मंगलवार, 19 मई 2015

सभ्यता का क्रूर मुखौटा

यह पर्वत ऊँचा है
हिमालय से भी अधिक
जिस पर जमी हुयी है बर्फ़
बेशुमार दर्द की ।

सवाल उठते रहे हैं
कि क्यों नहीं पिघलती
यह बर्फ़
जो जमी है न जाने कब से ।

लोग ज़वाब चाहते रहे हैं
लेकिन
हमेशा की तरह रहकर ख़ामोश
क्रूरता से मुस्कराते भर रहते हैं
ज़वाब देने वाले ।
उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
इस बात से
कि एक बार फिर मर गयी है
एक माँ
एक और
नयी अरुणा शानबाग बनकर
पैदा होने के लिये ।

मैथिली शरण ने यूँ ही नहीं कहा था
“अबला जीवन
हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध
और आँखों में पानी”।

आज
टिमटिमाकर बुझते-बुझते  
चली गयी है वह
सदियों पुराने सवाल छोड़कर
और मार कर एक तमाचा

सभ्यता के क्रूर मुखौटे पर ।  

रविवार, 10 मई 2015

बख़्तियार ख़िलज़ी

नालन्दा विश्वविद्यालय के भग्नावशेष

बख़्तियार ख़िलज़ी ! एक ऐसा नाम है जो भारत के सीने में आज भी एक नेज़े की तरह गहरा घुसा हुआ है । हम उस नाम को भूल जाना चाहते हैं किंतु उसकी दी हुयी पीड़ा इतनी गहन है कि चाह कर भी उसे भूल नहीं पा रहे । पटना के पास एक छोटा सा रेलवे स्टेशन है बख़्तियारपुर । मैं जब-जब वहाँ से होकर गुज़रता हूँ तब-तब बख़्तियार ख़िलज़ी की याद मेरे सीने में नेज़े सी चुभने लगती है । कुछ महीने पहले बिहार प्रवास के समय जब ट्रेन बख़्तियारपुर रेलवे स्टेशन से हो कर गुज़री तो वर्षों पूर्व देखे नालन्दा विश्वविद्यालय के भग्नावशेषों की स्मृति चलचित्र की तरह मस्तिष्क में उभर आयी । बख़्तियार ख़िलज़ी एक ऐसे व्यक्ति का नाम है जिसने नालन्दा को लूटा, सामूहिक नरसंहार किया और नालन्दा विश्वविश्वविद्यालय को न केवल नष्ट किया बल्कि उसके ग्रंथालय में आग भी लगा दी । तब बड़े परिश्रम से हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ तैयार की जाती थीं । नालन्दा विश्वविद्यालय के ग्रंथागार की ये पाण्डुलिपियाँ कई महीने तक जलती रही थीं ।   
कल भारत की गुरुकुल परम्परा की तुलना में आधुनिक शिक्षा प्रणाली के विषय पर एक समाज-वैज्ञानिक विमर्श के तारतम्य में बख़्तियार ख़िलज़ी की कटुस्मृति ने फिर मेरे घाव को ताज़ा कर दिया जिसके कारण आज मैं यह लेख लिखने के लिये बाध्य हुआ हूँ ।

