रविवार, 26 जुलाई 2015

मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्वराज्य की ओर


(ग्राउण्ड रिपोर्ट इण्डिया के सम्पादक विवेक उमराव ग्लेंडेनिंग की पुस्तक के सन्दर्भ में एक विमर्श)

जब मैं किसी लेखक या कवि को पढ़ता हूँ या किसी नाटक में कलाकारों को अपने-अपने किरदार जीते हुये देखता हूँ या किसी व्यक्ति के चरित्र को स्वयं से विशिष्ट पाता हूँ तो विश्वास होने लगता है कि समाज अभी जीवित है और वह भी अपनी पूर्ण संवेदनशीलता के साथ । यह विश्वास एक आभास भी हो सकता है या एक सत्य भी । मैं इस विश्वास में जीने के पर्याप्त कारण पाकर ख़ुश होता हूँ और आगे बढ़ने की पर्याप्त ऊर्जा के साथ जगत के संघर्षों में और भी शक्ति और निष्ठा के साथ प्रवृत्त हो जाता हूँ ।
          एक-दो वर्ष पूर्व विवेक जी का एक मेल मिला था जिसमें उन्होंने एक लम्बी यात्रा पर होने की सूचना दी थी । पर्यावरण के प्रति उनकी चिंताओं के कारण मैं उनके विचारों से कुछ वर्षों पहले जुड़ा था । भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी यायावरी यात्रा के अनुभवों को संजोते हुये अभी हाल ही में उनकी एक पुस्तक आयी है – “मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्वराज्य की ओर” ।
विरोधाभासों और विसंगतियों से भरपूर समाज के एक सामान्य किंतु महत्वाकांक्षी परिवार में जन्मे विवेक उमराव की संवेदनशीलता उन्हें जिस मार्ग में जाने की प्रेरणा देती है वह प्रशस्त होते हुये भी अपने स्वजनों के आशीर्वाद से युक्त नहीं है । यह स्थिति उनके सामाजिक और व्यक्तिगत संघर्षों को और भी कठिन बनाती है । प्रतिकूल स्थितियों में संघर्षशील रहने वाले विवेक उमराव अपनी स्वाभाविक उदात्त भावनाओं के साथ सामाजिक व्रणों के उपचार के लिये निकल पड़े हैं । उनकी यह यात्रा बुद्ध की यात्रा की तरह है । सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की आकांक्षा के साथ गाँव-गाँव भटकते हुये, वंचितों की पीड़ा को समीप से स्पर्श करते हुये विवेक ने मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्वराज्य की दिशा में जो कल्पना की है उसमें अवसरवादी अनुकूलन की प्रवृत्ति से मुक्त हो कर साहचर्यता की कामना की गयी है । उनकी कामना प्रेरणास्पद है, विचारोत्तेजक है और एक विमर्श की माँग करती है ।

प्रकृति की, जड़-चेतन सभी इकाइयों के साथ प्राकृतिक साहचर्यता में जीवनयापन के आदर्श की काल्पनिक वांछना उतनी ही सुखद प्रतीत होती है जितनी कि भारतीयों की अन्य सामाजिक-आध्यात्मिक अवधारणायें । कभी विनोबा भावे ने भी कल्पना की थी एक ऐसे समाज की जो आत्म-अनुशासित व आत्मनियंत्रित हो । उनकी कल्पना शासन-प्रशासनरहित स्वअनुशासित व्यक्तियों वाले समाज व राष्ट्र की थी । यह कल्पना भी पूर्ववर्ती अन्य भारतीय मनीषियों की आदर्श कल्पनाओं से भिन्न नहीं थी ।
एक आदर्श समाज की स्थापना की परिकल्पना से पूर्व हमें कुछ बिन्दुओं पर गम्भीरता से चिंतन करना होगा । चिंतन का प्रथम बिन्दु है – व्यक्ति की प्रवृत्ति, दूसरा बिन्दु है समूह की प्रवृत्ति, तीसरा बिन्दु है अवतारवाद और चौथा बिन्दु है सृष्टिवाद । 
