ता और विपक्ष दोनो को देना ही होगा । 

बुधवार, 25 नवंबर 2015

किसका धर्म ! कैसा धर्म !


      मन्दिर में मूर्तियों और आभूषणों की चोरी करने वाले धार्मिक हैं या अधार्मिक ? उत्कोचप्रेमी (रिश्वतखोर) अधिकारी धार्मिक हैं या अधार्मिक ? देश और भगवान को ठगने वाले नेता धार्मिक हैं या अधार्मिक ? मिलावट और जमाखोरी करने वाले व्यापारिक धार्मिक हैं या अधार्मिक ? दूध में पानी मिलाने वाला ग्वाला धार्मिक है या अधार्मिक ? छेड़छाड़ से लेकर सामूहिक यौनौत्पीड़न करने वाले ‘मासूम’ धार्मिक हैं या अधार्मिक ? बाबा रामपाल, आसाराम और सुखविन्दर कौर जैसे प्रवचनकर्ता धार्मिक हैं या अधार्मिक ? पाकिस्तान जाकर अपने देश के प्रधानमंत्री को हटाने की याचना करने वाले सांसद मणिशंकर अय्यर धार्मिक हैं या अधार्मिक ? भैस का चारा खाने वाले लालू धार्मिक हैं या अधार्मिक ? देहव्यापार करने वाली लड़कियाँ धार्मिक हैं या अधार्मिक ?    

      दुर्गा की मूर्ति बनाने के लिये जिनके चौखट की मिट्टी उठायी जाती है मैं उन्हें इन सबकी अपेक्षा कहीं अधिक धार्मिक मानता हूँ ?

    धर्म की कसौटी पर परखेंगे तो भारत की बहुसंख्य जनता आस्तिक और धार्मिक नहीं बल्कि अनास्तिक और अधार्मिक ही प्रमाणित होगी फिर भी उनका नाम हिन्दू धर्म से जुड़ा हुआ है । जबकि वास्तव में धर्म से उनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता ।
मुम्बई बमकाण्ड जैसी कई आतंकी घटनाओं के अपराधी एवं उनके पक्षधर, कश्मीर में पाकिस्तानी झण्डे लहराने वाले मुसलमान, कभी भारत तो कभी पश्चिमी बंगाल को इस्लामिक देश बनाने की माँग करने वाले अतिवादी, इस्लाम के नाम पर पूरी दुनिया में मानवीयता की क्रूर हत्यायें करने वाले ज़िहादी, सीरिया में स्त्रियों को वस्तु समझकर उनके साथ पाषाणी व्यवहार करने वाले लोग निश्चित ही धार्मिक लोग नहीं हो सकते फिर भी उनका नाम धर्म से जुड़ा हुआ है जबकि वास्तव में धर्म से उनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता ।
सही अर्थों में धार्मिक शायद बहुत कम मिलेंगे किंतु वे तथाकथित रूप से किसी न किसी धर्म की आड़ लेकर चलने में विश्वास अवश्य रखते हैं ।
धर्म की अवधारणा यहाँ निष्प्राण हो चुकी है । यह भीड़ है जो धर्म का शव लेकर भागी चली जा रही है । इस भीड़ में हम सब सम्मिलित हैं हिंदू, मुसलमान, ईसाई ....कोई छूटा नहीं है ।
यह भीड़ जो उग्र होती जा रही है, यह भीड़ जो जयचन्द बनने पर आमादा है, यह भीड़ जो मणिशंकर अय्यर है, यह भीड़ जो घृणा के नये-नये शब्द गढ़ने में दक्ष है,  यह भीड़ जो राम और गंगा को बेचती है, यह भीड़ जो बड़े गर्व से अपने पूर्वजों को दिन-रात गरियाती है, यह भीड़ जो नरसंहार करके दुनिया पर हुक़ूमत करने के सपने देखती है, यह भीड़ जो 72 हूरों के लोभ में फ़िदायीन बनती है .... इस भीड़ का कोई धर्म नहीं होता ।
यह अधार्मिक भीड़ धर्म का व्यापार करती है, यह अधार्मिक भीड़ सपने देखती है, यह अधार्मिक भीड़ नकली दवाइयाँ बनाती है, यह अधार्मिक भीड़ मिलावट करती है, यह अधार्मिक भीड़ घातक हथियार बनाकर बेचती है, यह अधार्मिक भीड़ नरसंहार करती है ...


