रविवार, 28 फ़रवरी 2016

राष्ट्रवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

स्वेच्छाचारिता की वैश्विक स्वीकार्यता

वैश्विकसमाज के पक्षधर वामपंथी पुरोधाओं द्वारा जे.एन.यू. में छेड़े गये “आज़ादी के लिये बर्बादी” अभियान को वैश्विक स्वीकार्यता दिलाने के लिये प्रयास प्रारम्भ कर दिये गये हैं । जे.एन.यू. परिसर और देश के  विभिन्न भागों में विभिन्न आयोजनों के माध्यम से “खण्ड राष्ट्रवाद” और “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के असीमित विस्तार” जैसे विषयों पर बौद्धिक चर्चाओं का आयोजन प्रारम्भ किया गया है जिसका उद्देश्य अपने विचारों को न्यायसंगत ठहराते हुये प्रचारित और स्थापित करना है । वामपंथ का सत्ता पक्ष पर आरोप है कि उसने राष्ट्रवाद का सैन्यीकरण कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया है । उसने देश में युद्ध और आपातकाल जैसी स्थितियाँ निर्मित कर दी हैं । अस्तु ...इन सभी विषयों पर हमारा दृष्टिकोण बौद्धिक विमर्श हेतु इस वैश्विक चौपाल पर प्रस्तुत है –  

राष्ट्रवाद की अवधारणा – 

राष्ट्रवाद की अभी तक कोई ऐसी परिभाषा सुनिश्चित नहीं की जा सकी है जो पूरे विश्व में सर्वमान्य हो । राष्ट्रवाद को लेकर लोगों की भिन्न-भिन्न अवधारणायें हैं । किसी एक देश की अवधारणा को दूसरे देश पर थोपा नहीं जा सकता । दूसरी ओर यदि हम राष्ट्रवाद की पश्चिमी अवधारणाओं के दृष्टिकोण से भारतीय राष्ट्रवाद की व्याख्या करेंगे तो यह एक बहुत बड़ा बौद्धिक छल होगा । वर्तमान सन्दर्भों में राष्ट्रवाद सांस्कृतिक एकरूपता और लोकनिष्ठा का कम, राजनैतिक महत्वाकांक्षा का अधिक विषय हो कर रह गया है ।
भारतीय राष्ट्रवाद अपने स्वाभाविक भौगोलिक विस्तार, विकसित सांस्कृतिक चेतना, भिन्न-भिन्न दार्शनिक सिद्धांतों की स्वीकार्यता, आध्यात्मिक चिंतन एवं उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों की रक्षा के प्रति सजगता को केन्द्र मान कर स्वाभाविकरूप में विकसित हुआ है । इस राष्ट्रवाद में सत्तालिप्सा का स्वार्थ नहीं अपितु वैचारिक विरोधाभासों के होते हुये भी एक स्वाभाविक जनचेतना है । इसमें अपने जीवनमूल्यों के प्रति स्वाभिमान है, लोककल्याण के प्रति निष्ठा की भावना है और अपनी सांस्कृतिक चेतना के प्रति सम्मान का भाव है ।   
  अमेरिकी और योरोपीय देशों का राष्ट्रवाद राजनीतिक बाध्यताओं से विकसित होने के कारण आलोचकों द्वारा कभी सराहा नहीं जा सका । भारत को वहाँ के राष्ट्रवाद के दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता । वहाँ तो राष्ट्रों का निर्माण ही भौगोलिक और प्राकृतिक आधार पर कम बल्कि सत्तालिप्सा के आधार पर अधिक हुआ है । भारत की प्राकृतिक सीमा रेखायें इसे अद्वितीय बनाती हैं ।    
भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना ने भारत राष्ट्र की अवधारणा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है । दुर्भाग्य से एक ही सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले लोगों में जब व्यक्तिगत स्वार्थों और सत्तालिप्सा के कारण टकराव होता है तो राष्ट्र खण्डित होता है । भारत ने इस विखण्डन की त्रासदी को बारबार भोगा है ।
विश्व के अन्य क्षेत्रों में राष्ट्रों के विघटन और निर्माण में धर्म की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है । यद्यपि भारतीय परम्परा में धार्मिक मूल्यों के प्रति सहिष्णुता और सद्भाव ने भी राष्ट्रवाद के स्वरूप को विकसित किया है तथापि भारतीय उपमहाद्वीप भी धर्म आधारित राष्ट्रनिर्माण की त्रासदी से बच नहीं सका । पाकिस्तान और बांग्लादेश का निर्माण इसका उदाहरण है जिसकी नींव ही धार्मिक असहिष्णुता के कठोर धरातल पर रखी गयी । मध्य एशियायी देशों में राष्ट्रों की सीमायें बनाने और बिगाड़ने में धर्म को साधन बनाया जाता रहा है । वहाँ राष्ट्रवाद की परिभाषा और मर्यादा भारतीय अवधारणा के अनुरूप विकसित नहीं हो सकी ।  
            पश्चिमी विचारकों के एक वर्ग ने तो राष्ट्रवाद को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है । उनकी दृष्टि में राष्ट्रवाद “सत्ता और शोषण को पोषित करने के लिये” गढ़ा गया एक छल है जो जनता को बेवकूफ़ बनाता है । हाँ ! पश्चिमी परिदृष्य में इसमें सत्यता हो सकती है किंतु भारतीय उपमहाद्वीप के परिदृष्य में यह अप्रासंगिक है । जे.एन.यू. में होने वाली परिचर्चाओं और व्याख्यानों में यदि पश्चिमी राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रवाद को एक ही दृष्टि से देखा जायेगा तो यह प्रज्ञापराध ही हो सकता है । कोई भी एकदेशज या एकांगी सिद्धांत सार्वदेशज और व्याप्त नहीं हो सकता ।       
महाद्वीप और राष्ट्र

