शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

कलियुग में भी







आगरा से जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर है भरतपुर । हाँ, वही .... पक्षियों वाला भरतपुर । कभी मथुरा से दिल्ली जाते समय ट्रेन में लोकल लड़कों के मुँह से यह गाना सुना था - भरतपुर लुट गओ रात मोरी अम्मा ....। लड़कों का समूह मज़ा ले-लेकर गाना गा रहा था ।  

उसी राष्ट्रीयराजमार्ग पर लड़के की कार भागी चली जा रही थी । लड़के को जयपुर जाना था लेकिन भरतपुर रुकते हुये । अचानक लड़के को लगा कि शायद वह आगे निकल गया है । सामने थोड़ी दूर पर एक गाँव था, उसने रास्ता पूछने की ग़रज़ से गाड़ी धीमी की । गाड़ी धीमी करते ही एक लड़की सड़क के किनारे आ गयी, लगा जैसे कि वह लिफ़्ट  चाहती हो । लड़की ने, जो कि अभी पूरी तरह लड़की भी नहीं बन पायी थी, गहरा मेकअप किया हुआ था जिससे उसका प्राकृतिक सौन्दर्य बुरी तरह नाराज़ था । पता नहीं उसने मेकअप किया ही क्यों था जबकि वह बला की ख़ूबसूरत थी । 
गाड़ी के धीमी होते ही लगभग तीस की उम्र का एक युवक भी सड़क पर सामने आ गया । युवक ने लड़के को सलाम करते हुये आमंत्रित किया – आइये सर !
लड़के ने पूछा – भरतपुर आगे है क्या ?
युवक ने बड़ी विनम्रता से कहा – नहीं सर ! वह तो आप पीछे छोड़ आये हैं ....तीन-चार किलोमीटर पीछे । जहाँ  से आप मुड़े हैं वहीं से सीधे जाकर बस ...भरतपुर ही है । ......एक बार उतर कर आइये न सर ! – युवक ने फिर आमंत्रित किया ।
अब तक बला की ख़ूबसूरत लड़की भी गाड़ी के पास आ गयी थी । उसने आधुनिक कपड़े पहन रखे थे ....यानी तंग और छोटे । लड़की के कपड़े इतने छोटे थे कि कारपोरल स्क्रिप्ट के बेहतरीन नज़ारे के प्रदर्शन के लिये उसे तनिक भी झुकने की आवश्यकता नहीं थी । लड़की ने अनारकली स्टाइल में मुस्कराते हुये आदाब किया, फिर एक शोख़ अदा के साथ हाथ के इशारे से लड़के को आमंत्रित किया ।
सड़क के किनारे एक झोपड़ीनुमा चाय की दुकान पर खड़ी दो युवा और एक अधेड़ होने की ढलान पर उन्मुख स्त्री ने हाथ के इशारे से लड़के को इशारा किया । लड़के के, जो कि वाकई किसी लड़के की उम्र से आगे एक गबरू मर्द की श्रेणी का मानुष हो चुका था, विशेष ज्ञानचक्षु उन्मीलित हो चुके थे । उसने अपनी गाड़ी मोड़ी और भरतपुर की ओर भाग गया । उसने बेड़िया जैसी कुछ जातियों के पुश्तैनी धन्धे के बारे में पढ़ रखा था, अंदाज़ लगाया कि शायद उन्हीं लोगों का गाँव रहा होगा ।
भरतपुर पहुँचकर लड़के ने सबसे पहले एक होटल की शरण ली और एक ब्लेक कॉफ़ी का ऑर्डर दिया । काली पेण्ट, सफ़ेद बुर्राक शर्ट और गले में लाल टाई पहने एक सुन्दर सी लड़की कॉफ़ी लेकर आयी तो गबरू मर्द की उम्र वाले लड़के को फिर एक झटका लगा – अयं ....यहाँ भी बेड़िनी ! 
लड़की ने टेबल पर कॉफ़ी रखी और एक एथिकल मुस्कुराहट फेक कर चली गयी । लड़का अब तक पूरी तरह एक तूफ़ान की ज़द में आ चुका था । उसके सामने दो लड़कियों के चेहरे थे – एक बला की ख़ूबसूरत और दूसरी केवल ख़ूबसूरत । एक जो अभी तक लड़की भी नहीं बन पायी थी और दूसरी जो अच्छी तरह लड़की बन चुकी थी । एक जो कारपोरल बिज़नेस में उतर चुकी थी और दूसरी जो एक मध्यम श्रेणी के होटल में वेट्रेस बन चुकी थी । एक लड़की सवाल थी जबकि दूसरी लड़की उसी सवाल का ज़वाब थी । तूफ़ान तेज़ होता गया तो लड़के को लगा कि अब उसे कुछ करना होगा ।
थोड़ी देर बाद तूफ़ान की ग़िरफ़्त में आ चुका लड़का मात्र बीस की स्पीड में गाड़ी चलाता हुआ उस बला की ख़ूबसूरत लड़की के गाँव में पहुँच गया । बीस की स्पीड ने उसे कुछ और सोचने-समझने का मौका दे दिया था ।
लड़का गाँव पहुँचा तो वहाँ कुछ और चेहरे थे ...नयी बेड़िनियाँ । तो क्या पहले वाली बेड़िनियों की बुकिंग हो चुकी थी ! लड़के की निगाहों ने इधर-उधर टटोलने की कोशिश की लेकिन वह बला की ख़ूबसूरत लड़की उसे कहीं नज़र नहीं आयी ।