अपने नित्यप्रति के जीवन से हमने सीखा है कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति प्रकृति से विकृति एवं विकृति से प्रकृति की ओर गतिमान रहने की होती है । प्रतिलोम दिशा में इस गति के तीन चरण होते हैं – एक है प्रकृति, दूसरी है संक्रांति और तीसरी है विकृति । इसी तरह अनुलोम दिशा में भी इस गति के तीन चरण होते हैं – एक है विकृति, दूसरी है संक्रांति और तीसरी है प्रकृति ।
अधिकार की आकांक्षा, और अधिक पाने की लिप्सा, श्रम से विमुखता, दूसरों के अधिकारों के हनन का विकृताभाव और अहंकार ऐसे तत्व हैं जो मनुष्येतर हिंसक प्राणियों से लेकर मनुष्य तक क्रमशः अधिक मात्रा व तीव्रता में पाये जाते हैं । इस दृष्टि से मनुष्य सर्वाधिक हिंसक और क्रूर प्राणी है । सभ्य समाज के मनीषी सदा ही एक ऐसे मार्ग की प्राप्ति के लिये भटकते रहे हैं जो विमार्गगामी मनुष्य को सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करने में सहायक हो सके, किंतु कलियुग से श्रेष्ठ रहे कालखण्डों में, यानी सतयुग, त्रेतायुग और द्वापर में भी ऐसा नहीं हो सका ...क्यों नहीं हो सका ऐसा ? यह विचारणीय है ।  
मनुष्य ब्रह्माण्ड की एक समानांतर सूक्ष्म इकाई है जो ब्रह्माण्ड को उसकी सम्पूर्णता के साथ व्यक्त करने में समर्थ है । परमाणु की तीन प्रमुख घटकशक्तियों, क्रमशः तमोगुणी इलेक्ट्रॉन, रजोगुणी प्रोटॉन और सतोगुणी न्यूट्रॉन के भौतिक व रासायनिक गुणों से हम सभी परिचित हो चुके हैं । परमाणु का अंतराकाश परमाणु के विभिन्न क्रिया-व्यापारों का कर्मक्षेत्र है जो व्यापक सम्भावनाओं का कारणघटक बनकर शून्य होते हुये भी बहुत कुछ है । परमाण्विक क्रिया-व्यापार का कारक तमोगुणी मोहावृत इलेक्ट्रॉन वह प्रमुख तत्व है जो विभिन्न रासायनिक क्रियाओं में सक्रियता से अपनी भूमिका का निर्वहन करते हुये रासायनिक संयोग-वियोग का कारण बनता है । हमारी अनुकूलताओं की परिभाषा में ये संयोग-वियोग कभी रचनात्मक होते हैं तो कभी विघटनात्मक, कभी सुखद होते हैं तो कभी दुःखद, कभी आशा के अनुरूप होते हैं तो कभी आशा के प्रतिकूल । हमारे शरीर की कोशिकाओं के लिये फ़्री रेडिकल्स नामक सुपरऑक्साइड्स ऐसे आवारा सांड़तुल्य हैं जो अच्छी-भली कोशिकाओं के खेत में मुँह मारने की प्रवृत्ति से बाज नहीं आते । इन्हें नियंत्रित करने के लिये एण्टीऑक्सीडेण्ट्स का होना अनिवार्य है । समाज में भी ऐसे फ़्री रेडिकल्स की कमी नहीं है जो समाज को क्षतिग्रस्त करते रहने में अहर्निश संलिप्त रहते हैं । समाज के यही सुपरऑक्साइड्स आर्थिकघोटालों में लिप्त होते हैं, संसद पर हिंसकआक्रमण करते हैं, लड़कियों से बलात्कार करते हैं, अपने बनाये ईश्वरीय और भौतिक नियम पूरे विश्व पर थोपने के लिये हिंसक घटनाओं को प्रशस्त माध्यम मानते हैं .....। शरीर हो या समाज, ये सुपरऑक्साइड्स प्रकृति को विकृत करने के कार्य में लगे रहते हैं । प्रकृति से विकृति की ओर होने वाली यह अप्रिय गति एक स्वाभाविक अनिवार्यता है और हमारे लिये चुनौती भी जिससे सभी सभ्यतायें जूझती रही हैं । द्वैत-अद्वैत के सिद्धांतों के माध्यम से भारतीय मनीषी इन चुनौतियों को समझने और समझाने के प्रयत्न करते रहे हैं ।