महाद्वीपों की संरचना राजनीतिक नहीं प्राकृतिक है जिनकी सीमायें समुद्रों और पर्वतों से प्रकृति द्वारा निर्धारित की गयी हैं । आधुनिक युग में भारत एक उपमहाद्वीप के रूप में जाना जाता है किंतु इससे पहले इसकी पहचान एक राष्ट्र के रूप में हुआ करती थी । पश्चिम में राष्ट्र की अवधारणा जो भी रही हो किंतु प्राचीन काल में समुद्र और पर्वतों से सीमांकित एक विशाल भूभाग, जिसकी एक विशेष सांस्कृतिक पहचान थी, विभिन्न रजवाड़ों और उनके पारस्परिक युद्धों के बाद भी एक प्राकृतिक भौगोलिक राष्ट्र के रूप में जाना जाता था । जम्बूद्वीप के आर्यावर्त या भारत के निर्माण में प्राकृतिक भौगोलिक सीमाओं का बहुत बड़ा योगदान रहा है । जहाँ तक संस्कृति और सभ्यता की बात है तो ये वे घटक हैं जो किसी भूभाग में एक बड़े समुदाय द्वारा संस्कारित और विकसित किये जाते हैं । एक ही संस्कृति और सभ्यता वाले समुदाय में पारस्परिक सहयोग और नैकट्य एक स्वाभाविक स्थिति है । सामुदायिक विकास और समृद्धि के लिये यह स्वाभाविक स्थिति न केवल वरदान है बल्कि राष्ट्रीय एकता के लिये भी सहयोगी है । संस्कृति और सभ्यता मनुष्य के वे गुण हैं जिन्हें वह स्वयं विकसित करता है और जिसके विकास में कई युगों का समय अपेक्षित होता है ।
प्राकृतिक सीमाओं से आबद्ध किसी भी राष्ट्र को खण्डित कर पृथक राष्ट्र का निर्माण एक विशुद्ध राजनैतिक आवश्यकता है । इस प्रकार से निर्मित हुये खण्डित राष्ट्र पारस्परिक संघर्षों में उलझकर रह जाते हैं । आर्यावर्त को खण्डित कर बनाये गये नेपाल, भूटान, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश इसके उदाहरण हैं । इन सभी देशों की एक जैसी सांस्कृतिक पहचान भी इन्हें संगठित नहीं रख सकी । आज ये सभी कृत्रिम राष्ट्र पारस्परिक संघर्षों में अपनी शक्ति को ही क्षीण करने में लगे हुये हैं । सत्ता की लिप्सा ने ... केवल सत्ता की लिप्सा ने एक राष्ट्र को खण्ड-खण्ड कर दिया । किंतु संतोष अभी भी नहीं है, कश्मीर, पञ्जाब, बंगाल, असम, केरल, आदि सभी राज्यों को पृथक राष्ट्र बनाने का संघर्ष प्रारम्भ हो चुका है । यह सब लोककल्याण के लिये नहीं वरन सत्ता लिप्सा के लिये है । लोककल्याण के लिये स्वयं को लोक के लिये समर्पित करने की आवश्यकता होती है और इसके लिये किसी नये राष्ट्र की आवश्यकता नहीं होती । क्या भारत को पुनः खण्डित करने की विचारधारा सन् उन्नीस सौ सैंतालीस से पूर्व के भारत को पुनर्जीवित करने करने का स्वप्न देख रही है ? क्या इसके पीछे पुराने रजवाड़ों की छिन्न शक्ति भी अपना कोई खेल रचा रही है ?    
प्राकृतिक संसाधनों पर आधिपत्य के लिये पूरी दुनिया में होते रहने वाले सतत संघर्षों के परिप्रेक्ष्य में भी राष्ट्रवाद को देखा जाना चाहिये । कावेरी, गंगा, सिंधु, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों के जलविवाद को भी घरेलू विवाद मानकर छोड़ा नहीं जा सकता । राजनीतिक लिप्साओं ने लोककल्याण की चिंता की ही कब है ?
और आज, जबकि खण्डित भारतीय उपमहाद्वीप के और भी खण्ड किये जाने की माँग की जा रही है, हमें यह भी विचार करना होगा कि यदि ऐसा हो भी जाय तो क्या प्राकृतिक संसाधनों के बटवारों को लेकर आगे अब और कोई संघर्ष नहीं होंगे ? क्या सभी खण्डित देशों के विकास की दर में वृद्धि होने लगेगी ? क्या सर्वहारा वर्ग अपने लक्ष्य को पा सकेगा ? क्या वर्गभेद समाप्त हो जायेगा ? क्या सत्तायें लोककल्याण के प्रति निष्ठावान हो जायेंगी ? क्या शोषणमुक्त समाज का स्वप्न सच हो जायेगा ? वास्तविकता तो यह है कि तब ये सारे संघर्ष और भी बढ़ जायेंगे । नये राष्ट्रों की शक्ति क्षीण होगी और एक नये प्रकार की अराजक स्थिति का जन्म होगा ।   

तो क्या किया जाय ?