लड़के के भीतर का तूफ़ान कुछ और तेज़ हो गया । लड़का गाड़ी से उतरा तो लिपे-पुते चेहरे वालियों से घिर गया । उसने पहले वाली लड़की के बारे में पूछा तो सब खिलखिला उठीं, बोलीं – हम भी तो हैं .......। लड़कियों से घिरा लड़का मकड़ी के जाल में फस चुका था ...मुक्ति का कोई उपाय नहीं बचा । एक लड़की उसे अपने साथ ले जाने में सफल हो ही गयी ।
कमरे में जाकर लड़की ने एक लीथल अंगड़ायी लेते हुये पूछा – सर चाय लेंगे या कॉफ़ी ?
लड़के ने कहा, अभी-अभी कॉफ़ी पी है, मुझे कुछ नहीं चाहिये ।
लड़की एक तरह से खींचती हुयी सी लड़के को पलंग तक ले गयी और लगभग उसके ऊपर गिरते-गिरते बोली – ऐसे-कैसे सर ! कुछ तो चाहिये ........।
लड़के ने स्पष्ट महसूस किया जैसे उसके शरीर में बिजली दौड़ने लगी हो । लड़का फ़िज़िक्स वाला था, सोचने लगा – कितने वोल्ट का करेण्ट होगा यह ?
लड़का शून्य जैसा होता जा रहा था, उसने आर्त स्वर में विनती की- क्या आप मेरे साथ बाहर चलेंगीं ...मेरा मतलब है खेतों की तरफ़ ...?
लड़की को यह कस्टमर कुछ अज़ीब सा लगा, पूछा – क्यों ? यहाँ ठीक नहीं लग रहा क्या ? कोई परेशानी है ?
लड़के ने कहा – मैं शहर से आया हूँ, आपका गाँव देखना चाहता हूँ ....और खेत भी ।
लड़की को अब पक्का विश्वास हो गया कि लड़का बड़े बाप का सिरफिरा बेटा है । उसने व्यापारिक चतुरता का दाँव चलते हुये कहा- देखिये मैं जितना अधिक समय आपको दूँगी मेरा उतना ही नुकसान होगा .....आप समझ रहे हैं न ! आप मेरे साथ अधिक समय गुज़ारना चाहते हैं तो उस नुकसान की भरपायी तो करनी होगी न !
लड़के ने तुरंत ज़वाब दिया – ठीक है, भरपायी हो जायेगी । चलो मेरे साथ ......।
लड़की अब सीरियस हो गयी, कुछ सोचकर बोली – ठीक है आप काका जी से बात कर लीजिये ।

काका जी ने पहले तो साफ मना कर दिया लेकिन फिर बड़ी ना-नुकुर के बाद ऊँचे दाम पर सौदा तय कर लिया । पूरे एक दिन और एक रात का सौदा हुआ ।
लड़की आज खूब ख़ुश थी ...दस कस्टमर बराबर एक कस्टमर और साथ में घूमना-फिरना भी । लड़के ने भी चैन की सांस ली ।
लड़के ने उस छोटे से गाँव की गलियों में घूम-घूम कर जायज़ा लिया ...फिर खेतों की मेड़ों से होता हुआ दिन भर घूमता रहा । उसने लड़की से बहुत सारी बातें कीं, पूछा कि - वह कहाँ तक पढ़ी है ? पाँचवीं के बाद आगे पढायी क्यों नहीं की ? उसके कितने भाई बहन हैं ? पूरा परिवार इस धन्धे में है ....फिर भी किसी को कोई संकोच क्यों नहीं होता ? वह कुछ और काम क्यों नहीं करती ? खाने में उसे क्या-क्या अच्छा लगता है ? कौन-कौन से शहर देखे हैं ? बुढ़ापे की योजनायें ........

रात हुयी तो लड़की ने किंचित संकोच से पूछा – खाना बाहर खायेंगे .....या ......?
लड़के ने कहा – आप ख़ुद बनायेंगी तो यहीं ...वरना बाहर ।
लड़की का संकोच और भी बढ़ गया, बोली – घर का खाना ...... खा लेंगें आप ?
-      हाँ ! क्यों नहीं .......हम तो रोज ही घर का बना खाना खाते हैं ।
उत्तर सुनकर लड़की हँस दी । भोजन को लेकर अब वह सहज हो गयी थी । उसे यह सिरफिरा कस्टमर अच्छा लगने लगा था । उसने पूछा – क्या बनाऊँ आपके लिये ?
लड़के ने कहा – कुछ भी ....जो आपको अच्छा लगता हो ।
अचानक लड़की को लगा कि जैसे उस सिरफिरे कस्टमर ने लड़की के भीतर एक आँधी चला दी थी । वह उस आँधी में उड़ने लगी .....सूखे पत्ते जैसी ।
भोजन बनकर तैयार हुआ तो लड़की थाली ले कर आयी । लड़के ने कहा – सब लोग एक साथ खायेंगे ......आपके काका जी, माँ, दादी और भाई ...सब लोग ।
लड़की असमंजस में पड़ गयी, यहाँ तो ऐसा कभी नहीं होता, जब जिसको समय मिला खा लिया । वह बोली- पहले आप खा लीजिये, घर के लोग बाद में खा लेंगे ।
लड़का मानने को तैयार नहीं । आख़िर में काका जी और लड़की को उसके साथ बैठना ही पड़ा । भोजन के बाद काका जी जाने लगे तो लड़के को याद दिलाया कि कल दोपहर को उसके चौबीस घण्टे पूरे हो रहे हैं ।

लड़की ने आज पलंग पर नयी बेडशीट बिछायी और तकिया पर धुले हुये कवर चढ़ा दिये । जब सोने का समय आया तो भीतर चल रही आँधी से लड़की थरथरा उठी । लड़के ने लड़की से कहा कि वह माँ के पास जाकर सो जाय । लड़के का प्रस्ताव सुनकर लड़की के भीतर की आँधी और तेज़ हो गयी । उसे लगा जैसे कि वह पूरे दाम लेकर भी कस्टमर को खाली हाथ वापस भेजे दे रही है ।
उसकी व्यावसायिक हुलस और धार कुन्द होने लगी थी फिर भी उसने धीर से कहा – आपने काका जी को पूरे पैसे दिये हैं ....वह भी चौबीस घण्टे के लिये ।

