सोमवार, 23 मार्च 2015

राक्षस


3D image of influenza virus 

हम राक्षसों से घिरे हुये हैं
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       और हमने उनसे निपटने की पुरातन परम्पराओं को विस्मृत कर दिया है जबकि नये उपाय अभी प्रयोग के स्तर पर हैं और वे परम्परा बन पाने की स्थिति में कभी हो भी नहीं पायेंगे ।

     भारतीय वाङ्गमय के अनुसार रूप परिवर्तन में दक्षता, छलिया स्वभाव, अन्धकारप्रियता, रक्त और मांसभोजित्व, दूसरों के धर्म को नष्ट करने की प्रवृत्ति आदि गुण राक्षसों के कहे गये हैं । राक्षसत्व एक स्वभाव है, यह स्वभाव जिस भी किसी जीव में होगा वह राक्षसीवृत्ति का ही होगा । ध्यान से विचार कीजिये तो आप पायेंगे कि ठीक यही गुण विषाणुओं (वायरस) और कुछ जीवाणुओं में भी पाये जाते हैं ।

         वायरस अपना रूपपरिवर्तन करने में असाधारणरूप से दक्ष होते हैं यहाँ तक कि ये अपनी नयी बिरादरी तक पैदा कर सकने की क्षमता रखते हैं । इस अद्भुत क्षमता को ‘म्यूटेशन’ कहा जाता है । म्यूटेशन के माध्यम से ये अपने कई स्ट्रेन पैदा कर लेते हैं जिनकी राक्षसी क्षमतायें कुछ भिन्न प्रकार की किंतु पूर्वापेक्षा और भी घातक होती हैं । एण्टीवायरल दवाइयाँ इन नये स्ट्रेंस को पहचान पाने में असमर्थ होती हैं जिसके कारण इनका वध कर पाना चिकित्सकों की सेना के लिये असम्भव हो जाता है । जिस तरह देवगणों को राक्षसों से पराजित होकर नये अस्त्र-शस्त्र पाने के लिये शिव की तपस्या करनी पड़ती थी उसी तरह चिकित्सकों को वैज्ञानिकों की शरण में जाना पड़ता है । आविष्कार की एक लम्बी तपस्या के बाद वैज्ञानिक नये अस्त्र-शस्त्र के रूप में एक नया एण्टीवायरल प्रदान करते हैं और उसके प्रयोग की सम्यक विधि बताने के साथ-साथ उसके दुरुपयोग के प्रति सावधान भी करते हैं किंतु जैसा कि सदा से होता आया है देवतागण विजय पाने के बाद मद में चूर और सुविधाभोगी हो जाते हैं जिसका लाभ उठाते हुये कुछ काल के बाद छलिया और रूप बदलने में दक्ष राक्षस पुनः आक्रमण कर देते हैं । पुराणों की यह कहानी आज भी निरंतर घटित हो रही है ।

        मनुष्य को कष्ट देने वाले कई माइक्रोब्स निशाचरों की तरह रात में सक्रिय होते हैं । रक्त और मांसप्रेमी इन वायरस लोगों के भी दो धार्मिक समूह हैं । एक समूह “लिटिक धर्म” का तो दूसरा समूह “लिसिस धर्म” का अनुयायी होता है । इनके ये धर्म इनकी जीवनशैली और संतति पैदा करने के तरीकों से पृथक-पृथक परिलक्षित होते हैं । इनमें से एक ख़ूनख़राबे का शौकीन है तो दूसरा विस्तारवाद का ।  ये अपने वारिस पैदा करने के लिये अपने-अपने धर्म के अनुरूप दो अलग-अलग तरीके अपनाते हैं । एक तरीका है अपने मेज़बान का घर तबाह करके और दूसरा है मेज़बान का धर्मपरिवर्तन करके । पहली प्रक्रिया ‘लिटिक’ धर्म  और दूसरी ‘लिसिस’ धर्म के नाम से जानी जाती है ।
       
