सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

प्रतिलोमगामी सम्मान


यह विक्रम संवत 2072 की कथा है यानी महाभारत युद्ध के सहस्रों वर्ष पश्चात् की कथा !
अस्तु, हे श्रृद्धालुओ ! एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में सुगंधित तरुणीपुष्प धारण करने वाली, बिम्बीफल सदृश रक्तिम अधरों पर मंदस्मित के स्थायी लेपावरण से सुशोभित, पुष्पक विमानचारिणी, पुरुषांकगामिनी सुखविंदर कौर नामक सुंदरी के मोहजाल से मात्र कुछ क्षणों के लिये मुक्त होकर इस अति लघु किंतु अतिमंथनीय कथा का श्रवण करने की कृपा कर हमें कृतार्थ करें । मूल कथा इस प्रकार है –

        आवेदन पत्र लिखकर ... यानी निवेदन करके ... यानी अनुनय-विनय करके ... यानी कृपा पात्र बनकर ... यानी भीख माँगकर प्राप्त पुरस्कार एक दीर्घकालोपरांत पुरस्कारदाता को वापस किये जाने की एक योजना जम्बूद्वीपे भरतखण्डे में क्रियान्वयित हो रही है । अनायास ही एकांगी बुद्धिजीवियों का अन्यांगी विवेक जाग्रत हो गया है ।
        एकांगी और अन्यांगी विवेक एक दार्शनिक स्थिति है जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है –

       जब हमारा चिंतन सार्वदेशज नहीं होता तब वह सत्य के व्यापक स्वभाव को त्याग देता है । ऐसे बुद्धिजीवी कूपवासी स्वभाव वाले होते हैं । उनका अपना ब्रह्माण्ड होता है जो व्यापक न होकर संकुचित होता है । इस स्वनिर्मित ब्रह्माण्ड की सीमायें होती हैं जिसके कारण ये कूपवासी ज्ञान अर्थात् वेद को शत्रुभाव से देखते हैं । ऐसे व्यक्ति जब साहित्यकार योनि में जन्म लेते हैं तो केवल माओ और स्टालिन देवताओं की आराधना-उपासना करते हैं ।
        अब हम अन्यांगी विवेक की व्याख्या कर रहे हैं जिसे ध्यानपूर्वक श्रवण करें । अन्यांगी विवेक वह विवेक होता है जो वर्गविशेष मात्र के लिये चिंतित रहने के प्रदर्शन मात्र के उद्देश्य से ही हलचलावस्था को प्राप्त होता है । इसे उदाहरण के द्वारा समझिये - 
        जब की हत्या होती है तो इनका एकांगी विवेक सुषुप्तावस्था यानी हाइबरनेशन की स्थिति को प्राप्त हो जाता है जिसके कारण ये प्रतिक्रियाविहीन प्राणी में रूपांतरित हो जाते हैं ।
      जब की हत्या होती है तो इनका अन्यांगी विवेक हलचल की स्थिति को प्राप्त हो जाता है जिससे इनकी आत्मा अत्यंत उद्वेलनावस्था को प्राप्त हो जाती है । ये वर्गभेद के विरुद्ध संघर्ष करने के छलपूर्ण प्रदर्शन में दक्ष होते हैं किंतु इनकी रचित  परिभाषायें मनुष्य को वर्गों में विभक्त करने की अभ्यस्त होती हैं । जब तस्लीमा नसरीन को उत्पीड़ित किया जाता है तो ये हाइबरनेशन को प्राप्त हो जाते हैं, जब कलबुर्गी की हत्या होती है तो इनका अन्यांगी विवेक क्रियाशील हो उठता है ।

