शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

मृत्युदण्ड के औचित्य पर एक अनावश्यक चर्चा



वे नहीं चाहते कि किसी जघन्य अपराधी को मृत्युदण्ड दिया जाय । उनका तर्क है कि जीवन अनमोल है जो ईश्वर की देन है, हम जीवन उत्पन्न नहीं कर सकते तो हमें किसी का जीवन लेने का अधिकार क्यों होना चाहिये ? ऐसा तर्क देने वालों में उन लोगों की संख्या अधिक है जो मांसाहारी हैं और जीवहत्या के समर्थक हैं ।  

समाज को अधोगामी होने से बचाने के लिये शासन के माध्यम से अंकुश की आवश्यकता दुर्बलचरित्र वाले मनुष्य के लिये एक अनिवार्य व्यवस्था है । न्याय व्यवस्था इसी समाज व्यवस्था का भाग है जिसके लिये न्यायाधीश अधिकृत किया जाता है कि वह न्याय की परिधि में अपने सम्पूर्ण विवेक का उपयोग करते हुये समाजव्यवस्था को निरंकुश हो जाने से बचाये रखने  के लिये उपयुक्त दण्ड सुनिश्चित करे ।

जहाँ तक न्यायव्यवस्था द्वारा अपराधी को दी गयी मृत्यु का प्रश्न है तो हम जानना चाहते हैं कि सीमा पर सैनिक हत्यायें क्यों करते हैं ? हर सैनिक अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये लड़ता है ....वह किसी भी पक्ष का क्यों न हो उसे भी जीने का उतना ही अधिकार है जितना कि एक सामान्य नागरिक को । दो देशों के सैनिक आपस में व्यक्तिगतरूप से शत्रु नहीं होते, वे अपराधी भी नहीं होते, वे धरती पर बोझ भी नहीं होते .... बल्कि वे अपने देश के लोगों के लिये उत्कृष्ट नायक होते हैं ..... फिर भी वे एक-दूसरे की हत्या कर देते हैं, जो बच जाता है उसे हम सम्मानित करते हैं । एक युद्ध ....एक मृत्युदण्ड, दो व्यवस्थायें ... दोनो में मनुष्य द्वारा मनुष्य की हत्या । एक प्रशंसनीय, दूसरी विवादास्पद । युद्ध के लिये सहमति, मृत्युदण्ड के लिये असहमति । यह कैसा मानवीय चिंतन है ? यह कैसी व्यवस्था है ?
जघन्य अपराधी का जीवन समाज, देश और मानवीयता के लिये कलंक है .....  बोझ है । वह समाज को दुःखी और पीड़ित करता है फिर भी सहानुभूति का पात्र ?
एक सैनिक की शहादत स्वागतेय है किंतु जघन्य अपराधी को दिया गया मृत्युदण्ड अमानवीय ! यह कैसा विद्रूप चिंतन है ?
समाज अनुशासन से चलता है और अनुशासन के लिये कठोरता आवश्यक है । जघन्य अपराधी को मृत्युदण्ड मिलना ही चाहिये । युद्ध राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के अतिवाद और राजनीतिज्ञों के अहंकार के परिणाम हैं ... इन्हें रोका जाना चाहिये । जो लोग मृत्युदण्ड के विरोधी हैं उन्हें मानवीय आधार पर सैन्ययुद्धों के विरोध में विश्वजनमत के लिये अपनी शक्ति का उपयोग करना चाहिये ।


हम मृत्युदण्ड को एक अनुशासित और अपराधरहित समाज के लिये अनिवार्य आवश्यकता स्वीकार करते हैं ।        

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

शुक्लपक्ष- कृष्णपक्ष



आज दो नश्वर शरीरों को धरती ने अपनी गोद में चिरनिद्रा के लिये स्थान दिया । एक चर्चित संत था और दूसरा जघन्य अपराधी । एक जीवन भर देश का बोझ उठाता रहा, दूसरा जीवन भर मानवीयता के लिये बोझ बना रहा ।

दोनो की आत्माओं ने अपनी-अपनी कर्मगति के अनुरूप दुनिया को अलविदा कहा ।
एक की अंतिम यात्रा को परमगति कह गया, दूसरे की यात्रा को मृत्युदण्ड ।
दोनो की पूरे देश में चर्चा होती रही- एक की प्रशंसा के लिये, दूसरे की निन्दा के लिये ।

संत ए.पी.जे. अब्दुल क़लाम को विद्यादान करते समय विद्या की देवी सरस्वती ने चिर अवकाश के लिये अपने पास बुला लिया । जबकि मुम्बई बम धमाकों के जघन्य अपराधी याक़ूब मेमन को नागपुर के केन्द्रीय कारावास में फांसी से लटकाया गया ।