        लिटिकधर्म के वायरस लोग अपने जीवनयापन और संतति उत्पादन के लिये मेज़बान कोशिकाओं पर आक्रमण कर अपना अधिकार कर लेते हैं और अपने सारे उद्देश्य पूर्ण कर लेने के पश्चात् जब वहाँ से प्रस्थान करते हैं तो मेज़बान कोशिका को बिस्फ़ोट से उड़ा देते हैं । अहसानफ़रामोश इन वायरस लोगों द्वारा किये जाने वाले इस घातक काण्ड के कारण ही इस प्रक्रिया को वायरोलॉज़ी की भाषा में ‘लिटिक’ प्रक्रिया के नाम से जाना जाता है । इस प्रकार के वायरस सैद्धांतिकरूप से कहीं अधिक कट्टर और ख़ूनख़राबे में विश्वास करने वाले होते हैं इसलिये ये अपनी मेज़बान कोशिकाओं का भरपूर उपयोग तो करते हैं किंतु उनके डी.एन.ए. से छेड़छाड़ नहीं करते । हिंसा के शिखर तक पहुँचने वाले ये वायरस विस्तारवादी नहीं होते इसलिये प्रायः जेनेटिक धर्मपरिवर्तन में यकीन नहीं रखते । यद्यपि पाया यह भी गया है कि इनकी सैद्धांतिक कट्टरता कभी-कभी शिथिल हो जाती है और ये ‘लिसिस’ धर्म के अनुयायी हो जाते हैं । इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि राक्षसों पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता । इन पर भरोसा करना स्वयं को संकट में डालना है ।  

        दूसरे प्रकार के वायरस ख़ुद को शरीफ़ प्रदर्शित करते हैं लेकिन वास्तव में होते बहुत ग़ुस्ताख़ हैं । यूँ तो ये ख़ुद को भाईचारे के सिद्धांत में विश्वास करने वाला प्रदर्शित करते हैं और अपने मेज़बान की कोशिका के साथ बड़ी मोहब्बत का प्रदर्शन करते हुये उनके डी.एन.ए. से शादी रचा लेते हैं । ये राक्षस अपने मेज़बान की कोशिकाओं को नष्ट नहीं करने के कारण ख़ुद को भाईचारे वाला और रचनात्मक होने का दावा करते हैं,  जिसके कारण इनके दावे की घोषणा को ‘लिसिस’ के नाम से जाना जाता है । लेकिन देखा जाय तो उनका यह भाईचारे का सिद्धांत वास्तव में छल से भरा हुआ है । डी.एन.ए. से शादी रचाते समय ये छलिया वायरस लोग मेज़बान कोशिका का धर्म परिवर्तन कर देते हैं । दुष्ट वायरस लोगों द्वारा अपने मेज़बान  कोशिकाओं का इस तरह छलपूर्वक धर्मपरिवर्तन किया जाना चिकित्साविज्ञान की दृष्टि से गम्भीर पैथोलॉजिकल षड्यंत्र को जन्म देता है । इस प्रक्रिया में वायरस अपने मेज़बान की कोशिका को विस्फ़ोट से नष्ट तो नहीं करते किंतु उसकी जैविक पहचान ज़रूर समात कर देते हैं । इन मेज़बान कोशिकाओं की नयी जैविक पहचान में वायरस की पहचान शामिल होती है, ये नयी कोशिकायें वायरस लोगों की भाषा बोलने लगती हैं और इनका नया धर्म पूरी तरह राक्षसीधर्म हो जाता है ।


          सुना है कि राक्षसों की संख्या सदा ही देवों की अपेक्षा बहुत अधिक रही है । याह आज भी सच है, वायरस हमारे चारो ओर हैं । हम वायरस लोगों से घिरे हुये हैं अर्थात हम राक्षसों के बीच जीने के लिये बाध्य हैं । हमें अपने अस्तित्व को बचाने के लिये निरापद उपाय खोजने हैं जो निश्चित ही एण्टीवायरल श्रेणी में नहीं आते । एण्टीवायरल तो शिव जी का देवताओं को प्रदत्त वह अस्त्र है जो केवल एक बार ही प्रयुक्त किया जा सकता । फ़िलहाल हमारे पास केवल दो ही उपाय हैं – एक तो यह कि हम राक्षसों के आक्रमण से स्वयं को यथासम्भव बचायें, और दूसरा यह कि हम स्वयं को अधिक क्षमतावान बनायें । पहला उपाय प्रीवेण्टिव एण्ड सोशल मेडिसिन का विषय है जिसके अंतर्गत हमें पर्सनल एण्ड कम्युनिटी हायज़िन की विधियों का सम्मान करना होगा जबकि दूसरे उपाय के अंतर्गत हमें अपने शरीर के आभ्यंतर परिवेश को अधिक रोगक्षमत्व से पूर्ण बनाने के लिये अपनी जीवनशैली में वैज्ञानिक दृष्ट्या महत्वपूर्ण परिवर्तन करने होंगे । और इन सबके लिये हमें पञ्चम वेद यानी आयुर्वेद की शरण में जाना होगा ।

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