इस भीड़ का कोई धर्म नहीं होता ........ किंतु इस भीड़ का एक समुदाय अवश्य होता है । 

रविवार, 15 नवंबर 2015

यदि यह इस्लामिक परम्परा नहीं है तो इस्लामिक समाज मुखर क्यों नहीं होता ?

      कल, सीरिया पर आतंकविरोधी हमले के विरुद्ध फ़्रांस पर आइसिस का आतंकीहमला !
         आज, टर्की के अंटालियो में आतंकीहमलों के विरोध में होने वाली जी-20 की शीर्ष बैठक में आतंकीहमला !

          2012 से सीरिया में चल रहे आतंकीयुद्ध के लिये आतंकियों को पैसा कौन देता है ? मध्य एशिया के काले सोने से आतंकियों के कैसे रिश्ते हैं ? इन रिश्तों को समाप्त करने के बारे में कोई विचार क्यों नहीं किया जाता ? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि एक वैश्विक संगठन बनाया जाय जो काले सोने पर नियंत्रण करे और पेट्रोलियम की बेशुमार दौलत को आतंकियों के हाथ में जाने से रोके ?

         हाँ ! ऐसा हो सकता है किंतु होगा नहीं । पश्चिमी देशों के आयुध उद्योग को फिर पूछेगा कौन ? 

          पश्चिमी देश नहीं चाहते कि दुनिया से आतंक को समाप्त किया जाय, यह उनकी औद्योगिक आवश्यकता है । वे चाहते हैं कि आतंक बना रहे किंतु वे स्वयं आतंक से बचे रहें । किंतु यह भी सम्भव नहीं है, बुरी नियत कभी भी अच्छा परिणाम नहीं दे सकती । राक्षसों, असुरों और दैत्यों ने जब-जब देवताओं की तपस्या करके घातक आयुध प्राप्त किये तब-तब उन्होंने देवताओं को भी निशाना बनाया । ख़ुद ज़िन्दा रहने के लिये दूसरों को भी ज़िन्दा रहने का अधिकार देना होगा, यहाँ अधिक समय तक पक्षपात नहीं चल सकेगा ।

            फ़्रांस और टर्की में फ़िदायीन हमले ! यदि यह इस्लामिक परम्परा नहीं है तो इस्लामिक समाज मुखर क्यों नहीं होता ?

       स्वार्थ एवं भोगलिप्सा के कारण कलियुग में धर्माचरण एक अव्यावहारिक विषय होता जा रहा है किंतु यह आश्चर्य की बात है कि धर्म ही इस काल का सर्वाधिक चर्चित विषय भी रहा है । वातव में धर्म के लिये कोई चिंतित नहीं होता, धर्म की आड़ में अधिकांश लोग अधार्मिक कार्यों में ही लिप्त रहते हैं । दुनिया में सर्वाधिक पापकर्म धर्म के नाम पर ही होते रहे हैं इसी कारण धर्म एक अति संवेदनशील विषय बनता जा रहा है ।
विश्व के अन्य धर्मों का इतिहास देखें तो उसमें दो उल्लेखनीय बातें मिलती हैं; एक तो यह कि समय-समय पर महान चिंतकों या प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा सामाजिक एवं व्यक्तिगत आचरण को नियंत्रित करने वाली जीवनशैलियों की संहितायें धर्म के नये-नये रूपों में बनायी जाती रही हैं जो अपनी पूर्ववर्ती त्रुटिपूर्ण या विकृत हो गयी जीवनशैली का स्थान ग्रहण करती रही हैं । दूसरी बात यह कि धर्मों की स्थानापन्नता का संक्रांतिकाल प्रायः दुःखद ही रहा है । धर्मों की स्थानापन्नता का सीधा सम्बन्ध सामाजिक वर्चस्व से होता है, मानवीय मूल्यों का यहाँ कोई स्थान नहीं हुआ करता । वर्चस्व की इस प्रक्रिया में अपने समूह की वृद्धि के लिये धर्मांतरण अभियान सहज किंतु कूटरचित और अधार्मिक कृत्य होता है ।  
यह विचारणीय है कि जीवनशैली में निरंतर सुधार की प्रक्रिया उत्कृष्ट जीवनमूल्यों की उत्कट अभिलाषा का परिणाम है । यह एक सहज और सांस्कृतिक प्रक्रिया है जबकि धर्मांतरण तत्कालीन परिस्थितिजन्य प्रतिक्रियाओं का परिणाम है ।  
धर्म के नाम पर सातवीं शताब्दी से जो रक्तपात प्ररम्भ हुआ वह आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा है । धार्मिक हिंसा का यह वैश्विक संकट गम्भीर चिंता का विषय है । हाफ़िज़ सईद जैसा आतंकी जिस तरह किसी राष्ट्राध्यक्ष की तरह किले में ऐश-ओ-आराम के साथ रहता है वह पाकिस्तानी सरकार के सहयोग के बिना सम्भव नहीं है । ख़ुर्शीद आलम जब पाकिस्तान जाते हैं तो पाकिस्तान का पक्ष लेते दिखायी पड़ते हैं । हम किस आधार पर ऐसे राजनेताओं को राष्ट्रप्रेमी या सर्वधर्मप्रेमी स्वीकार कर लें ? ख़ुर्शीद में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वे पाकिस्तान या भारत में हाफ़िज़ सईद के आतंक का खुल कर विरोध कर सकें ।  हमें झूठी लल्लो-चप्पो के स्थान पर निरंकुश हो चुकी धार्मिकहिंसा की वास्तविकता को स्वीकार करना होगा । इससे भी बड़ी चिंता का विषय यह है कि इतनी हत्याओं के बाद भी हम आतंकवाद के धार्मिक आवरण का सच्चे हृदय से विरोध नहीं कर पाते हैं । निश्चित ही यह या तो हमारी भीरुता है या फिर पक्षपात ।   

