मंगलवार, 19 जनवरी 2016

सभ्यसमाज

- तब देश नहीं थे, सरहदें नहीं थीं, पशु-पक्षियों की तरह मनुष्य को कहीं भी स्वच्छन्द विचरण करने या रहने-बसने की ईश्वरप्रदत्त स्वतंत्रता थी । फिर हमने सभ्य होना शुरू किया तो सरहदें बनती चली गयीं । 
- जब हमने सभ्यता और विकास की खिचड़ी बनाने का स्वप्न देखना शुरू किया तो मारकाट मच गयी । 
- आज हम हिंसा और घृणा से घिरे सभ्य और विकसित समाज के भाग हैं ।
- तब धर्म ही व्याप्त था । सब कुछ धर्म से अनुशासित और संचालित था । उस धर्म ने मनुष्य को आश्चर्यचकित कर दिया था । 
- अचम्भित मनुष्य ने धर्म का विश्लेषण करना शुरू किया तो फ़िज़िक्स, न्यूक्लियर फ़िज़िक्स, केमिस्ट्री, फ़िज़ियोलॉज़ी, पैथोलॉज़ी जैसे कई रहस्य अनावृत हो चिन्हित होते चले गये । धर्म का रहस्य था ज्ञान जो अब अनावृत हो चुका था । 
- तमस ने प्रकृति के रहस्यों को अनावृत देखा तो उन पर झपट पड़ा और फिर जैसे ही उसने कुछ छद्म धर्मों की कूट रचना की वैसे ही धरती पर रक्तपात शुरू हो गया । 
- आज मनुष्यरचित धर्म और रक्तपात का चोली-दामन का रिश्ता बन गया है ।
हम विकास के व्यामोह में ब्रह्माण्ड के इस छोटे से ग्रह के धर्म को बदलने में अपनी सारी शक्ति लगाये दे रहे हैं ।


- किंतु धर्म कभी नहीं बदलता , हाँ कूटधर्मों की कूटरचना की जा सकती है जिन्हें गहन अन्धकार बहुत प्रिय है । 

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