निश्चित् ही वर्तमान व्यवस्था से अराजक तत्वों, ताजनीतिज्ञों और अवसरवादियों के अतिरिक्त कोई संतुष्ट नहीं है । किंतु प्रश्न यह है कि व्यवस्था में सुधार किया जाना चाहिये या व्यवस्था की हत्या कर दी जानी चाहिये ?    
घर का बटवारा क्यों ? इसीलिये न कि अपने हिस्से वाले घर की व्यवस्था अपने अनुसार की जा सके ! किंतु हम मानते हैं कि पृथक राष्ट्र का स्वप्न देखने की अपेक्षा हमें अपने अन्दर की कमियों को दूर करने का प्रयास इसी घर में कर लेना चाहिये । किसी पूर्णत्रुटिविहीन आदर्श राज्य की स्थापना की कल्पना कभी पूरा न होने वाला स्वप्न है किंतु हम आपेक्षिक सुधार के लिये निष्ठापूर्वक प्रयास कर सकते हैं ।
जहाँ तक समाज और उसकी संतुष्टि की बात है तो समाज का हर व्यक्ति किसी भी व्यवस्था से पूर्ण संतुष्ट कभी नहीं हो पाता । मनुष्य समाज का यही इतिहास रहा है । स्थापित व्यवस्था के विरुद्ध नयी व्यवस्था के लिये क्रांति की घटनाओं से विश्व इतिहास भरा पड़ा है । हर क्रांति के बाद आयी नयी व्यवस्था ने ऐसा क्या कुछ नया किया जो उसे स्थायी रख सकने के लिये पर्याप्त हो सका ?
पाकिस्तान और बांग्लादेश ने पृथक होकर अपनी नयी व्यवस्था लागू की । कश्मीर की व्यवस्था पृथक है । क्या ये सभी सुखी राष्ट्र बन गये ? क्या वहाँ का सर्वहारावर्ग संतुष्ट हो गया ? संतुष्ट कौन हुआ ? केवल मुट्ठी भर लोग । सोवियत रूस खण्डित हो गया, सबने अपनी-अपनी व्यवस्था से अपने-अपने देश को चलाने का सपना पूरा कर लिया, किंतु क्या अब वहाँ कोई समस्या नहीं रही ?
एक ओर पृथकदेश का स्वप्न और दूसरी ओर वैश्विकसमाज एवं वैश्विकसंस्कृति का आदर्श ! क्या यह वैचारिक विरोधाभास और सरासर धोखा नहीं है ?

यह निर्णय कौन करेगा कि कौन सही है और गलत कौन ?

हमारे बीच राष्ट्रवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अपनी-अपनी परिभाषायें और सीमायें हैं, जिनमें परस्पर टकराव है । एक पक्ष दूसरे पक्ष के विचार को थोपा हुआ निर्णयात्मक विचार मानता है । सर्वोच्चन्यायालय का निर्णय अन्यायपूर्ण मान लिया गया है । क्या यह एक समानांतर सर्वोच्चन्यायालय की महत्वाकांक्षा की ध्वनि नहीं है ? जब विधि द्वारा स्थापित स्वीकार्यता समाप्त हो जाय और असहिष्णुता ही क्रांति का पर्याय बन जाय तो किसी भी विवाद का निर्णय कौन कर सकेगा ? जब यह पहले से तय हो जाय कि दूसरे का विचार त्रुटिपूर्ण और हमारा ही विचार एकमात्र सत्य और पूर्ण है तब निर्णय कौन करेगा ? कहाँ से वह न्यायाधीश लाया जायेगा जिसका निर्णय दोनो पक्षों को स्वीकार्य हो ? निश्चित ही यह एक अंतहीन विवाद है जो केवल और केवल संघर्ष को ही जन्म दे सकता है ।      

वह क्या है जो किसी राष्ट्र के अस्तित्व के लिये आवश्यक है ? 

वह है सहिष्णुता, समान विचार, समृद्धि के लिये परस्पर सहयोग, सुनिश्चित् सुरक्षा, सद्भाव, समानता और देशप्रेम ।  

वह क्या है जो किसी राष्ट्र को विखण्डित करता है ?


वह है स्वाधीनसत्ता की लिप्सा, भीरुजनता की अवसरवादी उदासीनता और राष्ट्रीय एकता का अभाव । 

शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से कुचला गया राष्ट्रप्रेम


जे.एन.यू. की घटना पर चुप रहना असम्भव हो गया है मेरे लिये ...

क्योंकि अब यह प्रमाणित हो चुका है कि ...

1        जे.एन.यू. में “पाकिस्तान ज़िन्दाबाद”, “तुम कितने अफज़ल मारोगे-हर घर से अफ़ज़ल निकलेगा”, “कश्मीर की आज़ादी लड़ कर लेंगे”, “भारत के टुकड़े हज़ार करेंगे इंशाअल्लाह-इंशाअल्लाह” जैसे नारे निर्भीकतापूर्वक लगाये जा सकते हैं ।
2        युवाशक्ति के एक समूह ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को देशद्रोह के अधिकार के रूप में परिभाषित कर लिया है ।
3        उच्चशिक्षित युवाओं का एक समूह देशभक्ति की अपेक्षा देशद्रोह में अधिक विश्वास रखता है ।
4        हमारी शिक्षा अपने नागरिकों को देशभक्त बनाने में असफल सिद्ध हुयी है ।
5        भारत की राजधानी में देशद्रोही युवा निर्भय हो कर अपने अभियान को क्रियान्वयित करते रह सकते हैं और भारत की सरकार मूक-दर्शक बने रहने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कर सकती ।
6        दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों का एक गठबन्धन भारत की संस्कृति, सभ्यता, गौरव और स्वाभिमान के विरुद्ध एक निरंकुश, निर्भय और अराजक अभियान का सूत्रपात कर चुका है ।
7        भारत के शिक्षित दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों के एक समूह ने अपसंस्कृति और हिंसा को अपना आदर्श घोषित कर दिया है ।
8        जे.एन.यू. के अलगाववादी छात्रनेता एवं अफ़ज़ल गुरु की बरसी के आयोजक उमर ख़ालिद और छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने बड़ी निर्भीकता से भारत के स्वाभिमान और अखण्डता को ललकार दे दी है ।

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9 फ़रवरी को जे.एन.यू. के कवच में घुसे राष्ट्रद्रोहियों को राष्ट्रविरोधी नारे लगाते हुये किसने नहीं देखा ? भारत की अखण्डता और सम्प्रभुता को चुनौती देने वाले ये मात्र चन्द छात्र ही नहीं हैं, निश्चित् तौर पर इनकी शक्ति का केंद्र कहीं और है ।
आज जबकि पूरे देश को एक मंच पर खड़े होकर एक स्वर में उद्घोष करना चाहिये, हम केवल काँव-काँव करने में लगे हुये हैं । इस काँव-काँव ने भारत की गरिमा को कलुषित किया है ।
जे.एन.यू. की घटना से अब यह बिल्कुल प्रमाणित हो गया है कि सीताराम येचुरी, डी. राजा, के.सी.त्यागी, कपिल सिब्बल और राहुल गांधी जैसे लोग वे तत्व हैं जो राष्ट्रविरोधी तत्वों को नेपथ्य से संरक्षण और पोषण देते हैं ... और इसीलिये ये सब हमारी घृणा और निन्दा के पात्र हैं । वे लोग भी हमारी घृणा के पात्र हैं जो राष्ट्रविरोधी और आतंकवादी गतिविधियों का परोक्ष या अपरोक्ष समर्थन कर रहे हैं । भारत में भारत विरोधी गतिविधियों के खुलकर पोषण और समर्थन का ऐसा अद्भुत उदाहरण पूरे विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा । यह भारतीय समाज के पतन की पराकाष्ठा है ।