अंततः दोनो एक साथ सोये तो लड़के के दिमाग़ में फ़िज़िक्स लहरा उठी । पहली बार उसे पता चला कि फ़िज़िक्स और फ़िज़ियोलॉजी में कितना घनिष्ठ सम्बन्ध है । अपने शरीर में प्रवाहित हो रहे हज़ारों वोल्ट के करेण्ट का प्रतिरोध करने में लड़के को बड़ी मानसिक मशक्कत करनी पड़ी । लड़के ने तो करेण्ट का प्रतिरोध करने में ऐन-केन प्रकारेण सफलता पा ली लेकिन लड़की के भीतर की आँधी अब तक तूफ़ान में बदल चुकी थी । यह तूफ़ान सतरंगा था ......सतरंगे तूफान पर सवार होकर वह किसी और ही लोक में पहुँच चुकी थी ।

सुबह हुयी तो चाय पीते-पीते सिरफिरे लड़के ने लड़की से कल वाली बला की ख़ूबसूरत लड़की के बारे में पूछा । लड़की को जैसे झटका लगा, अच्छा तो इस ब्रह्मचर्य के पीछे का राज यह है । एक झटके में लड़की का तूफ़ान थम गया । उसे बला की ख़ूबसूरत लड़की से ईर्ष्या हुयी और सिरफिरे लड़के पर रोष । उसने ज़वाब दिया – काका जी से पूछ लेना उसका घर ।
लेकिन लड़के ने काका जी के साथ जाने से मना कर दिया । लड़की को जाना ही पड़ा ।

अभी-अभी तेरह पूरी करके मात्र चौदहवें साल में पड़ी वह बला की ख़ूबसूरत लड़की अभी-अभी स्नान करके आयी थी । आज बिना मेकअप के वह और भी बला की लग रही थी । रात वाली लड़की लड़के को वहीं छोड़कर जाने लगी तो लड़के ने उसे भी रोक लिया । उसने हंसते हुये चिढ़ाया – अभी चौबीस घण्टे पूरे नहीं हुये हैं ।
रात वाली लड़की को पहली बार लज्जा की अनुभूति हुयी । उसके कान के लोब्स लाल हो गये । बहुत मन हुआ कि कह दे – ऐसे कस्टमर के साथ तो कोई जीवन भर भी रहे तो भी चौबीस घण्टे पूरे नहीं हो पायेंगे ।
लड़की कुछ नहीं बोली ।

आगरा से जयपुर को निकला लड़का भरतपुर के पास एक छोटे से गाँव में तीन दिन से हिलगा हुआ था । इस बीच गाँव के लोगों के साथ उसकी चार बार मीटिंग्स हुयीं । मीटिंग्स में बहसें हुयीं । बहसों में कभी उत्तेजना हुयी कभी निराशा हुयी, कभी असहयोग की आँधी तो कभी सहयोग की बयार बही ...और अंततः लड़के की जीत हुयी । तय हुआ कि गाँव में शिक्षा और चिकित्सा की व्यवस्था में लड़का जो कुछ भी करेगा उसमें गाँव के सभी लोग उसे सहयोग करेंगे ।

चौथे दिन जब लड़का पुनः ज़ल्दी ही वापस आने का वादा करके वहाँ से जाने लगा तो उसके पैर छूने के लिये लोगों में होड़ सी लग गयी । लड़की की माँ ने पास आ कर लड़के के हाथों में वे सारे नोट थमा दिये जो उसने तीन दिन के लिये काका जी को दिये थे । लड़का मना करता रहा पर लड़की की माँ नहीं मानी । काका जी ने आकर कहा – ले लो बेटा ! तब लड़के ने यह कहते हुये नोट ले लिये कि यह रकम लड़की की अमानत के रूप में उसके पास रहेगी ।
बला की ख़ूबसूरत लड़की ने आज पूरे कपड़े पहने हुये थे, यानी  सलवार सूट .....और मेकअप भी नहीं किया था । सिरफिरे लड़के ने तीन ही दिन में ने न जाने कितनों पर जादू कर दिया था । लड़की पास आकर सिरफिरे के पैर छूने के लिये झुकी ही थी कि उसने उसे उठाकर अपनी छाती से लगा लिया । लड़की की आँख़ें नम हो आयीं तो सिरफिरा बोला – तुम मेरे स्कूल की पहली स्टूडेण्ट बनोगी ।  
रात वाली लड़की पास तक नहीं आयी, दूर ही खड़ी रही । उसकी आँखें पहली बार किसी कस्टमर के लिये बादल की भूमिका में पूरी ईमानदारी के साथ न्याय कर रही थीं ।
गाड़ी में बैठने से पहले सिरफिरे लड़के की आँखों ने रात वाली लड़की को खोज ही लिया । वह लड़की के पास आया तो उसने अपना चेहरा आँचल से ढक लिया । सिरफिरे लड़के ने उसके सिर पर जैसे ही हाथ रखा तो वह उसके पैरों पर भरभरा कर ढेर हो गयी ।

ऊपर से ईश्वर ने आश्चर्य से देखा कि कलियुग में भी एक गन्दी लड़की पवित्र हो रही थी ।  




गुरुवार, 29 जनवरी 2015

तू क्यों आया रे वसंत !



     

       घर आते ही उसने अपनी फ़्रॉक की झोली चटाई पर उलट कर खाली दी, सरसों के पीले फूलों का एक छोटा सा ढेर लग गया । लड़की ने ख़ुश होकर आवाज़ दी – अम्मा ! देखो तो कित्ते अच्छे फूल ।
मटर के छिलके बाहर गाय को डालने के लिये निकली अम्मा ने देखा कि उनकी लाड़ली ‘बेवड़ी’ किसी के खेत से सरसों के फूल उजाड़ लायी थी । लड़की को डाँट पड़ी, पीपल वाले बाबा से पकड़वाने की धमकी दी गयी । इतनी डाँट-फटकार के बाद भी लड़की की आख़ें चमक रही थीं, सरसों के पीले रंग ने उसे बावली बना दिया था ।
रंगरूप की बात की जाय तो वह सुन्दर बिल्कुल भी नहीं थी । पड़ोस के बच्चे उसे कई नामों से पुकारकर चिढ़ाया करते किंतु इसका उस लड़की पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । वह अपने में ही मस्त बनी रहती । अड़ोस-पड़ोस में कच्चे जाम फले हों या कसैली-खट्टी केरियाँ कुछ भी उसकी दृष्टि से बच नहीं पातीं । पड़ोस के बच्चे शिकायत करने आते – देखो आज फिर आपकी बेटी ने हमारे पेड़ से जाम तोड़े । अम्मा चिंतित होती कि ऐसी ही रही तो कौन ब्याहेगा उस बेवड़ी को ?
किंतु एक दिन बेवड़ी का भी ब्याह हो गया । बेवड़ी पढ़-लिख कर गाँव के स्कूल में मास्टरनी बन गयी थी, उसे एक अच्छा सा दुलहा मिल गया, सरकारी नौकरी वाला । पड़ोस की लड़कियों को जलन हुयी, लेकिन वह ख़ुश थी ।