इस पृथिवी पर सह अस्तित्व के साथ विकास की परम्परा के कई उत्कृष्ट उदाहरण मिल जायेंगे किंतु सह अस्तित्व का एक कलंकपूर्ण उदाहरण भी है और वह है -  शक्ति और धन के लिये सत्ता की प्राप्ति एवं सत्ता की प्राप्ति के लिये शक्ति और धन का संचय । यह एक ऐसा चक्र है जिसमें लोग बड़े उत्साह और प्रसन्नता के साथ उलझते रहे हैं । सत्ता, शक्ति और धन के सहअस्तित्व ने मानव समाज को सम्मोहित भी किया है और आक्रोशित भी । किंतु सभ्यतायें  और संस्कृतियाँ इन तीनों तत्वों के मध्य सदैव ही एक सात्विक सामंजस्य की कामना करती रही हैं । तत्व ज्ञान बड़ी नम्रता किंतु दृढ़ता के साथ हमारा मार्गदर्शन करता रहा है जिसकी हम प्रायः उपेक्षा करते रहे हैं ।
इसी सम्मोहक त्रयी के वशीभूत होकर पूरी दुनिया में तलवारें चलती रहीं, सिल्क रूट जैसे व्यापारिक मार्ग विकसित होते रहे, समुद्री मार्ग खोजे जाते रहे, हिमनदों- पर्वतों-नदियों-नालों और समुद्र को लाँघते-फ़ांदते काफ़िले पूरी धरती पर हड़कम्प मचाते रहे । लूट, व्यापार और सामूहिक हत्याओं के सहारे मनुष्य धरती को नापता रहा । इस बीच बहुत कुछ नष्ट हुआ, थोड़ा सा निर्माण भी हुआ और भारत एक वैश्विक चारागाह बनता चला गया । यूनान, अरब, चीन, और मध्य एशिया के लुटेरे भारत को जी भर लूटते रहे, हत्यायें और बलात्कार करते रहे, धर्मांतरण करते रहे और आर्यावर्त की सीमाओं को काट-काट कर छोटा करते रहे । सातवीं शताब्दी में भारत आने वाले विदेशी व्यापारियों के वंशजों की दृष्टि धीरे-धीरे सत्ता की ओर भी केन्द्रित हुयी । भारतीयों की दुर्बलतायें उन्हें आकर्षित करती रहीं और अंततः विदेशियों ने भारत की धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफलता पा ही ली ।
सातवीं शताब्दी से लेकर आज इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक के काल में भारत की सर्वाधिक क्षति बारहवीं शताब्दी में हुयी जब 1193 में बख़्तियार ख़िलजी ने लूट और सामूहिक नरसंहार के साथ-साथ सैकड़ों वर्ष पुराने भारतीय विश्वविद्यालयों एवं ग्रंथालयों को जलाने और उन्हें नष्ट करने की नयी परम्परा डाली । शिक्षा केन्द्रों और ग्रंथालयों को नष्ट करना किसी भी समाज की अपूरणीय क्षति है । पूरे विश्व में इस प्रकार की अपूरणीय क्षति जिन संस्कृतियों और समुदायों की हुयी है उनमें भारतीय, पेगंस और ज़ोरोस्ट्र के नाम सबसे ऊपर हैं । आज जब हम नालन्दा, ओदंतपुरी, तक्षशिला, विक्रमशिला, सोमपुरा, जगद्दला और वल्लभी जैसे विश्वविख्यात विश्वविद्यालयों के भग्नावशेष देखते हैं तो हृदय गहन वेदना से भर उठता है ।
दुर्भाग्य से, हम आज भी इतिहास से कुछ भी सीखने के लिये तैयार नहीं हैं । भारतीयों को आत्ममंथन करना होगा, यह विचार करना होगा कि आख़िर हमारी वे क्या दुर्बलतायें थीं जिनके कारण हम अपने विश्वविद्यालयों की रक्षा नहीं कर सके । भारत की कई प्राचीन लिपियाँ लुप्त हो गयीं, भाषायें लुप्त होती जा रही हैं और एक मात्र वैज्ञानिक भाषा ‘संस्कृत” लोक व्यवहार से बहिष्कृत हो चुकी है । क्या हम शनैः-शनैः अपना सब कुछ लुप्त हो जाने दे रहे हैं ?  