अपने भौतिक जीवन के अंतिम क्षणों में संत कलाम शिलॉंग में छात्रों के बीच थे जबकि मुम्बई बम धमाकों का जघन्य अपराधी याक़ूब मेमन कारावास में अपराधियों के बीच ।

एक के अवसान पर पूरा देश रोया, दूसरे की मृत्यु पर पूरे देश ने चैन की सांस ली । एक ने अपनी यात्रा शांति और प्रसन्नता के साथ पूरी की, दूसरे ने अपनी यात्रा विवाद और दुःख के साथ पूरी की ।

अपराधी के मृत्यु दण्ड पर सियासत ग़र्म हुयी ...... विवाद हुआ ........ कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी अपराधी की ज़िन्दगी के प्रति मोहासक्त हुये .....और उसे एक राष्ट्रीय विवाद बनाने की निकृष्ट कुचेष्टा में अपने जीवन का बहुमूल्य समय व्यर्थ करते रहे ।
संत के देहावसान पर सियासत ख़ामोश थी ......और लोग पार्थिव शरीर पर पुष्प अर्पित करते रहे । अपराधी की फांसी पर सियासत ग़र्म होती रही ....ख़ूब ग़र्म होती रही और कई सफेदपोश अपराधी एक कालेपोश अपराधी की ज़िन्दगी बचाने की ज़द्दो-ज़हद में अपनी ज़िन्दगी को बुरी तरह कलंकित करते रहे ।

इस बीच सूत्रधार अपने कार्य में व्यस्त था, उसने नट-नटी से कोई चर्चा नहीं की । वे दोनो उदास बैठे थे । तभी नटी ने नट से जिज्ञासावश पूछा – “क्या कलियुग अपने शीर्ष पर है”। उदास नट ने एक गहरी साँस लेते हुये उत्तर दिया – “अभी नहीं ..... अभी तो भारत को और भी दुर्दिन देखने शेष हैं”। नटी ने व्यथित होकर कहा – “शुभ-शुभ बोलो न ! मुझे भयभीत क्यों कर रहे हैं”। शून्य में अपनी आँखें गड़ाये नट ने कहा – “जब राष्ट्र के कर्णधारों में अपराधी मानसिकता का बाहुल्य हो तो शुभ की कल्पना भी कैसे की जा सकती है नटी !”


रंगमंच पर आज लोगों ने यवनिका गिरने ही नहीं दी । कहा गया कि बहस अभी ज़ारी रहेगी .... यह कि दण्ड में मृत्यु का प्रावधान होना चाहिये या नहीं ....    

रविवार, 26 जुलाई 2015

आज फिर मैं गुस्से में हूँ



वे
दान पाकर
ग़ुस्ताख़ होते हैं
हम
दान देकर
बेवक़ूफ़ होते हैं ।
गुण्डे
न जाने क्यों माननीय होते हैं ।
माननीय
इतने अमाननीय होते हैं
कि देश का लोकतंत्र
सचमुच
बहुत भयभीत रहता है ।
   
    कई माननीयों का अमाननीय चरित्र हमें हर पल चिढ़ाता है और यह घोषणा करता रहता है कि देखो हमने तुम्हें फिर उल्लू बना दिया और तुम इतने दुर्बल हो कि हमारा कुछ नहीं बिगाड़ नहीं सकते ।

    हम उन्हें अपना “मत” दान करते हैं, वे हमारे “दान” का दुरुपयोग करते हैं । हमारे दान से सम्पन्न होकर वे माननीय बन जाते हैं । माननीय बन कर वे न जाने कितने अमाननीय और अमानवीय कार्य करते हैं । वे घोटाले करते हैं, वे हत्यायें करवाते हैं, वे यौन शोषण करते हैं, वे वर्गभेद उत्पन्न करते हैं, वे समाज को तोड़ते हैं, वे देश को लूटते हैं और पूरी दुनिया के सामने हमारा सिर नीचा करते हैं । दोषी कौन है ? वे या हम ?    

    जब मैं माननीयों की अमाननीय भाषा सुनता हूँ, जब एक माननीय दूसरे माननीय के लिये अभद्र, अमर्यादित और हिंसक शब्दों का प्रयोग सार्वजनिकरूप से करता है तो एक सहज प्रश्न यह उठता है कि इन माननीयों में वह कौन सा गुण है जिसके कारण वे हमारे लिये माननीय हैं ?