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राजनेताओं और बुद्धिजीवियों का मत है कि उनका कोई दोष नहीं है ....
-    भले ही उन्होंने क्रूरतापूर्वक बलात्कार किया हो .....  क्योंकि वे नाबालिग हैं,
-       भले ही उन्होंने संसद पर हमला किया हो और भारत की सम्प्रभुता एवं अखण्डता के विरुद्ध षड्यंत्र किया हो ..... क्योंकि वे एक स्वतंत्र देश के नागरिक हैं,
-       भले ही उन्होंने भारत में पाकिस्तान ज़िन्दाबाद के नारे लगाते हुये भारत के झण्डे को सरे आम फूँक दिया हो .... क्योंकि उन्हें अभिव्यक्ति की आज़ादी है ।  

भारत में 1947 के बाद जन्म लेने वाली पीढ़ी यह समझ चुकी है कि इस देश पर विदेशियों के दीर्घ शासन का मुख्य कारण क्या रहा होगा और जे.एन.यू. की घटना पर बहस करने वाले तथाकथित माननीय कितने निर्लज्ज और पापी हैं !  भारत में राजनेताओं का एक बडा वर्ग मानवता का शत्रु और राष्ट्रद्रोही है ।

जे.एन.यू. परिसर में पुलिस कार्यवाही का विरोध प्रारम्भ हो चुका है । हम यह समझ नहीं पा रहे हैं कि शत्रु यदि मन्दिर में घुस गया हो, चाहे वह देवी का मन्दिर हो या शिक्षा का, तो कार्यवाही के लिये किसी वी.सी. या पुजारी से अनुमति लेने की आवश्यकता क्यों होनी चाहिये ?

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विगत कुछ वर्षों में यह बात प्रमाणित हुयी है कि भारत का विपक्ष अपने राजनैतिक धर्म से शून्य है ...
एक आदर्श लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष दोनो की भूमिका, उत्तरदायित्व और राजनैतिक धर्म का एक ही उद्देश्य होता है और वह है लोक-कल्याण । सत्तापक्ष जब भी भटकता हुआ प्रतीत हो तो विपक्ष की भूमिका सुधारात्मक होना चाहिये, विपक्ष का यही राजनैतिक धर्म है । भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी दुर्बलता सत्तापक्ष में असामाजिक तत्वों की भरमार और विपक्ष का अधार्मिक होना है । सत्तापक्ष कोई भी क्यों न रहा हो वह असामाजिक तत्वों के मोह से स्वयं को मुक्त करने में असफल रहा है । एक समय था जब भारत का विपक्ष सशक्त, समर्थ और सुधारात्मक दिशा में सहयोगी हुआ करता था, दुर्भाग्य से वर्तमान में विपक्ष के अस्तित्व का एक मात्र उद्देश्य हठपूर्ण अवरोध उत्पन्न करते हुये एक विषाक्त वातावरण निर्मित करना एवं हर बिन्दु पर निकृष्टतम टकराव करना ही हो गया है । सत्ता की महत्वाकांक्षा ने उसके राजनैतिक चरित्र की हत्या कर दी है । राष्ट्रद्रोह, आतंक और यौनक्रूरता जैसे जघन्य अपराधों के समर्थन में राजनैतिक दलों के वक्तव्यों ने पूरे विश्व में भारत की छवि पर कालिख पोतने का काम किया है । वर्तमान भारत की राजनैतिक दिशा विघटनात्मक हो गयी है । तंत्र जब भटक कर विफल होने लगे तो लोक को अपनी भूमिका के निर्वहन के लिये आगे आना ही चाहिये । रचनात्मक और सुधारात्मक दिशा में अपनी महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका के लिये हम भारत की युवाशक्ति का आह्वान करते हैं ।