 विक्रमशिला विश्वविद्यालय के भग्नावशेष

शुक्रवार, 8 मई 2015

गुरुकुल पद्धति एवं आधुनिक शिक्षा – एक समाज-वैज्ञानिक विमर्श


प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति – एक परिचय  

सीखना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है । मनुष्य समाज के विकास के साथ-साथ पीढ़ियों से अर्जित श्रुतज्ञान को लिपिबद्ध करने और फिर ज्ञान-विज्ञान को अपनी अगली पीढ़ियों में हस्तांतरित करने की आवश्यकता के क्रम में ज्ञान को संस्थाबद्ध किये जाने की आवश्यकता का अनुभव मनुष्य को हजारों वर्ष पूर्व हो चुका था । ज्ञान हस्तांतरण को संस्था का व्यवस्थित रूप देना एक कठिन कार्य था जिसे सबसे पहले भारतीयों ने वैदिक काल मे सफलतापूर्वक सुस्थापित किया । प्राचीन भारत में शिक्षा के आदान-प्रदान और शोध कार्यों के लिये आश्रमों, गुरुकुलों, परिषदों, सम्मेलनों और विश्वविद्यालयों का विकास तत्कालीन सत्ताओं और समाज के सहयोग से किया जाता रहा है । कालांतर में शिक्षा के इन केन्द्रों ने विश्वस्तरीय ख्याति अर्जित की और विश्व के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों में पाटलिपुत्र, नालन्दा, ओदंतपुरी, तक्षशिला, विक्रमशिला, सोमपुरा, जगद्दला, वल्लभी आदि की स्थापना ने भारत को शिक्षा के क्षेत्र में शीर्ष पर स्थापित कर दिया ।
बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ (1193) में बख़्तियार ख़िलजी के आक्रमण के साथ भारतीय विश्वविद्यालयों को नष्ट करने, जलाने और सामूहिक हत्याओं की जो वीभत्स परम्परा प्रारम्भ हुयी उसके कारण बारहवीं शताब्दी के अंत तक भारत की गौरवमयी शिक्षा व्यवस्था का पूरी तरह अंत हो गया । तेरहवीं शताब्दी से लेकर अट्ठारहवीं शताब्दी के अंत तक भारतीय शिक्षा तत्कालीन राजाओं, दानदाताओं और स्वयंसेवी आश्रमों की कृपा पर निर्भर रही । ब्रिटिश काल में शिक्षा पूरी तरह उपेक्षित रही किंतु अठारहवीं शताब्दी के अंत में ब्रिटिशर्स ने अपनी सत्ता संचालन के लिये देशज लोगों को तैयार करने के उद्देश्य से एक शोषणमूलक शिक्षा व्यवस्था को जन्म दिया । पश्चिमी षड्यंत्रों के फलस्वरूप उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के साथ ही आश्रम एवं गुरुकुल पद्धति पूर्णतः समाप्त कर दी गयी जिसके बाद भारत में आधुनिक शिक्षा व्यवस्था अपने अस्तित्व में आयी । स्वाधीन भारत ने ब्रिटिश परम्पराओं का अनुकरण करते हुये नयी शिक्षा नीति का निर्माण अवश्य किया किंतु वह किसी भी दृष्टि से भारत के लोगों की आवश्यकताओं और परम्पराओं की पोषक व्यवस्था नहीं बन सकी । स्वातंत्र्योत्तर भारत में शिक्षा के क्षेत्र में अविवेकपूर्ण प्रयोगों की अदूरदर्शी परम्परा स्थापित हुयी जिसने उच्च उपाधिधारी विद्यार्थियों के ऐसे समूह तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी जो मानवीय गुणों से शून्य एवं आत्मविश्वासहीन होने के कारण जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अव्यावहारिक सिद्ध हो रहे हैं । विद्यार्थियों में पनपती जा रही उग्रता, मनः अवसाद एवं आत्महत्या की प्रवृत्तियों ने शिक्षा के औचित्य पर गम्भीर प्रश्न खड़े कर दिये हैं । आज भारत में शिक्षा के स्तर में आयी भारी गिरावट के कारण निराशा और दिशाहीनता की स्थिति निर्मित हुयी है । पतन की स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी है कि आज विश्व के श्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों में भारत के एक भी विश्वविद्यालय का नाम नहीं है । 
भारत में, आज जबकि शिक्षा में नित नये प्रयोगों की एक श्रृंखला ही प्रारम्भ हो चुकी है और बुद्धिजीवी शैक्षणिक पतन से चिंतित हो रहे  हैं, हमें एक बार पलट कर अपने गौरवशाली अतीत पर भी चिंतन करना चाहिये । यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो निम्न बिन्दुओं के आधार पर विमर्श का एक युक्तियुक्त धरातल निर्मित होता है –

