सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

समाधान




कामदेव के प्रासाद में उनके भक्तों की भीड़ लगी रहती । लोग अपनी कामसमस्याओं के साथ आते और संतुष्ट होकर जाते । कोई कामकला के ज्ञान की पिपासा लिये आता तो कोई कामवर्धक औषधि के लिये । कामदेव की व्यस्तता का कोई अंत नहीं ।

लोगों की भीड़ तो रति के चारो ओर भी लगी रहती तथापि आराधकों को लेकर उनके मन में सदा एक परिवाद बना ही रहता । रति के पास स्त्री आराधकों का अभाव था । वे सोचतीं – क्या पुरुषों की तरह स्त्रियों की कामविषयक कोई समस्यायें नहीं होतीं ?   

कामदेव अपने आराधकों की समस्याओं का समाधान करते तो रति को उनके सहयोग के लिये उपस्थित रहना होता । रति को सन्देह होता कि इस समस्त अनुष्ठान में उनकी भूमिका क्या मात्र एक उपकरण भर की ही है ? अर्धनारीश्वर के अस्तित्व में स्त्री भी उतनी ही महत्वपूर्ण क्यों नहीं है जितना कि कोई पुरुष ?

एक दिन रति से नहीं गया तो उन्होंने एक स्त्री से पूछ ही दिया – “क्या आप अपने पति की कामक्रीड़ा से संतुष्ट हैं ?”  
वह एक ग्रामीण स्त्री थी, उसने घबरा कर अपना घूँघट और लम्बा किया और लगभग दौड़ती हुयी सी घर के भीतर चली गयी ।
रति को आश्चर्य हुआ, उन्होंने सोचा - प्रश्न से इतनी घबरा क्यों गयी स्त्री ?
वे दूसरी स्त्री के पास गयीं, रति के प्रश्न से दूसरी स्त्री भी बिना कोई उत्तर दिये वहाँ से चली गयी ।
रति तीसरी, चौथी, पाँचवी ...........कई स्त्रियों के पास गयीं । किसी भी स्त्री ने उनके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया । कोई प्रश्न सुनकर घबरा जाती, कोई मुस्कराकर चलती बनती, कोई भृकुटि टेढ़ी कर कहती –निर्लज्ज कहीं की ! तो कोई प्रतिप्रश्न करती– यह भी भला कोई कहने-पूछने का विषय है ?

रति की समस्या और भी बढ़ गयी । उन्होंने सोचा – क्या सचमुच ही स्त्रियों की कोई कामसमस्या नहीं है ।
रति निराश हो उठी थीं कि तभी एक वृद्धा स्त्री ने मुस्कराते हुये उनसे कहा – “आप किसी नगरवधू से क्यों नहीं पूछ लेतीं ?”
रति को आशा की एक किरण दिखायी दी, वे नगरवधुओं के टोले में जा पहुँचीं । उन्होंने पूछा- “काम व्यापार में पुरुष की कामाग्नि शांत करते हुये आपकी अपनी काम स्थिति कैसी होती है ? क्या देह क्रय करने वाले कामीपुरुष आपकी भी कामाग्नि शांत कर पाते हैं ?”
चतुरा नगरवधू ने उत्तर दिया – “देवी ! इस व्यापार में दोनो ही पक्ष निष्ठापूर्वक अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं” ।
रति ने उत्साहपूर्वक पूछा –   “......अर्थात् पुरुष आपकी काम आवश्यकता पूरी कर पाते हैं, यही न !”  
नगरवधू बोली – “मैंने ऐसा तो नहीं कहा देवी ! हम पुरुष की वाँछना पूर्ण करती हैं जिसका वे हमें निर्धारित मूल्य देते हैं । हमारे व्यापार की सीमायें ग्राहक की संतुष्टि के साथ ही समाप्त हो जाती हैं । रही बात हमारी कामेच्छा पूर्ति की, तो उसके लिये ........”
नगरवधू ने वाक्य पूरा नहीं किया तो रति को पूछना पड़ा – “बताइये न ! ...उसके लिये ...?”
नगरवधू ने एक गहरा निःश्वास छोड़ते हुये अधूरा वाक्य पूरा किया – “......उसके लिये तो हमें भी पुरुष की कृपा पर निर्भर रहना पड़ता है” ।  