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क्या पारदर्शिता के लिये निर्वस्त्र होकर घूमना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अतिवाद नहीं है ? यदि हम अपने ही बनाये सिद्धांतों के साथ अमर्यादित व्यवहार करेंगे तो यह सिद्धांतों के साथ बलात्कार होगा और कोई भी सभ्य समाज इसकी अनुमति नहीं दे सकता ।
तामसी व्यक्ति गहन समालोचना और छिद्रान्वेषण के बीच की विभाजक रेखा को समझ पाने में असमर्थ होते हैं इसलिये क्रिटिक की अनुमति हर किसी को नहीं दी जानी चाहिये । हम सब भारतीय नागरिक हैं और उतने ही स्वतंत्र हैं जितने कि सेना के सर्वोच्च अधिकारी और राष्ट्रपति किंतु क्या हम एटम बम की चाबी किसी भी नागरिक को दे देंगे ? हम अपने घर की चाबी भी हर किसी को नहीं दे दिया करते । यहाँ प्रश्न संदेह का नहीं अपितु पात्रता का है ।
आज जो प्रोफ़ेसर, छात्रनेता और राजनेता ज.ला.ने.वि.वि. की सांस्कृतिक विशेषताओं में क्रिटिक की प्रमुखता का उल्लेख करते हुये 9 फ़रवरी 2016 की घटना पर की जाने वाली विधिक कार्यवाही का विरोध कर रहे हैं वे वस्तुतः बौद्धिक अतिवाद के शिकार हैं । ये लोग किसी भी समाज और देश के लिये न केवल कलंक बल्कि गम्भीर संकट भी हैं ।
लोकतंत्र का अर्थ यदि सड़क पर नंगे होकर नाचने का अधिकार है तो किसी भी सभ्य समाज को लोकतंत्र की आवश्यकता नहीं है । ऐसे लोकतंत्र की आवश्यकता केवल उन्हें ही है जो अपराधी हैं । आख़िर भ्रष्टाचार, चोरी, डकैती, बलात्कार, हत्या और वैश्यावृत्ति जैसी आपराधिक घटनायें भी लोकतांत्रिक देशों में होती ही हैं, यह उनकी जीवनशैली है जिसे उन्होंने अपने लिये चुना है किंतु क्या यह सब समाज द्वारा स्वीकार्य और विधिसम्मत भी है ?
ज.ला.ने.वि.वि. के छात्रों को यह समझने की आवश्यकता है कि ज्ञान हमें तमस से प्रकाश की ओर ले जाने का माध्यम है, तमस से कृष्ण विवर की ओर ले जाने का नहीं ।
भारतीय ज्ञान परम्परा में सम्भाषा का महत्वपूर्ण स्थान रहा है । तर्कपूर्ण सम्भाषा पद्धति में जब व्यक्तिगत अहंकार और स्वार्थों के कारण कुतर्क का प्रवेश हुआ तो सम्भाषा के दो प्रकार हो गये, एक को तद्विद्सम्भाषा और दूसरे को विग्रह्य सम्भाषा कहा गया । महर्षियों द्वारा तद्विद्सम्भाषा ग्राह्य हुयी और विग्रह्य सम्भाषा को निकृष्ट माना गया । विग्रह्य सम्भाषा का सिद्धांत है “न श्रुणुतव्यं न मन्तव्यं वक्तव्यं तु पुनः पुनः” । ज.ला.ने.वि.वि. के सन्दर्भ आजकल यही हो रहा है जो अत्यंत खेदजनक और दुर्भाग्यपूर्ण है ।

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जनता यदि जागरूक और सत्यनिष्ठ न हो तो सत्ताओं के निरंकुश होने की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं फिर चाहे वह राजतंत्र हो या गणतांत्रिक लोकतंत्र । निरंकुश राजतंत्र जहाँ अधिनायक तंत्र में रूपांतरित हो सकता है वहीं निरंकुश और अनुशासनहीन लोकतंत्र के अराजक कबीलातंत्र में रूपांतरित हो सकने की प्रबल सम्भावनायें होती हैं ।

भारतीय जनता स्वतंत्रता के महत्व को समझ नहीं सकी, आज भी नहीं समझ पा रही है इसीलिये स्वाधीनता संग्राम के समाप्त होते ही स्वार्थी तत्वों ने भी सत्ता में अपनी पहुँच बना ली । स्वातंत्र्योत्तर भारत में व्यक्तिगत विकास और स्वार्थपूर्ण प्रतिस्पर्धाओं में खोयी जनता ने अराजक और आपराधिक चरित्र वाले लोगों को सत्ता तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त किया । आज सभी राजनैतिक दलों में अपराधियों और असामाजिक तत्वों की भरमार है और जनता ऐसे लोगों से शांति, समृद्धि और न्याय की आशा लगाये बैठी है । शायद यह दुनिया का एक और अद्भुत आश्चर्य है ।

भारत में वामपंथ एक अद्भुत् छल है । सांस्कृतिक विरासत, वैदिक साहित्य, संस्कृत भाषा .. और वह सब कुछ जिस पर भारत को गर्व है, और जो विश्व में भारत की विशिष्ट पहचान का कारण है, वामपंथियों के निशाने पर रहा है । वे एक ऐसी अद्भुत वैश्विक संस्कृति भारत में लाना चाहते हैं जिसकी भारतीय समाज को न तो कोई आवश्यकता है और न उपयुक्तता । यह वैश्विक संस्कृति चीन, और रूस में धराशायी हो चुकी है । इनके विकास की परिभाषा में तोड़-फोड़, हिंसा और विनाश का आदर्श सन्निहित है ।
माओवाद और वे तमाम उग्रवाद जो भारत के विभिन्न प्रांतों में कई नाम और रूपों में मुँह पर नकाब लगाकर जनवाद के नारों के साथ प्रकट हो रहे हैं, भारत की जनता को उनसे सावधान रहने की आवश्यकता है ।

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यह क्या हो रहा है ?
वकील भी यदि इसी तरह कानून को अपने हाथ में लेने लगेंगे तो एक भयानक अराजक स्थिति निर्मित हो जायेगी । उत्तरप्रदेश हो या दिल्ली वकीलों द्वारा ऐसी हिंसक घटनाओं की पुनरावृत्ति होती जा रही है जो चिंता का विषय है ।
टीचर्स एसोसियेशन एवं छात्रसंघ जिस तरह जे.एन.यू. की घटना पर दोषियों के समर्थन में उतर रहे हैं वह एक गम्भीर अराजकता का द्योतक है । इससे कम से कम एक बात तो प्रमाणित हो ही गयी है कि जे.एन.यू. में हुयी राष्ट्रद्रोही घटना में केवल कुछ लोग ही नहीं बल्कि कई समुदाय सम्मिलित हैं जिनमें शिक्षकों की सहभागिता को हम जघन्य मानते हैं । शिक्षक का दायित्व मार्गदर्शक का होता है, भारतीय जनमानस में शिक्षक का स्थान ईश्वर से भी बड़ा है । जे.एन.यू. के टीचर्स एसोसिएशन ने इस गरिमामयी स्थान को अपवित्र कर दिया है जिसके लिये कम से कम हम तो उन्हें कभी क्षमा नहीं कर सकते ।

मुझे नहीं पता था कि मणिशंकर अय्यर जब छात्र थे तो भारत-चीन युद्ध में उन्होंने चीन के लिये चन्दा इकट्ठा किया था । मणिशंकर के अनुसार चीन ने भारत पर नहीं बल्कि भारत ने चीन पर हमला किया था । और मणिशंकर उस समय माओ के आदर्शवाद से बुरी तरह ग्रस्त थे । 
भारत में भारत के शत्रु आज अचानक नहीं पैदा हो गये, बौद्धिक अतिसार की यह एक दीर्घकालीन  परम्परा रही है ।