कथा का उपसंहार –

हम किसी भी प्रकार के उत्पीड़न या वध के विरुद्ध हैं । किसी प्रतिक्रियावादी विचारक का वध करके विचारों का वध कर पाना उतना ही असम्भव है जितना लालू नामक प्राणी से सभ्यआचरण की आशा करना । सनातनधर्म से लिंगायत धर्म और पुनः लिंगायत धर्म से हिंदूपरम्पराओं के अनुशीलन की स्थिति से उत्पन्न धर्म के विलीन होने के आसन्न संकट से भयभीत कलबुर्गी ने एक प्रतिक्रियात्मक धर्म की पुनर्स्थापना के लिये जीवन भर संघर्ष किया जो उनके स्वभाव और मूल्यों के अनुरूप था । वैचारिक मतभेद और वैचारिक खण्डन-मण्डन मनुष्य का स्वभाव है । वैचारिक खण्डन किसी भी विचार, मत, परम्परा और रूढ़ि के परिष्कार और सत् विचार के पुनर्स्थापन के लिये एक आवश्यक प्रक्रिया है । नैतिक-सामाजिक मूल्य, अनुकरणीय परम्परायें, शुभ अनुष्ठान .... ये सब दीर्घकालोपरांत विकार और क्षरण की ओर अग्रसर होते ही हैं । इनमें स्थायित्व की आशा नहीं की जा सकती । कलबुर्गी जैसे लोग भले ही लिंगायतधर्म के लिये चिंतित रहे हों किंतु उनकी चिंता सनातनधर्म के हित में प्रचलित पाखण्ड के परिष्कार और मूल्यों के परिमार्जन के लिये एक सशक्त आधार ही नहीं निर्मित करती अपितु हम सबको प्रेरणा भी देती है कि मूल्यों का निरंतर परिमार्जन आवश्यक है अन्यथा ईश्वर और सूक्ष्म शक्तिस्वरूपा देवियों की वैज्ञानिक अवधारणा को विकृत होने से कोई रोक नहीं सकता और तब भोगविलास को ही जीवन का लक्ष्य बना चुकीं सुखविंदर कौर जैसी नितांत सांसारिक स्त्रियों को दुर्गा देवी के नवस्वरूपों में रूपांतरित होने के अभिनय में समय नहीं लगता ।

सम्मान वापस करके
लेखनी तोड़ दी तुमने ।
भरोसा उठ गया
लेखनी की शक्ति से तुम्हारा ।
भूल गये  
लेखनी वल्गा है
लेखनी सूरज है  
लेखनी अस्त्र है,
लेखनी शस्त्र है,
सत्ता से नहीं चलती लेखनी
लेखनी से चलती है सत्ता ।
आओ हम लेखनी उठायें !

आओ हम सत्ता चलायें !     