वह जब पहली बार मुझसे मिली थी तो उसके व्यवहार में झिझक नाम की कोई चीज नहीं थी, उसका व्यवहार ऐसा था जैसे कि वह मुझे वर्षों पहले से जानती हो । वह साधिकार बात करती और मेरी हर चीज पर अपना अधिकार जताती । इतना ही नहीं वह अपनी हर व्यक्तिगत बात भी साधिकार मुझे बताती । मुझे उसके व्यवहार से आश्चर्य होता ।

तब उसकी शादी नहीं हुयी थी और उसे एक वेज़ाइनल सिस्ट हो गया था । लड़की डरी हुयी थी... शायद यह पहली बार था जब मैंने उसके चेहरे पर डर की रेखायें देखीं । मैंने उसे किसी गायनिक सर्जन से मिलकर ऑपरेशन की सलाह दी, लड़की और भी डर गयी । तब मैंने उससे कहा कि वह अपनी माँ को लेकर मेरे पास आये । 
मैंने लड़की की माँ को सब कुछ समझाया और ऑपरेशन कराने की सलाह दी । माँ ने आश्चर्य व्यक्त किया कि उसकी बेटी ने इस बारे में कभी उससे कहा क्यों नहीं । बल्कि उसने इस लापरवाही के लिये बेटी को डाँटा भी ।
शादी के बाद वह अपने पति के साथ घूमने के लिये अण्डमान निकोबार गयी । पहली बार शिप और प्लेन में बैठकर यात्रा के अनुभव मुझे सुनाने के लिये वह व्यग्र थी । वापस आते ही सबसे पहले उसने मेरे घर का रुख़ किया और बहुत देर तक बैठकर किस्से सुनाती रही । उसकी आँखों में एक विशिष्ट चमक थी ......
ससुराल जाने के बाद भी वह जब-तब मुझे फोन करती रहती थी । एक दिन गर्मी के दिनों में भरी दोपहर को उसने मेरा दरवाज़ा खटखटाया । वह अपने पति को मुझसे मिलवाने लायी थी ।
एक दिन उसने फोन करके बताया कि उसके “वो” दारू पीते हैं और नशे में उसे और बच्चों को ख़ूब पीटते हैं । रोज-रोज की मारपीट से वह आज़िज़ आ चुकी थी । सुनकर मैं सन्न रह गया । इस बिन्दास लड़की के सीने में कितना कुछ दफ़न है ।
एक दिन वह फ़ोन पर देर तक रोती रही .... । मैं उसे चुप कराने का प्रयास करता रहा । जब वह चुप हुयी तो उसने बड़ी मुश्किल से बताया कि उसके पति अब नहीं रहे । डॉक्टर्स के अनुसार उन्हें एड्स हुआ था । वह चिंतित थी कि कहीं उसे भी तो एड्स नहीं हो गया होगा .....फिर उसके दो छोटे-छोटे बच्चों को कौन सम्भालेगा ? उसकी चिन्ता स्वाभाविक थी । डॉक्टर्स ने उसकी और बच्चों की भी जाँच की थी, लेकिन बताया कुछ नहीं था । वह चाहती थी कि मैं सारी रिपोर्ट्स को पढ़कर देखूँ कि उसमें लिखा क्या है । मैंने उससे कहा कि वह सारी रिपोर्ट्स लेकर आ जाये ।
संयोग अच्छा था कि उसे या उसके बच्चों को एड्स नहीं हुआ था । मैंने उसे बताया तो वह तनिक निश्चिंत सी लगी और कुछ आवश्यक मेडिकल परामर्श के बाद चली गयी ।

बहुत दिन बाद एक दिन फिर उसका फोन आया, इस बार उसने जो बताया वह और भी दुःखद था । इतने साल बाद स्वयं को उसके पति की असली पत्नी बताने वाली कोई महिला सम्पत्ति के बटवारे के लिये आ धमकी थी । लड़की का रो-रो कर बुरा हाल था । फिर भी उसे अपने दिवंगत पति से कोई शिकायत नहीं थी । वह स्वयं को ही दोष देती रही कि यदि वह सुन्दर होती तो उसका पति कहीं और भटकता ही क्यों । सुनकर मैं द्रवित हो उठा था । 
इस बार सरस्वती पूजा के अगले दिन स्कूल के लोगों ने पिकनिक का कार्यक्रम बनाया । साथ के शिक्षक-शिक्षिकाओं ने पिकनिक के लिये किसी तरह उसे भी मना ही लिया । जब सब लोग पिकनिक स्पॉट पहुँचे तो पहाड़ी झरने के पास सरसों के खेत देखते ही वह मचल उठी ....उसकी आँखों में चमक आ गयी । कई बरस के बाद लड़की फिर से ज़िन्दा होने लगी ।
मरी हुयी लड़की ने, जो अब फिर से ज़िन्दा हो गयी थी सरसों के खूब सारे फूल चुन कर अपने दुपट्टे में रखे, सेमल कन्द उखाड़ा और चने की हरी-हरी पत्तियाँ तोड़कर खायीं । निष्ठुर समय का एक छोटा हिस्सा आज उस पर मेहरबान था ।
अचानक यादों का एक साया उड़ता हुआ आया और लड़की को ढक दिया । लड़की फिर से शव बन गयी, उसके होठ बुदबुदाये – तू क्यों आया रे वसंत ! वो तो हैं नहीं अब ।
लड़की ने दुपट्टे के सारे फूल एक जगह गिरा दिये ....फिर वहीं ज़मीन पर बैठकर दुपट्टे का छोर मुंह में दबा, सिर झुकाकर सिसक उठी ।  

