बुधवार, 29 अप्रैल 2015

धरती कभी सपाट नहीं थी


ज़िन्दगी निगलती धरती


धरती निगलता समन्दर


ज़िन्दगी निगलती धरती,
धरती निगलता समन्दर,
दरक-दरक भरभराते पहाड़
और रो-रो कर बहते ग्लेशियर !
यही है हमारी विकास यात्रा !
इस विकास यात्रा में
हमने की जीभर मनमानी
तोड़ते रहे प्रकृति के नियम
बनाते रहे अपने क़ायदे 
और होते रहे उच्छ्रंखल
विधाता के प्रति ।
इस बीच
एक दिन थर्रा उठा नेपाल
घूमने लगा
सगरमाथा का माथा ।
उधर
प्रशांत महासागर में
डूबता जा रहा है किरिबाती
विकास की
यही होनी है परिणति । 
हम
फिर उधर ही जा रहे हैं
जहाँ से चले थे ।
धरती कभी सपाट नहीं थी

आज भी नहीं है ।  

सोमवार, 27 अप्रैल 2015

ये धरती नाराज़ है हमसे


कहीं निगलती
कहीं उगलती
कहीं भयभीत करती है
ये धरती
आज हमसे यूँ परिहास करती है ।
चिढ़ाते तो आये हैं
हम भी उसे जी भर
आज वह चिढ़कर हमें
जी भर चिढ़ाती है ।
ये धरती बहुत रोती रही
हमारे पाप के कारण
खीझ कर वह भी कभी
काली का रूप धरती है ।
संभल जाओ
अभी भी वक़्त है बाकी  
जीने दो धरती को भी   
न दो अब और विष उसको
कि हमारे लोभ के विष से

वह भी रोज मरती है ।  

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

राम की राह पर स्वामी !


हे स्वामी !
तुम्हें आह लगेगी
उन कन्यायों की
जिनके साथ
आस्था के नाम पर छल करते हुये
यौनदुष्कर्म करने का 
अभ्यस्त रहा है एक ढोंगी संत ।
ढोंगी संत के संकेत पर
उसके पाखण्डी शिष्य
हत्या कर देते हैं साक्षियों की ....
उन साक्षियों की हत्या
जो कूद पड़ते हैं मैदान में
अपनी अंतरात्मा की पुकार पर
दिलाने के लिये न्याय
उन मातृशक्तियों को
जिनकी दुहाई देते रहें हैं आप
भारतीय संस्कृति के नाम पर ।  
और आज
पाला बदलकर जा रहे हैं आप
करने के लिये पैरवी
उसी अपराधी की
ताकि हो सके कारावास से मुक्त
एक पापी ....
एक ढोंगी संत ।
भारतीय संस्कृति का
यह कौन सा आदर्श है ?
माना कि आपकी पार्टी के
जेठे सदस्य की मलिन बुद्धि
पापियों और ख़तरनाक अपराधियों की पैरवी के लिये
सदा मचलती रही है
किंतु उस पापमार्ग पर चलने के लिये
आपके साथ कौन सी विवशता है ?  

एक असफल प्रयोग


यह एक एक्स्पेरीमेण्ट था  ,,,,,
जो असफल हो गया ।

      नये-नये शोधकर्ता ने बड़े उत्साह में अल्बीनो रैट को ज़हर की थोड़ी-थोड़ी ख़ुराक रोज देने का फ़ैसला किया था । उद्देश्य था ......यह जानना कि ज़हर की कितनी न्यूनतम मात्रा के अभ्यास से अल्बीनो रैट्स ख़ूबसूरत विषकन्या में तब्दील हो सकते हैं ।
किंतु दुर्भाग्य ! कि ज़हर की न्यूनतम पहली ख़ुराक ने ही अभागे रैट पर अपना लीथल इफ़ेक्ट डालकर अपने धर्म का पालन किया ।
      अल्बीनो रैट अब इस दुनिया में नहीं है । वह मर गया  ......पता नहीं अपनी मौत मरा या  .....या मार दिया गया ? शायद वह शहीद हो गया है  .......शायद उसे यह भरोसा दिलाया गया था कि वह एक ख़ूबसूरत विषकन्या में तब्दील हो जायेगा ........
.....और उसे अगली बार पार्टी से टिकट मिल जायेगा ।
किंतु दुर्भाग्य से प्रयोग असफल रहा ..........एक बेहद घटिया प्रयोग असफल हो गया ।
सदा मौन रहने वाले प्रेक्षकों ने इस प्रयोग से निष्कर्ष निकाला .......
     