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

भारत के अस्तित्व के लिये आवश्यक है सहिष्णुता और भीरुता के अंतर को समझना

 इस्लामिक देशों में सदियों से यही परम्परा चलती आयी है । 

हम अपने अतीत के गौरव की स्मृति में या तो घोरआत्ममुग्धता में लीन हैं या फिर  घोरहीनता से ग्रस्त हैं । किसी देश, समाज और और उसकी संस्कृति के लिये दोनो ही अतिवादी दृष्टिकोण घातक हैं । हमें भारत के मध्यकालीन इतिहास को एक बार पुनः गम्भीरता से देखने की आवश्यकता है । भारत बारम्बार विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा लूटा, रौंदा और शासित किया जाता रहा, क्यों ?  हम किस महान भारत की बात करते हैं ? हम अपने अतीत की किस गौरवशाली परम्परा पर गर्व करते हैं ? क्या भविष्य में भी हम यूँ ही विदेशियों द्वारा बारम्बार रौंदे और कुचले जाते रहेंगे ? हमारी किन दुर्बलताओं के कारण विदेशी आततायी हमें अपना दास बनाते रहे हैं ? हमारी किन दुर्बलताओं के कारण विशाल आर्यावर्त बारम्बार खण्डित और मर्दित होता रहा है ? आज हम हिंदूकुश और कैलाशपर्वत से सिमटते-सिमटते, गांधार(अफ़गानिस्तान), सप्तसिंधु(पाकिस्तान), पूर्वी बंगाल(बांग्लादेश), पश्चिमी कश्मीर और मानसरोवर को गंवाते हुये खण्डित-मर्दित भारत में दुबक कर बैठे हुये हैं । हम चीन से असुरक्षित हैं । इस्लामिक विस्तारवाद के शिकार हो रहे हैं और भारत के लोग भारत में ही शरणार्थी बन कर रहने के लिये बाध्य हो रहे हैं ।
भारत न केवल अपने आसपास के पहलव-शक-हूण-मंगोल-उज़्बेक आदि पड़ोसी आक्रमणकारियों और लुटेरों से बारम्बार पराजित और शासित होता रहा बल्कि सुदूर यूनान, स्पेन, पुर्तगाल, फ़्रांस, डच, ब्रिटेन आदि देशों द्वारा भी रौंदा और कुचला जाता रहा । क्या भारत स्वाभिमानशून्य, आत्मबलशून्य और शक्तिहीन लोगों का एक दुर्बल देश है ? क्या हम विदेशी आक्रमणकारियों दारा भारत की स्त्रियों-लड़कियों के साथ क्रूरतापूर्वक किये जाते रहे बलात्कारों से उत्पन्न निर्बलसंतति के कुचले हुये उत्तराधिकारी हैं ? हम अपनी श्रेष्ठतम भाषा संस्कृत से दूर हो गये, वैदिक आचरणों से दूर हो गये, निर्दुष्ट शोधों से दूर हो गये, अपनी उत्कृष्ट शिक्षा व्यवस्था और ज्ञान से दूर हो गये, हम अपने स्व-भाव और संस्कृति से दूर हो गये और अब हम एक अंधकूप की ओर निरंतर अग्रसर होते जा रहे हैं ।
हमारे रक्त में विदेशी और विधर्मी आततायियों के रक्त का मिश्रण हो गया है । हम अपनी पूज्यकन्यायों और माताओं की रक्षा करने में असमर्थ होते रहे हैं । हम अपनी मातृशक्तियों को नारकीय पीड़ायें भोगते हुये मरते देखते रहे हैं । हम अपनी शक्तिस्वरूपा कन्याओं और माताओं को बुरी तरह अपमानित होने से नहीं बचा सके । क्या हम घोरतम पीड़ा के क्षणों में अपनी पूज्य शक्तियों द्वारा दिये गये श्राप का दण्ड भोग रहे हैं ?
  