प्राणियों के व्यवहार में एक विचित्र बात देखने में यह आती है कि उनके व्यक्तिगत और सामूहिक आचरण सदा एक से नहीं हुआ करते । जब हम अकेले होते हैं तो हमारा आचरण और व्यवहार उस आचरण और व्यवहार से भिन्न होता है जो हमारे द्वारा समूह में साथ होते समय किया जाता है । हमारा अकेलापन हमें शांत बनाता है, धार्मिक और परोपकारी बनाता है, उदात्त बनाता है .......वहीं भीड़ हमें उग्रता के लिये प्रेरित कर सकती है, हमें पाखण्डी और स्वार्थी बना सकती है । भीड़ का आचरण एकांगी भावना और अविवेकपूर्ण निर्णयों से प्रेरित हो सकता है जबकि व्यक्ति का आचरण सम्यक चिंतन, समग्रता और विवेकपूर्ण निर्णयों से प्रेरित हो सकता है । व्यक्ति के रूप में हम तत्पर आदर्श, निष्ठावान और प्रतिस्पर्धा रहित होते हैं वहीं भीड़ के रूप में हम शिथिल आदर्श, पथभ्रष्ट और ईर्ष्यालु होते हैं ।
व्यक्ति और समाज के आचरण को कई बाह्यकारक भी प्रभावित करते हैं । बीसवीं शताब्दी में तकनीकी यांत्रिकता और औद्योगीकरण ने व्यक्ति और समाज को बहुत प्रभावित किया है । इस प्रभाव ने मनुष्य की जीवनशैली, उसका चिंतन, मानवीय मूल्य, सामाजिक मान्यतायें और उसकी प्राथमिकताओं को बदल कर रख दिया है । अब हमारे सामने जीवनशैलीजन्य नयी-नयी व्याधियाँ हैं, एण्टीबायटिक्स के अविवेकपूर्ण प्रयोगों से उत्पन्न रोगाणुओं की नयी प्रजातियों की चुनौतियाँ हैं, अनावश्यक आवश्यकताओं को पूरा करने वाले ढेरों उत्पाद हैं जिन्हें बेचने के लिये दुष्ट व्यापारिक प्रतिस्पर्धायें हैं, औद्योगिक अमानवीयता की निरंकुश होती जा रही क्रूर घटनायें हैं, पिघलते हुये हिमनद हैं, बाँधों में जकड़ी हुयी बन्दी नदियाँ हैं, लड़खड़ाता हुआ पर्यावरण है, वर्गभेद हैं, यौनहिंसा है, निर्दोष हत्यायें हैं, विस्फोट हैं, फ़िदायीन हमले हैं, छद्मधार्मिक संघर्ष हैं, विवाद में पड़े हुये ईश्वर हैं, मनमाना इतिहास है, अपसांस्कृतिक युद्ध हैं, सिमटते हुये खेत हैं, फैलते हुये नगर हैं, बिखरते हुये परिवार और टूटते हुये लोग हैं । हमें इसी कंकरीले-पथरीले बियाबान में एक नयी राह बनानी है जहाँ से होकर हम एक ऐसे खेत में पहुँच सकें जिसमें कुछ लोग संवेदनाओं की खेती कर सकें, मानवीयता के पुष्प उगा सकें, पड़ोसी के दुःख से दुःखी होकर अकृत्रिम आँसू बहा सकें, बुज़ुर्गों के पोपले और झुर्रियों भरे चेहरे पर हंसी बिखेर सकें, प्रसन्न होने पर आनन्द के साथ नाच सकें और जिस दिन पड़ोसी के चेहरे पर मायूसी हो उस दिन उसे अपने घर आमंत्रित कर सकें ।
औद्योगीकरण और मशीनों ने हमें यांत्रिक बना दिया है, हमारी सामाजिक संवेदनाओं की हत्या कर दी है, हमें स्वार्थी और निकम्मा बना दिया है, हमारी सोच और जीवनशैली को संकुचित कर दिया है, समाज के प्रति हमारे उत्तरदायित्वों से हमें विमुख कर दिया है । हम बदल गये हैं .... हमने परिवार को खण्डित कर दिया है और समाज को असामाजिक बना दिया है जहाँ अवसरों पर डाका डालने की प्रवृत्ति निरंकुश होती जा रही है । हमें व्यक्ति और समाज की वर्तमान रुग्णता के इटियोलॉज़िकल फ़ैक्टर्स को समझना होगा और यथा सम्भव वैचारिक क्रांति के लिये स्वयं को तैयार करना होगा ।