       ”एक आम जब सामूहिक आम का शुभचिंतक होने का ख़्वाब देखता है तो वह आम नहीं रह जाया करता ...एक आम होते-होते वह ख़ास हो जाया करता है ।
एक आम का ख़ास हो जाना और फिर किसी आम को अल्बीनो रैट बना देना लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे ग़ुस्ताख़ सच है ।

      और अंत में यह भी बता दूँ कि वह अल्बीनो रैट एक ग़रीब किसान था .....कि वह एक ग़रीब किसान नहीं था .......कि वह साफा बाँधने का धन्धा करता था .... कि वह एक महत्वाकांक्षी आम था .......कि उसके साथ धोखा हुआ था ....कि उसने सचमुच में मर कर स्क्रिप्ट को सौ टका जी कर दिखा दिया है ।
स्क्रिप्ट को इस हद तक जीना ...........
उफ़ !
यह कैसी दीवानगी थी ......
नहीं .........मुझे गुस्सा है उस स्क्रिप्ट पर ....उसे लिखने वाले पर ।
मुझे वक्ष में कुछ भारी सा लगने लगा है  ..और मेरी आँखों ने अपने खारे पानी में उस स्क्रिप्ट को डुबोकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया है ।

हे बेशर्मो ! अब दोबारा ऐसी कोई स्क्रिप्ट मत लिखना ।     

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

मूल्यों का अवमूल्यन और आत्ममंथन



     गंगाराम मुक्त हो गया है ...गंगा के प्रति आस्था के दिव्य भाव से भी और राम की मर्यादाओं के आदर्श से भी ।

     गंगा और राम भारतीय मूल्यों के प्रतीक माने जाते रहे हैं .....गंगाराम को अब इन प्रतीकों की आवश्यकता नहीं रही । उसे कुछ विदेशी मूल्यों के प्रतीक प्राप्त हो गये हैं......विदेशी आस्था के विषय उपलब्ध हो गये हैं । गंगाराम को अब अपने पूर्वजों के आशीर्वाद की आवश्यकता नहीं रही ...यहाँ तक कि उसने उनसे अपने होने के सूत्र को भी अस्वीकार कर दिया है और अपनी जीवनशैली को ऐसा बना लिया है जिससे उसकी आस्था अरबी मूल्यों का प्रतीक बन जाय ।  

     भारतीयता के भाव से मुक्त होने के लिये वह सर्फ़ुद्दीन बना है या सर्फ़ुद्दीन बनने के लिये वह इन भावों से मुक्त हुआ है ....सामाजिक और राष्ट्रीय दृष्टि से यह विचारणीय है । क्या यह विद्रोह है ? क्या यह भारतीय मूल्यों के प्रति नकारात्मक भाव है ? क्या यह भारत के सामाजिक, राजनीतिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक आदर्शों के प्रति अनास्था है ? ...जो भी हो, गम्भीर है यह, हमारी दुर्बलताओं का प्रतीक है यह, हमारे लिये आत्मनिरीक्षण का विषय है यह । यदि कोई गंगाराम सर्फ़ुद्दीन होता है तो उसके होने में हमें हमारी प्रच्छन्न भूमिका को स्वीकार करना  होगा । 

सोमवार, 20 अप्रैल 2015

चौपाल की चख-चख



वाह-वाह क्या बात है !