यह नंदराजवंश से भी पहले की बात है जब मध्य-पूर्व भारत में हारण्यक और शिशुनाग राजवंशों (684-424ईसापूर्व) का राज्य हुआ करता था । तब ईसवी सन् 538 वर्षपूर्व भारत के उत्तर-पश्चिमी राज्यों में फ़ारस से आये एकीमेनिड वंश के लोगों ने अपना शासन स्थापित किया । भारत पर यह पहली विदेशी हुक़ूमत थी । बाद में इस्लामिक विस्फोट के साथ अरब के उम्मैद ख़लीफ़ों ने 711-750 ईसवी तक इस्लामिकविस्तार अभियान में भारत की धरती को रौंदा । यह वह काल था जब अरब के लोग तलवार और बलात्कार के साथ पूरी दुनिया में इस्लाम की हुक़ूमत स्थापित करने में लगे हुये थे । ईसवी सन् 712 में अरब के इस्लामिक आतंकी मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध में देवल के मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ा, लूटमार की, बलात्कार किये, हत्यायें की और लाखों की संख्या में लोगों का ख़तना करवाया, हज़ारों भारतीयों को दास-दासी बनाकर इस्लामिक देशों में बेंचा । स्त्रियों और किशोरवय लड़कों को यौनेच्छाओं की पूर्ति के लिये और पुरुषों को श्रमसंसाधन के लिये दास-दासी बनाकर बेचा । बौद्ध मंदिरों में छिपी 700 स्त्रियों को लूटकर इस्लामिक देशों में बेचने के लिये दलालों को सौंप दिया । इस्लाम का संदेश लेकर आये मुहम्मद बिन कासिम ने जिन 60 हज़ार स्त्री-पुरुषों को दास बनाया उनमें से 30 युवा स्त्रियाँ राजपरिवारों की थीं जिन्हें इस्लामिक देशों में कनीज़ बना कर तोहफ़े के रूप में पेश किया गया ।

अरबों दारा 712-13 में सिंध में आक्रमण के पश्चात् चलाये गये हिंसक अभियान के मुख्य उद्देश्य थे – भारतीयों का, ज़बरन खतना करके या उनकी स्त्रियों की इज़्ज़त लूटने की धमकी देकर धर्मांतरण करना, बलात्कार करना, मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ना, लूटमार करना, दास-दासियों के इस्लामिक बाज़ारों के लिये भारतीय स्त्री-पुरुषों को माल की तरह उपलब्ध करवाना और दहशत फैलाना । सन् 712-13 के अरब आक्रमणों में लाखों भारतीय स्त्री-पुरुषों को दास-दासी बनाया गया और लाखों की हत्या की गयी । यह कैसा इस्लामिक संदेश था ?

ईसवी सन् 1001 में महमूद गज़नवी ने काबुल पर आक्रमण किया और युद्ध में वहाँ के राजा जयपाल को बंदी बना कर उन्हें क्रूरतम यातनायें दीं । राजपरिवार के सभी स्त्री-पुरुष बंदी बना लिये गये और उन्हें गज़नी से दूर ख़ुरासान की एक दासमण्डी “मकीमन-ए-बाज़ार” में ले जाकर बोली लगाकर नीलाम कर दिया गया । राजा जयपाल को स्थानीय दलाल ने 80 दीनार में बोली लगाकर नीलाम किया । राजपरिवार के लोगों को एक विशेष रणनीति के अनुसार बारम्बार उनके नये मालिकों द्वारा खुले बाज़ार में बेचा जाता था । इस्लाम का यह कैसा आचरण है ?