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

फ़ल्लुज़ाह के बाज़ार में बिकती हैं लड़कियाँ




पता नहीं इस धरती के वाशिंदे इतने असंवेदनशील क्यों हैं, वैश्विक समाज के लोग दूसरों की त्रासदी पर विचार करते भी हैं या नहीं ? ईसवी सन् 2012 के बाद मध्य एशिया से आने वाली ख़बरों ने हमारे दिल-ओ-दिमाग़ को दहला दिया है । ये ख़बरें तब आ रही हैं जब धरती के वैज्ञानिक आये दिन अंतरिक्ष में अपने उपग्रह भेजते रहते हैं ... इस उम्मीद में कि शायद धरती जैसा कोई और ग्रह मिल जाय जहाँ मनुष्य रह सके । मनुष्य को एक और धरती की तलाश है, शायद यह धरती उसके लिये कम पड़ गयी है अपने ज़ुल्म-ओ-सितम ढाने के लिये ? ईराक़ के मानवाधिकार मंत्रालय के अनुसार अनबर सूबे के फ़ल्लुज़ाह शहर में इस्लामिक स्टेट्स के लड़ाकों द्वारा युद्ध में जीती गयी सीरिया और ईराक़ की ग़ैर मुस्लिम लड़कियों की ख़रीद-फ़रोख़्त ज़ारी है । फ़ल्लुज़ाह में ऐसे बाज़ार लगभग हर रोज़ लगते हैं । 
किसी गाँव, कस्बे या शहर पर हमले के बाद पकड़े गये लोगों में से दस साल से अधिक उम्र के क़ाफ़िर मर्दों को महिलाओं से अलग कर दिया जाता है । इनमें से अधिकांश मर्दों की क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी जाती है । कम उम्र के लड़कों को इस्लामिक स्टेट की ख़िदमत के लिये रख लिया जाता है और लड़कियों को शरीयत के अनुसार मर्दों की ज़िस्मानी हविस के लिये हथकड़ियों में जकड़ कर बाज़ार लाया जाता है जहाँ उन लड़्कियों के ज़िंदा गोश्त का मोल-भाव किया जाता है । यानी अल्लाह का एक बंदा एक बंदी को सिर्फ़ इस लिये बेच देता है क्योंकि वह एक ख़ूबसूरत औरत है । ईराक के मानवाधिकार मंत्रालय के अनुसार बाज़ार में इस ज़िंदा सामान की कीमत ज़िस्म की उम्र के हिसाब से तय की जाती है । पकड़ी हुयी स्त्रियाँ “फ़तह का माल” होती हैं जिनका पुरुष यौनेषणा की पूर्ति के लिये किसी भी रूप में स्तेमाल किया जाना शरीयत कानून के अनुसार न्यायसंगत माना जाता है । ख़ूबसूरत और कम उम्र की लड़कियाँ “ज़िहाद निकाह” के लिये बाध्य होती हैं । 
ईराक और सीरिया में क्रिश्चियन, यज़ीदी, शाबैक और कुर्दिश समुदाय के लोग इस्लामिक स्टेट के आसान शिकार हो रहे हैं । 2012 से सीरिया के पुरुष लगातार क्रूर हत्या के शिकार हो रहे हैं । सीरिया की बेग़ुनाह स्त्रियाँ, जिनमें छोटी बच्चियाँ भी सम्मिलित हैं, सामूहिक यौनौत्पीड़न की शिकार हो रही हैं ।  एक समुदाय दूसरे समुदाय को धर्म की फ़तह के लिये ख़त्म करने पर आमादा है । हम इक्कीसवीं शताब्दी में एक बार फिर सदियों पुराने आदिम युग की क्रूरता का नंगा नाच देखने के लिये विवश हैं । इस्लाम के नाम पर इस्लामिक और ग़ैरइस्लामिक स्त्रियों पर होने वाली क्रूरता को रोकने के लिये सबसे बड़ी भूमिका इस्लामिक दुनिया की आधी आबादी की ही है । जबतक यह आधी आबादी अपने आत्मसम्मान और स्वाभिमान के लिये उठ कर खड़ी नहीं होगी तब तक इसे रोक पाना सम्भव नहीं लगता ।

        धरती का एक समुदाय क्रूरता की बुलंदियों को स्पर्श करता जा रहा है और वसुधैव कुटुम्बकम् की भारतीय वैश्विक अवधारणा अर्थहीन होती जा रही है । सीरिया की धरती भारत से बहुत दूर है, हमें उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है किंतु समस्या जब मानवीय उत्पीड़न और क्रूरता की हो तो भौगोलिक सीमाओं का कोई अस्तित्व नहीं होता ।   


बाज़ार में बेचने के लिये लायी गयीं लड़कियाँ ! हमारी सभ्यता का मापदण्ड क्या है ? 


हैवानियत की कोई सीमा नहीं रखी गयी है इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में ..... 


इनका सबसे बड़ा ग़ुनाह यह है कि ये लड़कियाँ हैं  .....और कोई कानून इनकी रक्षा करने में सक्षम नहीं हो सका है आज तक  


यहाँ मैं कोई कैप्शन दे सकने की स्थिति में नहीं हूँ ... मेरी रूह काँपने लगी है और ख़ून खौलने लगा है ।   


 .....और यह है इस्लामिक स्टेट वालों का इस्लामिक कानून 


 ..... आख़िर औरत को मनुष्य कब माना जायेगा ?