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अब वह वीडियो भी सामने आ गया है जिसमें जाधवपुर विश्वविद्यालय के छात्रों ने जे.एन.यू. के राष्ट्रविरोधी छात्रों के समर्थन में उसी तरह के नारे लगाये हैं । जाधवपुर विश्वविद्यालय के छात्रों ने सड़क पर बाकायदा मार्च निकालते हुये नारे लगाये । देश के भीतर क्या चल रहा है यह अब स्पष्ट हो चुका है ।

बीज बोये जा चुके हैं राजनैतिक अस्पर्श्यता के ...
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के साथ भारत में अछूत जैसा व्यवहार किया जा रहा है । वे अछूत हो सकते हैं ..... किंतु क्या इसीलिये उन्हें न्यायसंगत बात कहने और अन्याय का विरोध करने का कोई अधिकार नहीं रहा ?
जे.एन.यू. काण्ड के समर्थन में सभी विपक्षी राजनैतिक पार्टियों का एक सुर में उठ कर खड़े हो जाना यह प्रमाणित करता है कि देश में वैचारिक अस्पर्श्यता और असहिष्णुता का एक युग प्रारम्भ हो गया है । भारत की नयी राजधानी में हुये तूफ़ान के समर्थन में पुरानी राजधानी उठ कर खड़ी हो गयी है । यह मासूमों का खेल नहीं शातिरों का अभियान है । इस अभियान को अभी तक केवल टाटा ने ही पहचाना है, और टाटा ने इसके विरोध में अपने स्तर से आवश्यक कार्यवाही भी कर दी है । हम भारत में बसे ईरानी मूल के सभी राष्ट्रवादी लोगों के ऋणी हैं जो भारत पर आयी संकट की इस घड़ी में सबसे पहले भारत के साथ उठ कर खड़े हो गये हैं । इस समय तो ऐसा लग रहा है कि केवल ईरानीमूल के भारतीय नगरिक ही भारत के लिये चिंतित हैं शेष भारत को किसी तूफ़ान से कोई प्रयोजन नहीं है ।

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जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 9 फ़रवरी 2016 को लगाये गये नारों ने जो इतिहास रचा है वह स्वतंत्र भारत के इतिहास का एक ज़हरबुझा नेज़ा है जो अगले हज़ारों वर्ष तक भारतीयों के हृदय को भेदता रहेगा ...
1-    भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह ।
2-    कश्मीर की आज़ादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी ।
3-    भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी ।
4-    गो इण्डिया गो बैक ।
5-    हम क्या चाहें, आज़ादी । छीन के लेंगे, आज़ादी । हिन्दुस्तान मुर्दाबाद !
6-    अफ़ज़ल हम शर्मिन्दा हैं, तेरे क़ातिल ज़िन्दा हैं ।
7-    तुम कितने अफ़ज़ल मारोगे, हर घर से अफ़ज़ल निकलेगा ।
8-    मोदी सुन ले आज़ादी ! तोगड़िया सुन ले आज़ादी ! भारत की होगी बर्बादी ! हिन्दुस्तान मुर्दाबाद ! पाकिस्तान ज़िन्दाबाद !
9-    अफ़ज़ल तेरे ख़ून से इंकलाब आयेगा ।  

और अब देश का उच्चशिक्षित वर्ग भी देशविरोधी नारे लगाने वालों के समर्थन में खड़ा हो गया है ... हम अब भी ख़ामोश हैं, इसलिये नहीं  कि हम सहनशील हैं बल्कि इसलिये कि हम डरपोक और स्वाभिमानशून्य हैं । दिल्ली के बाद कोलकाता, बेगूसराय और अब चेन्नई .... क्या भारत का राष्ट्रवाद बिखर रहा है ?

आग के साथ चक्रवात ! क्या एक बार फिर वैशाली की कहानी दोहरायी जा रही है ?
रविश कुमार ने एक प्रश्न उठाया है कि हमें हमारी आवश्यकता तय करनी होगी – देशभक्ति या राष्ट्रवाद ?
इस प्रश्न की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिये । किंतु पश्चिमी राष्ट्रवाद के उलझाऊ झमेले में पड़ने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि ज़ॉन स्ट्रेची का भारत के बारे में क्या विचार है -  Sir John Strachey remarks - "This is the first and most essential thing to learn about India-that there is not and never was an India, or even any country of India, possessing, according to European ideas, any sort of unity, physical, political, social, or religious ; no Indian nation, no `people of India' of which we hear so much.
किंतु क्या सचमुच ये तथ्य सही हैं ? देखिये ...
In fact, India is a physical unit, much more distinct than any other country in Europe or America. When we study the history of India, from the ancient Vedic period to modern times, we find again the whole of the Indian peninsula, from Bengal to Gujrat, and from Ceylon to Kashmir, mentioned always as one motherland. "The early Vedic literature contains hymns addressed to the Motherland of India. The epic poems speak of the whole of BHARAT as the home-land of Aryans." We hear nowhere any account of separate nationalities within the country. The literature of India is full of thoughts about Indian nationality; but there is no mention of separate Bengal, Madras, Gujrat, or Punjab nations, based upon geographic divisions. Powerful emperors in ancient as well as modern times have ruled over the entire peninsula in peace and security. "In fact, the belief in the unity of India was so strong in ancient times that no ruler considered his territories complete until he had acquired control over the entire peninsula."