1-    शिक्षा का उद्देश्य :- प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य आत्मिक उन्नति, व्यक्ति निर्माण और गुणात्मक विकास हुआ करता था । उस समय की शिक्षा आज की तरह आजीविका मूलक नहीं थी । तब लोग आजीविका के लिये पारम्परिक कार्यों एवं कुटीर उद्योगों आदि पर निर्भर हुआ करते थे जिससे धीरे-धीरे उनमें पारम्परिक दक्षता और निपुणता आती गयी । आजीविका के लिये यह एक अच्छा और स्वाभाविक समाधान था । भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में शैक्षणिक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण शिक्षा का उद्देश्य आजीविकामूलक हो जाना है । शिक्षा पूरी होने के बाद आजीविका न मिलने पर अवसाद होने और अपराध की प्रवृत्ति पनपने के दुष्परिणामों से भारतीय समाज को जूझना पड़ रहा है।
2-    शिक्षा के विषय :- गुरुकुल प्रणाली में शिक्षा के विषय और उनकी संख्या विद्यार्थी की रुचि और क्षमता पर निर्भर हुआ करती थी, आज ऐसा नहीं है । प्रारम्भिक कक्षाओं में हर विद्यार्थी को एक समान विषय पढ़ने की बाध्यता ने विद्यार्थियों में अध्ययन के प्रति अरुचि उत्पन्न कर दी है जिसके कारण वे उन्हें जैसे-तैसे बोझ की तरह ढोने के लिये बाध्य होते हैं । शिक्षा, मूलतः मनुष्य की उत्सुकता, उत्कंठा और आनन्द का विषय है । आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने शिक्षा को एक नीरस क्षेत्र बना दिया है । यहाँ आधुनिक शिक्षा के विषयों पर चिंतन करना एक महत्वपूर्ण बिन्दु है । गुरुकुल पद्धति के समय शिक्षा गुणाधान का माध्यम हुआ करती थी, विद्यार्थी का गुणात्मक विकास और नैतिक उत्थान महत्वपूर्ण था जिससे विद्यार्थी एक सभ्य और सुसंस्कृत नागरिक बन कर देश और समाज के कार्यों में अपनी सहभागिता सुनिश्चित किया करता था । दुर्भाग्य से आज शिक्षा के क्षेत्र में हर प्रकार का नैतिक पतन आता जा रहा है जिसका एक बहुत बड़ा कारण अव्यावहारिक विषयों का अध्यापन किया जाना है । आधुनिक शिक्षा लोकहितकारी नहीं रही प्रत्युत वह औद्योगिक और शोषण मूलक होती जा रही है । यही कारण है कि उच्च शिक्षित और उच्च पदों पर बैठे लोग भी अनैतिक कार्यों में लिप्त पाये जा रहे हैं । वास्तव में शिक्षा के विषयों के चयन की प्रक्रिया एक जटिल किंतु देशज परम्पराओं व आवश्यकताओं पर आधारित सूझ-बूझ की अपेक्षा करती है जिसकी आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली में उपेक्षा की जा रही है । यह ध्यान रखा जाना चाहिये कि ‘सीखना’ जिज्ञासा शांत होने पर उत्पन्न संतुष्टि एवं आनन्द का एक मार्ग है ।  विद्यार्थी के लिये यह बोझ का कारण एवं अरुचिकर नहीं होना चाहिये । समाज और देश के लिये क्या उपयोगी एवं आवश्यक है इसका विचार किये बिना विषयों एवं पाठों का चयन शैक्षणिक पाखण्ड ही माना जायेगा जिसका व्यक्तिनिर्माण और सभ्य समाज की स्थापना में कोई योगदान नहीं है ।       