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

धर्म और आध्यात्म


धर्म और आध्यात्म पर जितना भी विमर्श किया जाय कम ही है । मनुष्य समाज के लिये इन दोनो विषयों का कितना महत्व है इस पर भी लोगों की राय भिन्न-भिन्न हो सकती है । इनके बीच लगभग उसी प्रकार का सम्बन्ध है जैसा कि मैटर और इनर्जी के बीच है । ‘धर्म’ व्यक्ति और समाज की सुव्यवस्था के लिये एक आचरण संहिता है जबकि ‘आध्यात्म’ नितांत व्यक्तिगत चिंतन है जो व्यक्ति को लौकिक और पारलौकिक जगत के पारस्परिक सम्बन्ध को समझने की पृष्ठभूमि उपलब्ध करता है । सीधे-सीधे कहें तो ‘धर्म’ समाज से और ‘आध्यात्म’ व्यक्ति से जुड़ा हुआ विषय है ।
भारत में इन दोनो विषयों पर आर्षचिंतन की स्पष्ट अवधारणा है । महत्वपूर्ण यह है कि भारत में धर्म पर ईश्वर का कठोर नियंत्रण नहीं होता । समाज के चिंतनशील लोगों द्वारा दीर्घ अनुभव के परिणामस्वरूप एक सामाजिक आचार संहिता बनायी गयी -  धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं, शौचमिन्द्रिय निग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणम् ॥ धर्म के ये दस लक्षण उतने ही व्यावहारिक और सत्य हैं जितना कि गणित । यह आस्था से नहीं ‘निष्ठा’ से जुड़ा विषय है ;  परिवार, समाज, देश और प्राणिमात्र के प्रति निष्ठा ।

धर्म का आचरण यहाँ बाध्यता नहीं, किंतु आत्मनियंत्रक तत्व होने के कारण अपेक्षित अवश्य है । यहाँ स्वयं पर स्वयं के नियंत्रण की अपेक्षा है जिसमें किसी अन्य बाह्य तत्व की कोई बाध्यता नहीं होती । विश्व का कोई भी विचारवान व्यक्ति इन गुणों को मानवीय आचरण के लिये प्रशस्त ही स्वीकार करेगा । यह संहिता देश-काल वातावरण की सीमाओं से परे हर किसी के लिए अनुकरणीय है, इसीलिये इस आचार संहिता को “सनातन” कहा गया । पूजा-उपासना का इस सनातन धर्म से कोई लेना-देना नहीं है । वह एक पृथक विषय है और व्यक्तिगत मान्यताओं एवं आस्थाओं पर निर्भर करता है, इसलिये भारत में पूजा-उपासना की पद्धतियों में भिन्नतायें देखने को मिलती हैं । भारतीय संदर्भ में पूजा-उपासना आध्यात्मिक चिंतन की एक साधना के रूप में ग्राह्य है । 

सोमवार, 26 जनवरी 2015

पोस्ट और विमर्श ...


नयी खोज पर ख़ुश नहीं हूँ मैं –

ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने प्रकाश की गति को नियंत्रित करने की विधि खोज निकाली है । ऐसी खोजें प्रकृति के सिद्धांतों के विपरीत होने से स्वागत योग्य नहीं हैं । ऐसी खोज प्रकृति के विरुद्ध मनुष्य की दादागीरी है जिसके अंतिम परिणाम लोक कल्याणकारी नहीं होंगे, यह निश्चित है ।

यह फ़ेसबुक पर की गयी एक लघुतम पोस्ट थी जिसपर हुये विमर्श का अविकल विवरण प्रस्तुत है -

 सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी – मुझे नहीं लगता कि कोई वैज्ञानिक खोज ईश्वर के Divine plan से बाहर हो सकती है। ऐसे में प्रकृति विरुद्ध भी नहीं ।
 कौशलेन्द्रम – तब तो पाप और पुण्य भी डिवाइन प्लान के अंतर्गत ही होंगे ।
 सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी – जी ! पाप और पुण्य relative हैं ।
 कौशलेन्द्रम – जोशी जी ! सत्य तो यह है कि कि मनुष्य की कल्पना में जो कुछ भी है वह सब ईश्वरीय विधान से परे नहीं है । ईश्वरीय विधान से परे कुछ हो ही नहीं सकता । किंतु तब हमें यह भी विचार करना है कि कृति और विकृति, पाप और पुण्य, शांति और परमाणु बम ... यह सब भी ईश्वरीय विधान के ही अंतर्गत है । बन्धु ! प्रश्न यह है कि हमारा विवेक किस पक्ष में है ? 
 सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी – हमारा विवेक  विकास के पक्ष में है । पूर्व स्थापित नियमों के लिये सृजन नहीं रुकना चाहिये ।
 कौशलेन्द्रम –  “पाप और पुण्य relative हैं” के उत्तर में  - जी ! सापेक्ष हैं  ... मानता हूँ । यह सापेक्षता निम्नतर और अधिकतम के बेच झूलती है । दोनो शीर्ष बिन्दु विवेक की अपेक्षा करते हैं और इसी से निर्धारित होती है हमारे कार्यों की रूपरेखा भी । सृजन की रूपरेखा क्या होनी चाहिये .... इस पर मत भिन्नता है विद्वानों में ।
पूर्व स्थापित नियम यदि सनातन सत्य हैं तो .... ?
 सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी – सृजन की सीमा मुझे पोप की याद दिलाती है ।
 कौशलेन्द्रम – पोप की याद ? कृपया खुलासा किया जाय .... हम पोपों की यादों की कथा से अनभिज्ञ हैं ।  
 सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी – खगोलविदों को फांसी के तख्त तक ले जाना ।
 कौशलेन्द्रम – ओह ! यह उस ज़माने की बात है जब योरोप में धर्म अपनी जड़ता के शीर्ष पर था । हम उस प्रकार की जड़ता के पक्ष में नहीं हैं किंतु सृजन के लोककल्याणकारी होने के पक्ष में ज़रूर हैं ।  सृजन की सर्वोच्च स्थिति विघटन के द्वार खोलती है । एटम बम हमारे लिये जितना लाभकारी है उससे कहीं अधिक हानिकारक है । एटॉमिक रिएक्टर्स से होने वाले रेडिएशन के ख़तरों की उपेक्षा नहीं की जा सकती ।
 सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी – फिर तो संसार का सबसे दुष्ट व्यक्ति वह रहा होगा जिसने अग्नि का सबसे पहले प्रयोग किया, मानव इतिहास में हमारे गरीबों की झोपड़ियाँ उसी अग्नि की भेंट चढ़ती रही हैं ...
            विकास के रास्ते में ये टूल हैं जो हमारे हाथ आ रहे हैं, अब इनका उपयोग कैसे करना है, वह सही या गलत है, न कि टूल? किसी को पेचकस दिया जाय और वह उससे आँख फोड़ ले तो पेचकस का दोष खोजना कहाँ तक सही है .... ?
 कौशलेन्द्रम – एण्टीबायटिक्स भी कभी सृजन की सीमा में हुआ करते थे । आज उसी के कारण माइक्रो ऑर्गेनिज़्म के जो न्यू स्ट्रेंस उत्पन्न हुये हैं उन्होंने चिकित्सा जगत के सामने भीषण संकट खड़ा कर दिया है । हम ऐसी खोजों को सात्विक उपलब्धि नहीं कह सकते जो मनुष्य के अस्तित्व के लिये संकट उत्पन्न कर दे ।
 सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी – नैसर्गिक तो यह भी नहीं था कि बड़ी आबादी को केवल इसलिये मरने के लिये छोड़ दिया जाय कि प्रयोग हो रहा एण्टीबायटिक भविष्य में स्ट्रेन पैदा करेगा ...
 कौशलेन्द्रम – निः सन्देह ! टूल को दोष नहीं दिया जा सकता । उसका उपयोगकर्ता ही दोषी है । यहाँ हमारा आशय इतना ही है कि हमें संकट की सम्भावनाओं पर विचार करने की शक्ति ईश्वर द्वारा प्रदान की गयी है, जिसका युक्तियुक्त उपयोग होना चाहिये ।
 ...जी बिल्कुल नैसर्गिक नहीं था । विज्ञान को सत्य के समीप होना चाहिये  ...जो उपलब्धि / खोज सत्य के समीप नहीं है उससे लोककल्याणकारी परिणामों की कैसे अपेक्षा की जा सकती है ? एंटीबायटिक्स के अन्य विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिये था ... जैसा कि अब विचार किया जाना प्रारम्भ हुआ है । अंततः विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी विवश हो कर विकल्प की बात कहनी पड़ रही है न !
 सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी – सभ्यता ऐसे ही आगे बढ़ती होगी, रातो रात किसी को ब्रह्म ज्ञान हासिल होता हो, ऐसा देखा नहीं । हमारे पास था बहुत कुछ, हम खो बैठे हैं, कुछ बहुत विद्वान लोग उसे फिर से उठाने की कोशिश कर रहे हैं, कुछ उपलब्धियाँ मिली भी हैं, लेकिन दो समानांतर पथ साथ-साथ चलते रहेंगे । एक वह जो सामान्य विकास है, जिसे पश्चिम अपने तरीके से आगे बढ़ा रहा है, दूसरा वह जो शास्त्रों में वर्णित है, लेकिन मिसिंग लिंक्स के कारण हम उनका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं ....
 कौशलेन्द्रम -  जगत का सिद्धांत ही दो परस्पर विरोधी शक्तियों /  विचारों पर आधारित है । सभ्यता में उत्थान-पतन दोनो ही होते रहते हैं । मनुष्य का स्वभाव विगत से सीखने का कम और प्रयोग में अधिक होता है । सभ्यताओं के उत्थान-पतन का यही कारण है । पुरानी पीढ़ी के अनुभवों से नयी पीढ़ियाँ उतना नहीं सीख पातीं ... जितनी कि अपेक्षा होती है । वे प्रयोग करती हैं .... और प्रयोगों में फ़ाल्स निगेटिव और फ़ाल्स पॉज़िटिव परिणाम आने की सम्भावनायें होती हैं । 
            जी ! बिल्कुल ... रातोरात किसी को ब्रह्म ज्ञान प्राप्त नहीं होता ..... यह सीखने की प्रक्रिया का उच्चतम परिणाम है । हमारे देश में प्राचीन विद्वानों ने ज्ञान और विज्ञान के सूक्ष्म अंतर को समझने का प्रयास किया था । सम्भावनाओं की कोटि को जिसने जितनी अच्छी तरह समझ लिया उसने उतना ही उच्च ज्ञान प्राप्त किया । ....और यह भी कि इस ज्ञान का लोककल्याणकारी कार्यों में कितना और कैसा उपयोग किया जाना चाहिये ।