    जब मैं एक माननीय को दूसरे माननीय के लिये सार्वजनिकरूप से अमर्यादितभाषा में वक्तव्य देते हुये सुनता हूँ तो मुझे लोकतंत्र के खोखलेपन का तीव्र अनुभव होता है । जब मैं एक माननीय को अपने राजनैतिक प्रतिद्वन्दी के लिये “छाती पर चढ़ जाऊँगा”, “नाक में रस्सी डालकर नाथ दूँगा” .... जैसी पाशविक और हिंसक घोषणायें सुनता हूँ तो मुझे लगता है कि मैं लोकतंत्र के मान्यताप्राप्त हिंसक अपराधियों के बीच खड़ा हूँ .... और तब मैं यह समझ नहीं पाता कि हमारे दान से माननीय बना हमारे बीच का एक आम आदमी अतिविशिष्ट बनकर अतिअशिष्ट आचरण करने के लिये अधिकृत क्यों है ?   

मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्वराज्य की ओर


(ग्राउण्ड रिपोर्ट इण्डिया के सम्पादक विवेक उमराव ग्लेंडेनिंग की पुस्तक के सन्दर्भ में एक विमर्श)

जब मैं किसी लेखक या कवि को पढ़ता हूँ या किसी नाटक में कलाकारों को अपने-अपने किरदार जीते हुये देखता हूँ या किसी व्यक्ति के चरित्र को स्वयं से विशिष्ट पाता हूँ तो विश्वास होने लगता है कि समाज अभी जीवित है और वह भी अपनी पूर्ण संवेदनशीलता के साथ । यह विश्वास एक आभास भी हो सकता है या एक सत्य भी । मैं इस विश्वास में जीने के पर्याप्त कारण पाकर ख़ुश होता हूँ और आगे बढ़ने की पर्याप्त ऊर्जा के साथ जगत के संघर्षों में और भी शक्ति और निष्ठा के साथ प्रवृत्त हो जाता हूँ ।
          एक-दो वर्ष पूर्व विवेक जी का एक मेल मिला था जिसमें उन्होंने एक लम्बी यात्रा पर होने की सूचना दी थी । पर्यावरण के प्रति उनकी चिंताओं के कारण मैं उनके विचारों से कुछ वर्षों पहले जुड़ा था । भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी यायावरी यात्रा के अनुभवों को संजोते हुये अभी हाल ही में उनकी एक पुस्तक आयी है – “मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्वराज्य की ओर” ।
विरोधाभासों और विसंगतियों से भरपूर समाज के एक सामान्य किंतु महत्वाकांक्षी परिवार में जन्मे विवेक उमराव की संवेदनशीलता उन्हें जिस मार्ग में जाने की प्रेरणा देती है वह प्रशस्त होते हुये भी अपने स्वजनों के आशीर्वाद से युक्त नहीं है । यह स्थिति उनके सामाजिक और व्यक्तिगत संघर्षों को और भी कठिन बनाती है । प्रतिकूल स्थितियों में संघर्षशील रहने वाले विवेक उमराव अपनी स्वाभाविक उदात्त भावनाओं के साथ सामाजिक व्रणों के उपचार के लिये निकल पड़े हैं । उनकी यह यात्रा बुद्ध की यात्रा की तरह है । सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की आकांक्षा के साथ गाँव-गाँव भटकते हुये, वंचितों की पीड़ा को समीप से स्पर्श करते हुये विवेक ने मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्वराज्य की दिशा में जो कल्पना की है उसमें अवसरवादी अनुकूलन की प्रवृत्ति से मुक्त हो कर साहचर्यता की कामना की गयी है । उनकी कामना प्रेरणास्पद है, विचारोत्तेजक है और एक विमर्श की माँग करती है ।