दरअसल बात यह है कि .....
इण्डियन शुगर मिल्स एसोशिएसन 35 लाख टन चीनी नष्ट करना चाहती है जिससे चीनी के मूल्यों पर नियंत्रण किया जा सके । पश्चिमी देशों की तर्ज़ पर भारत में भी अधिक कृषि उत्पादों को मूल्य नियंत्रण के लिये नष्ट किये जाने पर विचार चल रहा है । पश्चिमी देशों में तो हज़ारों लीटर दूध समुद्र में बहा दिया जाता है ......ताकि बाज़ार में उसकी कीमत को नियंत्रित रखा जा सके ।
कीमतों को नियंत्रित करने के लिये अधिक उत्पादन होने पर सोमालिया जैसे देशों को दान देने की प्रथा का अभी तक जन्म नहीं हुआ है । जन्म होगा भी नहीं अन्यथा बाज़ार की अर्थशास्त्रीय सभ्यता नष्ट हो जायेगी । मरते हुये भूखे आदमी को बचाने की अपेक्षा बाज़ार को बचाना अधिक महत्वपूर्ण है ।

क्या कोई बीवरेज़ कम्पनी या आयुध फैक्ट्री भी कभी अपने उत्पादों को नष्ट करने के बारे में सोचेगी ? यह सब कृषि और कृषि से जुड़े अन्य उत्पादों के साथ ही सम्भव क्यों है ?
20.4.15
मेरे शहर में नहीं है एक प्रेक्षागृह ।

ज़िन्दा रहने के लिये जितना आवश्यक भोजन है उससे भी अधिक आवश्यक है ज़िन्दा रहने के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये कला और संगीत का होना .....और होते हुये प्रकट होना ।
कला और संगीत किसी भी समाज के लिये वह सौम्य वल्गा है जो अनियंत्रित और हिंसक मनः आवेगों को बड़े ही मनुहार के साथ थाम लेने की क्षमता रखती है ।

हमारे शहर में रंगकर्मी हैं जो भूखे पेट रहकर भी रंगकर्म के लिये समर्पित हैं ....
हमारे शहर में सुधी प्रेक्षक हैं जो कला के दीवाने हैं .....
हमारे शहर में रचनाकार हैं जो कला की विभिन्न विधाओं का पोषण करने के लिये प्रतिबद्ध हैं .....
किंतु नहीं है तो ...एक अदद प्रेक्षागृह ।


क्या हमें इसके लिये सरकार से भिक्षा मांगनी होगी ? ...भिक्षामि देहि ...भिक्षामि देहि ....

रविवार, 19 अप्रैल 2015

धार्मिक अग्राह्यता


भारत में हमारे चरित्र और आचरण को नियंत्रित करने वाला प्रेरक और व्यवहार्य तत्व है धर्म । पश्चिम में धर्म का भारत जैसा रूप नहीं था । पश्चिम में धर्म की अवधारणा उतनी शाश्वत और परिपक्व नहीं बन सकी जिसके परिणामस्वरूप धार्मिक केन्द्र सत्ता और शक्ति के गढ़ बनते चले गये । उस समय धार्मिक केन्द्रों को “भौतिक शक्तियों” से मुक्त करने के लिये धर्म को समाज के अन्य पक्षों से पूर्णतः पृथक करना तत्कालीन योरोपीय समाज के लिये आवश्यक हो गया था । यह कार्य धीरे-धीरे वैश्विक होता चला गया ...जहाँ आवश्यकता थी वहाँ भी और जहाँ नहीं थी वहाँ भी धर्म को अग्राह्य बनाया जाने लगा । धार्मिक अग्राह्यता की इन कुछ शताब्दियों में उग्र और हिंसक विस्तारवादी शक्तियाँ स्वयं को निरंतर हिंसक और उग्र बनाती रहीं । धर्म निरपेक्षता के छल ने इन असामाजिक शक्तियों को धार्मिक आडम्बर में स्वयं को प्रस्तुत करने की सुविधा उपलब्ध करवायी जिसके कारण आज पूरा विश्व हिंसा और अनैतिकता की गोद में समाता जा रहा है ।
गॉड-पार्टिकल खोजने वाला मनुष्य धर्म के विकृतस्वरूप में उलझ कर रह गया है, ऊपर से धर्मनिर्पेक्षता के जिन्न ने समाज में विषमता और वर्गभेद को और भी सुरक्षित करने का असामाजिक कृत्य किया है .....।

विश्व के बुद्धिजीवियो ! आप अपना मौन कब तोड़ेंगे ?  