ईसवी सन् 1001 में गज़नी के महमूद ने भारत में अपना लूट अभियान प्रारम्भ किया । उसने एक-दो या चार-पाँच बार नहीं बल्कि 17 बार भारत के भीतर घुस कर भारत को निर्भय होकर रौंदा । भारत के लोग महमूद गज़नवी का प्रतिकार करना तो दूर उसके अत्याचारों से अपनी रक्षा तक नहीं कर सके । महमूद ने अपने 17 युद्धों में लगभग 5 लाख भारतीय स्त्री-पुरुषों को बंदी बनाया और उन्हें दास बनाकर बेचा । वह हर बार आता, भारतीयों को दास  बना कर ले जाता । भारत की ख़ूबसूरत स्त्रियाँ और किशोरवय लड़कियाँ रोती-बिलखतीं, अपमान सहतीं इस्लामिक देशों के बाज़ारों में बिकने के लिये हाँक कर पशुओं की तरह ले जायी जाती रहीं और भारतीय इन घटनाओं को अपनी संवेदनहीन आँखों से देख-देख कर अभ्यस्त और पत्थर होते रहे । थानेश्वर पर महमूद गज़नवी ने जब अंतिम आक्रमण किया तब उसके एक-एक सैनिक के पास लूटकर बनाये गये कई दास और लड़कियाँ थीं । 1019 में जब वह वापस गज़नी गया तो उसके खेमे में 53 हज़ार बंदी थे जिन्हें इस्लामिक देशों में 2 से 10 दिरहम में बेचा गया । राजा दाहिर की राजकुमारी को यौनदासी बनाकर बाज़ार में बेच दिया गया । स्त्रियों के साथ ऐसा आचरण यदि किसी धर्म का संदेश है तो ऐसे धर्म को शीघ्र से शीघ्र समाप्त हो जाना चाहिये ।
  
आज भी मध्य एशिया की आतंकवादी गतिविधियों के अनुयायी धर्म के नाम पर पूरे विश्व में मानवता को कलंकित कर रहे हैं । गज़नी और ख़ुरासान के ग़ुलाम-बाज़ारों की पुनरावृत्ती आज सीरिया और ईराक़ के बाज़ारों में खुले आम हो रही है । यज़ीदी, शाबैक, कुर्द और क्रिश्चियन लड़कियों से सामूहिक बलात्कार के बाद उन्हें मोसुल और रक्का के ग़ुलाम-बाज़ारों में बेचा जा रहा है किंतु मंगल ग्रह पर सभ्यता की तलाश करने वाली सभ्य दुनिया की आँखों से एक बूँद आँसू तक नहीं निकलता ।   
 

सीरिया में यदि कोई लड़की यज़ीदी, कुर्द, शाबैक या क्रिश्चियन है तो उसके साथ सामूहिक बलात्कार होना निश्चित है 

भारत की संसद को कलंकित करने वाला असदुद्दीन ओवेसी नामक एक सांसद आज पश्चिम बंगाल को इस्लामी सूबा बनाने के अपने स्वप्न के लिये मुस्लिमों का आह्वान कर रहा है । 712 में मुहम्मद बिन कासिम के पापाचार को 2015 में ढोने वाला ओवेसी बचे-खुचे भारत को एक और नये बांगलादेश का दंश देना चाहता है । और भारत इन दंशों के प्रति अद्भुतरूप से सहिष्णु और सहिष्णु होता जा रहा है । किंतु आज हम यह स्वीकार करना चाहते हैं कि वास्तव में हम सहिष्णु नहीं बल्कि अतिभीरु और अतिदलित हैं । भारत के स्वाभिमानशून्य लोगो ! तुम कब अपने स्वाभिमान को जाग्रत करोगे

कृपया इन संदर्भ ग्रंथों का भी अवलोकन करने की कृपा करें ।
The Arab conquest of Sind –मोहम्मद हबीब
The life and times of Mahmud of Ghazni  – एम.नज़ीम
तारीख़–ए–अल्फ़ी    –मौलाना अहमद
Growth of Muslim population in Medieval India – Lai
Muslim slave System in Medieval India    –K. S. Lal  


   यह लड़की नहीं, एक वस्तु है क्योंकि यह मुसलमान नहीं है  




मोसुल और रक्का के यौनदासी बाज़ार में बेचने के लिये ले जायी जातीं 
ग़ैरमुस्लिम स्त्रियाँ (वस्तु) । यह 2012 से आज तक की स्थिति है ।


यह कैसा इंसानी व्यवहार है ? इस्लाम की यह कौन सी शिक्षा है ? 