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नहीं रहा देश भारतीयों का, नहीं रहे राम और कृष्ण भारतीयों के ....
देश के भीतर हर चीज का बंटवारा हो चुका है । राम और कृष्ण अब भारतीयों के नहीं रहे केवल भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रह गये हैं इसलिये शेष भारतीयों को राम और कृष्ण की चिंता करने की आवश्यकता नहीं ।
गाँधी केवल कॉंग्रेस के रह गये हैं इसलिये गाँधी पर चिंतन का अधिकार केवल कॉंग्रेस के पास है ।
राष्ट्रद्रोहियों का विरोध करने की पहल अभाविप ने की है इसलिये शेष भारत को राष्ट्रद्रोहियों का समर्थन करने का अधिकार मिल गया है ।
पतन की यह कैसी पराकाष्ठा है कि हम एक दूसरे का विरोध सिर्फ़ इसलिये करते हैं कि कोई बात उसने नहीं बल्कि दूसरे ने कही है । हमें इस बात से कोई प्रयोजन नहीं होता कि कही हुयी बात का अर्थ और उद्देश्य क्या है । यदि अभाविप ने कह दिया कि सड़क को साफ रखना है तो भारत के शेष सभी लोग सड़क पर सिर्फ़ इसलिये हगना शुरू कर देंगे क्योंकि यह एक अछूत संगठन ने कहा है । इसका अर्थ यह भी हुआ कि यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ब्रह्मचर्य की बात करेगा तो शेष लोग वैश्यावृत्ति की बात करेंगे ।
अभाविप, राष्ट्रीयस्वयंसेवकसंघ और भाजपा को अस्पर्श्य मानकर उसे मानवता का शत्रु घोषित कर दिया गया है । हम मानते हैं कि कोई भी संगठन इतना बुरा नहीं हो सकता यहाँ तक कि वामपंथ भी नहीं । इसी तरह कोई भी संगठन पूर्ण आदर्श और इतना अच्छा भी नहीं हो सकता कि उसका अन्धानुकरण किया जाय । हमने वैचारिक गुणवत्ता और लोककल्याण के उद्देश्यों का परित्याग कर दिया है और केवल कथन के भौतिक कलेवर में उलझे हुये हैं । और न केवल उलझे हुये हैं बल्कि सुलझने के लिये तैयार भी नहीं हैं । राष्ट्रवाद और लोककल्याण हमारे घृणित स्वार्थों के बीच कहीं गहरायी में दफ़न हो चुके हैं ।
यह वैचारिक शत्रुता भारत को एक बार फिर औपनिवेशिक पराधीनता की ओर ढकेलने वाली है ।

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शायद हम विषयांतर की वंचना के साथ संदर्भ की उपेक्षा कर रहे हैं ...
अफ़ज़ल की फाँसी को शहादत से महिमामण्डित करने का उद्देश्य यदि राष्ट्रवाद की अवधारणा का विरोध है तो विरोध प्रदर्शन का जो तरीका था उसे विरोध नहीं बगावत कहा जायेगा । विरोध और बगावत में फ़र्क समझा जाना चाहिये । जब हम विरोध करते हैं तो स्थापित का खण्डन कर एक दूसरे विचार को प्रस्तुत करते हैं, यहाँ ज़िद नहीं होती विचार होता है । किंतु जब हम बगावत करते हैं तो अपने विचार की ज़िद होती है जो स्थापित को बदलने के लिये किसी भी सीमा तक जा सकती है । जे.एन.यू. में जो हुआ वह बगावत है, विरोध नहीं ।   
नेशनलिज़्म और पैट्रियटिज़्म में फ़र्क करके हम विषय को और भी विवादास्पद बना रहे हैं ।

जे.एन.यू. में जो भी हुआ उसे हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अमर्यादित प्रयोग कहना चाहेंगे । उसका जो धुआँ कोलकाता, पटना और चेन्नई में देखने को मिल रहा है वह नेशनलिज़्म पर उंगली उठा रहा है । शायद ये सभी लोग ज़ॉन स्ट्रेची की अवधारणा को लेकर चलना चाहते हैं । किंतु जैसा कि लोग चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं, जे.एन.यू. क्रिटिक्स की संस्कृति का पोषण करती है, हम उन्हें एक स्वस्थ्य समालोचना के लिये आमंत्रित करते हैं । किंतु शर्त यह है कि वे पहले पूर्वाग्रहों से मुक्त हों । प्रीज़्यूडिस और क्रिटिक्स एक साथ नहीं चल सकते ।

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भारत में ब्रिटिशराज से पहले, भारतीय राजा और सुल्तान आपस में लड़ते रहते थे । और इससे भी पहले जब मुस्लिम शासक भारत में अपनी जड़ें जमा रहे थे तो उस समय भारतीय रजवाड़ों में पारस्परिक वैमनस्य और शत्रुता का वातावरण था ...ठीक आज की तरह । आज भी हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा । सभी राजनीतिक दल एक दूसरे के घोर शत्रु हैं, छात्र आपस में बंटे हुये हैं, साहित्यकार आपस में शत्रु हैं, बुद्धिजीवियों में मत वैषम्य है, और अब वकील भी इसमें सम्मिलित हो गये हैं । एकता के दर्शन कहीं भी नहीं होते । जिस समाज में इतनी पारस्परिक शत्रुता हो वहाँ किसी नेशनलिज़्म और पैट्रियाटिज़्म की कल्पना भी कैसे की जा सकती है ?