प्रकृति की, जड़-चेतन सभी इकाइयों के साथ प्राकृतिक साहचर्यता में जीवनयापन के आदर्श की काल्पनिक वांछना उतनी ही सुखद प्रतीत होती है जितनी कि भारतीयों की अन्य सामाजिक-आध्यात्मिक अवधारणायें । कभी विनोबा भावे ने भी कल्पना की थी एक ऐसे समाज की जो आत्म-अनुशासित व आत्मनियंत्रित हो । उनकी कल्पना शासन-प्रशासनरहित स्वअनुशासित व्यक्तियों वाले समाज व राष्ट्र की थी । यह कल्पना भी पूर्ववर्ती अन्य भारतीय मनीषियों की आदर्श कल्पनाओं से भिन्न नहीं थी ।
एक आदर्श समाज की स्थापना की परिकल्पना से पूर्व हमें कुछ बिन्दुओं पर गम्भीरता से चिंतन करना होगा । चिंतन का प्रथम बिन्दु है – व्यक्ति की प्रवृत्ति, दूसरा बिन्दु है समूह की प्रवृत्ति, तीसरा बिन्दु है अवतारवाद और चौथा बिन्दु है सृष्टिवाद । 
अपने नित्यप्रति के जीवन से हमने सीखा है कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति प्रकृति से विकृति एवं विकृति से प्रकृति की ओर गतिमान रहने की होती है । प्रतिलोम दिशा में इस गति के तीन चरण होते हैं – एक है प्रकृति, दूसरी है संक्रांति और तीसरी है विकृति । इसी तरह अनुलोम दिशा में भी इस गति के तीन चरण होते हैं – एक है विकृति, दूसरी है संक्रांति और तीसरी है प्रकृति ।
अधिकार की आकांक्षा, और अधिक पाने की लिप्सा, श्रम से विमुखता, दूसरों के अधिकारों के हनन का विकृताभाव और अहंकार ऐसे तत्व हैं जो मनुष्येतर हिंसक प्राणियों से लेकर मनुष्य तक क्रमशः अधिक मात्रा व तीव्रता में पाये जाते हैं । इस दृष्टि से मनुष्य सर्वाधिक हिंसक और क्रूर प्राणी है । सभ्य समाज के मनीषी सदा ही एक ऐसे मार्ग की प्राप्ति के लिये भटकते रहे हैं जो विमार्गगामी मनुष्य को सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करने में सहायक हो सके, किंतु कलियुग से श्रेष्ठ रहे कालखण्डों में, यानी सतयुग, त्रेतायुग और द्वापर में भी ऐसा नहीं हो सका ...क्यों नहीं हो सका ऐसा ? यह विचारणीय है ।  
मनुष्य ब्रह्माण्ड की एक समानांतर सूक्ष्म इकाई है जो ब्रह्माण्ड को उसकी सम्पूर्णता के साथ व्यक्त करने में समर्थ है । परमाणु की तीन प्रमुख घटकशक्तियों, क्रमशः तमोगुणी इलेक्ट्रॉन, रजोगुणी प्रोटॉन और सतोगुणी न्यूट्रॉन के भौतिक व रासायनिक गुणों से हम सभी परिचित हो चुके हैं । परमाणु का अंतराकाश परमाणु के विभिन्न क्रिया-व्यापारों का कर्मक्षेत्र है जो व्यापक सम्भावनाओं का कारणघटक बनकर शून्य होते हुये भी बहुत कुछ है । परमाण्विक क्रिया-व्यापार का कारक तमोगुणी मोहावृत इलेक्ट्रॉन वह प्रमुख तत्व है जो विभिन्न रासायनिक क्रियाओं में सक्रियता से अपनी भूमिका का निर्वहन करते हुये रासायनिक संयोग-वियोग का कारण बनता है । हमारी अनुकूलताओं की परिभाषा में ये संयोग-वियोग कभी रचनात्मक होते हैं तो कभी विघटनात्मक, कभी सुखद होते हैं तो कभी दुःखद, कभी आशा के अनुरूप होते हैं तो कभी आशा के प्रतिकूल । हमारे शरीर की कोशिकाओं के लिये फ़्री रेडिकल्स नामक सुपरऑक्साइड्स ऐसे आवारा सांड़तुल्य हैं जो अच्छी-भली कोशिकाओं के खेत में मुँह मारने की प्रवृत्ति से बाज नहीं आते । इन्हें नियंत्रित करने के लिये एण्टीऑक्सीडेण्ट्स का होना अनिवार्य है । समाज में भी ऐसे फ़्री रेडिकल्स की कमी नहीं है जो समाज को क्षतिग्रस्त करते रहने में अहर्निश संलिप्त रहते हैं । समाज के यही सुपरऑक्साइड्स आर्थिकघोटालों में लिप्त होते हैं, संसद पर हिंसकआक्रमण करते हैं, लड़कियों से बलात्कार करते हैं, अपने बनाये ईश्वरीय और भौतिक नियम पूरे विश्व पर थोपने के लिये हिंसक घटनाओं को प्रशस्त माध्यम मानते हैं .....। शरीर हो या समाज, ये सुपरऑक्साइड्स प्रकृति को विकृत करने के कार्य में लगे रहते हैं । प्रकृति से विकृति की ओर होने वाली यह अप्रिय गति एक स्वाभाविक अनिवार्यता है और हमारे लिये चुनौती भी जिससे सभी सभ्यतायें जूझती रही हैं । द्वैत-अद्वैत के सिद्धांतों के माध्यम से भारतीय मनीषी इन चुनौतियों को समझने और समझाने के प्रयत्न करते रहे हैं ।
प्राणियों के व्यवहार में एक विचित्र बात देखने में यह आती है कि उनके व्यक्तिगत और सामूहिक आचरण सदा एक से नहीं हुआ करते । जब हम अकेले होते हैं तो हमारा आचरण और व्यवहार उस आचरण और व्यवहार से भिन्न होता है जो हमारे द्वारा समूह में साथ होते समय किया जाता है । हमारा अकेलापन हमें शांत बनाता है, धार्मिक और परोपकारी बनाता है, उदात्त बनाता है .......वहीं भीड़ हमें उग्रता के लिये प्रेरित कर सकती है, हमें पाखण्डी और स्वार्थी बना सकती है । भीड़ का आचरण एकांगी भावना और अविवेकपूर्ण निर्णयों से प्रेरित हो सकता है जबकि व्यक्ति का आचरण सम्यक चिंतन, समग्रता और विवेकपूर्ण निर्णयों से प्रेरित हो सकता है । व्यक्ति के रूप में हम तत्पर आदर्श, निष्ठावान और प्रतिस्पर्धा रहित होते हैं वहीं भीड़ के रूप में हम शिथिल आदर्श, पथभ्रष्ट और ईर्ष्यालु होते हैं ।