हरिपथ की त्रासदी


हरिपथ पर चलते
हरिजन
हो जाते हैं दलित
भारत की धरती पर
होता है
अघटनीय घटित
लोग
मौन हैं
और सत्ता
स्वप्न में लीन ।


       “हरि” के बनाये पथ पर चलने वाले “जन” को समाज की कई शक्तियाँ की बाधाओं का सामना करना पड़ता है, उन्हें उनके मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिये जाने की परम्परा भारत में सुदृढ़ होती जा रही है ।  भारत में नेताओं, उद्योगपतियों और ब्यूरोक्रेट्स को छोड़कर शेष अधिसंख्य “जन” स्वाभाविक “दलित” श्रेणी में आते हैं । अपने मौलिक अधिकारों के लिये हर वह संघर्षशील व्यक्ति “दलित” है जो असामाजिक शक्तियाँ के आगे अंततः अपनी लड़ाई हार जाता है । बस “दलित” और “अतिदलित” में अंतर इतना ही है कि दलित केवल हारता है किंतु अन्दर संघर्ष की एक चिंगारी बनी रहती है । जबकि “अतिदलित” हारने के साथ ही अन्दर बची एक मात्र चिंगारी से भी हाथ धो बैठता है ...उसे चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु की स्थिति में लाकर छोड़ दिया जाता है । 

      भारत का हर वह कर्मठ और निष्ठावान व्यक्ति “अतिदलित” है जो भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा या एक आम नागरिक होते हुये केवल “हरि के पथ” पर चलने के कारण आत्महत्या करने के लिये विवश हो जाता है । भारतीय लोकतंत्र की यह सबसे बड़ी और विद्रूप विफलता है । 

...और अब योग भी धर्मनिरपेक्ष !


प्रिय आत्मन !
अत्यंत हर्ष का विषय है कि भारत की सरकार योग से ॐ को हटा कर उसे सर्वस्वीकार्य बनाना चाहती है । भारत सरकार का चिंतन है कि योग से धर्म विषयक सभी तत्व समाप्त कर दिये जाने से वह सर्व स्वीकार्य हो जायेगा । हम भारत सरकार के इस विकासवादी चिंतन से अत्यंत प्रसन्न और गद्गद हैं । हम बिल्कुल भी दुःखी और निराश नहीं हैं ।  
 हम चाहते हैं कि योग ही नहीं बल्कि ईश्वर और धर्म को भी धर्मनिरपेक्ष होना चाहिये । देश की प्रगति ....विश्व की प्रगति तभी सम्भव है जब ब्रह्माण्ड का एक-एक परमाणुअवयव भी धर्मनिरपेक्ष बना दिया जाय । निश्चित ही, नकचढ़े और उपद्रवी लोगों की सुविधा के लिये यह सब किया जाना अत्यंत धर्मनिरपेक्ष कृत्य है जिसे होना ही चाहिये ।
आम की मिठास, गन्ध और उसकी पौष्टिकता आम का स्वाभाविक धर्म है । आम सर्व स्वीकार्य हो सके इसलिये आम को भी धर्मनिरपेक्ष बनाने के लिये उसकी मिठास, गन्ध और पौष्टिकता प्रतिबन्धित होनी चाहिये । इसी तरह ऊर्जा को भी धर्मनिरपेक्ष बनाये जाने की दिशा में गम्भीरतापूर्वक विचार किये जाने की आवश्यकता है । वस्तुतः हमें सात्विक लोगों की नहीं अपितु तामसिक लोगों के तामसिक कार्यों की निर्बाध सम्पन्नता की अधिक चिंता है ।
भारतीय ज्ञान-विज्ञान को आधे-अधूरे और विकृत रूप में प्रस्तुत करके यदि राक्षसी और विघटनकारी शक्तियों को संतुष्ट किया जा सकता है तो इससे सनातन संस्कृति और सभ्यता का विकास होने में देर नहीं लगेगी ।
भारतीय मनीषियों का अनुभव तो यह रहा है कि कुपात्र को किसी भी प्रकार का ज्ञान नहीं दिया जाना चाहिये अन्यथा वह उसका दुरुपयोग ही करेगा । किंतु हम कुपात्रों को ही ज्ञान देने के लिये दृढ़-प्रतिज्ञ हैं इसके लिये हमें जो भी अनैतिक, अवैज्ञानिक, असांस्कृतिक और असभ्य कृत्य करने पड़ेंगे वह सब किये जायेंगे । हम संकल्प करते हैं कि दुष्टों की दुष्ट भावनाओं का सम्मान करने के लिये भारतीय संस्कृति और विज्ञान को समाप्त करने के किसी भी अभियान से हम कदापि पीछे नहीं हटेंगे ।
हम यह भी चाहते हैं कि विघटनकारी तत्वों की भावनाओं का सम्मान करते हुये .....उनके उद्देश्यों को पूर्ण करने की दिशा में हम उन्हें परमाणुबम बनाने का ज्ञान भी प्रदान करें । हर कुपात्र को इस धरती का सम्पूर्ण ज्ञान प्रदान किया जाना चाहिये ताकि वे उसका भरपूर दुरुपयोग करते हुये प्रकृति को विकृति की अंतिम परिणति तक पहुँचाने में अपना महती योगदान प्रदान कर सकें ।