नगरवधू के उत्तर से निराश अनमनी रति समुद्र के किनारे विचरण कर रही थीं कि तभी उन्हें कुछ कोलाहल सा सुनायी दिया । कहीं दूर किसी स्त्री-पुरुष के आपसी वाक्युद्ध का सा आभास होते ही स्त्री सुलभ उत्सुकता में रति कोलाहल की दिशा में चल पड़ीं ।
समुद्र के किनारे बनी, उच्चमूल्य पर उपलब्ध एक आधुनिक हट में एक स्त्री चीख रही थी, उसका क्लांत सा प्रतीत होने वाला पति एक कोने में रखे आसन पर बैठा बीच-बीच में कुछ प्रतिवाद करता तो स्त्री की चीख और भी बढ़ जाती । शीघ्र ही रति को समझ में आ गया कि विवाद का कारण स्त्री की यौन असंतुष्टि है ।
वे एक सम्पन्न दम्पति थे और अपने नगर से दूर समुद्रतट पर विचरण हेतु आये हुये थे । पुरुष स्त्री की कामेच्छा पूरी कर सकने में असमर्थ था जिसके समाधानस्वरूप स्त्री ने जिगोलो की सेवायें लेनी प्रारम्भ कर दी थीं । पति नहीं चाहता था कि उसकी पत्नी किसी जिगोलो की सेवायें प्राप्त करे ।
निढाल से हुये पुरुष ने कहा – “यह अनैतिक है और समाज इसकी स्वीकृति नहीं देता । तुम्हें समझना होगा, यह भारत है और यहाँ का समाज स्त्री को यह सब करने की स्वतंत्रता नहीं देता ।“
स्त्री चीखी – “हाँ..हाँ, स्वीकृति-अस्वीकृति के सारे अधिकार पुरुष ने हथिया जो लिये हैं । स्त्री को स्वीकृति कौन देगा ? क्या नगरवधू के यहाँ जाने से पहले पुरुष अपनी स्त्री से स्वीकृति प्राप्त करता है ? पुरुष और स्त्री के लिये ये पृथक मापदण्ड बनाने वाला कौन है ? कौन निर्धारक है इस सबका ? यदि केवल पुरुष ही ........ तो मैं उसके एकाधिकार को स्वीकार नहीं करती । हमारी एक समान आवश्यकतायें हैं ...हमारे एक समान अधिकार भी होने चाहिये । नैतिकता और अनैतिकता के मापदण्डों में स्त्री-पुरुष के मध्य यह पक्षपात अनैतिक है । समाज में प्रच्छन्न ही सही किंतु यदि नगरवधू स्वीकार्य है तो जिगोलो क्यों नही हो सकते ?”
पुरुष ने शांत होते हुये कहा – “काम की सीमायें अनन्त हो सकती हैं किंतु दाम्पत्य जीवन की सीमायें निर्धारित हैं । सभ्य समाज इन सीमाओं के सम्मान की अपेक्षा करता है । यह अपेक्षा जब पूर्ण नहीं हो पाती तो दाम्पत्य जीवन को टूटना और बिखरना होता है ।“   
स्त्री ने गम्भीर होते हुये कहा – “आप हमें धमकी दे रहे हैं ? .....बिना यह विचार किये हुये कि पुरुष की तरह ही स्त्री की भी आवश्यकतायें हैं । पुरुष अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये नीति,नियम और व्यवस्थायें गढ़ सकता है तो स्त्री को ही उससे वंचित क्यों रखना चाहता है ? क्या यह स्त्री के प्रति अत्याचार नहीं है .......?”
विवाद समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा था तो रति से रहा नहीं गया, वे उनके समक्ष साक्षात हुयीं, बोलीं – “निश्चित ही ....किसी भी स्त्री को वही सारे अधिकार प्राप्त हैं जो किसी पुरुष को । विधाता ने किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं किया है ।“
स्त्री ने आश्चर्य से रति की ओर देखकर पूछा – “आप कौन ?”
“रति ....मैं रति हूँ ।“ – रति ने उत्तर दिया ।
स्त्री ने पुरुष की ओर विजयी मुस्कान से देखा फिर बोली – “सुना ? सुना आपने ? रति क्या कह रही हैं ?”
पुरुष चुप रहा, उत्तर रति ने दिया – “नगरवधू पुरुष समाज की अहंकारिक व्यवस्था का भाग है तो जिगोलो स्त्री समाज की”।
पुरुष ने हर्ष मिश्रित आश्चर्य से रति की ओर देखा । स्त्री जैसे आकाश से धरती पर आ गिरी हो, उसने प्रतिवाद किया – “किंतु सभ्य समाज की स्थापना के समय से ही पुरुषों ने अपने लिये वैकल्पिक व्यवस्थायें बना रखी हैं । उन पर अंगुली भले ही उठती रही हो किंतु कामव्यापार को रोका भी तो नहीं जा सका कभी । क्या यह पक्षपात नहीं है ?”  
रति ने बड़े ही धैर्य से उत्तर दिया- “किंतु कोई विकल्प कभी समाधान का स्थान नहीं ले पाता । आपको समाधान के बारे में विचार करना चाहिये न कि विकल्प के बारे में !”
स्त्री को आश्चर्य हुआ – “समाधान ! क्या है हमारी समस्या का समाधान ? आप ही बताइये भला !”
रति ने कहा – “हमारी काम समस्यायों का समाधान स्वयं हमारे पास ही होता है कहीं अन्यत्र नहीं । स्त्री-पुरुष मिलकर समाधान खोजें तो इसकी प्राप्ति सहज है किंतु किसी एक पक्ष के लिये दुरूह । स्त्रियों को अपने पति के समक्ष मुखरित हो समस्या को सावधानी से चिन्हित कर आगे बढ़ना चाहिये, समाधान हो जायेगा । कामक्रीड़ा के क्षणों में स्वार्थी हो जाना ही दूसरे के आनन्दातिरेक का बाधक तत्व है । दोनो पक्ष यदि अपने लिये नहीं बल्कि दूसरे के लिये काम करें तो आनन्दातिरेक की प्राप्ति से कोई स्त्री कभी वंचित नहीं हो सकती ।  ध्यान रखिये काम एक कला भी है और एक विज्ञान भी । इसमें पारंगत होने की अपेक्षा है” ।
इतना कहकर रति अदृश्य हो गयीं ।
स्त्री कुछ देर शांत बैठी रही फिर उठकर पति का हाथ पकड़कर बोली – “वर्षा होने वाली है .....हम तट पर चलें ....”

अब तक सहज हो चुके पुरुष ने आत्मविश्वास से भरकर मुस्कराते हुये स्त्री की केशराशि को सहलाया, फिर कहा – “चलो !”    

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.