व्यक्ति और समाज के आचरण को कई बाह्यकारक भी प्रभावित करते हैं । बीसवीं शताब्दी में तकनीकी यांत्रिकता और औद्योगीकरण ने व्यक्ति और समाज को बहुत प्रभावित किया है । इस प्रभाव ने मनुष्य की जीवनशैली, उसका चिंतन, मानवीय मूल्य, सामाजिक मान्यतायें और उसकी प्राथमिकताओं को बदल कर रख दिया है । अब हमारे सामने जीवनशैलीजन्य नयी-नयी व्याधियाँ हैं, एण्टीबायटिक्स के अविवेकपूर्ण प्रयोगों से उत्पन्न रोगाणुओं की नयी प्रजातियों की चुनौतियाँ हैं, अनावश्यक आवश्यकताओं को पूरा करने वाले ढेरों उत्पाद हैं जिन्हें बेचने के लिये दुष्ट व्यापारिक प्रतिस्पर्धायें हैं, औद्योगिक अमानवीयता की निरंकुश होती जा रही क्रूर घटनायें हैं, पिघलते हुये हिमनद हैं, बाँधों में जकड़ी हुयी बन्दी नदियाँ हैं, लड़खड़ाता हुआ पर्यावरण है, वर्गभेद हैं, यौनहिंसा है, निर्दोष हत्यायें हैं, विस्फोट हैं, फ़िदायीन हमले हैं, छद्मधार्मिक संघर्ष हैं, विवाद में पड़े हुये ईश्वर हैं, मनमाना इतिहास है, अपसांस्कृतिक युद्ध हैं, सिमटते हुये खेत हैं, फैलते हुये नगर हैं, बिखरते हुये परिवार और टूटते हुये लोग हैं । हमें इसी कंकरीले-पथरीले बियाबान में एक नयी राह बनानी है जहाँ से होकर हम एक ऐसे खेत में पहुँच सकें जिसमें कुछ लोग संवेदनाओं की खेती कर सकें, मानवीयता के पुष्प उगा सकें, पड़ोसी के दुःख से दुःखी होकर अकृत्रिम आँसू बहा सकें, बुज़ुर्गों के पोपले और झुर्रियों भरे चेहरे पर हंसी बिखेर सकें, प्रसन्न होने पर आनन्द के साथ नाच सकें और जिस दिन पड़ोसी के चेहरे पर मायूसी हो उस दिन उसे अपने घर आमंत्रित कर सकें ।
औद्योगीकरण और मशीनों ने हमें यांत्रिक बना दिया है, हमारी सामाजिक संवेदनाओं की हत्या कर दी है, हमें स्वार्थी और निकम्मा बना दिया है, हमारी सोच और जीवनशैली को संकुचित कर दिया है, समाज के प्रति हमारे उत्तरदायित्वों से हमें विमुख कर दिया है । हम बदल गये हैं .... हमने परिवार को खण्डित कर दिया है और समाज को असामाजिक बना दिया है जहाँ अवसरों पर डाका डालने की प्रवृत्ति निरंकुश होती जा रही है । हमें व्यक्ति और समाज की वर्तमान रुग्णता के इटियोलॉज़िकल फ़ैक्टर्स को समझना होगा और यथा सम्भव वैचारिक क्रांति के लिये स्वयं को तैयार करना होगा ।
जिस तंत्र को हमने बड़ी आशाओं से स्थापित किया था उसमें विचारों की अभारतीय खाद डालकर उसे और भी विकृत करने की परम्परा को सुस्थापित किया है । हमने द्वैताद्वैत सिद्धांत को जीवन के लिये अप्रासंगिक बना दिया है । हमने स्वयं को देखने के लिये दूसरों की आँखों का सहारा लेना अधिक उचित समझा है । हम एक भटके हुये और असंस्कारी समाज के सदस्य हैं जिसे सारी मर्यादाओं को छिन्न-भिन्न करने में विश्वास है । बहुत कम लोग हैं जो मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्वराज्य चाहते हैं और इसके लिये अपने-अपने स्तर से संघर्षशील भी हैं जबकि शेष समुदाय जिसमें वंचित और शोषित भी हैं, उसी वंचना और शोषण की श्रृंखला में अपनी स्थिति को मात्र बदलना भर चाहते हैं ..... वंचित और शोषित के स्थान पर वंचक और शोषक बन जाना चाहते हैं । भारत की भीड़ ऐसे ही लोगों से बनी है, किंतु ........ जो अंधेरे में दीपक जलाये रखने के पक्षधर हैं, जो संवेदनशील हैं, जो उच्च मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिये कटिबद्ध हैं उन्हें स्वयं दीपक बनना होगा, स्वयं ही तेल बनकर खपना होगा और स्वयं ही बाती बनकर जलना भी होगा । समाज इसी तरह लुढ़कता हुआ, जलता हुआ चलता है ।
भारत के अधिसंख्य लोग किसी सुखद परिवर्तन के लिये किसी अवतार की प्रतीक्षा में रहने के अभ्यस्त हैं । यह भीरु और अकर्मण्य लोगों का समुदाय है जिनके लिये शब्द महत्वपूर्ण होते हैं उनके अर्थ नहीं । यह एक पाखण्डी वर्ग है जो अवसर चुराने में दक्ष है । यह एक ऐसा वर्ग है जो पुण्य लूटने के लिये सदा तैयार रहता है भले ही उसके लिये उसे कैसा भी अकरणीय और अतार्किक कृत्य ही क्यों न करना पड़े । यह वर्ग रातोरात किसी भी व्यक्ति को भगवान बना सकता है और उसकी भक्ति में डूबकर जघन्य अपराध भी कर सकता है । हमें ऐसे ही समाज के उत्थान के लिये जलना है ...जल कर ख़ाक हो जाना है .... यह एक ज़ुनून है ..... यह एक दीवानापन है ..... यह एक इश्क है ।