रविवार, 25 जनवरी 2015

सरस्वतीवन्दना पर सियासत

  
       वसंतपंचमी के अवसर पर गुजरात सरकार ने विद्यालयों में सरस्वती वन्दना कराये जाने का आदेश ज्ञापित किया और सियासत शुरू हो गयी । कांग्रेस ने कहा कि यह अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर आक्रमण है । अन्य विरोधियों ने कहा कि यह हिंदुत्व को बढ़ावा देने का अनुचित प्रयास है ।
        मैं इसे एक गम्भीर वैचारिक शून्यता मानता हूँ । विद्या की देवी सरस्वती की वन्दना विद्यालयों में नहीं होगी तो और कहाँ होगी ? हमें ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये जबकि हम उसके प्रति उच्छ्रंखल होने की वकालत कर रहे हैं । यह एक विघटनकारी आतंकी सोच है । मुझे समझ में नहीं आता कि असहिष्णुता का ऐसा संदेश देकर ये नेतागण देश में किस प्रकार का वैचारिक बीजारोपण कर रहे हैं ? यह एक मूर्खतापूर्ण वक्तव्य है कि सरस्वती वन्दना से किसी के अधिकारों पर आक्रमण हो जायेगा । बल्कि इस विषाक्त सोच से भारतीय संस्कृति पर आक्रमण करने का प्रयास किया गया है । जहाँ तक हिंदुत्व को बढ़ावा देने की बात है तो इसमें दो बातें हैं 1- अपनी परम्परा और संस्कृति का पालन एक करणीय कर्तव्य है इसमें बढ़ावा देने की बात कहाँ से आ गयी ? 2- हिंदुत्व के बढ़ावा को किसी आतंकी घटना की तरह प्रस्तुत किये जाने की यह विषाक्त मानसिकता भारत के अस्तित्व के लिये घातक है ।
        अल्पसंख्यक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने की निरंकुश होती जा रही निकृष्ट घटनाओं से समाज में विघटनकारी गतिविधियों को बढ़ावा मिलता है । यह किसी देश के अन्दर एक समानांतर व्यवस्था स्थापित करने का छल है जिसके परिणाम भारत की सम्प्रभुता के लिये शुभ नहीं होंगे इसलिये भारत की उत्कृष्ट सांस्कृतिक परम्पराओं को प्रदूषित करने की सियासी मानसिकता पर अंकुश लगाने के लिये भारत के सर्वोच्च न्यायालय को संज्ञान लेना चाहिये । 

स्वास्थ्य और योगा

  
       आजकल हमारे देश में ‘योगा’ एवं ‘मंत्रा’ की आँधी चल रही है । हर गली-मोहल्ले में योगा एवं मंत्रा के स्वयंभू आचार्य शालेय छात्रों का कल्याण करने के परोपकार में लगे हुये हैं । इन आचार्यों को लोगों के स्वास्थ्य की बहुत चिंता है इसलिये उनके हर विषय स्वास्थ्य से न केवल स्वतः जुड़ जाते हैं अपितु स्वास्थ्य के अचूक नुस्खे भी बन जाते हैं ।
       
       अभी तक मैं शालेय छात्रों के मुंह से “....तरंगा .... बंगा” वाला राष्ट्रगान सुनकर अध्यापकों से हुयी सम्भाषाओं में प्रायः असफलता का सामना करता रहा हूँ जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप मेरे मन में ऐसे शिक्षकों के प्रति असम्मान का भाव उत्पन्न हुआ है । ऊपर से इन स्वयम्भू योगाचार्यों और मंत्राचार्यों की ऊटपटाँग हरकतों ने आग में घी डालने का कार्य किया है । मंत्रों के तीव्र उच्चारण की शक्ति से शरीर के स्वस्थ्य हो जाने का दावा करने वाले आधुनिक विद्वान संस्कृत के मंत्रों का इतना अशुद्ध उच्चारण करते हैं कि मेरे जैसे व्यक्ति को वहाँ से चले ही जाने में भलायी नज़र आती है । ये विद्वान इतने हठी और अहंकारी होते हैं कि किसी की तार्किक बात को भी सुनना पसन्द नहीं करते । भारतीय समाज में इस तरह का सांस्कृतिक प्रदूषण करने के लिये कौन उन्हें प्रेरित करता है ? योग और मंत्र के नाम पर किसने इन कुपात्रों को योगाचार्य का दायित्व सौंप दिया है ?

       महर्षि पतञ्जलि ने कभी यह सोचा भी नहीं होगा कि “योगश्चित्तवृत्ति निरोधः” से प्रारम्भ होने वाले योग दर्शन के प्रथम सूत्र की धज्जियाँ उड़ाते हुये स्वयंभू आचार्य इसे “पहलवानी व्यायाम” में रूपांतरित कर देंगे । भारत का योग अब योगा बनकर व्यायाम में रूपांतरित हो गया है । दिन भर दुकान में व्यवसाय करने वाले आठवीं पास व्यापारियों ने सुबह-सुबह अंशकालिक योगाचार्य बनकर हमारी आने वाली पीढ़ी के समक्ष योग की शास्त्रोक्त अवधारणा का संकट उत्पन्न कर दिया है । मैं इन्हें उसी रूप में लेता हूँ जैसे गणेशपूजा, लक्ष्मीपूजा और सरस्वतीपूजा के सामूहिक समारोहों में इन दैवीय शक्तियों की ऐसी-तैसी करने के लिये मोहल्ले के गुण्डे पूजा-अर्चना करने के लिये ज़बरन ठेकेदार बन कर प्रकट हो जाते हैं ।  

         यह अत्यंत दुःखद है कि भारतीय संस्कृति से खिलवाड़ कर उसे विकृत करने का निरंकुश कार्य पूर्ण महिमामण्डन के साथ चल रहा है और हम कुछ कर पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं । 

शनिवार, 24 जनवरी 2015

इतनी सी ही चाहत



लड़की के लिये उस गीत की एक ही पंक्ति काफी थी घण्टों सपनों में खोये रहने के लिये । सुनने में यह बात अतिशयोक्ति सी लग सकती है किंतु बात है बिल्कुल सच्ची ।  जब वह चरवाहा ऊँचे सुर में गाता – हाली-हाली चलऽ रे कहंरवा सुरज डुबे न दिहऽ ........तो लड़की की आँखें देखने लगतीं कि चार कहाँर अपने काँधों पर डोली उठाये धूल भरे पाँवों से बटहा-बटहा होते हुये ज़ल्दी-ज़ल्दी चले जा रहे हैं । बटहा के दोनो ओर पतार होती .....तलवार जैसे पत्तों वाली पतार । वह डोली को कभी सामने से देखती, कभी पीछे से तो कभी आगे से । पसीने से लथपथ कहाँर बीच-बीच में काँधा बदलने के लिये एक पल को ठहरते फिर चल पड़ते । सूरज डूबने से पहले उन्हें दुलहन को सुरक्षित पहुँचाना है उसकी ससुराल । लड़की सपनों में खोये-खोये देखती कि रास्ते में हर कोस पर वे सुस्ताने के लिये ठहरते ....डोली ज़मीन पर उतारते फिर तनिक दूर बैठकर चिलम भरते ....दो-दो फूँक मारकर वे फिर चल पड़ते । चलने से पहले अधेड़ कहाँर डोली की ओर मुँह करके दुलहन से पूछता – पियास तऽ न लागल बा नू .....लागी तऽ बऽतइहऽ ...पनिया ला देब ....। 
लड़की बन्द डोली के अन्दर गठरी बनी बैठी दुलहनिया को भी अपनी आँखों से देख सकती थी ....यहाँ तक कि दुलहन की उम्र, उसका रंग और उसकी साड़ी भी । उसकी दिव्य आँखें बहुत कुछ देख सकती थीं ।  उसका जब मन होता तो वह दुलहन से हँस कर बात भी कर लेती और ठिठोली भी ।