3-    शिक्षा का माध्यम :- भारत में शिक्षा का भाषायी माध्यम भी एक बड़ी समस्या है । मनुष्य के सीखने की मूल प्रवृत्ति सहज साधनों, उपकरणों और मातृभाषा में ही सुगम हो पाती है । दुर्भाग्य से भारत में मातृभाषा में अध्ययन-अध्यापन की रुचि एक षड्यंत्र के फलस्वरूप समाप्त की जा रही है।  नितांत अपरिचित भाषा में अध्यापन के कारण सीखने में बाधा, आत्मगौरव का अभाव और हीनभावना जैसे अवांछनीय दोषों से विद्यार्थियों को जूझना पड़ रहा है । गुरुकुल पद्धति में लोकभाषाओं, भारतीय भाषाओं एवं सुपरिचित सुसंस्कृत भाषा के अतिरिक्त किसी नितांत अपरिचित भाषा को माध्यम बनाये जाने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था । शिक्षा की गुणवत्ता, शिक्षा के स्तर और भारतीयता के गौरव के लिये विदेशी भाषा के स्थान पर भारतीय भाषाओं का प्रयोग बोधगम्यता और भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी युक्तियुक्त है ।
4-    शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश और पात्रता के मापदण्ड :- गुरुकुल प्रणाली में ज्ञान के लोककल्याणकारी उपयोगों के साथ-साथ दुरुपयोगजन्य संकटों पर भी दूरदर्शी चिंतन किया गया था । कोई विद्या किसी कुपात्र के पास न चली जाय जिससे पूरा समाज या राष्ट्र किसी संकट में पड़ जाय इस चिंता को ध्यान में रखते हुये गुरुकुल में प्रवेश की पात्रता-परीक्षा के कड़े नियम बनाये गये थे जो आज पूरी तरह ध्वस्त हो चुके हैं । आधुनिक शिक्षा में पात्रता के मापदण्ड आज विद्यार्थी की प्रवृत्ति, क्षमता, स्वभाव, चरित्र, नैतिक मूल्य आदि न होकर पूरी तरह उसकी स्मरणशक्ति को आधार बनाकर निर्धारित किये जा रहे हैं । बौद्धिक आरक्षण ने शिक्षा को और भी पतन के गर्त में ढकेलने का काम किया है । अपात्र को दी हुयी विद्या निश्चित फलदायी नहीं हो सकती – यह एक समाज-वैज्ञानिक तथ्य है जिसकी आज पूरी तरह उपेक्षा की जा रही है । यह ध्यातव्य है कि गुरुकुल प्रणाली में शिष्य को भी अपना गुरु चुनने और उसकी पात्रता परीक्षा की अद्भुत व्यवस्था की गयी थी ।  
5-    गुरु-शिष्य परम्परा :- गुरुकुल प्रणाली में गुरु-शिष्य सम्बंधों की अद्भुत गौरवमयी परम्परा विकसित की गयी थी । विश्वास, योग्यता, सम्मान, मानवीय और सामाजिक सम्बन्ध एवं निष्ठा के निर्मल धरातल पर स्थापित इस परम्परा में गुरु को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त था जो आज कहीं भी दिखायी नहीं देता । यह आधुनिक शिक्षा प्रणाली की ही देन है कि आज के शिष्यगण अपने गुरु को न केवल अपमानित करने को उद्धत रहते हैं अपितु उनके साथ हिंसक कृत्य करने में भी संकोच नहीं करते । गुरु आज अपने ही शिष्यों से सुरक्षित नहीं रह गये हैं जो निश्चित ही नैतिक पतन का स्पष्ट प्रमाण है ।
6-    मूल्यांकन प्रणाली :- बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक भारतीय गुरुकुलों में विद्यार्थी की शिक्षा के मूल्यांकन की पद्धति व्यावहारिक और शिक्षा के विभिन्न पक्षों को ध्यान में रखकर की जाती थी । सीखी हुयी विद्या के साथ-साथ विद्यार्थी का भी मूल्यांकन किये जाने की पद्धति प्रचलित थी । गुरु द्वारा पूरे अध्ययन काल तक विद्यार्थी का सतत मूल्यांकन किया जाता था जिसका उद्देश्य विद्यार्थी की सीखने की क्षमता, त्वरिता, अनुकरण, व्यावहारिक दक्षता, विद्या के उपयोग की योजना क्षमता एवं व्यक्तित्व परिवर्तन आदि हुआ करता था । आधुनिक शिक्षा में विद्यार्थी और