जिस तरह पैथोलॉजी समझने से पहले एनाटॉमी और फ़िज़ियोलॉजी समझना अनिवार्य है उसी तरह मनुष्य को और ब्रह्माण्ड के साथ उसके सम्बन्धों को समझने के लिये सृष्टि की प्रक्रिया को समझना अनिवार्य है । यह समझना अनिवार्य है कि सृष्टि की उत्पत्ति और लय के भौतिक-पराभौतिक सिद्धांत क्या हैं । इसके लिये हमें परमाणु, उसके अवयवों और उसकी शक्तियों से आगे की स्थिति पर विचार करना होगा । हमें उस स्थिति पर विचार करना होगा जहाँ मैटर, क्वालिटी में और क्वालिटी, अनमैनीफेस्ट में अनुलोम या प्रतिलोम गति से रूपांतरित हो रहे होते हैं । स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्म से स्थूल की यह यात्रा सार्वदेशिक और सार्वभौमिक है ....अर्थात मनुष्य पर भी लागू होती है । यह शून्य से सूर्य के बनने की और फिर सूर्य से कृष्णविवर बनने की कहानी है जहाँ मैटर क्वालिटी में रूपांतरित हो जाता है । इससे आगे की यात्रा शून्य हो जाने की यात्रा है । इस सम्पूर्ण यात्रा में उत्साह है, निराशा है, आनन्द है, दुःख है, मिलना है, बिछड़ना है ...... । इस यात्रा में हमें स्वयं को खोजना है, अपने होने के अर्थ को समझना है, और हर स्थिति को उसके उसी रूप में स्वीकार करना है ..... एक दीपक जलाये रखते हुये ।   