जिस तंत्र को हमने बड़ी आशाओं से स्थापित किया था उसमें विचारों की अभारतीय खाद डालकर उसे और भी विकृत करने की परम्परा को सुस्थापित किया है । हमने द्वैताद्वैत सिद्धांत को जीवन के लिये अप्रासंगिक बना दिया है । हमने स्वयं को देखने के लिये दूसरों की आँखों का सहारा लेना अधिक उचित समझा है । हम एक भटके हुये और असंस्कारी समाज के सदस्य हैं जिसे सारी मर्यादाओं को छिन्न-भिन्न करने में विश्वास है । बहुत कम लोग हैं जो मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्वराज्य चाहते हैं और इसके लिये अपने-अपने स्तर से संघर्षशील भी हैं जबकि शेष समुदाय जिसमें वंचित और शोषित भी हैं, उसी वंचना और शोषण की श्रृंखला में अपनी स्थिति को मात्र बदलना भर चाहते हैं ..... वंचित और शोषित के स्थान पर वंचक और शोषक बन जाना चाहते हैं । भारत की भीड़ ऐसे ही लोगों से बनी है, किंतु ........ जो अंधेरे में दीपक जलाये रखने के पक्षधर हैं, जो संवेदनशील हैं, जो उच्च मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिये कटिबद्ध हैं उन्हें स्वयं दीपक बनना होगा, स्वयं ही तेल बनकर खपना होगा और स्वयं ही बाती बनकर जलना भी होगा । समाज इसी तरह लुढ़कता हुआ, जलता हुआ चलता है ।
भारत के अधिसंख्य लोग किसी सुखद परिवर्तन के लिये किसी अवतार की प्रतीक्षा में रहने के अभ्यस्त हैं । यह भीरु और अकर्मण्य लोगों का समुदाय है जिनके लिये शब्द महत्वपूर्ण होते हैं उनके अर्थ नहीं । यह एक पाखण्डी वर्ग है जो अवसर चुराने में दक्ष है । यह एक ऐसा वर्ग है जो पुण्य लूटने के लिये सदा तैयार रहता है भले ही उसके लिये उसे कैसा भी अकरणीय और अतार्किक कृत्य ही क्यों न करना पड़े । यह वर्ग रातोरात किसी भी व्यक्ति को भगवान बना सकता है और उसकी भक्ति में डूबकर जघन्य अपराध भी कर सकता है । हमें ऐसे ही समाज के उत्थान के लिये जलना है ...जल कर ख़ाक हो जाना है .... यह एक ज़ुनून है ..... यह एक दीवानापन है ..... यह एक इश्क है ।

जिस तरह पैथोलॉजी समझने से पहले एनाटॉमी और फ़िज़ियोलॉजी समझना अनिवार्य है उसी तरह मनुष्य को और ब्रह्माण्ड के साथ उसके सम्बन्धों को समझने के लिये सृष्टि की प्रक्रिया को समझना अनिवार्य है । यह समझना अनिवार्य है कि सृष्टि की उत्पत्ति और लय के भौतिक-पराभौतिक सिद्धांत क्या हैं । इसके लिये हमें परमाणु, उसके अवयवों और उसकी शक्तियों से आगे की स्थिति पर विचार करना होगा । हमें उस स्थिति पर विचार करना होगा जहाँ मैटर, क्वालिटी में और क्वालिटी, अनमैनीफेस्ट में अनुलोम या प्रतिलोम गति से रूपांतरित हो रहे होते हैं । स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्म से स्थूल की यह यात्रा सार्वदेशिक और सार्वभौमिक है ....अर्थात मनुष्य पर भी लागू होती है । यह शून्य से सूर्य के बनने की और फिर सूर्य से कृष्णविवर बनने की कहानी है जहाँ मैटर क्वालिटी में रूपांतरित हो जाता है । इससे आगे की यात्रा शून्य हो जाने की यात्रा है । इस सम्पूर्ण यात्रा में उत्साह है, निराशा है, आनन्द है, दुःख है, मिलना है, बिछड़ना है ...... । इस यात्रा में हमें स्वयं को खोजना है, अपने होने के अर्थ को समझना है, और हर स्थिति को उसके उसी रूप में स्वीकार करना है ..... एक दीपक जलाये रखते हुये ।   

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.