उसमें आये व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन नहीं किया जाता जिसके कारण व्यक्ति निर्माण का उद्देश्य लगभग समाप्त सा हो गया है । आधुनिक शिक्षा में परीक्षा प्रणाली का आधार सीखना एवं व्यावहारिक पक्ष न होकर विद्यार्थी की स्मरण शक्ति है जिसे निश्चित ही किसी विद्यार्थी के सम्यक मूल्यांकन का वैज्ञानिक आधार नहीं माना जा सकता । वह बात अलग है कि निजी संस्थानों/उपक्रमों में सेवा हेतु दी जाने वाली परीक्षाओं में आज aptitude test को भी सम्मिलित किया गया है किंतु यह नियमित शिक्षा का आवश्यक भाग नहीं है । आधुनिक परीक्षा प्रणाली विद्यार्थी के निर्दुष्ट मूल्यांकन में पूरी तरह असफल सिद्ध हुयी है ।  
7-    उपाधि की प्रामाणिकता :- संस्थागत् शिक्षा की पूर्णावधि एवं योग्यता मूल्यांकन के आधार पर विद्यार्थी की औपाधिक उपलब्धता के लिये गुरुकुल प्रणाली में नैतिक मापदण्ड विकसित किये गये थे । गुरु के द्वारा मात्र इतना कह देना ही कि – “तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुयी, अब तुम व्यावहारिक जीवन में लोककल्याण के लिये अपनी विद्या का सदुपयोग करने की दक्षता प्राप्त कर चुके हो”  पर्याप्त माना जाता था । विद्यार्थी को दी गयी वाचिक उपाधि उच्च नैतिक मूल्यों एवं प्रतिष्ठा का प्रमाण थी जो आधुनिक शिक्षा में पूरी तरह समाप्त हो गयी है । गुरुकुल, आश्रम या विश्वविद्यालय की विशिष्ट प्रतिष्ठा ही विद्यार्थी की उपाधि की प्रतिष्ठा व स्तर निर्धारित किया करती थी ।  
8-    सामाजिक दायित्व की भूमिका :- वैदिक एवं उत्तरवैदिक काल में शिक्षा को धार्मिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व माना जाता था जिसके कारण आश्रमों, गुरुकुलों, परिषदों और सम्मेलनों में समाज ने स्वस्फूर्त दायित्व सुनिश्चित किये हुये थे । शिक्षा को आत्मज्ञान का माध्यम स्वीकार किये जाने के कारण समाज का सहज दायित्व तत्कालीन समाज की जागरूकता का प्रमाण है जो आज कहीं दिखायी नहीं देती । समाज के दायित्व को शिक्षा के व्यापारियों ने बड़ी चालाकी से हथिया लिया है । आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा अब एक व्यापार के रूप में पूरी तरह स्थापित हो चुकी है । शिक्षा की मूल अवधारणा इस व्यापार के विरुद्ध है । शिक्षा-उद्योग शिक्षा को लोककल्याणकारी न बनाकर शोषण एवं उत्पादनमूलक बनाता है । विद्या का पवित्र भाव अब समाप्त हो चुका है जिसके कारण निर्धन विद्यार्थियों के लिये उच्च शिक्षा एक स्वप्न बनकर रह गयी है ।  
9-    शैक्षणिक संस्थाओं की संचालन व्यवस्था :- उत्तरवैदिक काल में शिक्षा का स्वैच्छिक दायित्व यद्यपि समाज के अधीन था तथापि आश्रमों एवं गुरुकुलों आदि की आंतरिक व्यवस्था पूर्णतः संस्थागत(Autonomous body) हुआ करती थी । सत्ता एवं समाज का कोई हस्तक्षेप न होने के कारण शिक्षा सभी प्रकार के दोषों एवं भ्रष्टाचारों से मुक्त थी । भारतीय समाज मान्यताओं में विद्या को उपासना स्वीकार किया गया है । आधुनिक शिक्षा व्यवस्था ने विद्या के इस स्वरूप को समाप्त कर दिया है जिसके कारण सामाजिक पतन और मनुष्यजन्य दुःखों से हम सभी जूझने के लिये बाध्य हुये हैं ।