लड़की ने अपने गाँव के कहाँर के बरामदे में दीवाल पर बड़ी सी खूँटियों पर डोली को अलग-अलग हिस्सों में टंगे हुये देखा था । कहाँर अब सेठ हो गया था और डोली की प्रथा अब केवल गीतों में ही रह गयी थी इसलिये दुलहन की डोली अतीत के किस्सों में समा चुकी थी ।
लड़की सोचती, काश ! ज़माना थोड़ा सा पलट जाता तो वह डोली में बैठकर ससुराल जा पाती । उसकी बुआ ने बताया था कि वह सत्रह कोस दूर अपनी ससुराल गयी थी डोली में, वह भी एक बार नहीं दो-दो बार । एक बार शादी के बाद गौने में, फिर एक बार रौने में । अब तो गौना-रौना सब सिरा गया ....कल को कहीं ब्याह भी न सिरा जाय । वह हँस पड़ती ....ब्याह भी सिरा जायेगा तो फिर क्या होगा ?
चरवाहे के सुर में कुछ ऐसा था कि कल्पना में खोये-खोये लड़की की आँख़ें भींग जातीं । गीत के ये बोल - हाली-हाली चलऽ रे कहंरवा सुरज डुबे न दिहऽ ........ लड़की को न जाने कितने भाव दे जाते ।

लड़की अब बड़ी हो गयी है, गाँव के लड़के उसे लक्ष्य कर गाना गाने लगे हैं – गोरकी पतरकी रे मारे गुलेलवा जियरा उड़ि-उड़ि जाय ......। घर वालों को उसके हाथ पीले करने की चिंता सताने लगी है ....और लड़की है कि आज फिर जामुन पर चढ़ते समय सलवार फ़ाड़ लायी । दादी को उसकी इन मर्दानी हरकतों से चिंता होने लगती । दादी अपनी चिंता से अपने बेटे को अवगत करातीं, कहतीं - लड़की में अभी तक बचपना है, पता नहीं कब सयानी होगी । बेटा बात को हवामें उड़ा देता, कहता – अरे अम्मा आजकल तो लड़कियाँ अंतरीक्ष की सैर कर रही हैं, अपनी बिटिया तो केवल आम-जामुन पर ही चढ़ती है ।

आख़िर एक दिन लड़की के भी हाथ पीले हो गये । वह भी ससुराल गयी ....लेकिन डोली का सपना पूरा नहीं हो सका उसका । देवरिया से मुम्बई तक कोई डोली से जा सकता है भला ! लड़की का सपना चूर-चूर हो गया ...न धूल भरा बटहा ....न कहीं तालाब ...न कहीं गन्ने के खेत .....न कहीं पतार ....। रास्ते में पानी के लिये पूछने वाला कोई कहाँर भी नहीं । ट्रेन में थर्मस आगे बढ़ाते हुये लड़के ने ज़रूर पूछा था – पानी ? लेकिन इस पूछने और कहाँर के पूछने में फ़र्क है । लड़की के सपने चूर-चूर होते जा रहे थे । 


लड़की को मुम्बई में तनिक भी अच्छा नहीं लगा । बनावटी ज़िन्दगी में उलझे लोग ..... भागम-भाग करते लोग ....। किसी के पास तनिक भी वक्त नहीं होता था । लड़की का दुल्हा एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से था जो न पूरी तरह आधुनिक था और न पूरी तरह पुरातन । लड़की को गुरू जी की बात याद आयी, वे कहते थे कि समाज का यह वर्ग बड़ा ख़तरनाक होता है । 




लड़का जब फेरी लगाने चला जाता और लड़की को घर के कामकाज से तनिक फुर्सत मिल पाती तो उसके कानों में चरवाहे का गीत जीवंत हो उठता .....बिल्कुल ताज़े-ताज़े ...जीवंत सुर, गोया चरवाहा यहीं कहीं गा रहा हो - हाली-हाली चलऽ रे कहंरवा सुरज डुबे न दिहऽ ....। लड़की का मन मचल उठता कि वह भाग कर चली जाय अपने गाँव ....जा कर कहे चरवाहे से कि हाँ अब गाओ ....।
लड़की सपनों में खो जाना चाहती थी, बस्स इतनी सी ही चाहत ......सपनों में खो जाने की चाहत । सास की चाहत लड़की की चाहत से बड़ी थी .....इतनी बड़ी कि लड़की के बाबू उसे पूरा नहीं कर सकते थे । सास, जो कभी ख़ुद भी लड़की थी .......दुनियादारी के मुलम्मे में ज़हरीली हो गयी थी । लड़की में उसके ज़हर को पचाने की ताकत नहीं थी ।


एक दिन सबने सुना कि रात की लोकल ट्रेन से दोनो वापस लौट रहे थे कि लड़की का पैर फिसल गया और वह ट्रेन के नीचे आ गयी । नयी बहू की मौत के ऐसे किस्सों पर कोई यकीन नहीं करता फिर भी भारतीय समाज में ऐसे किस्से गढ़े जाते रहे हैं ...गढ़े जाते रहेंगे । दुनिया उसी तरह चलती रही ...पहले की तरह .....। हाँ, देवरिया के उस छोटे से गाँव में अब वह चरवाहा चाह कर भी कोई गीत नहीं गा पाता ।