शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

अफ़गानिस्तान की ग़रीबी और मज़हबी उन्माद का सौदा


अफ़गानिस्तान की ग़रीबी और मज़हबी उन्माद का सौदा

       ईसवी सन 652 में अफ़गानिस्तान में प्रवेश करने वाले इस्लाम ने अफगानिस्तान के जनजातीय कबीलों, ज़ोरोआस्ट्रियंस, पैगन्स, बौद्धों और सनातनधर्मियों को अपने हरे झण्डे के नीचे आने के लिये मज़बूर कर दिया था । यह वह ज़माना था जब अरब देश पूरी दुनिया में इस्लामिक विस्तार में लगातार कामयाब होते जा रहे थे । वे वर्तमान इज़्रेल से आगे बढ़कर ईरान, अफ़गानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताज़िकस्तान, उज़बेकिस्तान आदि देशों से होते हुये चीन और मंगोलिया की ओर बढ़ते जा रहे थे । 
ज़ल्दी ही भारत की धरती अरबों, शकों, हूणों और मंगोलिया के नव मुसलमान बने आदिवासियों के लिये भाग्यशाली साबित हुयी । इनमें से कुछ भारत में रच-बस गये तो कुछ हिन्दुस्तान के मालिक बनने में कामयाब हुये ।

      सोलहवीं शताब्दी के आते-आते सुदूर योरोप के कुछ देशों ने भारत में अपने पैर जमाने की कोशिशें कीं जिनमें से अंग्रेज़ कहीं अधिक सफल हुये । यह वह ज़माना था जब अंग्रेज़ पूरी दुनिया पर अपनी हुकूमत का सपना पूरा करने के लिये हर अनैतिक और अनानवीय हथकण्डा अपनाने में लगे हुये थे । भारत की अधिकांश देशी रियासतों के साथ-साथ बड़ी-बड़ी हुकूमतों पर भी अंग्रेज़ काबिज़ होते जा रहे थे । सिल्करूट से होते हुये चीन और रूस तक पहुँचने के लिये उत्तरपश्चिम के अफ़गानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कज़ाकिस्तान और ताज़िकिस्तान जैसे देशों को अपने कब्ज़े में करना अंग्रेज़ों के लिये ज़रूरी हो गया था । ब्रिटिशइण्डिया ने अफ़गानिस्तान पर हमला कर दिया । ख़ुद्दार अफगानी उन्हें अपने मुल्क में घुसने से रोकने में कामयाब रहे लेकिन तब तक दुनिया की दो और बड़ी ताकतों की निगाहें अफ़गानिस्तान पर जम गयीं । रूस ने अफ़गानिस्तान को अपना निशाना बनाया तो अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ मिलकर रूस के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया । रूस को वहाँ से जाना पड़ा लेकिन इस बीच अमेरिका और पाकिस्तान द्वारा पैदा किये गये भस्मासुर अपना वर्चस्व बना सकने में कामयाब हो गये । इस्लामिक शरीयत कानून की ज़द में पूरी दुनिया को लाने के लिये तालिबान और अलकायदा जैसे कट्टर संगठनों ने धार्मिक सत्ता स्थापित करने के लिये पूरी दुनिया में आतंक फैलाना शुरू कर दिया । आंतरिक संघर्षों, राजनैतिक अस्थिरता और विदेशी आक्रमणों से अफगानिस्तान जर्जर हो चुका था । अफ़गानिस्तान की ग़रीबी का सौदा किया गया । युवक और किशोर भी महज़ दो जून की रोटी के बदले में धार्मिक उन्मादी बनते जा रहे थे । पूरा अफ़गानिस्तान धार्मिक उन्मादियों के कब्ज़े में आ गया .....अशिक्षा और ग़रीबी बढ़ती गयी, अफ़गानिस्तान अवैध नशीले कारोबार का अड्डा बन गया ।  

     पाकिस्तान के कट्टरवादियों को अफ़गानिस्तान की धरती पर ख़ूनी खेल में मज़ा आने लगा था तो अमेरिका बड़ी ख़ामोशी से अपने हित साधने और अपनी दादागीरी बढ़ाने में लग गया । 1991 में रूस के टुकड़े हो गये और वह नेपथ्य में चला गया । इस बीच अमेरिका और पाकिस्तान की बोयी विषबेल दीग़र मुल्कों में भी पूरी तरह फैल चुकी थी और अब अमेरिका और पाकिस्तान भी उसकी विषाग्नि में झुलसने लगे । अंततः, पहले अमेरिका को और फिर पाकिस्तान को अपनी कूटचालों में पक्षपातपूर्ण परिवर्तन करने के लिये मज़बूर होना पड़ा । आज ये दोनो देश आतंकवाद के ख़िलाफ़ हैं किंतु सिर्फ़ अपने देश की धरती के लिये, वे दुनिया से आतंकवाद ख़त्म नहीं करना चाहते । 


कभी भूस्खलन तो कभी तालिबानियों के बौद्धिक स्खलन से ढहते कहर के बीच
खंडहर होते घर,
क्या यही है अफ़गानिस्तान की नियति ?  


गुफ़ाओं में घर


मनुष्य के साथ मनुष्य का व्यवहार इतना क्रूर कैसे हो सकता है ? किंतु यह है ......और ख़त्म होने का नाम भी नहीं ले रहा । 


तबाह करने वालों की तलाश में
कुछ और तबाहियाँ की तलाश 


ख़ौफ़ के सन्नाटे की गवाही 

हर तरफ़ दहशत और सिर्फ़ दहशत 


गृहयुद्ध में अपने दोनो हाथ खो चुकी एक छोटी सी बच्ची
अब चालीस साल की प्रौढ़ा हो चुकी है ।
ज़िन्दगी की मुश्किलों को रोज़मर्रा के अभ्यास में ढाल चुकी
इस स्त्री के दर्द की जाति क्या है ? 


अफ़गानी मासूमों का सामना विदेशी गन से 

रूस-पाकिस्तान और अमेरिका की तिकड़ी में फस गया काबुलीवाला अब कहीं नज़र नहीं आता, हो सकता है उसका भी घर किसी बम धमाके में धूल बनकर उड़ गया हो और अब उसका नाम-ओ-निशान भी न बचा हो । 


मासूमियत को कुचलती हैवानियत के सबक ! यह कौन सा धर्म है ?


मासूमियत पर तालिबानियत का काला साया ।
यह कौन सी इबादत है ? यह कैसी तालीम है जो सिर्फ़ मौत का खेल खेलना जानती है ? अफ़गानिस्तान की ख़ूबसूरत धरती को दोज़ख़ में तब्दील कर देने का क्या हक़ बनता है किसी को ? 


नन्हा तालिबानी 


हैवानियत का खेल देखने को मज़बूर कोमल मन 


अफ़गान में तालिबान  - चलो हैवानियत का खेल खेलें .....



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.