निष्कर्ष :-
1-    आधुनिक शिक्षा “शिक्षा” के मूल उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल सिद्ध हो रही है ।
2-    शिक्षा के औद्योगीकरण ने शिक्षा की पवित्रता को नष्ट कर दिया है ।
3-    शिक्षा के क्षेत्र में चल रहे प्रयोग एक तरह से स्वीकारोक्ति है कि अभी हमें शिक्षा के स्वरूप और उसकी व्यवस्था पर बहुत चिंतन एवं सुधार करने की आवश्यकता है ।
4-    चिंतन के विषय और सुधारों की दिशा क्या हो, इसका मार्गदर्शन हमें प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के गौरवशाली इतिहास से मिल सकता है ।
5- वास्तविक सुधार की राजनैतिक दृढ़ इच्छाशक्ति एवं समाज के संकल्प के सहयोग से शिक्षा को न केवल पूर्ववत् प्रतिष्ठा दिलायी जा सकती है अपितु इसके लोककल्याणकारी स्वरूप को भी पुनः स्थापित किया जा सकता है ।     

बुधवार, 6 मई 2015

अक्षर


आकाश में तैरती ध्वनि
ठहर गयी उतर कर
भोजपत्र पर,  
लोगों ने देखा
जहाँ ठहरी थीं ध्वनियाँ
वहाँ उभर आयी थीं 
कुछ रेखाकृतियाँ ।
 रेखाकृतियों का नामकरण हुआ
“अक्षर” ।
अक्षर की देह पाकर
ध्वनि मुदित हुयी
उसे अदृष्य होने से मुक्ति मिली ।
अक्षरों ने नृत्योत्सव मनाया
और तभी
प्रकट होने लगे
“शब्द”
देव
हर्षित हुये ।

“वागर्थाविव संपृक्तौ ....” ने धारण किया
नया चोला
“शब्दार्थाविव संपृक्तौ ....”
....................
जो होते जा रहे हैं अब
“शब्दार्थाविव असंपृक्तौ ....”
धूमिल होते जा रहे हैं
शब्दों के अर्थ
शब्द
अब विकृतचित्र बनाने लगे हैं ।
लुप्त हो गयी है माहेश्वरलिपि
लुप्त हो गयी है देववाणी । 
आकाश संज्ञान ले रहा है
उसने अभी-अभी बात की है
कृष्णविवर से
महेश्वर
प्रस्तुत होने ही वाले हैं
तांडव नृत्य के लिये ।

भोजपत्र 

भोज वृक्ष 


मंगलवार, 5 मई 2015

औरत होने की कीमत

आज फिर
एक छटपटाती चिड़िया उड़ रही है
कभी इस डाल
कभी उस डाल
उसके दिल में
एक हूक है
डबडबायी आँखों में
एक निराश होती फ़रियाद है
मन में
पश्चाताप है । 
आज फिर
एक युवती का भविष्य
निर्मम राजनीति की भेंट चढ़ गया है । 

अभी-अभी पता चला है
कि जो कसम खाते हैं
आम होने की
दर-असल वे कितने खास होते हैं ।
वह
जो अब
खा रही है
दर-दर की ठोकरें
उसने
अपना सब कुछ दे दिया
उन्हें
जो अवसरवादी थे ।
परिवर्तन की उम्मीद के पर लगाकर
उसने उड़ना चाहा था
किंतु उसे क्या पता
कि उसे चुकानी पड़ेगी
एक औरत होने की कीमत
कुछ मूल्यहीन निष्ठुरों की दुकान पर ।

मुल्क में
सियासत हो रही है 
कि एक आम ने  आम को  छला
या आम के चोले में एक खास ने
आम को छला ।
मेरी तो पीड़ा यह है
कि एक मातृशक्ति को
कुछ दरिन्दों ने
सरे आम बना लिया है
अपनी नसेनी का
एक अदना सा
किंतु महत्वपूर्ण डण्डा
जिस पर रखकर पैर
वे चढ़ते जायेंगे
चढ़ते जायेंगे
और पा लेंगे राजसिंहासन
एक दिन
एक नकाबपोश युवती के
दर्द की कीमत पर ।
माननीय आम जी !
आप तो आनन्द लीजिये
उस फ़ड़फड़ाती चिड़िया का 
जिसके दर्द का 
बना दिया गया है
एक चटखारेदार तमाशा ।