भारत में बौद्धिक प्रदूषण बढ़ गया है, देखिये कुछ उदाहरण –
१.    आप प्रोटीन के लिये दाल खाने की बात करते हैं जबकि प्रोटीन तो रोटी में भी पाया जाता है । दाल के पक्ष में बात करना सिलेक्टिव है इसलिये हम दाल का बहिष्कार करेंगे ।
२.    समलैंगिक सम्बन्धों से एड्स फैलने के ख़तरे कम नहीं होते किंतु गे-गीरी हमारा मौलिक अधिकार है हम उसे छीन कर रहेंगे । भले ही सोडोमी की लत से हम एड्स के शिकार क्यों न हो जायें किंतु हम इसकी कीमत अपनी जान देकर भी चुकायेंगे ।
३.    तिरंगा हमारे दिल में है, उसे दिल से निकालकर बाहर लाने के लिये हमें हार्ट सर्जरी करानी पड़ेगी जिसके लिये हमारे पास पैसे नहीं हैं । इसलिये हम तिरंगे का बहिष्कार करेंगे ।
४.    हम मानते हैं कि जे.एन.यू. में जो नारे लगाये गये वे गलत थे, हम उनकी निन्दा करते हैं किंतु हम अभिव्यक्ति की आज़ादी के हनन की भी निन्दा करते हैं । छात्रों ने जो किया वह उनका अधिकार था ।
५.    देश विरोधी नारे लगाने वालों के ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी कार्यवाही होनी चाहिये किंतु उमर ख़ालिद और नौ अन्य लोगों के ख़िलाफ़ कार्यवाही करना भगवाकरण की साज़िश है और छात्रों के साथ अन्याय है ।
६.    हम मानते हैं कि उमर ख़ालिद ने देशविरोधी कार्यवाही में हिस्सा लिया और उसके लिये उसे कानून के मुताबिक सज़ा दी जानी चाहिये किंतु यह भी ध्यान रखे जाने की आवश्यकता है कि वह एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय का प्रतिष्ठित छात्र है उसके पीछे पुलिस को लगा देना ग़ैरकानूनी है ।
७.    हम मानते हैं कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता किंतु उमर ख़ालिद को सिर्फ़ इसलिये टार्गेट किया जा रहा है क्योंकि वह मुसलमान है ।
८.    हमें भारत के संविधान में भरोसा है किंतु संविधान पर टिप्पणी करना हमारा मौलिक अधिकार है ।
९.    भारत विरोधी नारे लगाना अपराध है किंतु इस देश के हज़ार टुकड़े करना और इसे बर्बाद करने के लिये ज़ंग करना हमारा प्राकृतिक अधिकार है ।

इतना सब ज्ञान प्राप्त करने के बाद मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि भारत के एक बड़े बुद्धिजीवी वर्ग ने पकिस्तानी नेताओं की भाषा और संस्कृति को पूरे सम्मान के साथ अपना लिया है । और हम ऐसे बुद्धिजीवियों को मृत्युपर्यंत कारागार में डालने के पक्ष में हैं ।
भारत में बहुत बौद्धिक कचरा जमा हो गया, इसके गम्भीर प्रदूषण से हमारा जीना मुश्किल होता जा रहा है
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लेकिन सौ टके की बात तो यह है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है जो सर्वथा नया हो । बस इतिहास ने ख़ुद को दोहराया भर ही तो है ।
चंगेज़ ख़ान और तैमूर लंग यहाँ श्रीमद्भग्वद्गीता पर प्रवचन करने नहीं आये थे । बाबर ने यहाँ आकर सत्यनारायण की कथा का पारायण नहीं किया था । आम्भिदेव जैसे अवसरवादियों के शिथिल चरित्र और जयचन्द जैसे देशद्रोहियों की लिप्सा के दुष्परिणामों को इस देश ने अंतिम बार ही नहीं भोगा है ... यह तो हमारी दूषित परम्परा का एक स्थायी भाव बन चुका है ।
          कल्पना कीजिये कि हम चंगेज़ ख़ान के युग में हैं और पाकिस्तानी आतंकी बारबार हमारे ऊपर आक्रमण कर हमारी हत्यायें करके या हमारी फसलें जला कर भाग जाते हैं । हम बाबर के युग में हैं और कुछ गुण्डों द्वारा मन्दिरों को तोड़ा और लूटा जा रहा है । हम जयचन्द के युग में हैं और कोई कन्हैया पठानकोट एयरबेस पर आक्रमण करने के लिये कुछ आतंकियों को पाकिस्तान से आमंत्रित करता है ..... यहाँ नेशनलिज़्म और पैट्रियटिज़्म की बात का कोई अर्थ नहीं है । धरती पर शक्ति और सत्ता के लिये लोग हर तरह का पाप करते रहे हैं । पाप करने के लिये कोई एक या दो लोग अधिकृत नहीं हैं, यह एक खुली प्रतिस्पर्धा है जिसके लिये हर व्यक्ति स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता चाहता है । इसी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति है जे.एन.यू. की घटना ।
चंगेज़ ख़ान, तैमूर लंग, बाबर, आम्भिदेव और जयचन्द आदि ने अपने कृत्यों में कभी कोई दोष नहीं देखा । उसी परम्परा में यदि गिलानी, उमर ख़ालिद और कन्हैया जैसे लोग अपने कृत्यों में कोई दोष नहीं देख पाते तो इसमें आश्चर्य की क्या बात !
दूसरा पक्ष यह भी है कि पाप और अपाप के लिये हमारी स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ होती हैं । हमारा झुकाव पाप की ओर भी होता है और अपाप एवं पुण्य की ओर भी । इसी तरह पाप और पुण्य के प्रति अपने-अपने दृष्टिकोणों के कारण इनके पक्ष और विपक्ष भी सदा से रहे हैं और इसी कारण इनमें आपसी संघर्ष भी आज तक समाप्त नहीं हो सके ।  

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

बस्तर

कुछ पके तेंदू लिये एक मोटियारिन सा ये बस्तर
कुसुम थामे व्यग्र सा कुछ खोजता चेलक ये बस्तर ।
शाल वन के द्वीप में बन्दी बना भोला ये बस्तर
नेहवश जलता रहा काजल बना पागल ये बस्तर ।

चार की नव कोपलों से झाँकता रहता ये बस्तर
बास्ता से बात कर महुवा से मिलता था ये बस्तर ।
खिलखिलाते घोटुलों में गीत गाता था ये बस्तर
लग गयी किसकी नज़र अब जल रहा धू-धू ये बस्तर ।

कट रहे वन झुलसते तन अब हो रहा बंजर ये बस्तर
गीत गाती अब न मैना, सहमा डरा रहता ये बस्तर ।
कौन विकसित हो रहा, बस पूछता रहता ये बस्तर
अब छोड़ दो हमको हमारे हाल पर कहता ये बस्तर ।  

तेंदू = एक फल ; मोटियारिन = युवती ;
कुसुम = एक खट्टा-मीठा फल ; चेलक = युवक
चार = चिरौंजी ; बास्ता = बांस का नवांकुर ;

घोटुल = किशोरशाला