सोमवार, 6 जुलाई 2015

योजनाबद्ध बलात्संग -एक श्रृंखला ....... !



-      7 जुलाई 2015 की सन्ध्या छह बजे तक शिक्षा के एक घोटाले की जाँच से जुड़े 40 लोगों की एक-एक कर मृत्यु ! न्यायिक प्रक्रिया !  लोकतांत्रिक व्यवस्था !  ज़ीरो टॉलरेंस की उद्घोषणा !  बुरे दिनों के बीत जाने का आश्वासन !  और प्रतीक्षारत आम आदमी ! .....आज के चिंतन ये कुछ विषय हैं जिन्होंने पूरे देश को चिंता में डाल दिया है ।
-      व्यावसायिक परीक्षामंडल द्वारा एम.बी.बी.एस. में प्रवेश के लिये पात्रता परीक्षा में अपात्र आवेदकों को सुपात्र प्रमाणित करने का वर्षों तक निरंकुश हो कर चलता रहा एक सुनियोजित षडयंत्र हमारी व्यवस्था पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा रहा है ।
-      विद्या की देवी सरस्वती को पूजने वाले देश में शैक्षणिकअपराध को क्या उपयुक्त संज्ञा दी जा सकती है ?
-      मैं इस अपराध को माँ सरस्वती के प्रति गुण्डई नहीं बल्कि बलात्संग कहना चाहूँगा । आदर्शों और भारतीय मूल्यों की रक्षा करने के लिये स्वघोषित दृढ़संकल्पितवर्ग अपने संकल्प की रक्षा करने के लिये “संकल्पित”  जैसा प्रतीत नहीं होता । प्रतिबद्धता की दिशा प्रतिलोम हो गयी है, पाखण्ड की चादर स्याह से स्याह होती जा रही है और उत्तरदायित्व लेने के लिये कोई सामने आने को तैयार नहीं है ।
-      उनकी हत्या हो रही है जो सरस्वती के बलात्संगियों को प्रमाणित कर सकते हैं, यानी बलात्संगी शक्तिशाली हैं .....और राजा मूकदर्शक है ।
-      यहाँ दो बातें करने का मन है मेरा । एक तो यह कि इस तरह अपात्र लोगों को चिकित्सा शिक्षा में प्रवेश देकर पात्रता परीक्षा के औचित्य पर एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है । मैं एक ऐसे ही अपात्र छात्र के साथ पहले ही दिन से यात्रा करना चाहता हूँ .......
-      तो हमारी यात्रा प्रारम्भ होती है ऐसे ही एक अपात्र छात्र के साथ जो सरस्वती के बलात्संगियों के दलालों की कृपा से मेडिकल कॉलेज में दाख़िला लेने में सफल हो जाता है और बलात्संग का मुख्य अपराधी बन जाता है । यह अपात्र व्यक्ति मेडिकल की तीनों प्रॉफ़. परीक्षायें क्रमशः उत्तीर्ण करता रहता है यानी प्रवेश परीक्षा में योग्यता न रखने वाला एक मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस. की तीनों परीक्षायें उत्तीर्ण कर लेने और सफलतापूर्वक इण्टर्नशिप पूर्ण करने की योग्यता रखता है । अब प्रश्न यह है कि यदि कई मुन्नाभाई डॉक्टर बनने की योग्यता रखते हैं तो क्या हर वह छात्र जिसने बारहवीं परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है एम.बी.बी.एस. की पढ़ायी कर सकने की योग्यता नहीं रखता ? यदि रखता है तो फिर प्रवेश परीक्षा का यह पाखण्ड क्यों ? मुझे लगता है कि हमें प्रवेशपरीक्षाओं के औचित्य और उनकी प्रामाणिकता पर नीतिगत् निर्णय लेने चाहिये ।
-      दूसरी बात जो मैं करना चाहता हूँ वह यह है कि भारत की विशिष्ट संस्कृति, उत्कृष्ट सभ्यता और अनुकरणीय जीवनमूल्यों के साथ हो रहे नित नवीन बलात्कारों की निरंकुश श्रंखला भी हमारी चेतना को आन्दोलित कर पाने में सफल क्यों नहीं हो पा रही है ? क्या हम किसी अवतार की प्रतीक्षा कर रहे हैं ?
-      विद्या को देवी स्वीकारने की संस्कृति वाले देश में विद्या के साथ सुनियोजित पाखण्ड होते रहते हैं .... सरस्वती के साथ बलात्संग होता रहता है किंतु हम फिर भी बेहया और संवेदनहीन बने रहते हैं .... यह किस संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक है ?