          योग से ॐ को समाप्त करने के उत्तम विचार से हम धन्य हो गये हैं । महर्षि पतञ्जलि की आत्मा को हमारे धन्य होने से यदि दुःख पहुँचा हो तो पहुँचे ..भाड़ में जायें अतञ्जलि-पतञ्जलि । हम तो योग की ऐसी कम तैसी करेंगे ही ।  


https://secure.avaaz.org/en/petition/Prime_minister_of_India_Save_Ancient_Indian_science_and_culture_by_using_om_satyamev_jayate/?nOmlacb

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

मुफ़्तख़ोर


हम
प्रायः अनमने होकर
नेताओं को दिया जाने वाला  
झूठा सम्मान भी नहीं दे सकेंगे  
उस मुफ़्ती को
जो भारत की खाता है
पाकिस्तान की गाता है
वह मुफ़्तख़ोर
पूरी तरह
एक घृणित इंसान है ।
उसका चरित्र
उसका चिंतन
उसके क्रियाकलाप
इतने निन्दनीय हैं
कि हम
स्वयं को असमर्थ पाते हैं
उसकी निन्दा करने के लिये ।
हाँ ! उसे होना चाहिये
कठोर कारावास में
अपने अन्य देशद्रोही मित्रों के साथ ।

भारत की पूर्ण बहुमत सरकार
कश्मीर की वादियों में
इतनी विवश
इतनी अक्षम

और इतनी दयनीय क्यों है ? 

यह बूढ़ा कानून सेवानिवृत्त कब होगा ?


किसने बनाया
यह कानून
जो चिंतित है
उस अजन्मे के
मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिये  
जिसका बीज ही
अंकुरित हुआ है 
अनैतिकता और अपराध के खेतों में ।

बूढ़ा कानून
क्यों इतना मौन है  
क्यों इतना निर्मम है
क्यों इतना संवेदनहीन है  
उसके
मौलिक अधिकारों के प्रश्न पर
जो जन्म ले कर
बन चुकी है
किसी परिवार और समाज का हिस्सा
और होती जा रही है घायल
अन्याय के तीखे नेज़ों से ?
क्यों नहीं देख पाता
यह अन्धा और संवेदनहीन कानून   
पलपल बढ़ते जा रहे घावों से रिसते मवाद को ?

पहले
अपहरण
फिर यौनउत्पीड़न के दंश
अब
भ्रूण ढोने
और अपने रक्त से
उसका पोषण करने की विवशता,
प्रसव के बाद
घूरती दृष्टियों की प्रतीक्षा ।
और जब पापियों का बीज
होकर पल्लवित करेगा प्रश्न  –
“माँ ! कौन है मेरा पिता ?”
तब
पल-पल मरती माँ की लाश को देखकर
ठकाके लगायेंगे
पापी
जिनके अपराधों को
दण्ड देने में असफल रहा है
सदा चिंतित रहने वाला कानून ।

यह बूढ़ा कानून

सेवानिवृत्त कब होगा ?