सीरिया में ग़ैरमुस्लिम लड़की का सुंदर होने से बड़ा कोई पाप नहीं  

 सीरिया में ग़ैरमुस्लिम लड़की होने से बड़ा कोई अपराध नहीं  


रविवार, 1 नवंबर 2015

व्यक्त हो रहा है अव्यक्त


F चांद मियाँ, आसाराम, रामपाल, सुखविंदर ....... सब भगवान, सब ईश्वर ! कलियुग में भगवानों और ईश्वरों  के जन्म लेने की श्रंखला प्रारम्भ हो चुकी है । इक्कीसवी शताब्दी में ईश्वरों और भगवानों की अभी एक बड़ी सेना जन्म लेने वाली है । यह आस्था का विषय है ।
F अदृष्य ईश्वर अब भारत में जन्म लेने लगा है और अपनी मृत्यु के पश्चात् एक ऐसा मूर्ख, अंधभक्त और कट्टर समुदाय छोड़ने लगा है जिसकी रुचि पापाचार और व्यापार में अधिक होती है ।  
F ईसवी पश्चात् इक्कीसवी शताब्दी के भारत को एक ईश्वर बहुल देश माना जा सकता है ।
F ईश्वर की बहुलता के कारण इनके अनुयायियों में वर्चस्व और श्रेष्ठईश्वर के विषय पर संघर्ष होने लगे हैं । संघर्ष भक्तों का धर्म है, इसके लिये वे नैतिकता, शिष्टाचार और पतन की सारी सीमाओं को तोड़ सकते हैं ।  

F भगवान आस्था का विषय है । जीवित भगवान एक चमत्कार है । चमत्कार ही सृष्टि का कारण है ।  
F आस्था एक ऐसा अकाट्य और अंतिम अस्त्र है जिसके आगे सारे तर्कों को बलात् चुप करा दिया जाता है ।
F आस्था की राह भिन्न है, उसका स्वरूप भिन्न है, उसकी व्यवस्था भिन्न है, उसके उद्देश्य भिन्न हैं ।
F आस्था सदा से समाज की व्यवस्था, विमर्श, तर्क और मीमांसा को मानने से असहमत होती रही है ।
F आस्था एक वर्ग उत्पन्न करती है जो राज्य की विधि-विधायी व्यवस्था को नकारती है एवं नीतियों से परे एक स्वच्छंद मार्ग का अनुसरण करती है ।
F आस्था विज्ञान का परिहास करती है और नये-नये मानक स्थापित करती है । इन मानकों का अपना दर्शन होता है, अपने अनुयायी होते हैं, अपना अर्थशास्त्र होता है, अपनी सेना होती है और अपना विधान होता है ।

F हमें भोजन में तले हुये केचुये, काकरोच का सूप, छछूंदर का भुर्ता और नाली के कीड़े पसंद हैं । भोजन के साथ हमें महुवा की शराब पीने की आदत है । शराब पीकर गटर के किनारे या किसी बद्बूदार नाली में लेटकर सो जाने में हमें इंद्रलोकतुल्य सुख की अनुभूति होती है ।
F सभ्य-सुसंस्कृत समाज की वर्जनाओं को तोड़ने में हमारी दृढ़ आस्था है । आस्था सर्वोपरि है, उसके आगे राज्य का कोई अस्तित्व नहीं । राज्य की यह विवशता राज्य के अस्तित्व की आवश्यकता है ।
F आस्था के बिना हम जी नहीं सकते । आस्था हमारी सर्वोपरि आवश्यकता है । हमारी आस्था हमारी जड़ता को एक अद्भुत विस्तार और निरंकुशता प्रदान करती है ।
F हम अमिताभ बच्चन से लेकर सुखविंदर कौर तक सबकी मूर्तियाँ मंदिर में प्रतिष्ठित कर उनकी पूजा करते हुये शांति का अनुभव करना चाहते हैं ।

F कलियुग में भीड़ की आस्था उग्र प्रतिक्रिया को जन्म देती है । उग्र प्रतिक्रिया मूर्ति भंजकों, लुटेरों और हत्यारों को जन्म देती है ।
F कलियुग के मानवरचित ईश्वर यौनशोषण से लेकर विनाश तक सबकुछ आमंत्रित करते हैं ।

F अपनी मूढ़ आस्था के वशीभूत हम विनाश की दिशा में तीव्रता से आगे बढ़ते जा रहे हैं ।