हमारे देश में एक राजनैतिक बेहयापन यह भी है कि जब कोई सत्ता से बेदख़ल हो जाता है तो वह पूरी ग़ुस्ताख़ी और बड़ी मासूमियत के मिश्रण वाली धूर्तता के साथ सारा ठीकरा “एण्टी इंकम्बेंसी फ़ैक्टर” नामक एक अदृष्य व्यक्ति पर फोड़ देता है । किंतु दुर्भाग्य ! प्रजा को पता है कि राजा बनने की पंक्ति में खड़े लोगों का नाम कंस है और प्रजा के पास उन्हीं में से किसी एक कंस को चुन लेने के विकल्प के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है क्योंकि चेतनाहीन प्रजा को प्रतीक्षा है एक और अवतार की ।   

रविवार, 5 जुलाई 2015

हम कभी नहीं मरते


हम अमर हैं .....
क्योंकि हम अजन्मा हैं, जन्म और मृत्यु की सीमाओं से परे ।
हम अपनी मां के डिम्ब ( ओवम) और पिता के शुक्र (स्पर्म) के संयोग की निरंतरता के परिणाम हैं । हमारी संतान भी हमारे और हमारी पत्नी के शरीरांशों की निरंतरता के परिणाम हैं । यही क्रम है ....... जीव से जीव की निरंतरता का ।
जिसे हम मृत्यु कहते हैं वह रूपांतरण की एक संक्रांति स्थिति है । जिसे हम जन्म कहते हैं वह रूपांतरण की संक्रांति स्थिति का परिणाम है । वस्तुतः जन्म और मृत्यु जैसे शब्द भी सापेक्ष हैं ....सापेक्ष स्थिति को दर्शाने वाले शब्द ।
जो व्यक्त है वह गतिमान है । जो गतिमान है वह ज-गत है ।
जब हम गतिमान होते हैं तो एक स्थिति को छोड़ते हुये दूसरी स्थिति को प्राप्त करते हैं । गति का यही परिणाम है ...छोड़ना और पाना । शरीर की नश्वरता उसकी अमरता का विरोध नहीं है । मृत्य और जन्म की स्थितियाँ जीव की छोड़ने और पाने की जागतिक स्थितियाँ हैं ...गत्यात्मकता की द्योतक हैं ..... निरंतरता की द्योतक हैं ।  
जब कृष्ण ने कहा कि मैं अजन्मा हूँ ...... अमर हूँ, तो लोगों को लगा कि यह स्वयं को ईश्वर सिद्ध करने का पाखण्ड कर रहा है । कृष्ण अहंकारी है ...देवकी का पुत्र भला अजन्मा और अमर कैसे हो सकता है ! किंतु कृष्ण ने जो कहा वही सत्य है ....... हम सब अमर हैं । हम सब अपनी संततियों के रूप में सदा जीवित रहते हैं ....पीढ़ी-दर-पीढ़ी ......शरीर और भूमिकाओं में परिवर्तन करते हुये ।
जब भारतीय ऋषियों ने मनुष्य को नट कहा और जीवनव्यापार को नाट्य तो उनका आशय जीवन की निरंतरता में मनुष्य की सांसारिक भूमिकाओं के संदेश को निरूपित करना ही था ।
हमारी संतान हमारे कर्मों की भी निरंतरता है .....परिणाम है .... जिसे हम चाहे-अनचाहे भोगने के लिये बाध्य होते हैं । जब हम संतान के किसी कृत्य से सुखी या दुःखी होते हैं तो हम बीज रूप में अपने ही कृत्यों का परिणाम भोग रहे होते हैं । अपने ही कृत्यों के परिणाम से सुखी या दुःखी हो रहे होते हैं ।
हमारी संतान के सभी कृत्य हमारे ही रोपे बीजों का प्रतिफलन है । 
यह जो जनरेशन गैप है ........ जिसे हम अपने लिये एक बड़ी समस्या मानते हैं और दुःखी होते हैं ....अपनी ही संतान को कोसते हैं ......... वह वस्तुतः सांसारिक नाट्यशाला में भूमिकाओं का परिवर्तन है जिसे हमारी संतानें मंचित करती हैं । यह सब हमारे लिये रहस्य है । जो हमारे लिये रहस्य है वह परमसत्ता के लिये रास...लीला है ।

मंचन के लिये कभी हमें पॉज़िटिव रोल मिलते हैं तो कभी निगेटिव । यह निगेटिविटी और पॉज़िटीविटी ही सत्य है ब्रह्माण्ड का । इनमें से किसी भी एक को समाप्त नहीं किया जा सकता । इसलिये अपनी हर भूमिका का निर्वहन अनिवार्य है हमारे लिये । आनन्द और दुःख के क्षण ..... जिन्हें हम अपनी भूमिका में जीते हैं, जगत के रहस्य को अभिव्यक्त करते हैं । इस अभिव्यक्ति की नाटकीय स्वीकार्यता मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है ।